Saturday, December 19, 2015

मिलना सीखो बिछुड़ना सीखो

कुछ रिपोर्ट्स समाज में तलाक के कुछ बढ़ने से चिंति‍त नजर आ रही हैं। यद्यपि अगर पूरी दुनिया की तलाक जनसांख्यिकी पर नजर डालें तो भारत में तलाक (1.1 फीसदी) बेहद कम है इतनी कम तलाक दर का मतलब दरअसल होना तो ये चाहिए कि भारत में दांपत्‍यप्रेम की बयार बल्कि ऑंधी चल रही होनी चाहिए। किंतु मुझे एेसा भीषण प्रेम चारों तरफ दिखता तो नहीं आपको दिखता है क्‍या ? दरअसल हम निहायत ही उजड्ड और पाखंडी समाज हैं उजड्ड इसलिए कि हम चंद बेहद जरूरी मानवीय व्‍यवहारों के प्रशिक्षण से रहित हैं। मसलन हम नहीं जानते कि प्‍यार कैसे किया जाता है, नफरत करना सीखने के मामले में तो हम और गंवार हैं। तिस पर तुर्रा ये कि किसी को न प्‍यार न नफरत वाले तरीके से हमें देखना तक नहीं आता है। कुल मिलाकर हम संवेगाात्‍मक आदिमता का समाज हैं। प्‍यार करते हैं तो ऐसा दमघोंटू कि लगता है प्‍यार के बोझे से मार ही डालेंगे, प्‍यार में ऐसा लदेंगे कि सांस लेने की हवा तक न मिले। ऐसा नहीं कि इकतरफा बीमारी है जिसे प्‍यार किया जा रहा है उसकी भी उम्‍मीदें ऐसा ही दमघोंटू प्‍यार पाने की होती हैं। अब मॉं के प्‍यार को लीजिए न, लल्‍लाजी सत्‍तर साल की मॉं से भी आलू के भरवॉं परांठे वाले प्‍यार मॉंगते हैं और अम्‍माजी लल्‍लाजी का यह परस्‍पर लदान, लल्‍लाजी को कभी ठीक ठिकाने का प्‍यार करने लायक छोड़ता ही नहीं बाद में बीबी, बेटी, बहु हर किसी से बस भरवां पराठें छाप प्‍यार ही चाहिए होता है... अब लल्‍लाजी इस प्‍यार के लिए तैयार होते हैं तो जाहिर लल्ल्यिॉं भी इसी तरह का प्‍यार करने के लिए बनाई जाती हैं और फैक्‍टरी में काम एकदम जारी है।
समाज का लल्‍ला लल्‍ली का यह प्‍यार कारखाना इतने सालों से जारी है कि अब हमें न साथ रहना आता है न अलग होना। जब किसी भी वजह से इस तू मुझे ढोए मैं तुझे वाले प्‍यार से अलग होते हैं, अलग माने सिर्फ घर बदल लेने वाला अलग नहीं बल्कि दिल से अलग होना तो हमें पता लगता है कि प्‍यार करने वाले से अलग होना तो हमें कभी सिखाया ही नहीं गया... अलग होना हमें सिर्फ दुश्‍मन से ही आता है तो बजाए नया रास्‍ता सीखने के हम आसान रास्‍ता अपनाते हैं हम जिससे अलग होना पड़ रहा है पहले उससे नफरत करना शुरू करते हैं सहजता के दुश्‍मन हो जाते हैं अकेले रोने की कला भूल जाते हैं और चीख चिल्‍ला पहले अपने प्रिय को रावण का पुतला बना देते हैं फिर ढेर पटाखे भर इसमें आग लगा देते हैं... पुतला धूं धूं कर जलता है खूब तमाशा होता है और हमारा मन शॉंति पाता है अब फिर से प्‍यार वाले खाने में वही परस्‍पर लदान वाले लोग हैं और शत्रु वाले पाले मेें हैं परस्‍पर साजिश वाले लोग।
फिर लोचा कहॉं है ? लोचा यह है कि हम प्‍यार करना सीखें जिसमें साथ होना सीखना पड़ेगा.. बिना छल के बिना ढेर झूठों के। समाज प्‍यार करने को पेड़ पर फांसी पर लटकाने की चीज समझना बंद करे। जिसमें प्‍यार के लिए मिलने जाने के लिए हजार झूठ न बोलने पडें न सुनने पड़ें। उससे भी जरूरी कि प्‍यार करना सीखने में इससे लौटना भी सीखने कर गुंजाइश हो। अलग होने का तरीका सहज हो बिना झूठों और प्रवंचनाओं वाला। अलग होना पहाड़ का टूट पड़ना नहीं है कि दुश्‍मन, पुतला बनाने फूंकने के तमाशें की प्रक्रिया से गुजरना ही पड़े... जिस समाज में शादी इतनी ज्‍यादा तलाक इतने कम हों वो एक पाखंडी समाज है प्‍यार से रीता समाज है।

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