मेरी वह दोस्त इतने भरोसे की जिससे बात करने में भरोसे पर विचार नहीं करना पड़ता। उस रोज़ किसी वजह से अकेले थे हम उसके घर, यह कोई अलग घटना नहीं थी जिसे महसूस किया जाता। फिर वक़्त हुआ, मैंने कहा अच्छा चलता हूँ दरवाजे के और मुड़ा हाथ अनदेखे ही दरवाजे के लैच की दिशा में बढ़ा.. तब मुझे दिखा, बस यही क्षण बस यही। मैं सहज ही मुड़ा था लेकिन देखा कि वह चौंकती है और फिर एक, नहीं आधा ही कदम पीछे होती है। उसके दोनों हाथ इवेसिव भंगिमा में छातियों की और गए थे...ओह। मैं बेहद आहत और हैरत निगाह से देकगता हूँ , सेकण्ड का चौथाई भर ही रहा होगा वो एक अपोलेजेटिक मुस्कान देती है...मैं सोचकर मुस्करा देता हूँ कि कहीं उसे बुरा न लगे। फिर मुझे लगता है कि आखिर यही सब तो उसका कुल हासिल है, पहला रिफ्लेक्स एक्शन खुद को बचाने का... किसी मर्द पर भरोसा न कर पाना...पर मैं नीचे आ गाड़ी में रो देता हूँ। खुद के अपमान पर शायद नहीं, उसकी जिंदगी पर। ज़िन्दगी का उसका हासिल 'इनेबिलिटी टू ट्रस्ट'... ज़िन्दगी हमेशा कवच निकालकर ही जीना.. ओह मेरी प्यारी।
उस क्षण मुझे पता था पता होना था कि उस क्षण का वह अ-भरोसा व्याप्त हो पूरी ज़िन्दगी पर छाएगा। अपने ही इस कवच की कैद... बाद की बस सारी कहानी इस अ-भरोसे के बीज के उगने, वृक्ष हो जाने की कहानी है।
Friday, August 19, 2016
भरोसा कर सकने की क़ाबलियत के मायने
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