बागान का सौदागर मन ही मन मुस्कराता है और और जेब में हाथ डालकर जांघिए को खींचकर ठीक करने में जुट जाता है।
Friday, December 23, 2016
ठण्डी कहानी
बागान का सौदागर मन ही मन मुस्कराता है और और जेब में हाथ डालकर जांघिए को खींचकर ठीक करने में जुट जाता है।
Wednesday, November 02, 2016
बेउम्मीदी की उम्मीद में
उम्मीद एक दुधारी शब्द है
ज़िंदा रखता है
लेकिन जीने नहीं देता।
छल के बाद
धोखे और टूटे पुलों के बावजूद
आहटों पर मुड़कर
पीछे देखने को विवश करता है
यही बेशर्म शब्द
लेकिन आगे नहीं देखने देता
स्वीकार कर हर घटित को,
आगे चलने के लिए जरूरी है
कि
उम्मीद को दफ़न किया जाए
या होने दिया छटपटा कर बेदम।
Friday, September 09, 2016
पराए युद्ध के घाव
बहुधा हमें मिलती हैं
पराई लड़ाइयॉं
जो हम पर थोपी गई थीं
जिरहबख्तरों पर अगाध विश्वास वाले योद्धाओं ने।
लड़ाइयॉं जिन्हें हम जीतना नहीं चाहते
न ही हार से बचने के ही लिए लड़ रहे हैं हम
अपनी कहूँ
खड़ा हूँ इस बॉलकोनी पर अपने ही घर की
जिसे न जाने क्यों
कुछ संप्रभु मन घोषित कर चुके हैं
युद्ध का मैदान।
खड़ा हूँ दम साधे बस
सहमे भयभीत (पराजय से नहीं)
वरन
ये जानने कि
अगाध विश्वास वाली योद्धा
जब जिरहबख्तर उतारेगी
(जीत कर या पराजित, मुझे फर्क नहीं पड़ता)
तो खुद घायल होगी कि नहीं।
Tuesday, August 23, 2016
मेरी वह दोस्त इतने भरोसे की जिससे बात करने में भरोसे पर विचार नहीं करना पड़ता। उस रोज़ किसी वजह से अकेले थे हम उसके घर, यह कोई अलग घटना नहीं थी जिसे महसूस किया जाता। फिर वक़्त हुआ, मैंने कहा अच्छा चलता हूँ दरवाजे के और मुड़ा हाथ अनदेखे ही दरवाजे के लैच की दिशा में बढ़ा.. तब मुझे दिखा, बस यही क्षण बस यही। मैं सहज ही मुड़ा था लेकिन देखा कि वह चौंकती है और फिर एक, नहीं आधा ही कदम पीछे होती है। उसके दोनों हाथ इवेसिव भंगिमा में छातियों की और गए थे...ओह। मैं बेहद आहत और हैरत निगाह से देकगता हूँ , सेकण्ड का चौथाई भर ही रहा होगा वो एक अपोलेजेटिक मुस्कान देती है...मैं सोचकर मुस्करा देता हूँ कि कहीं उसे बुरा न लगे। फिर मुझे लगता है कि आखिर यही सब तो उसका कुल हासिल है, पहला रिफ्लेक्स एक्शन खुद को बचाने का... किसी मर्द पर भरोसा न् कर पाना...पर मैं नीचे आ गाड़ी में रो देता हूँ। खुद के अपमान पर शायद नहीं, उसकी जिंदगी पर। ज़िन्दगी का उसका हासिल 'इनेबिलिटी तो ट्रस्ट'... ज़िन्दगी हमेशा कवच निकालकर ही जीना.. ओह मेरी प्यारी।
उस क्षण मुझे पता था पता होना था कि उस क्षण का वह अ-भरोसा व्याप्त हो पूरी ज़िन्दगी पर छाएगा। अपने ही इस कवच की कैद... बाद की बस सारी कहानी इस अ-भरोसे के बीज के उगने, वृक्ष हो जाने की कहानी है।
Friday, August 19, 2016
भरोसा कर सकने की क़ाबलियत के मायने
मेरी वह दोस्त इतने भरोसे की जिससे बात करने में भरोसे पर विचार नहीं करना पड़ता। उस रोज़ किसी वजह से अकेले थे हम उसके घर, यह कोई अलग घटना नहीं थी जिसे महसूस किया जाता। फिर वक़्त हुआ, मैंने कहा अच्छा चलता हूँ दरवाजे के और मुड़ा हाथ अनदेखे ही दरवाजे के लैच की दिशा में बढ़ा.. तब मुझे दिखा, बस यही क्षण बस यही। मैं सहज ही मुड़ा था लेकिन देखा कि वह चौंकती है और फिर एक, नहीं आधा ही कदम पीछे होती है। उसके दोनों हाथ इवेसिव भंगिमा में छातियों की और गए थे...ओह। मैं बेहद आहत और हैरत निगाह से देकगता हूँ , सेकण्ड का चौथाई भर ही रहा होगा वो एक अपोलेजेटिक मुस्कान देती है...मैं सोचकर मुस्करा देता हूँ कि कहीं उसे बुरा न लगे। फिर मुझे लगता है कि आखिर यही सब तो उसका कुल हासिल है, पहला रिफ्लेक्स एक्शन खुद को बचाने का... किसी मर्द पर भरोसा न कर पाना...पर मैं नीचे आ गाड़ी में रो देता हूँ। खुद के अपमान पर शायद नहीं, उसकी जिंदगी पर। ज़िन्दगी का उसका हासिल 'इनेबिलिटी टू ट्रस्ट'... ज़िन्दगी हमेशा कवच निकालकर ही जीना.. ओह मेरी प्यारी।
उस क्षण मुझे पता था पता होना था कि उस क्षण का वह अ-भरोसा व्याप्त हो पूरी ज़िन्दगी पर छाएगा। अपने ही इस कवच की कैद... बाद की बस सारी कहानी इस अ-भरोसे के बीज के उगने, वृक्ष हो जाने की कहानी है।
Sunday, May 01, 2016
दुनिया होने का सच
एक होते हैं शब्द
और होती है शब्दों की दुनिया
जैसे एक होता है प्यार
और होती है प्यार की दुनिया
पर सुनो प्यार होता प्यार..
लेकिन प्यार की दुनिया होती है
झूठ, धोखा और लिसड़ा हुआ स्वार्थ
एक होती है कविता
और होती है कविता की दुनिया
टकराती प्रवंचनाएं, फूहड़ अहम् और छद्म शिखर
सुनो दुनिया
तुम हर सच के साथ ऐसा क्यों करती हो
उसे सच रहने क्यों नहीं देती
क्योंकि एक होता है सच
और होती है सच की दुनिया
जो
और चाहे दुनियाभर का कुछ भी हो
सच नहीं होती।
Monday, April 18, 2016
रैण दो, आपसे न हो पाएगा प्रोफेसर साहब


प्रो. सिंह अपनी आधारभूत पूर्वधारणाओं के आधार तक स्पष्ट कर पा रहे हैं...आलोचना में वर्णित पतन की जिम्मेदारी सोशल मीडिया पर कैसे है ? यूनीकोड 2003-04 में दिखता है और ब्लॉगेतर हिन्दी सोशल मीडिया की उम्र उससे भी कम है यानि सोशल मीडिया की 'छाया' आलोचना पर मात्र 5-7 साल की है तो क्या उससे पहले हमें आलोचना का स्वर्ण काल चल रहा था ?
एक अहम पूर्वधारण ये भी है हिन्दी पब्लिक स्फेयर मोनोलिथिक है यानि सोशल मीडिया और शेष आलोचना वृत्त में लोग एक ही हैं... अजब जिद है, सारे उदाहरण बताते हैं कि दरअसल सोशल मीडिया के हिन्दी वाले (खासकर पाठक) अधिकांशत वे हैं जो अन्यथा हिन्दी जगत से दूर होते..सोशल मीडिया ने हिन्दी के पब्लिक स्फेयर को विस्तार दिया है। ब्लॉगर याद करेंगे कि इस बात को वहॉं बार बार रेखांकित किया जाता था ये हिन्दी के यूनीलेखक व यूनीपाठक, छपाई वाले लेखको/पाठकों से अलग हैं तथा बहुत ही थोड़ा हिस्सा कॉमन है।
एक आलोचकीय प्रश्न यह भी है कि सरजी ये जो कथन है कि 'सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की भूख मार देती है' इसके लिए कोई संदर्भ, कोई शोध उद्धृत करने की कोई जरूरत क्यों नहीं लगी आपको... या जो ठाकुर साहब कहें उसे बस मान लेना पड़ेगा...क्योंकि बाकी सब सबूत तो बताते हैं कि इससे हिन्दी टेक्सट के उपभोग और उत्पादन दोनों का विस्तार हुआ है।
अब खरी खरी कुछ सुन लीजिए, सरजी कुछ पढ़ा कीजिए, हिन्दी में न मिले तो अंग्रेजी का पढ़ लीजिए। हाईपर टेक्स्ट वहीं नहीं है जो टेक्स्ट है उसे न पढ़ा वैसे जाता है जैसे छापे के टेक्स्ट को न लिखा ही वैसे जाता है। यूँ आपको चंद संदर्भ यहॉं दे सकता हूँ किंतु सही तो होगा कि जिन्हें तिलंगे कहकर अपमानित कर रहे हैं, खासकर विनीत (Vineet Kumar)को उसे एक बार फोन लगाएं (कोई शर्म की बात नहीं है, ज्ञान जिसके पास हो ले लेना चाहिए) वे आपको चार किताब गिना सकता है उसे पढ़कर आपकी कुछ नजर खुलेगी।
मजे की बात यह है कि आपकी उम्मीद तो यह है कि इस सर फुटौवल में आप टेक्स्ट को हाईपरटेक्स्ट के सामने ला खड़ा कर पाएंगे और इस धुंधलके में आपको टेक्स्ट खेमे की सरदारी मिल जाएगी पर है ये गलतफहमी ही। तिस पर मजेदार बात यह है कि जिस पोलिमिकल अंदाज में आपने यह लेख लिखा है वह खुद ही दरअसल सोशल मीडिया तेवर...यानि दरअसल जनसत्ता में एक ब्लॉग पोस्ट पर लिख दी है बस लिंक नहीं दे पाए हैं :)
अब आखिरी बात इसी विश्वविद्यालय का ही शिक्षक होने के नाते मुझे शिकायत करनी चाहिए थी कि आपने तो डीयू प्रोफेसरों की इज्जत ही मिटा दी..पर अंदर की बात हम आप जानते ही हैं कि हमारी इज्जत पिछले कुछ सालों से, खासकर एफवाईयूपी/सीबीसीएस के बाद कुछ रही ही नहीं। तो वो कोई वांदा नहीं। एक सवाल सो साथी जातिखोज शिक्षकों में जरूर कुलबुलाएगा कि ये 'चौहान' भला 'सिंह साहब' पर ढेले क्यों भांज रहा है, तो पहली बार साफ कर दूँ मुझे अपनी जाति पता ही नहीं है, जब तक पता नहीं चलती तब तक लोग ठाकुर समझें इस पर आपत्ति न करने की नीति अपनाई हुई है :)
Tuesday, April 12, 2016
आहत व्यासपोथी
आहत व्यासपोथी
============
एक तख्ती की तरह जमाया
पहला मजबूत विश्वास
थोडा ठोका, दबाया
फिर विश्वास की जमायी
अगली तह
परत दर परत
विश्वास की तलछट चट्टान
किसी एक आंधी भरी शाम
ये व्यास पोथी
हो गयी भुरभुरे शब्दों की
भंगुर किताब
एक तह के शब्द नश्तर हो
निचली तह में घुस गए
जंग खायी कील से पंक्चर
बियाबान में खड़ी गाडी सा बेबस भरोसा
भरोसे को रोयेदार होना चाहिए
लचीला
उसको किताबों सा तो बिल्कुल न होना था
बंद एक तरफ/खुला दूसरी ओर
शब्दों से बिंधा अनहद।
Saturday, April 09, 2016
मन अक्सों के खेत हैं
Wednesday, March 30, 2016
संविधान
मेरे भीतर एक क्लाउन गिनकर लेता है
हर चुटकुले पर अट्टहास
साश्रु कभी-कभी,
संविधान साला चुटकले की किताब हो गया है।
Tuesday, March 29, 2016
कैद
आइनों को तोड़ा सबसे पहले
चकनाचूर, किरिच किरिच उड़ा दीं
फिर इत्मीनान से गढ़ा खुद को
मैं जानती थी हमेशा से
कहा भी मुझे सपनों के उस सौदागर ने
जो बट्टे की मुद्रा में सौदे करता है
मैं जिसे मैंने गढ़ा है
वही मैं हूँ
वही हूँ मैं
मैं हूँ वही
आइनों में कैद न होंउंगी कभी
मैं अपनी गढ़न की कैद में हूँ प्रसन्न
Friday, March 18, 2016
आपकी कलैंडरी भारतमाता आपकी है, आप रखिए।
मैं कलाकार नहीं हूँ इसलिए गूगल से ही तस्वीर लेकर रख रहा हूँ किंतु इस राजा रविवर्मा शैली वाली तस्वीर के स्थान पर कोई हिज़ाब/नकाब वाली, नमाज में झुकी दुआ मॉंगती - भारत माता (या मादरेवतन) की छवि आती तब भी आप इतना ही सहज होते ?
मैं दोनों से ही असहज हूँ क्योंकि मेरे लिए भारत इतना सगुणरूप नहीं है लेकिन उसे जाने दें सच यह है कि सिंहवाहिनी भारतमाता की कल्पना आप कितना भी शब्दिक मुलम्मे चढ़ाएं लेकिन वह है बहुसंख्यकवाद ही। औवेसी हो या कोई अन्य जब आप उसके प्यार (देश से या किसी से भी) करने के तरीके को तय करने की कोशिश करते हैं आप दरअसल बहुसंख्यक तानाशाही की आहट लिए होते हैं।

Wednesday, March 16, 2016
कम उदास कविता के लिए
उदास कविता मैं भी लिख सकता हूँ
आज
आज दिन
और आज रात भी
शायद आज के बाद की हर रात
मैं लिख सकता सबसे उदास कविता
पाब्लो नेरुदा।
तुम्हारी तरह मैंने भी उसे प्यार किया था
और कभी कभी उसने भी
हम सब की
कवियों की और कम कवियों की भी
उदासियाँ उपजती हैं
उस बहुत गहरे प्यार से
जो उन्होंने किया था
और कभी कभी उनसे भी किया गया था।
सुनो प्यार
काश तुम कुछ कम उपजाऊ होते
और सुनो
पाब्लो नेरुदा
उसकी बड़ी बड़ी शांत आँखों से
तुम्हारी इस शिकायत में शामिल समझो मुझे
दुनिया को कुछ कम
उदास कविताओं की जरूरत है
हर दिन
हर रात ।
(पाब्लो नेरुदा की कविता 'आज रात...मैं लिख सकता हूँ' को)
Friday, March 11, 2016
संवाद हो, असंवाद हो तो उस पर भी संवाद हो
ये एक दूसरे पर किसी अविश्वास से उपजा असंवाद नहीं था, ऊब वाला भी शायद नहीं था विषयों का कम होना हो सकता है हो पर मुझे इसकी वजह नहीं दिखती। आज से तेईस साल पहले जाहिर है जिन विषयों पर बात कर सकते थे आज उनसे ज्यादा विषय हैं। ढेर सुख तो बढे़ ही हैं कितने ही दु:ख भी आ जमे हैं जिनपर कितना तो कहा रोया जा सकता है। फिर भी एक अर्थपूर्ण संवाद के लिए तरसते क्यों रह जाते हैं हम। मनीषा ने अपनी एक पोस्ट में इसे इवोल्यूशन के संकट की तरह चीह्नने की कोशिश की है-
''हम दूर हो जाते हैं क्योंकि बात ही नहीं कर पाते। न समझ पाते हैं और न समझा पाते हैं। समझने-समझाने की जरूरतें भी सबकी एकसमान नहीं होतीं।''मुझे यह समझने समझाने से ज्यादा वाकई समझने की जरूरत समझाने का संकट ज्यादा लगता है। मैं जब अपना संकट समझाने की चेष्टा करता हूँ तुम समझती हो मैं कह रहा हूँ - कि तुम नहीं समझ सकती जाने दो, जाहिर है यह अहम पर चोट देने वाली समझ है और इसके बाद तो संवाद की संभावना ही समझो खत्म, शायद दोबारा तत्काल कोशिश भी मुश्किल और लो फिर ऐसा मौन पसरता है कि क्या खाएंगे, क्लास कब है बच्चों ने होमवर्क किया या नही...बस यही बचता है अगले कितने ही घंटे या दिन। फिर हम समझाते हैं कि देखो हम दु:खी नहीं है कितना सुखी और प्यार भरा तो परिवार है। बाकी सब आह भरें ऐसा। फिर कोशिश करते हैं अक्सर एक रिक्ति फिर भी जमी रहती है। हम जानते हैं कि हमारा संवाद और संवाद की जरूरत का एहसास निन्यानवें फीसदी से बेहतर है पर ये अपने आप में कोई दिलासा देने की तो बात न हुई... संवाद तो वैसी ही जरूरत है जैसी खाने पीने या साथ सोने की। संवाद इसलिए अहम है और किसी पर न हो तो असंवाद पर से ही श्ुारू किया जाए।
Saturday, March 05, 2016
खटमलों की कसम आपको कुछ समझ नही आ रहा
छड्ड पुत्तर। अपनी पढ़ाई पूरी कर। काम धाम कर मां बाप का हाथ बटा। अठ्ठाईस साल की उमर हो गयी। कब तक टेक्सपेयर्स के बल पर मिली स्कॉलरशिप की रोटियां तोड़ चौधराहट करेगा।

दूसरा वो कह रहा है कि कैंपस में खटमल हैं तो उसका भी व्यवस्थागत विश्लेषण होना चाहिए उसे 28 की साल की उम्र में यह बात और इसका महत्व पता है आप इस उम्र में पहुँचकर शोध में लगे युवाओं की रोजगार की स्थिति के लिए उसे ही जिम्मेदार बनाने पर तुले हैं। उसकी सुपरवाइजर बाकायदा घोषणा कर बात चुकी हैं कि वह गर्व करने लायक शोधार्थी है पर न जी, आप भले ही उसका शोधविषय भी न जानते हों उसे नकारा सिद्ध करने पर तुले हैं।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में ही पढ़ाता हूँ और जानता हूँ कि इस समय शोध में लगे लाेगों को नौकरी मिलने में कितना वक्त लग रहा है और हॉस्टलों के खटमल की कसम इसकी वजह ये शोधार्थी नहीं है, सरकारें इतनी शोषक हो गईं हैं कि वे नहीं चाहतीं कि शोधार्थी गरिमा के साथ शिक्षण का या कोई शोध का रोजगार पा सकें। कितने गेस्ट एडहॉक अपनी शादी करना, बच्चे पैदा करना यहॉं तक कि निर्भय होकर किताब या लेख लिखना तक टालते हैं कि नौकरी पर फर्क पड़ेगा।
अभी इसमें इस बात को शामिल नहीं कर रहा हूँ कि 28 वर्षीय सुवक को इस बात की आजादी होनी चाहिए कि नहीं कि वह अपने भविष्य के बारे में खुद फैसला करे, उसे देश समाज को महत्व देना है या अपने निजी जीवन को, यह फैसला आप उसके लिए करने पर इतना उतारू क्यों हैं।
अब टेबल टेनिस की तरह आपका घटिया तर्क आप पर ही वापस फेंक रहा हूँ कि इसी तर्ज पर अब बुढऊ हो रहे मोदीजी को घर परिवार पत्नी के लिए कुछ करना चाहिए था कि शाखाओं में ध्वजप्रणाम में जिंदगी लगाानी चाहिए थी ?
कलम की आड़ में
हंसने की नहीं,
मरने की नहीं
करने की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।
लड़ने की नहीं
अड़ने की नहीं
धरने की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।
कलम को मैंने बना लिया है
अपना ढाल हथियार और मोर्चा सब
शब्दों की नहीं
भाव की नहीं
त्रास की नहीं
सच की नहीं
अपने कुछ की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।
Tuesday, March 01, 2016
है ये भी एक नैपकिन विवाद ही, जरा ज्यादा बड़ा है
यह विवाद मुझे क्यों आज याद आ रहा है इसे समझना इतना भी कठिन नहीं है। हम लगभग एक किस्म के नैपकिन विवाद के ही वक्त में हैं। इस बार 'गंदा नैपकिन' नहीं कहा गया, 'भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी' कहा गया है। मसला एक एग्रीगेटर का नही एक पूरे विश्वविद्यालय का है बल्कि कहिए कि पूरे देश का है। नारद को ढहने दिया जा सकता था, बंद होने दिया जा सकता था... ऐसे लोग थे जो एक नारद के बंद होते ही (दरअसल पहेल ही) ब्लॉगवाणी खड़ा कर सकते थे। पर जेएनयू के बंद/बर्बाद होने से पहले या बाद में एक और एक और जेएनयू खड़ा करने का बूता फिलहाल किसी में नहीं है। देश के बंद/बर्बाद होने पर की तो कल्पना ही सिहरा देने के लिए काफी है। लेकिन यकीन कीजिए कि जेएनयू विवाद अपनी प्रकृति में नेपकिन विवाद से अलग नहीं है। इसका एक मजेदार प्रमाण ये भी है कि पुराने ब्लॉगर याद करेंगे तो मानेंगे कि उस समय के बैनवादी और आजकल के 'शटडाउन जेएनयू' वाले भी दरअसल एक ही हैं। अवसर चेतने का है, अतीत से सबक लेने का है।
सबकुछ किंतु वैसा ही नहीं है। खाप वाले तो नहीं बदले सो नहीं बदले पर जिन्हें हम लोकतांत्रिक मानते रहे वे भयानक तौर पर बदले हैं। जिस कचोट में यह पोस्ट लिख रहा हूँ उसे शेयर करता हूँ। उस नैपकिन विवाद और बाद की भी अनेक लोकतांत्रिक संघर्षों में जिनके साथ शामिल रहे उनमें से एक हैं। हम आजीवन लोकतांत्रिक मानते रहे। एक मंच के संचालन की अदना सी भूमिका में हैं। आज अचानक देखता हूँ कि इस साझे मंच (लगभग नारद की ही तरह) के सदस्यों की सूची से हमें अचानक गायब कर दिया गया। नहीं मंच उनके पिताजी की जागीर नहीं था कितने ही हम साझीदारों ने मिलके ही सींचा था और यहॉं कोई नैपकिन विवाद भी नहीं है। वे अभी भी लोकतांत्रिक होने के ही दावेदारों में हैं। बस फर्क इतना है कि बाकी से ज्यादा लोकतांत्रिक होने की होड़ में कुछ को कलम करना जरूरी था। अगर खापवाले और संगठित हुए हैं और जनपक्षीय बेशर्म होने की दिशा में हैं तो मान चलिए कि हम हारने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।
Thursday, February 25, 2016
सदन पटल पर विषय है, मैं खुद नहीं हूँ।

पर एक और पक्ष है। डिबेटिंग कम से कम 25 सालों से मेरा पैशन रहा है, पहले एक डिबेटर के रूप में फिर एक शिक्षक के रूप में। उस लिहाज से कह सकता हूँ कि डिबेटिंग के तीनों एम यानि मैटर, मैथड, मैनर से परखें तो साफ है कि उनकी डिबेट सदन को संबोधित नहीं थी उसकी ऑडिएन्स सदन से बाहर थी, मैटर में आपको कमजोर लगेगी, थी भी पर जिन्हें संदेश देना था उनके लिए उसमें मैटर था...मैनर/मैथड के लिहाज से ये कोई एतिहासिक डिबेट नहीं थी औसत थी। हम डिबेटिंग के दिनों में जिन्हें प्रवाहजीवी डिबेटर कहते थे, स्मृति वैसी तो रहीं ही यानि फ्लो, फट्टों और उतार चढ़ाव से प्रभावित करने वाले। यद्यपि मुझसे कोई पूछने नहीं जा रहा पर मैं ज़जमेंट कर रहा होता तो मैटर के 5, मैथड के 5.5 मैनर के 6 कुल तीस में से 16.5 ! प्रोत्साहन पुरस्कार । लेकिन हूटिंग करने वालों को पक्का सदन निष्कासन smile emoticon
#smriti
एक स्त्रैण कविता
कविता से तमाम दुनिया की
मैं हटा देना चाहता हूँ मर्द कविताएं
इनसे नोच लेना चाहता हूँ
(देखा मर्द बिना नोचे कविताएं तक नहीं जन्मते)
सारी मर्दानगी
इनमें घोलना चाहता हूँ
खुद को
ऑंसुओं को अपने
हया औ शर्म अपनी
सपने अनदेखे वर्जित
मुझमें जो कुछ जितना कुछ स्त्री है
प्यार में अपने, पुलक सा
मिला देना चाहता हूँ
कविता-मर्द में ।।
हरेक कविता को मैं बना देना चाहता
स्त्रैण जितना हो सके
कैसे कहूँ कि कितना जरूरी हो गया है ये
जब से कविताएं औरतों की
बधिया हुई हैं।
Monday, February 22, 2016
हैं सवाल दर सवाल, और सवाल चाहिए
यानि सवाल इतना भर है कि हम खुद कितना लोकतांत्रिक हैं, हम खुद पर सवालों को, खुद से असहमति को कितना स्वीकार व स्वागत भाव देते हैं। यदि हम खुद को अप्रश्नेय मानते हैं लेकिन रोहित वेमुला, कन्हैया, दलित, स्त्री और न जाने किस किस मोर्चे पर तंत्र को आड़े हाथ लेते हैं कि वह असुविधाजनक आवाजों को दबा रहा है तो हम दरअसल पाखंडी हैं। क्योंकि यदि असहमति के स्वरों पर हमारी प्रतिक्रिया इस बात से तय होती है कि हम सत्ता समीकरण में किस ओर हैं तो ज़ाहिर है दुसरे पक्ष को भी इसी आधार पर आपकी असहमति को दबाने का पूरा नैतिक आधार है। जब आपकी पत्नी आपके लंपट आचरण पर हल्की सी आपत्ति रखे या कोई सवाल उठाये तो आप उसे किनारे कर लतिया दें, या खारिज कर दें पिछड़ा घोषित कर दें, या जो आपके बस में हो वो सब करें फिर जब सरकार किसी मुद्दे पर आपके या जनता के साथ ऐसा करे तब उम्मीद करें कि आपके आचरण को व्यक्तिगत मानकर अप्रश्नेय समझा जाए और सरकार के आचरण पर नुक्ताचीनी हो पाये तो आप एक भयंकर भूल कर रहे हैं।
हमने जो परिवार, धर्म, समाज की संरचनाए खड़ी की वे सब और बाद में शिक्षा और राज्य जैसी संरचनाएं जो विकसित हुईं वे सब सवालों को कुफ़्र मानती हैं ऐसे में खुद को इन संरचनाओं के खिलाफ संघर्षरत समझने वाले किसी आसमान से तो आएंगे नहीं वे भी भले बाकी किसी भी ढाँचे पर कितने सवाल उठाने की आज़ादी चाहें खुद पर सवाल नहीं चाहते। हर सवाल को खारिज करते हैं। ऐसे क्रांतिकारी न्यायवादियों से न्याय को बचाना बेहद जरूरी है।
Tuesday, February 16, 2016
रकीब के पक्ष में तैनाती: महबूब जो न करा दे सो कम
मेरा प्यार अपनी इस जान दिल्ली शहर से है सो है उससे कोई बेवफाई नहीं। जेएनयू में टापू रहकर बनने की एक बीमारी रही है माने शहर के दुःख दर्द में फिलॉन्थ्रोपी टाइप या मुद्दे के समर्थन में जेएनयू कैम्पस से शहर की ओर निकलता है कभी कभी पर वो अपनी पहचान को शहर से एकात्म नहीं करता, जैसे चांदनी चौक करता है, मेरा दिल्ली कॉलेज (ज़ाकिर हुसैन) या दिल्ली विश्वविद्यालय करता है। जेएनयू मुनीरका भर को अपनी पहचान में जुड़ने दे तो दे वर्ना वो एक टापू होना ज्यादा पसंद करता है।
ये न समझें कि इस बेरुखी का मतलब है कि दिल्ली भी उसे तन्हा छोड़ देती है, न जी मेरी महबूबा इस जेएनयू को न केवल भरपूर तवज्जो देती है बल्कि दरअसल उस पर जान छिड़कती है। (तो महबूबा के आशिक़ होने की वजह से जेएनयू हुआ न रकीब) इस तरह यह शहर इस टापू को अपनी पहचान में बाकायदा शामिल मानता है और सच्चाई तो यह है कि जेएनयू को जेएनयू होने, बने रहने देने में इसके दिल्ली में होने की बड़ी भूमिका है और अब यह दिल्ली के लिए भी एक परीक्षा की घडी है कि उसकी इस पहचान पर जो संकट है, उसे यह सहारा दे। चाहे खुद जेएनयू में कितनी ही बेमुरव्वती क्यों न दिखाई हो लेकिन ये दिल्ली की अपनी ग़रज़ है कि वह कुक्कुटों को इस खूबसूरत चमन को बर्बाद न करने दे।
तो मैं जेएनयू के लिए उतना नहीं अपने महबूब दिल्ली शहर के लिए ज्यादा इस बेचैनी में हूँ।
लेकिन अब एक सवाल उनके भी लिए जिनका जेएनयू से रकीब का नहीं महबूबा का रिश्ता है, सोचो दोस्तो अगर ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज पर यह हमला होते तो उनके शहर अपने विश्वविद्यालय को तन्हा छोड़ देते क्या? आपने अपने पूरे देश समाज से प्यार किया है लेकिन खुद दिल्ली शहर से वो नाता नहीं बनाया। जब इससे भी ज्यादा नृशंस ताकतों ने दिल्ली कॉलेज को बंद कर दिया था तो यह शहर पूरी ताकत से इसके पक्ष में आ खड़ा हुआ था, दिल्ली की मोहब्बत जेएनयू पर बरकरार है पर इकतरफा मोहब्बत ज्यादा इम्तिहान लेती है, इस शहर की मोहब्बत को लौटाने की जिम्मेदारी लो जेएनयू वालों।
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Thursday, February 11, 2016
कीवर्ड कविता
उछालते हैं
चंद फूहड़ असंगत शब्द
ट्रेंड्स-
मल्लिका शेरावत, उगाड़ी, डीवार्मिंग
नारायण खेद, वुशू , सन्नी लियोन
मानो समस्यापूर्ति एल्गारिदम्स की
गूगल कवि पहेली सुलझाता
हगता है एक कीवर्ड कविता
लिंक, इमोटिकॉन्स, एसईओ, सीएसएस से लैस
आलोचक कब के फना हुए
पेजरैंक में भला क्यों पिटेगी
कीवर्ड कविता
Wednesday, February 10, 2016
हाट की कविता
चंद शब्द मोल लिए
बदले में दिया थोड़ा सा खुद को
हाट के कारीगर को सौंपे वे शब्द
उसने गढ़ दी कविता
मेहनताने में दिया थोड़ा और खुद को
कविताओं को लिए टोकरी में फिर
वो खुद जा बैठा हाट में
खुद जो खुद से थोड़ा कम था
हाट की कविता के बदले
अब वो लेता है न जाने क्या
खुद लेकिन पूरा फिर से नहीं होता
Friday, February 05, 2016
चुस्कियोँ की राहजनी
कुछ तय चाय के प्यालों का
न घट पाना
ऐसा भी क्या है कि
कविता का विषय हो जाए
उम्र की ढलती सांझ पर ली जानी थी चंद चुस्कियॉं
शिखरों की यात्राओं के हाथोँ हुई
ये राहजनी
ऐसा भी गिने जा सकने लायक गुनाह नहीं
थी मेरी यही कुल पूंजी, तो हुआ करे।
Wednesday, February 03, 2016
अनाथ शब्द
आकाशगंगाओं परे जाते
सरहदों की बाड़ के कॉंटों में उलझे
हिमस्खलनोँ के नीचे दबे
हर टूटे पुल से लटके
अपने सभी अनाथ शब्दों को
जिनकी मोमदार रस्सी से
निरपराधों को लटकाया गया
मैं एतद द्वारा इन्हें बुलाता हूँ अपनी गोद
स्वीकार करता हूँ इनका स्वामित्व
प्रस्तुत हूँ
तारीखी इंंसाफ के लिए।
क्योंकि दुनिया का कोई शब्द
त्रिशंकु नहीं होना चाहिए
चुप्पियों के ब्रह्मांड
बनने से कहीं पहले रोकने जरूरी हैं
Sunday, January 31, 2016
अन्ना कैरेनिना को मैंने नहीं मारा
जो टँकी है चौराहे के नोटिस बोर्ड पर
उसमें मेरा भी है नाम।
हैरान हूँ मैं क्योंकि मैं जानता हूँ बिला शक
कि मैंने नहीं मारा था गाँधी को।
उस उदास रामदास को भी
हाथ तौलकर चाकू मैंने नहीं घोंपा था।
यूँ हत्याएं अब तमगा हो गई हैं
जो बायो डाटा में काबिले जिक्र हों
और जिनसे मिलें तरक्की
इसलिए
मुझे हत्यारा होने के अंजाम की फिक्र उतनी नहीं
जितनी मुझे चिंता है
हलाक को जानने की।
कितनी ही हत्याओं का गवाह मै
चीह्नता रहा
हर बार खुद को ही
अगले शिकार के रूप में
अब सुना मैं हत्यारा हो गया
नोटिस का मजमून कहता है मैंने मारा है
वक्त की सात नदियाँ
जमीं के सात पहाड़ पार
नीले सर्द होंठों वाली
अन्ना कैरेनिना को
सुनो
अन्ना कैरेनिना
मैं लेविन न ब्रांकी
आत्महत्या न भी मानो उसे तब भी
मेरे पास न तर्क न पैरवीकार
कहने का कुछ लाभ नहीं
पर फिर भी
सुनो मेरे प्यार
तुम्हारे होंठों की कसम
वो मैं नहीं था।
Saturday, January 30, 2016
कीला काटी
Tuesday, January 19, 2016
मैं वहाँ नहीं था
जब ढो रहा था वो अपना सलीब
मैं वहां नहीं था
आखिर क्यों नहीं था मैं वहां
उसके हत्यारे पूछते हैं।
खोजती थीं मुझे
तब मैं वहां नहीं था
आखिर क्यों नहीं था मैं वहां
कातर तुम्हारी चुप्पियाँ पूछती हैं
जब बन प्यार की नदी
आ टकराये थे तराई के पत्थरों से
तब मैं वहां नहीं था
पूछते हैं बेबस झूले वाले पुल
मैं था क्यों नहीं वहां
क्योंकि मैं था यहीं
पथरायी प्रतीक्षा में
प्रतीक्षा में थिर हो
जम जाना
शायद कुछ न हो जाना है।
वहां न होना
कुछ न होना ही है
Sunday, January 17, 2016
रचने ही होते हैं पुतले
पुतलों को फूंकना
धूं धूं फुंकते देखना
हर वक़्त को
हर देश को
हर मन को चाहिए होते हैं पुतले
कि दुश्मन के बिना
बहुत मुश्किल है
अनचाहे सवालों को दफन करना
नेस्तनाबूद कर पाना
भीतर उगते
प्रवंचनाओं के किलों को।
नफरत संग्रहणीय हो जाए तो
प्यार के पुतलों का दहन
रोजमर्रा जरूरत हो जाता है।
Wednesday, January 13, 2016
आजादी मेरा ब्रांड- पढने के लिए हिम्मत जुटान

अभी किताब को पढ़ना शुरू करना बाकी था और मुझे पता था ये मुश्किल होने वाला था...औरत की आज़ादी से हम सब डरते हैं। कहना मुश्किल है कि ये मेरा ही भय है कि किसी और के भी साथ ऐसा कुछ होता है लेकिन मुझे ज्ञात से भी भय होता है अज्ञात से दुनिया डरती ही है। मुझे पता था कि अनुराधा ने किताब में यात्रा को आ़जादी का रास्ता बनाया होगा और आज़ादी के साथ ही वो सब भी होगा ही सही मायने में औरत को गुलाम बनाता है... ये है तो आरोप जमाने पर ही पर इसी लिए मुझ पर भी है, होना ही चाहिए। मैं इसीलिए किताब पढ़ने से डर सा रहा था, फिर से अपनी मिष्टी का ही सहारा लिया...मिष्टी तुमने किताब पढ़नी शुरू की ? आजा़दी मेरा ब्रांड, फेवरेट खोलकर दी... इतनी हिंदी की उसे आदत नहीं पर कोशिश की..लेकिन पेट में तितलियॉं उड़ने पर आकर अटक गई... अब हिम्मत का मौका मेरा था...लाओ मैं रीड करता हूँ...फिर मैं पढ़ने लगा... लड़को के साथ सोने के प्रकरण को कब डरपोक बाप 'लड़कों के साथ होना' पढ़ गया मुझे पता ही नहीं चला.. मिष्टी अब दूसरे कमरे में चली गई है और मुझे मालूम है कि आजादी का हर लफ्ज मुझ पर एक सवाल है पर मिष्टी के लिए जो दुनिया चाहिए उसके लिए जरूरी है कि सवालों से मुँह न मोड़ा जाए... इसलिए किताब पूरी तो पढ़ी ही जाएगी विद पेट में तितलियॉं...
अनुराधा मिष्टी की रमोना हो
Tuesday, January 12, 2016
लिखना दरअसल मिटाना है होने को
लगता है मिटा रहा हूँ सबकुछ
वह सब मिटता है
जो मुझे लिखना था दरअसल
मुझे लिखना था मैं, और लिखना था तुम्हें
किंतु कविता के ढॉंचें में अँटा नहीं मेरा अहम
कहानी में तुम अकेले आ नहीं पाईं
और पात्रों ने तुम्हें तुम रहने न दिया
निबंध औ उपन्यास भी थके से लगे पराजित
विधाएं दगा करती हैं
जब तुम पर या कि
खुद पर चाहता हूँ कुछ लिखना।
लिखने की कोशिश
शब्दों के दर्प यज्ञ में आहूति है बस
वरना
कविता भी भला सच कहती हैं कभी
Monday, January 04, 2016
मैं तीसरा पराजित पक्ष हूँ
तुम्हारा झूठ
तुम्हारी तलवार
तुम्हारी ढाल
तुम्हारी ध्वजा
तुम्हारी यलगार
दुर्ग तुम्हारे
युद्धनाद तुम्हारे
विजय तुम्हारी
विजित तुम्हारे
संदेश तुम्हारे
तुम्हारे हरकारे
तुम्हारे इस एकाकी समर में,
मेरा प्रेम
तीसरा पराजित पक्ष भर है।
वो न बिगुल है न हथियार
वो युद्ध-संधियों की इबारत में भी
नहीं है दर्ज।
इस पक्ष का
यह संख्यावाचक विशेषण भी
मेरा चुनाव नहीं है
पराजय मेरा कुल हासिल है
इस विक्षत बेगाने युद्ध में।
तुम्हारी देह पर
वैजयंती से सजे युद्धघाव तक
मुझे ही आहत करते हैं
रहे तीसरे पक्ष के अनदेखे घाव
किंतु वे दर्ज होते नहीं
यद्धों के इतिहास में।
Saturday, January 02, 2016
कॉंच के बुतों के ऑंसू
साफ रहना लेकिन बुत न होना
कॉंच के बुतों के इस शहर में
पारदर्शी नहीं
नफरत से भरे होते हैं ये बुत
सामने हों भले कि ये देखते हैं आपके आरपार
गोकि
आपका होना ही है अस्वीकार
रोको लेकिन
नहीं बहने चाहिए
कॉंच के बुतों के खारे ऑंसू
नमक सच को धुंधला करता है।