Friday, May 11, 2007

फुरसतिया, उनका उबटनिआया लैपटॉप...और कानपुर

7-8 की मध्‍यरात्रि हम वाकई कानपुर के लिए बमुश्किल मिले आरक्षण के साथ कथित पटना स्‍पेशल के कोच ए.एस-1 में सवार हुए और फुरसतिया के शहर की ओर रवाना हुए। ये हमें जानने वाले हर शख्‍स के लिए हैरान करने वाली घटना थी खुद हम भी नहीं जानते कि हमें क्‍या हुआ था। कारण साफ है हम एक घोर असामाजिक किस्‍म के प्राणी हैं, पिछले तेरह साल के विवाहित जीवन में हमने कुल जमा चार पॉंच से अधिक विवाह समारोह से अधिक में हिस्‍सा नहीं लिया है और शहर से बाहर तो आज तक किसी विवाह में सम्मिलित होने नहीं गए थे। हालत ये कि कानपुर में हमारे एकमात्र परिचित हमारे अंकल को ये बताना पड़ा कि किसी आधिकारिक काम से आए हैं क्‍योंकि पिछले ही वर्ष उनकी बेटी के विवाह में भी परिवार का प्रतिनिधित्‍व हमारे माता-पिता ने किया था, हमने नहीं।
उस एसी कोच के शांत वातावरण में अपने इस कायांतरण पर विचार करने का पर्याप्‍त अवसर था और हमारा निष्‍कर्ष था कि ये चिट्ठाकारी असामाजिक लोगों में भी सामाजिकता का संचार करने की काबिलियत रखने वाली चीज है। खैर रात कुछ तो युवा डाक्‍टर सहयात्री की अपनी गर्लफ्रेंड से चर्चा को सुनकर या अन्‍य युवा साफ्टवेयर इंजीनियर के साथ गूगल बनाम माइक्रोसॉफ्ट पर हलकी फुलकी चर्चा से कटी और शेष सोकर। सुबह हम कानपुर में थे।

शहर हमारा अध्‍ययन और रूचि का क्षेत्र है, एक मित्र ने पिछले साल कानपुर को मृत औद्योगिक शहर के रूप में परिभाषित किया था, हम भी इसे और प्रत्‍यक्ष अनुभव करना चाहते थे ताकि इस राय के पक्ष या विपक्ष में खड़े हो सकें। आयुध निर्माणिनी के रास्‍ते में ही हमारी राय बनने लगी थी कि वाकई एक औद्योगिक शहर के रूप में यौवन इस शहर का बचा नहीं है...झुर्रियॉं हैं जो न केवल अतीत की चुगली करती हैं वरन ये भी कहती सी लगती हैं कि ये सब ऐतिहासिक अचानकता से हुआ है...कल तक ये था आज ये ...ये हो गया है।
खैर हमने एक SMS से अनूपजी को अपने पहुँच जाने की सूचना दी, अपना सामान अपने परिचितों के यहॉं पटका और स्‍नानादि के बाद शहर की ओर रवाना हुए जहॉं हमारी विशेष इच्‍छा वही थी जो किसी भी शहर के मामले में होती है, यानि वहॉं के ‘अड्डों’ तक पहुँचने की कोशिश कर शहर के मिजाज को समझने की कोशिश करना। लेकिन हम इस इरादे में सफल हो सकें तभी अनूपजी का फोन आया कि भई आने की सूचना से ज्‍वाईनिंग नहीं मानी जाती बताइए कहॉं हैं लेने आते हैं, वे इससे पहले ही घर पर फोन कर चुके थे, खैर हमने शहर का इरादा टाला और वापस अनूपजी से मिलने के लिए लौट चले।
अब अनूपजी एक बड़े अफसर हैं और ये प्रभाव उनके ऐस्‍टेट में लगातर अनुभव होता है, हम कुछ सकुचा से गए थे, लेकिन ये उनसे मिलने भर तक था, मिलना ऐसा तो नहीं हुआ जैसे पहली बार मिल रहे हों क्‍योंकि अक्‍सर नेट पर तो भेंट हो ही जाती है। वे बड़े उत्‍साह से मिले और परिवार के लोगों से परिचय करवाया हमने स्‍वाति को खुभकामनाएं दी...और लीजिए ब्‍लॉगर मीट बाकायदा शुरू हुई।





अनूपजी लगभग भूल ही गए कि वे उसी दिन शाम को आयोजित विवाह समारोह के मेजबान हैं और उनके जिम्‍मे हजारों काम हैं..वे तो बस किलकते चिट्ठाकार बन चुके थे....ये ओर वो और वो बीच बीच में भोजन, मिठाई, इस काम के निर्देश उसे, उस काम के निर्देश इसे दिए जाते रहे। तभी आया किस्‍सा उबटनिआए लैपटॉप का... जी आनुष्‍ठानिक पूर्तियों में बेचारे लैपटॉप को ही उबटन से अभिसिक्‍त कर दिया गया था। हमें ये बेहद चिट्ठोपयोगी प्रकरण लगा, अनूपजी ने झट से अपने साहबजादे को बुलाकर उस लैपटॉप की तस्‍वीर खींचने की हिदायत दी लेकिन अफसोस उसे पहले ही साफ कर दिया गया था।
खैर हमारी ब्‍लॉगर मीट जारी थी, हमें वह गुलमोहर दिखाया गया और उसके विषय में बताया गया जो उनकी चर्चित पोस्‍ट का आधार बना था। ऐसी ही और चीजें और व्‍यक्ति भी मिले या उनपर चर्चा हुई जो उनके चिट्ठा-लेखन का आधार बनते रहे हैं। और यहॉं अब मुझे फुरसतियात्‍व से साक्षात्‍कार हो रहा था जिसे जानने मैं वहाँ पहुँचा था। वे मानते हैं कि चिट्ठाकारी सहज स्‍वाभाविक लेखन है जितना स्‍वाभाविक व निजी अनुभव से जुड़ा होगा उतना बेहतर। ये इतनी ढेर सी बातें हम फुरसत से कर रहे थे जबकि उन्‍हें कुछ घंटों में कन्‍यादान की जिम्‍मेदारी निबाहनी थी- फुरसत इस शख्‍स की शख्सियत में है। कोई तनाव नहीं, हड़बड़ाहट नहीं बस मौज ही मौज।
अगले बीसेक घंटे में मैनें चिट्ठाकारी के इतने पाठ सीखे जितने दो वर्षों की चिट्ठाकारी में नहीं सीखे हैं। उन पाठों को बांटते रहेंगे आपसे...और राजीव टंडनजी से मुलाकात, ढेर सारी बातें...कुछ ऐसी कि हम बस उनके मुरीद ही हो गए हैं, इनपर भी चर्चा की जाऐगी।

फिलहाल के लिए इतना ही...
और हाँ काकेश ने कई कनपुरिया अड्डों की ओर इशारा किया पर अफसोस हमें वे नहीं मिले...हम तो बहुत उम्‍मीद के साथ कानपुर प्रैस क्‍लब में भी घुसे लेकिन ठीक तब जबकि शाम गुलजार थी वहॉं कई मुए पत्रकार बाकायदा सो रहे थे। क्‍या कहें..

9 comments:

  1. भाई वाह, आनंद आ गया फुरसतिया महाराज से आपकी भेंटवार्ता का हाल जानकर। आशा है कि बाकी तत्व जो इस मेल में छूटे हैं उनको भी शीघ्र लिखा जाएगा।

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  2. हमें भी अपने अनुभवों में शामिल करने के लिए धन्यवाद । अच्छा लगा पढ़कर ।
    घुघूती बासूती

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  3. वाह रुचिकर रहा इस ब्लॉगर भेंटवार्ता का विवरण। फुरसतिया जी से मिल आए, उम्मीद है उनके हिस्से की कुछ फुरसत आप में आ गई होगी और आपकी अगली पोस्टों में दिखेगी।

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  4. चलो, यह बढ़िया मुलाकात रही. फुरसतिया जी से पिछले वर्ष हुई मुलाकात आज भी ताजा है.

    आपके संस्मरण और आगे बढ़ाये जायें-लिखें, इन्तजार रहेगा.

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  5. अच्छा है . पर आप उन अड्डों पर नही गये जो हमने बताये थे. कोई बात नहीं अगली बार चले जाइयेगा . वैसे आगे भी इस तरह का रस मिलता रहेगा ऎसी आशा है.

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  6. हम तो आपका यह पढ़कर जल्लूखोरा बने जारहे हैं
    भूल मत जाईये, जो मिठाई आप लाये हैं, इसमे हमारा भी साझा है.

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  7. भाई पर मिठाई कहा है जो लाये हो उसका जिक्र भी भूल गये अपले वो बाकी बाद मे ,हमे फ़ुरस्तिया जी बताये है कि हमारी मिठाई आप के द्वारा भेजे है

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  8. जब से ये महाराज कानपुर से लौटे हैं हम फुनवा पर पूछ रहे हैं -क्या हुआ था ,क्या क्या देखा, क्या क्या खाया , किस किस से मिले - पर ये जनाब तो अपना लड्डू अपने हाथ रखे चुपचाप खाए जा रहे थे । अब मालूम हुआ मिटःआई पर नीयत खराब की सो अलग यहाँ तो पोस्ट तैयार हो रही थी ।हम अपने हिस्से की मठाई का तकाज़ा करते हैं । आप वैसे भी मिठाई के बहुत प्रसिद्ध चोर हो जी !

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  9. Anonymous10:13 AM

    ब्लोगर भेंटवार्ता बहुत सुखद होती है, अपना अनुभव तो यही कहता है.
    विवरण पढ़ कर मजा आया.

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