Wednesday, December 24, 2008

दीक्षांत : चोगे पहनकर गुलामी खिली है पता चला है

विश्‍वविद्यालयी दुनिया में जो  बातें मुझे असहज बनाती हैं उनमें से एक है-दीक्षांत समारोह जिन्‍हें अंग्रेजी में कॉन्‍वोकेशन कहा जाता है। यानि जब अब परीक्षा आदि की यातना से गुजर चुके हों तब एक वाहियात सा चोगा पहनकर मंच पर पहुँचे उतने ही वाहियात चोगे में कोई गणमान्‍य आपको डिग्री थमाए आप झुककर उसे ग्रहण करें और कृतकृत महसूस करें। पिछले दिनों हमारे कॉलेज ने भी अपना दीक्षांत समारोह आयोजित किया पड़ोसी राज्‍य के एक बेचारे वृद्ध राज्‍यपाल एक एककर चार सौ बाइस चोगेधारियों को डिग्री थमाते रहे। जय रामजी की, हो गया दीक्षांत।

IMG_1578 मैं अकेला नहीं हूँ जिसे ये चोगे असहज बनाते हैं। जेएनयू तो इस परंपरा को मानता ही नहीं है। दरअसल विरोध की वजह परंपरा की औपनिवेशिक जड़ है। कान्‍वोकेशन के मूल में यह है कि विश्‍वविद्यालय अपनी संतुष्टि हो जाने के बाद स्‍नातकों को चर्च तथा राजा के सम्‍मुख पेश किया करता था जो उन्‍हें मंजूरी देते थे तभी ये युवक (सामान्‍यत: युवक ही, युवतियॉं नहीं) स्‍नातक घोषित किए जाते थे। अंग्रेजों की विश्‍वविद्यालयी प्रणाली को स्‍वीकारने के साथ साथ इस परंपरा को भी स्‍वीकार कर लिया गया। एक दीक्षांत जुलूस आता है, डीन एक एक कर स्‍नातकों को पेश करते हैं तथा फिर डिग्री प्रदान की जाती है। जेएनयू के पास सुविधा यह है कि यह स्‍वातंत्र्योत्‍तर बना विश्‍वविद्यालय है अत: वहॉं यह औपनिवेशिक परंपरा नहीं थी वे बच गए। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय जैसे कई विश्‍वविद्यालय इस गुलामी के प्रतीक को ढोए चले जा रहे हैं। खासकर मुझे दिक्‍कत चोगे पहनने से होती है, चोगे चर्च के पदाधिकारियों की वर्दी का प्रतीक होते हैं जबकि हम दम भरते हैं सेकुलरिज्‍म का। व्‍यक्तिगत स्तर पर मुझे परेशानी ये होती है कि हमारे वे शिक्षक साथी जो जेएनयू से हैं हमारा (मतलब हमारे विश्‍वविद्यालय का) खूब उपहास करते हैं कि हम कैसे बेकार की गुलामी को ढोए जा रहे हैं।

दूसरी ओर ये भी सच है कि सजे सजाए चहकते युवक-युवतियॉं अच्‍छे लगते हैं। ये भी कि पूरी विश्‍वविद्यालयी शिक्षा ही औपनिवेशिक विरासत है फिर गुड़ खाकर गुलगुलों से परहेज के क्‍या मायने हैं। वैसे हमने खुद अपनी डिग्री यानि पीएचडी इस नौटंकी से गुजरकर लेने से मना कर दिया था बाद में दो सौ रुपए की अनुपस्थिति फीस देकर दफ्तर से क्‍लर्क के हाथों डिग्री ली थी पर डिग्री रही तो  उतनी ही औपनिवेशिक और हॉं हर डिग्री पर छपा यही होता है कि ये दीक्षांत समारोह में प्रदान की गई। 

6 comments:

  1. हमारे ज़माने में तो इस चोगे को पहन कर फोटो खिंचवाने और उसे मढ़ कर दीवार में लगाने का प्रचलन भी था.
    खैर हम तो प्राईवेट छात्र थे सो हमारे लिये ये सुविधायें नहीं थीं.

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  2. चोगे पहने लोगों वाला दृ्ष्य प्रत्यक्ष तो नहीं देखा, फोटो देखी हैं और लोगों के घरों में टंगी फोटो भी। है तो बहुत विचित्र परन्तु जीवन में हम कितना कुछ विचित्र ढो रहे हैं सो यह भी सही। यदि कोई बदलाव आएगा तो उसका स्वागत होगा।
    घुघूती बासूती

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  3. इस प्रकार की ऊट-पटांग रस्में शायद समारोह को यादगार बनाने के लिये बनायी गयी होंगीं। उन्हें समय के साथ-साथ बदलने में कोई हर्ज नहीं है। अब जब यूरोप के जज अपनी बेतुकी विग को पहनना छोड़ सकते हैं तो हम क्यूं नहीं इन रस्मों से निजात पा सकते।

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  4. दिलचस्प रोचक पोस्ट.

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  5. अब तक तीन मौके तो गंवा चुके हैं चोगा पहनकर डिग्री लेने का । चौथा और शायद आखिरी मौका होगा इस बार शायद इस बार सुबह नींद खुल गयी और मूड किया तो चले जायेंगे वरना डाक से डिग्री घर तो आ ही जायेगी ।

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  6. ओशो ने कहीं बहुत बढि़या कटाक्ष किया था इस परम्परा पर. वाकई उपहास के योग्य है ये परम्परा.

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