Tuesday, December 30, 2008

दोज़ख की जुबान सी जरूरी है ब्‍लॉगिंग

चलिए मान लेते हैं कि शीर्षक ज्‍यादा सनसनीखेज है पर अगर आप हंस के संपादक राजेंद्र यादव के विषय में बात कर रहे हों तो खुद ब खुद सनसनीखेजता आ ही जाती है, का करें कंट्रोल ई नी होता :)।

हिन्‍दयुग्‍म वार्षिकोत्‍सव के लिए  शैलेश का इतने प्रेम से आग्रह था, उनके परिश्रम का पहले ही कायल रहा हूँ  रविवार का पुस्‍तक बाजार भी पड़ोस में था इसलिए न जाने का सवाल नहीं था। लेकिन ये भी सच है कि राजेंद्र यादव को सुनने की भी जबरदस्‍त इच्‍छा थी। वैसे उन्‍हें सुनने के बेतहाशा मौके मिलते हैं, हम विश्‍वविद्यालय के शिक्षक हैं जो बेहद गोष्‍ठीबाज समुदाय होता है लेकिन ब्‍लॉगिंग पर उन्‍हें सुनने का ये पहला मौका था इसलिए छोड़ना नहीं चाहते थे। हिन्‍दयुग्‍म की कविताओं को लेकर हम बहुत उत्‍साही नहीं रहे हैं पर वहॉं पहुँचकर हैरानी व खुशी हुई, खासकर गौरव सोलंकी की कविता पसंद आई...पर ये भी बोनस ही था।

राजेंद्रजी को ब्‍लॉगिंग पर सुनने की विशेष इच्‍छा इसलिए थी कि मुझे लगता हैIMG_1622 कि राजेंद्र यादव मूलत: ब्‍लॉगर हैं, तिसमें भी ट्राल किस्‍म के ब्‍लॉगर। ये अलग बात है कि पहले पैदा हो गए, आफलाइन ही जिंदगी बिता दी (कह तो रहे हैं कि एक मित्र से सीख रहे हैं आनलाइनत्‍व के गुर, पर इस उम्र में अब क्‍या खाक मुसलमॉं होंगे) लेकिन ब्‍लॉगर होना एक मनोदशा है, स्‍टेट आफ माइंड। अगर आप बिंदास बोलते लिखते हो, गहरा सोचते हो, अपने खिलाफ सोचने वाले, बोलने वाले की इज्‍जत करते हो। नाकाबिले बर्दाश्‍त चीजों को बर्दाश्‍त नहीं करते तो आप समझिए कि आप ब्‍लॉगर मैटर से बने हुए हैं अब ब्‍लॉगर देह मिलेगी या नहीं ये तो ऐतिहासिक कारणों पर निर्भर करता है। कई आनलाइन प्रजाति के जीव गैर ब्‍लॉगर व्‍यवहार रखते हैं जबकि बालमुकुंद गुप्‍त जिनके 'शिवशम्‍भू के चिट्ठे' से चिट्ठा शब्‍द ब्‍लॉग का हिन्‍दी प्रतिशब्‍द बनता है वे इंटरनेट की दुनिया से सदी भर दूर होते हुए भी एड़ी से चोटी तक ब्‍लॉगर हैं। बिंदास कहते हैं, विरोध का जज्‍बा रखते हैं..;पाठक से सीधा संवाद करते हैं। राजेंद्र यादव भी यही करते हैं...इसलिए इंटरनेट सीखेंगे तब सीखेंगे ब्‍लॉगर वे अभी से हैं।

उनके कहे को कुछ हिन्‍दी के लिए शर्मिंदगी की बात मानते हैं। मानें और खुश रहें। हमें तो राजेंद्रजी की तीनों ट्रालात्‍मक टिप्‍पणियों में एक शानदार ब्‍लॉगिंग कौशल दिखाई देता है। बिना लागलपेट के कहें तो उन्‍होंने कहा-

  1. वे हिन्‍दी ब्‍लॉगों का स्‍वागत करते हैं क्‍योंकि इससे प्रकाशन के अयोग्‍य रचनाओं के लेखक हंस जैसी पत्रिकाओं के संपादक के कान खाना बंद करेंगे अब इस कूड़े को वे खुद उन्‍हें अपने ब्‍लॉग पर छाप लेंगे।
  2. वे खुद भी जीवन के पड़ाव पर पहुँचकर इंटरनेट- ब्लॉगिंग आदि तामझाम को सीख लेना चाहते हैं क्‍योंकि आखिर दोज़ख की ज़ुबान भी तो यही होगी न।
  3. इंटरनेटी ब्‍लॉगवीरों को नसीहत देते हुए कहा कि तकनीक नई सदी की और विचार सोलहवी सदी के, नहीं चलेगा...नहीं चलेगा। हिन्‍दी को आधुनिक बनाओ तथा मध्‍यकाल तक की हिन्‍दी के साहित्‍य को अजायबघर भेज दो।

पहले बिंदु पर जिसे असहमति हो वे अर्काइव छानें, ब्‍लॉगजगत पहले ही सहमत है कि यहॉं कूड़ा अधिक है। 80 फीसदी तो कम से कम है ही। दूसरे बिंदु पर किसी को आपत्ति का अधिकार है ही नहीं, अब रहा तीसरा बिंदु तो आधुनिकता केवल टपर टपर कीबोर्ड चलाने से आएगी नहीं, यूँ आप आनलाइन हैं लेकिन उवाचेंगे गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष, जाहिर है ये नहीं चलेगा। मध्‍यकालीन सोच व साहित्‍य, स्‍त्री व वंचितवर्गों के प्रति अवमाननात्‍मक है ये स्‍थापित तथ्‍य है, इन्‍हीं आधारों पर इसे अजायबघर में रखे जाने की सलाह दी गई थी। ये प्रतीकात्‍मक है तथा उपयुक्‍त है। दलित यदि तुलसी से तथा स्‍त्री बिहारी से तादात्‍मय महसूस नहीं करते तो उन्‍हें पूरा हक है ऐसा सोचने का। राजेंद्र इनके परिप्रेक्ष्‍य में ही कह रहे थे। सोलहवी सदी के विचार ब्‍लॉगजगत में रोजाना देखने को मिलते हैं, चोखेरबाली पर परिवारवादी, देवीवादी टिप्‍पणियॉं सूंघ लें सती की चिताओं की 'खुश्‍बू' सुंघाई दे जाएगी।

 

कभी न सोचा था कि राजेंद्र यादव के समर्थन में लिखूंगा क्‍योंकि व्यक्तिगत स्‍तर मुझे राजेंद्र यादव पसंद नहीं ये नापसंदगी मन्‍नू भंडारी प्रकरण में उनके पाखंड के कारण है लेकिन निजी नापसंद से उठने की कोशिश न करें तो कैसे चलेगा..आखिर हम भी तो ब्‍लॉगर हैं

26 comments:

  1. आपकी बात से पूर्णतया सहमत हैं कि राजेन्द्र यादव मूलत: ट्राल किस्म के ब्लागर ही हैं.

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  2. राजेंद्र यादव जी को मैं भी कई मुद्दों पर नापसंद करता हूँ, विशेषकर कई मुद्दों पर विदेशी चश्में से प्रेरित उनके विचार। लेकिन गहराई से सोचने पर यही शख्स मुझे हिंदी के क्षेत्र में एक चिनार के दरख्त सा दिखता है जो अपनी ज्वलंत विचारों की लालिमा से सब को अपनी ओर आकर्षित कर ही लेता है।

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  3. सही है.
    गोबरधन जय रघुबीर घनश्‍याम गोंसाईं
    अजायब हिंदी के मुंह अजवाइन चरवाईं.

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  4. वैसे आह्लादकारी प्रसंग है, कितनी सहजता से ऐसे मौकों पर पता चलता है कि हिंदी के कितने बालमुकुंद, धन्‍यफफूंद हैं जो अब भी धरा पर नहीं, पेड़ पर ही निवास करते हैं, शायद दो प्रतिशत संख्‍या भी ऐसे लोगों की न होगी जो अपने बच्‍चों को हिंदी माध्‍यम स्‍कूलों में भेज रहे हों, ठोस समय-सामाजिक विमर्श में हिंदी कितना वक़्त हुआ पूरी तरह ग़ायब हुआ के तथ्‍य को निर्ममता नहीं, शालीनता से देख सकने में ही दीक्षित हों.. लेकिन कोई सामने आईना रख दे कि गुरु, यह तस्‍वीर है, अब बताओ?- तो चिंहुककर अरे, आप कैसे तो क्‍या हैं जी! का राग अकालभैरव गा-गाकर मुर्दम होने लगते हैं! ऐसे बालसुलभ, तीनपैसी शोले की व्‍यथाकथा के कवि-दही मन का कोई क्‍या करे?

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  5. मैं यादव जी को पंसद करता हूँ एक लेखक के रूप में और एक संपादक के रूप में भी। आखिर उन्हों ने हंस को स्थापित रखा है बरसों तक।

    अब वे अपने विचारों को लेकर विवादास्पद रहे हैं। तो ठीक है किस के विचारों को नापसंद नहीं किया गया। गांधी, मार्क्स और बुद्ध सभी तो आलोचना के शिकार रहे हैं। फिर यादव जी तो महज एक लेखक हैं। लेखन के माध्यम से ही कुछ आग पैदा करना चाह रहे हैं।

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  6. मोहल्ला और अनुभव ब्लौग से अलग हट कर यादव जी और् हिन्द युग्म के बारे में पढ़ना अच्छा लगा.. वैसे सच कहूं तो यादव जी मुझे भी कुछ खास पसंद नहीं हैं, मगर हंस पत्रिका पढ़ना बहुत पसंद है.. यादव जी को नापसंद करने के कारणों को लेकर कभी बाद में चर्चा करुंगा, मगर आपने जो बाते यादव जी के बारे में लिखी है उससे पूरी तरह सहमत हूं..

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  8. सहमत !मध्य युग का मोह कभी विचारों मे आधुनिक नही होने देगा तकनीक रूपी आधुनिक पोशाक पहन लेने से क्या होता है? गाली प्रकरण मे दिख ही रहा है कि मध्य युगीन सामंती विलासिता का दौर जिसमें स्त्री मात्र मन बहलाव का साधन और मुलायम चारा थी ..वह सदियों से बीत ही नही रहा है।ब्लॉगिंग से इनका उद्धार कैसे होगा , हिन्दी का तो कैसे भी नही होगा।

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  9. आपको कोई साहित्य पसन्द हो या नापसन्द. युग मुक्तता का है. साहित्य को अलमारियों में रखने की सलाह मूर्खता है, उसे ऑनलाइन सुलभ करवाना चाहिए. ताला मारने से अच्छा है, लोग आसानी से पढ़े और विश्लेषण करे. लगता है साहब अभी नए युग से ठीक से परिचीत नहीं है. साम्यवादी हर चीज को ताले में रखना पसन्द करते है :)

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  10. राजेन्द्र यादव की शैली दुष्यन्त के'कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं' से प्रेरित लगती है। वैचारिक जड़ता और कठमुल्लेपन के विरुद्ध उनका संघर्ष आज की आवश्यकता है।

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  11. Thanks for putting things in perspective.

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  12. "ब्लॉगिंग में सभी के लिये सब कुछ खुला हुआ है" यह विचार ही आकर्षक है, न तो इसमें सम्पादकों की चिरौरी है, न तो इसमें जाति विशेष की तरफ़दारी है, न ही इसमें तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजाता हूँ किस्म की आपसदारी है… इसलिये ब्लॉगिंग जिन्दाबाद… अभी तो सिर्फ़ राजेन्द्र यादव ही खुलकर बोले हैं धीरे-धीरे सभी बूर्जुआ साहित्यकार(?) भी ब्लॉगिंग की तारीफ़/आलोचना कुछ तो करेंगे ही… मेरा लिखा हुआ "साहित्य" और तेरा लिखा हुआ "कूड़ा…" यह भी "सामन्तवादी" सोच ही लगती है… इसलिये ब्लॉगिंग की जय बोलिये और रोजाना एक पोस्ट ठेलिये… जिसे पढ़ना होगा पढ़ेगा…

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  13. नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!

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  14. मसिजीवी जी,
    ट्राल/वाल की बातों को कुछ पल के लिए किनारे हटा दें तो..
    जाने क्यों आज आपको पढ़कर अच्छा लगा.तर्क भी बड़ा उपयुक्त है की आख़िर,हम भी ब्लॉगर हैं.
    आलोक सिंह "साहिल"

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  15. मुद्दों को ले उड़ने के बजाय, विषय को सही परिप्रेक्ष्य में लिया जाना सुखद लग रहा है !

    वैसे, मैं स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से राजेन्द्र यादव की जोड़ तोड़ और बरबस अलग दिखने की प्रवृत्ति के चलते उनको स्वीकार नहीं कर पाता !

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  16. कभी न सोचा था कि राजेंद्र यादव के समर्थन में लिखूंगा क्‍योंकि व्यक्तिगत स्‍तर मुझे राजेंद्र यादव पसंद नहीं ये नापसंदगी मन्‍नू भंडारी प्रकरण में उनके पाखंड के कारण है लेकिन निजी नापसंद से उठने की कोशिश न करें तो कैसे चलेगा..आखिर हम भी तो ब्‍लॉगर हैं

    आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ।

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  17. "राजेंद्र यादव मूलत: ब्‍लॉगर हैं, तिसमें भी ट्राल किस्‍म के ब्‍लॉगर। ये अलग बात है कि पहले पैदा हो गए, आफलाइन ही जिंदगी बिता दी (कह तो रहे हैं कि एक मित्र से सीख रहे हैं आनलाइनत्‍व के गुर, पर इस उम्र में अब क्‍या खाक मुसलमॉं होंगे) लेकिन ब्‍लॉगर होना एक मनोदशा है, स्‍टेट आफ माइंड।"

    अच्छा लगा यह सुनकर . धन्यवाद.

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  18. Anonymous3:46 PM

    मसिजीवी की भी रचना अब हंस में छाप जायेगी आख़िर स्तुति भी कुछ शय है -दिल जीवी

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  19. आप बहुत संतुलित लिखते हैं...अच्छा लगा आपके विचार पढकर....सचमुच कुछ सीखने को मिला....आपके आने का शुक्रिया...

    निखिल

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  20. अगर आप बिंदास बोलते लिखते हो, गहरा सोचते हो, अपने खिलाफ सोचने वाले, बोलने वाले की इज्‍जत करते हो। नाकाबिले बर्दाश्‍त चीजों को बर्दाश्‍त नहीं करते तो आप समझिए कि आप ब्‍लॉगर मैटर से बने हुए हैं
    ---------
    अच्छा - तब अर्थहीन जूतमपैजारीयत्व कहां से आता है ब्लॉगरी में!

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  21. Anonymous8:28 AM

    मसिजीवी साहब,
    आप अगर किसी से प्रभावित ही होना चाहते हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता लेकिन राजेन्द्र यादव जी ने जो तीनों बातें कहीं उनमें से कोई ऐसी नहीं कही जो नयी हो।
    १. वे सन २००४ से कहते आ रहे हैं-राजेंद्र यादव ने हंस, 'जुलाई 2004' के संपादकीय में बड़े ही मज़ेदार तरीक़े से, चुटकियाँ लेते हुए, हिंदी साहित्य संसार के प्राय: सभी नए-पुराने समकालीन लेखकों/कवियों के बारे में टिप्पणियाँ की है कि किस प्रकार लोग अपनी छपास की पीड़ा को तमाम तरह के हथकंडों से कम करने की नाकाम कोशिशों में लगे रहते हैं।

    जो शक्स ब्लागिंग में बिना आये इसे छपास का हथकंडा माने उससे इससे बेहतर बात की आशा की नहीं जानी चाहिये। चार साल बाद भी वे वैसे ही बने रहे बस।

    २. ब्लागिंग सीख रहे हैं यह अच्छी बात है। देखना है कितना जुड़ पाते हैं।

    ३.आधुनिक बनने के मध्यकाल तक के साहित्य को अजायबघर में रख देना उनकी मानसिक स्थिति को दर्शाता है। मध्यकाल तक के साहित्य की नकारात्मक प्रवृत्तियां खत्म होनी चाहिये लेकिन सारे लेखन को वहां अलग करके धर दो यह बकवास बात है।

    राजेन्द्र यादव बहुत पढ़े-लिखें हैं, विद्वान है, खबरों में रहना जानते हैं लेकिन कर्म और वचन में ३६ के आकंड़े रखते हैं। बहुत क्या लिखें आप सब जानते हैं। लेकिन जो शक्स लेखक होने के नाते अपने को खास प्राणी मानते हुये एक बीबी और एक प्रेमिका अलग से रखना न सिर्फ़ जायज माने और जिंदगी भर रखे भी उसके महिला विमर्श की स्थिति वही समझ सकता है।

    मुझे ताजजुब नहीं हुआ कि आप राजेन्द्र यादव से तड़ से प्रभावित हो लिये लेकिन यह जरूर लगा कि जिन बातों से प्रभावित हुये वे निहायत सामान्य और पूर्वाग्रह ग्र्स्त हैं। यह मेरी अपनी सोच है। जरूरी नहीं आप इससे इत्तफ़ाक रखें क्योंकि आप उनसे प्रभावित हो चुके हैं।

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  22. मुझे लगता है ब्लॉगिंग अपने आप में साहसिक कदम है। इसके लिए नामवर और राजेंद्र यादव जैसे लोगों की वाहवाही की जरूरत नहीं है। अगर साहित्य के मठाधीश इसे खारिज भी करते हैं तो किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने सुना ही कि नामवर जी ब्लॉगिंग को दो कौड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं देते। अगर वाकई ऐसा है तो इसके पीछे वजह एक ही है--सांचे के टूटने का भय। जमी जमाई दुकान के गिरने का भय। वाकई ब्लॉगिंग बड़ा दीगर का काम है। जिसमें आपको हर तरह की प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहना है। यहां चेहरे देखकर प्रतिक्रिया नहीं दी जाती है। अगर राजेंद्र यादव ब्लॉगिंग के पक्षधर हैं तो ये उनका समझदारी है।

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  23. प्रतिक्रियाओं के लिए शुक्रिया-

    @ ज्ञानदेवजी, हमने तो कहा ही कि कई आनलाइन प्रजाति के जीव भी गैर ब्‍लॉगर व्‍यवहार रखते हैं, केवल वेबजगत में हो जाने से तो ब्‍लॉगरीय तत्‍व नहीं आ जाते।
    @ अनूपजी, हमने दमभर बताया है कि राजेंद्र यादव ट्रालात्‍मक व्‍यक्तित्‍व हैं अत: उनकी प्रशंसा या उनसे प्रभावित होने की गुजाइश नहीं, ट्राल से क्‍या प्रभावित होना (उस गुण को तो खुद में से निकालने में ही सॉंस फूल रहा है :))

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  24. Anonymous12:49 PM

    सहमती और असहमति से ऊपर मठ के गिरने का भय होने पर मठाधीश अक्सर आयं बाँय बयान ही देते हैं, वैसे आधुनिकता अपनी जगह कायम है और हमारी हिन्दी साहित्य और दर्शन में उसे रोका नही गया मगर अपने परम्परा और संस्कृति से इतर नही.
    अन्ग्रेज़ी का अचार और उर्दू की चटनी दाल कर क्या एपी ये तो नही जाताना चाहते की हमारी हिन्दी गरीबी में है, माफ़ कीजिये हिन्दी की दरिद्रता का कारन राजेंद्र जी और ऐसी सरीखे साहित्यकार के साथ साथ आज के हिन्दी शिक्षक भी जिम्मेदार हैं.
    अवसान का दीपक फरफराता है, फरफराते हुए साहित्यकार का अंदाजे बयाँ निराला है.

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  25. नववर्ष की हार्दिक शुभकामना और बधाई . आपका जीवन सुख सम्रद्धि वैभव से परिपूर्ण रहे . उज्जवल भविष्य की कामना के साथ.
    महेंद्र मिश्रा
    जबलपुर

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  26. राजेन्द्र यादव कैसे भी रहे हों dut he could not be ignored.

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