

प्रो. सिंह अपनी आधारभूत पूर्वधारणाओं के आधार तक स्पष्ट कर पा रहे हैं...आलोचना में वर्णित पतन की जिम्मेदारी सोशल मीडिया पर कैसे है ? यूनीकोड 2003-04 में दिखता है और ब्लॉगेतर हिन्दी सोशल मीडिया की उम्र उससे भी कम है यानि सोशल मीडिया की 'छाया' आलोचना पर मात्र 5-7 साल की है तो क्या उससे पहले हमें आलोचना का स्वर्ण काल चल रहा था ?
एक अहम पूर्वधारण ये भी है हिन्दी पब्लिक स्फेयर मोनोलिथिक है यानि सोशल मीडिया और शेष आलोचना वृत्त में लोग एक ही हैं... अजब जिद है, सारे उदाहरण बताते हैं कि दरअसल सोशल मीडिया के हिन्दी वाले (खासकर पाठक) अधिकांशत वे हैं जो अन्यथा हिन्दी जगत से दूर होते..सोशल मीडिया ने हिन्दी के पब्लिक स्फेयर को विस्तार दिया है। ब्लॉगर याद करेंगे कि इस बात को वहॉं बार बार रेखांकित किया जाता था ये हिन्दी के यूनीलेखक व यूनीपाठक, छपाई वाले लेखको/पाठकों से अलग हैं तथा बहुत ही थोड़ा हिस्सा कॉमन है।
एक आलोचकीय प्रश्न यह भी है कि सरजी ये जो कथन है कि 'सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की भूख मार देती है' इसके लिए कोई संदर्भ, कोई शोध उद्धृत करने की कोई जरूरत क्यों नहीं लगी आपको... या जो ठाकुर साहब कहें उसे बस मान लेना पड़ेगा...क्योंकि बाकी सब सबूत तो बताते हैं कि इससे हिन्दी टेक्सट के उपभोग और उत्पादन दोनों का विस्तार हुआ है।
अब खरी खरी कुछ सुन लीजिए, सरजी कुछ पढ़ा कीजिए, हिन्दी में न मिले तो अंग्रेजी का पढ़ लीजिए। हाईपर टेक्स्ट वहीं नहीं है जो टेक्स्ट है उसे न पढ़ा वैसे जाता है जैसे छापे के टेक्स्ट को न लिखा ही वैसे जाता है। यूँ आपको चंद संदर्भ यहॉं दे सकता हूँ किंतु सही तो होगा कि जिन्हें तिलंगे कहकर अपमानित कर रहे हैं, खासकर विनीत (Vineet Kumar)को उसे एक बार फोन लगाएं (कोई शर्म की बात नहीं है, ज्ञान जिसके पास हो ले लेना चाहिए) वे आपको चार किताब गिना सकता है उसे पढ़कर आपकी कुछ नजर खुलेगी।
मजे की बात यह है कि आपकी उम्मीद तो यह है कि इस सर फुटौवल में आप टेक्स्ट को हाईपरटेक्स्ट के सामने ला खड़ा कर पाएंगे और इस धुंधलके में आपको टेक्स्ट खेमे की सरदारी मिल जाएगी पर है ये गलतफहमी ही। तिस पर मजेदार बात यह है कि जिस पोलिमिकल अंदाज में आपने यह लेख लिखा है वह खुद ही दरअसल सोशल मीडिया तेवर...यानि दरअसल जनसत्ता में एक ब्लॉग पोस्ट पर लिख दी है बस लिंक नहीं दे पाए हैं :)
अब आखिरी बात इसी विश्वविद्यालय का ही शिक्षक होने के नाते मुझे शिकायत करनी चाहिए थी कि आपने तो डीयू प्रोफेसरों की इज्जत ही मिटा दी..पर अंदर की बात हम आप जानते ही हैं कि हमारी इज्जत पिछले कुछ सालों से, खासकर एफवाईयूपी/सीबीसीएस के बाद कुछ रही ही नहीं। तो वो कोई वांदा नहीं। एक सवाल सो साथी जातिखोज शिक्षकों में जरूर कुलबुलाएगा कि ये 'चौहान' भला 'सिंह साहब' पर ढेले क्यों भांज रहा है, तो पहली बार साफ कर दूँ मुझे अपनी जाति पता ही नहीं है, जब तक पता नहीं चलती तब तक लोग ठाकुर समझें इस पर आपत्ति न करने की नीति अपनाई हुई है :)