Friday, October 03, 2014

दोस्‍तों से बाहर ही मिला जाए

बस्‍ती के बच्‍चे मानो साझा ही थे, कम से कम लगता तो ऐसा ही था। इसका मतलब मात्र इतना था कि बच्‍चों को डॉंटने या कभी कभी एकाध धौल जमा देने का हक केवल अपने बच्‍चों तक सीमित नहीं था। ऐसे में बच्‍चों को सम्‍मान से न मिलने, बोलने या उन्‍हें सम्‍मान न देने की जो खांटी भारतीय परंपरा है उसका पूरा सम्‍मान हमारी बस्‍ती में भी था। दो गांवों के बीच बसी ये बस्‍ती दिल्‍ली कर प‍हली खेप की कच्‍ची बस्‍ती थी। अब बच्‍चों के लिए आपस में एक दूसरे के माता-पिता से अपमानित होने की घटनाएं आम थीं पर फिर भी सहज नहीं थीं। यूँ किस बात पर सम्‍मानित और किस पर अपमानित महसूस करना है इसे लेकर हम बहुत स्‍पष्‍ट नहीं थे। ज्‍यादा खेलने, कम पढ़ने आदि को लेकर हुआ अपमान एक वैध कारण से हुआ अपमान था तथा सहज पच जाता था। मेरे लिए सबसे असहज स्थितियॉं वे होती थीं जब मेरे परिवार के लोग अक्‍सर मॉं मेरे दोस्‍तों को डॉंटतीं या ऐसा कुछ कहतीं जो उन्‍हें असहज बनाता। बाद में अक्‍सर मैं मॉं से लड़ता पी उनके लिए ये साधारण बात होती। वे चल्‍ल तू चुप रै... कह के मटिया देती। घटना के बाद मुझे इस दोस्‍त से मिलना असहज लगता तथा बहुत दिनों तक मैं उससे बचता फिरता। अक्‍सर बाद में पता लगता कि उसने इस अपमान को महसूस नहीं किया था या कम से कम वो ऐसा मुझसे कहता। वैसे ऐसी स्थितियों से बचने का सबसे आसान तरीका जो सामूहिक रूप से निकाला गया था वो था... घर की बजाए घर के बाहर गली में मिलना। मसलन आधी छुट्टी में खाने के लिए दोस्‍त के घर के लिएनिकले गली के नुक्‍कड़ पर उसे छोड़ा कि रुको मैं खाना खाकर आता हूँ... वो बेचारा भले ही भूखा हो, इत्‍मीनान से गली के बाहर इंतजार करेगा...बाद में मैं नेकर से हाथ पोंछता आकर मिलूंगा आगे चल देंगे। खैर दोस्‍त के घरवालों से खुद अपमानित होने से बचने तथा उससे भी ज्‍यादा दोस्‍तों को घर के लोगों के हाथों अपमानित होने की आशंका या भय ऐसा मिथकीकृत होकर मन में बैठ गया है कि मैं आजतक दोस्‍तों की अपने ही घर में उपस्थिति को लेकर सहज नहींहो पाया। अरसे तक घर अड्डा बना रहा दोस्‍त सहज भाव से आजे रहे, रुक भी जाते पर मैं लगातार चौकन्‍ना असहज ही बना रहा। इतना कि एक समय तो मेरे दोस्‍तों का घर में ही जुमला ही था, अरे अपना ही घर समझो। मेरा अपना पाठ है कि मेरे इसी भय के चलते नीलिमा भी कभी अपनी ससुराल में जम नहीं पाई.. मुझसे उसे घर में अकेला नहीं छोड़ा जाता था, लगातार आशंका रहती कि कहीं कोई कुछ कह न दे।
खैर ये तो चंद हफ्ते की बात रही फिर सड़क पर आ गए। उसके बाद भी ये भय बना रहा तथा आजतक है। शायद निराधार नहीं है कई प्‍यारे दोस्‍त बेचारे किनारे हो गए क्‍योंकि वे ऐसा अपमान सह नहीं पाए। या हो सकता ये भी केवल मेरे मन ने मान भर लिया हो। पर आज भी मेरे मन के भयों में सबसे भयानक प्रिय लोगों का अपने लोगों द्वारा अपमान का भय है इससे दोनों खो जाते हैं। सोचता हूँ दोस्‍तों से फिर बाहर ही मिला जाए।

1 comment:

अनूप शुक्ल said...

क्या कहने!