Saturday, January 30, 2016

कीला काटी

कविता में नहीं इसे तो गद्य में ही लिखना होगा, कविता में लिखता हूँ जब खुद को खोने के लिए लिखना होता है, खुद को खोने के लिए। कभी कभी मुझे कविता लिखना बचपन का किल्‍ला काटी का खेल सा लगता है, अबूझ खेल था और मैं उसका अबूझ खिलाड़ी था। इसमें होता ये है था कि दो दल अलग अलग जगहों पर एक तय वक्‍त तक लकड़ी के कोयले या खडि़या से छोटी छोटी लाइनें डालते थे खूब छिपाकर, फिर वकत पूरा हो जाने पर दूसरा दल उन्‍हें खोजकर काट देता था, जो वो खोज नहीं पाते थे, उन्‍हें ही गिनकर जीत हार का फैसला किया जाता था। मैं अजीब खिलाड़ी इसलिए था कि मैं खूब छिपाकर ये कीलें बनाता लेकिन जब दूसरा दल नहीं भी खोज पाया होता था तब भी मैं बताता ही नहीं था कि उस कोने में, वहॉं उस ईंट के नीचे भी अपने खजाने को छिपा रखा है मैंने... जीत के लिए नहीं था मेरा खजाना। कविताएं भी ऐसे ही हैं खूब छिपाकर लिखता हूँ..लिखते हुए किसी को दिख जाए तो लगता है चोरी पकडी गई... लिखने के बाद भी लगता बस लिखना भर हो गया न। दरअसल लिखने से खुद को उसमें छिपा देने जैसा लगता है कभी आड़े वकत जब मैं खुद को मिल नहीं रहा होउंगा तो इस पाले में आकर अकेले अपनी खडि़या की खींची कीलों सी रेखाओं में अपने कीला काटी में खुद को पाने की कोशिश करुंगा।

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