ये पोस्ट हमारी 'संडे यूँ ही' के रूप में पढ़ी जाए
खेल पसंद करते रहे हैं पर खुद को खिलाड़ी नहीं कह सकते। क्रिकेट- उक्रेट खेलने तो हर भारतीय बच्चे की मजबूरी ही मानिए पर उसके स्तर से आप बहुत हुआ तो लपूझन्ने के लफत्तू की ही याद करेंगे। बैडमिंटन, टेबल-टेनिस जैसे इंडोर खेल स्कूल में खेले पर हममें ऐसी किसी प्रतिभा के दर्शन कभी किसी को नहीं हुए जिसके कुचले जाने के नाम पर किसी व्यवस्था को कोसा जा सके। पतंग में चरखनी पकड़ना अपने लायक काम रहा है और कंचे खेलने में निशाना सधता नहीं इसलिए नक्का-पूर और कली-जोट जैसे मैथेमेटिकल खेल ही खेले हैं। बस रहा शतरंज.. यही एक मात्र ऐसा मान्यता प्राप्त खेल है जिसे हमने किसी मान्यताप्राप्त स्तर तक खेला हो। हालांकि समय व साथियों के अभाव में ये भी अब छूट रहा है...कंप्यूटर के साथ खेलने में वो मजा नहीं।
शतरंज मजेदार खेल है सिर्फ इसलिए नहीं कि ये शारीरिक ताकत और संसाधनों पर कम निर्भर है वरन इसलिए भी कि समाज, उम्र, लिंग के भेदों की जो ऐसी तैसी ये खेल करता है कम ही खेल ऐसा करने का दम भर सकते हैं। एक अन्य वजह इस खेल को पसंद करने की यह है कि खेल मूर्त राशियों पर निर्भर नहीं है पूरी तरह से अमूर्त है। मैं कक्षा में भाषा की प्रकृति सिखाने के लिए शतरंज के खेल की मिसाल ही देता रहा हूँ। कैसे लकड़ी का एक टुकड़ा एक मूल्य हासिल कर लेता है और उस मूल्य के हिसाब से व्यवहार करता है (अगर गोटी खो जाए तो किसी छोटे पत्थर या बोतल के ढक्कन को भी वही मूल्य दिया जा सकता है तब वह उस वजीर या हाथी जैसा व्यवहार करेगा) यानि व्यवस्था (जैसे कि भाषा) में अर्थ किसी शब्द विशेष का नहीं है वरन वह तो व्यवस्था प्रदत्त है, इस नहीं तो उस ध्वनि-गुच्छ को दिया जा सकता है (क्या फर्क पड़ता है, प्रेम की जगह लिख दो किताब)
खैर उम्मीद है आप कुछ काम की बात पाने की उम्मीद में नही पढ़ रहे हैं, इसे 'संडे यूँ ही' ही मानें। लीजिए हाल की वर्ल्ड चैंपियनशिप का वह मैच जिसमें वी. आनंद, व्लादिमीर क्रेमनिक से हारे थे, वैसे चैंपियनशिप आनंद ने जीती थी-
अधिकांश प्रेक्षकों का मानना था कि 26. Rab1 चाल में आनंद ने गलती की है। पूरा गेम आप इस लिंक पर देख सकते हैं।
शतरंज तो अब हर कोइ खेल रहा है,नियम बदल जाते है बस, ज़िंदगी भी त्तो बिसात ही है और कदम एक चाल्।रिश्ते-नाते,दोस्ती-यारी प्यार-व्यापार सब घर देख कर चलना पडता है।अच्छा लिखा आपने संडे स्पेशल सीरियस भी है।
ReplyDeleteकहने को 'संडे यूँ ही' है मगर यह यूँ ही तो नहीं लग रहा, अच्छी जानकारी दी-
ReplyDeleteक्या फर्क पड़ता है, प्रेम की जगह लिख दो किताब
-एक कविता की तरह लग रही है ये पंक्तियॉ:)
शतरंज बहुत खेली, अब न तो समय है और न साथी। पर खेल जानदार है।
ReplyDeleteSir ji
ReplyDeletebehatreen post
बढ़िया है लेकिन और समझाकर लिखना चाहिये गुरुजी को।
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