राजधानियों को कई लाभ मिलते हैं जो उनके हैं ही तो कुछ और 'लाभ' उन्हें घलुए में मिलते हैं। दिल्ली सदियों से राजधानी है जिसमें पिछले छ: दशक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश की राजधानी के रूप में रहे हैं। उससे पहले भी स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भी यह लोकतांत्रिक संघर्षों की जगह तो थी ही। इसलिए दिल्ली सहज ही रैलियों की राजधानी भी है। बोट क्लब, रामलीला मैदान, लालकिला मैदान इन जगहों ने न जाने कितना इतिहास बनता बिगड़ता देखा है। कल की दिल्ली की रामसेतु रैली में इसने हमारे घर के सामने वाले मैदान (स्वर्ण जयंती पार्क) को भी जोड़ दिया। वैसे रैली पार्क में नहीं थी पार्क के सामने सैकड़ों एकड़ की खुली जगह में हुई थी। इस रैली का मुद्दा रामसेतु था जिसपर बेपनाह पोस्टें लिखी जा चुकी हैं हमें कुछ और नहीं कहना। पर रैली और दिल्ली पर कुछ कहना बाकी है।
दिल्ली की रैलियों पर चर्चा होते न होते कम से कम दो रैलियों की बात खास तौर पर होती दिखती है- एक है रामलीला मैदान की जयप्रकाश नारायण की रैली जिससे आतंकित होकर अंतत: आपातकाल की घोषणा की गई। दूसरी है, बोट क्लब पर राममंदिर रैली जिसे आरएसएस और बाकी संघ परिवार ने आयोजित किया था यह व्यापक (या कहें भयानक) जनसमर्थन के लिए जानी गई 10 से 20 लाख के बीच की अलग अलग संख्याएं (शामिल लोगों की) सामने रखी गईं हैं। जेपी की रैली का अपन को खास पता नहीं, बहुत छोटे रहे होंगे, पर संघी रैली में शहर की हवा याद है। मोहल्लों में बनती पूरी-सब्जी की थैलियॉं और ताल मंजीरे वाली प्रभात फेरियॉं भी याद हैं। धर्म वाकई दीवाना बना देने की कूवत रखता है। इस बोट क्लब रैली का शहरी सोच पर ये प्रभाव पड़ा कि बोट क्लब पर रैलियॉं बंद कर दी गईं।
अब रैलियों की चर्चा जनांदोलन के रूप में कम होती है, तकलीफों के लिए अधिक होती है। रैली से यहॉं ट्रैफिक जाम हुआ, यहॉं दस की जगह चालीस मिनट लगे। काम काज नहीं हुआ। रैली में लोग बिना टिकट आए। अब ये 'बिहारी' आ तो गए हैं मुफ्त में अब आधे तो यही बस जाएंगे दिल्ली में आदि आदि। व्यक्तिगत तौर पर रैलियों को इस रूप में देखा जाना (और दिखाया जाना- कम से कम अंग्रेजी अखबार तो हर रैली की रपट ट्रेफिक-जाम पर ही केन्द्रित रखते हैं) मुझे नहीं रुचता। रैलियॉं शहर को कुछ कष्ट देती हैं, राजनीति को हवा देती हैं पर वे शहर का शहर भी बनाती हैं। हमें रामसेतु के मुदृदे से चिढ़ है, हमारी नजर में तो ये राजनीति की दुनिया का ट्राल है पर फिर भी हमें रैलियॉं लोकतंत्र का उत्सव लगती हैं, पाकिसतान जैसे असफल लोकतंत्र खूब समझ सकते हैं कि विरोध को इतना खुलकर अभिव्यक्त कर सकना कितनी बड़ी नेमत है।
कुछ ब्लॉगर मित्र संडे की ब्लॉगिंग को संडे चिरकुटई कहकर करते हैं, कुछ समूची ब्लॉगिंग को चिरकुटई घोषित कर चुके हैं। अब प्रमोदजी से तो कोई पंगा लेने से रहा...जब वे कहते हैं कि वे महान हैं तो हम मान लेते हैं कि वे हैं और अब वे कह रहे हैं कि वे चिरकुट हैं तो हम होते कौन हैं कहने वाले कि वे नहीं हैं- वे महान हैं, वे चिरकुट हैं और जब जक कि वे और खोजें कि वे इसके अलावा क्या क्या हैं हम माने लेते हैं कि वे महान चिरकुट हैं।
लेकिन बाकी लोग जो वीकडेज़ पर तो नहीं होते पर संडे को उन्हें लगता है कि वे चिरकुट हो गए हैं उनसे हमारी पूरी सहमति है। संडे दिन ही है कम्बख्त चिरकुटई का। अगर आप पतनशील हैं यानि ताजिंदगी अविनाश टाईप हमेशा पोलिटिकली करेक्ट होने का बोझा नहीं ढोना चाहते कभी कभी वो भी रहना चाहते हैं जो आप हैं तो जाहिर है कि आप अचानक संडे के दिन महान स्त्री संवेदनशीलता नहीं ओढ़ लेना चाहेंगे। आप अपना दिन रसोई में मसाला भूनते नहीं बिताना चाहेंगे। आप चाहेंगे कि आप शनिवार रात से ही संडे शुरू मानें और देर रात तक जागें, संडे खूब देर तक सोएं। रगड़कर अपनी मोटरसाइकल साफ करें या गोल्फ के डंडे को मखमल के रूमाल से रगड़ें। परांठे का नाश्ता करें जिसपर मक्खन तैरता फिरे। कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अलसाई अंगुलिया चलाएं, पोर्न देखें या गेम खेलें। नाश्ता खत्म होते न होते लंच का समय हो चुका हो पर बिना तंग किए कोई इंतजार करे कि कब आपका लंच का मन है और जब आप अंगड़ाते हुए डाइनिंग टेबल तक पहुँचें ठीक तब ही आपका मनपसंद खाना परोस दिया जाएं.....
सूची और लंबी है पर लुब्बो लुआब बस इतना है कि संडे को आप लोकतंत्र और संवेदनशीलता को छुट्टी पर भेज देना चाहते हैं और सामंतवाद और मर्दवाद की छांव में पसरना चाहते हैं। आप इनमें से कुछ कुछ कर पाने में सफल भी हो जाते हैं मसलन आप लकी हैं तो आपको परांठे का नाश्ता मिल जाता है वगैरह वगैरह पर जरा इन कामों पर फिर नजर डालें इनसे ज्यादा चिरकुटई और क्या होगी। बोनस में आपको कई और काम करने ही होंगे जैसे आपको नाई की दुकान की तरफ ठेल दिया जाएगा साथ में संलग्नक की तरह एक बच्चा कि जरा इसे भी हेअरकट दिलवा दीजिए। कबाड़ी बुलवा लिया जाएगा और आप अपने तमाम लीवर व सिंपल मशीन के ज्ञान से जानते हैं कि इसका फुल्क्रम सेंटर में नहीं है तो क्या...आप सहजता से मूर्ख बनना स्वीकार कर लेते हैं। चिरकुट हैं और क्या। सत्रह किलो अखबार छ: रुपए से कितने हुए साब..आप हिसाब लगाते हैं सत्रह छिका एक सौ दो ...पर बोलते नहीं चिढ़े हुए हैं देगा तो फिर भी एक सो दो ही न। आप उसके जाने का इंतजार करते हैं ताकि फिर से अपने संडे में पहुँच सकें। संडे ससुर एक ही है, चौबीस ही घंटे का और उससे आपकी उम्मीदें बहुत हैं...कारपेंटर का काम, बिजली का भी, इसका उसका, बच्चे को एलसीएम सिखाने का और छुट्टी मनाने का भी। फिर से इन कामों पर नजर डालो जरा...सब एक से बढ़कर एक चिरकुटई काम।
और कुछ नहीं तो खीजकर कंप्यूटर आन करो और गिना दो दूसरे चिरकुट ब्लॉगरों को कि संडे के दिन आपने क्या क्या चिरकुटई की। संडे दिन ही है चिरकुटई का....।
सराए में राकेश ने हिन्दी ब्लॉगिंग पर कार्यशाला का आयोजन किया था। रविकांत थे, सराए की शोधकर्त्री होने के नाते नीलिमा थीं। विनीत भी थे और चोटी के ब्लॉगर अविनाश थे। बंधुआ घाघ होने के नाते हम भी पहुँचे थे। सराए कॉपीलेफ्ट, ओपन सोर्स की अहम जगह है इसलिए बात सहज ही कापीराइट वगैरह पर पहुँच गई। रविकांत का कहना था जिससे हमारी पूरी सहमति है कि जिन्हें लगता है कि उनका लिखा सिर्फ 'उनका' रहे उन्हें केवल अपनी डायरी में लिखना चाहिए, इंटरनेट उनकी जगह नहीं है ब्लॉगिंग तो बिलकुल नहीं। यहॉं कितना भी हल्ला कर लो टेक्स्ट इस या उस वजह से इधर उधर जाएगा ही, जाना भी चाहिए। अचानक अविनाश ने मानो धमाका किया, कहा कि उन्होंने अपने चिट्ठे को नकल से बचाने का इंतजाम कर लिया है। अविनाश तकनीक के मामले में हमारी तरह पग्गल तो नहीं हैं पर ग़ीक भी नहीं हैं इसलिए हम जानते थे कि कापीस्केप वगैरह (यानि आप राइट क्लिक कर कापी या सेलेक्ट करने की कोशिश करें तो कोई स्क्रिप्ट आपको रोक लेती है) किया होगा- जो उन्हें तो चिढ़ा देता हे जो समीक्षा, प्रसार वगैरह के लिए आपको बढ़ावा देना चाहते हैं पर जो वाकई चोरी करके कंटेट इस्तेमाल करना चाहते हैं उन्हें नहीं रोक सकता। (दरअसल कंटेट अगर इंटरनेट पर है उसे फैलने से कतई नहीं रोका जा सकता)
केवल बताने भर के लिए मोहल्ला से कापी पेस्ट हाजिर है-
लेकिन फिल्म तो अच्छी तब बनती जब ईशान अच्छा पेंटर भी नहीं बनता या कुछ भी अच्छा नहीं कर पाता तो भी लोग उसे समझते और प्यार देते। हर बच्चा कुछ न कुछ बहुत अच्छा करे ये उम्मीद नहीं करना चाहिए। ये जरूरी तो नहीं है कि वो कुछ बढ़िया करे ही। कोई भी बच्चा एवरेज हो सकता है, एवरेज से नीचे भी हो सकता है। लेकिन इस वजह से कोई उसे प्यार न दे ये तो गलत है।
(हमने कुछ नहीं किया ये ताला ओपेरा पर खुद ही नहीं चलता)
हिन्द युग्म के मामले में काफी बहस से यही तय हुआ था कि कापीराईट समर्थकों के लिहाज से भी कंटेट पर ये ताला बेकार है। पर हिन्द युग्म के मामले में ये फिर भी थोड़ा समझ में आने वाली बात थी कि वे नए आगे आने की कोशिश करते कवियों की जगह है और कविता पर रचनात्मक मालिकाना दावे को बहुत अच्छा न भी कहें तो भी ये समझ में तो आता ही है।
पर मोहल्ला तो बंधुवर है ही मोहल्ला। मेरा तेरा इसका उसका मोहल्ला। क्या ये सिर्फ उनका है जो इसमें रहते हैं कि उनका भी है जो इससे गुजरते भर हैं। चॉंदनी चौक में कटरा, कूचा, मोहल्ला, बाजार ये सब अलग अलग किस्म की बसावटें मानी जाती हैं। कूचे में जरूर इस बात का प्रावधान होता है कि बाहर ही एक दरवाजा है जिस पर ताला चाहें तो लगा सकते हैं पर उस पर भी ताला लगाते नहीं हैं। आप तो माहल्ला ही तालाबंद किए दे रहे हैं। अरे मित्र जो चोरी कर आपका कंटेंट ले जा रहे हैं वे ले तो मोहल्ला ही रहे हैं न। जहॉं ले जाकर उसे टिकाएंगे वो ही खुद मोहल्ला हो जाएगा जो दरअसल 'आपका' ही होगा। वैसे ये भी मजेदार हे कि हिन्द युग्म और मोहल्ला दोनों ही सामुदायिक ब्लॉग हैं जिन्हें सामग्री के प्रचार (भले नाम हटाकर) से कम गुरेज होना चाहिए क्योंकि इन ब्लागों पर भी मुख्य मॉडरेटर की सामग्री कम होकर अन्य साथियों की अधिक होती है।
खैर अपनी तो राय यह है कि भाई लोग, जो मोहल्ला तालाबंद है वह भी क्या मोहल्ला हुआ।
हमने अपने मित्र की हिन्दी यूनिकोड से टेक्टाइल जद्दोजहद की चर्चा की थी। और लीजिए म्यूजिकेडिमिक वाले कच्चे रास्ते की पहली खट खट हो गई है ब्लॉगजगत के दरवाजे पर। कच्चे रास्ते के राही हमारी तरह हिंदीबाज नहीं हैं, शैक्षिक जगत के व्यक्ति हैं विषय है इतिहास। ग्रामोफोन इंडस्ट्री के इतिहास पर शोधलीन हैं। शास्त्रीय संगीत की अच्छी समझ है। उनका वायदा है कि इन सभी विषयों पर वे अपनी अंगुलियॉं चलाते रहेंगे।
के ये ब्लॉगर हिन्दी के संभवत पहले दृष्टिहीन ब्लॉगर हैं, इस लिहाज से तकनीकी पचड़े रहेंगे पर समय बीतते न बीतते ये पचड़े कम ही होंगे, इसलिए दिल खोलकर स्वागत करें इस खट खट का।
कम्यूनिस्ट नहीं हैं, इस विचारधारा का घणा विरोध किया है इतना कि कई बार तो लोग सिर्फ इस विरोध की बुनियाद पर मानते रहे हैं कि जरूर 'संघी' ही होउंगा। वो भी नहीं हूँ। ये अकेला अंतर्विरोध नहीं है व्यक्तित्व में अपने और भी ढेरों हैं। दरअसल इस लिहाज से देखा जाए तो सिर्फ ब्लागिंग ही एकमात्र जगह हे जहॉं हमारी निभ रही है वरना हर खांचा एक या दूसरी किसम की कैडरबद्धता की मांग करता है। ब्लॉगिंग में इसलिए चल जाता है कि यहॉं कोई आपसे अंतर्विरोधों से मुक्त होने की शर्त नहीं रखता। जिसे अतर्विरोधों से मुक्त लोग मिलें वह उनके साथ मिलकर एक अंतर्विरोधों से मुक्त दुनिया बसा ले। हमारी सच्चाई ये है कि कम्यूनिज्म का विरोध करते थे पर प्राइवेट की जगह डीटीसी में बैठना पसंद करते थे, पैसा जाए तो सरकारी क्षेत्र में जाए। अब तक लगातार एमटीएनएल का ही फोन लेते रहे हैं जबकि लोग खूब भरमाते रहे हैं कि सरकारी कंपनी है दो धेले की सर्विस नहीं है, लाइनमैन बिना टाई के है वगैरह। एयरटेल की लाइने लैंडलाइन के लिए बिछाई गईं पर हम नहीं माने।
पिछले दिनों एक गड़बड़ हुई, बीस तारीख की बात है, रात को पोस्ट लिखी की सुबह पब्लिश की जाएगी...सुबह देखा तो हो नहीं रही थी। गौर किया तो पाया कि फोन 'डैड' है। 'मौत की घंटी' होती है यहॉं 'घंटी की मौत' हो गई। खैर दो बातों का आसरा था, एक तो ये कि अब जिंदगी फोन पर उतनी नहीं टिकी नहीं होती मतलब लैंडलाइन पर। दोनों वयस्क सदस्यों यानि हम और वे, के पास अपना अपना मोबाइल हैं तो चल जाएगा काम - शाम तक तो ठीक हो ही जाना चाहिए (इधर एमटीएनएल की सेवा काफी सुधरी है, फाल्ट रिपेयर के मामले में तो जरूर ही...ऐसा हमें लगने लगा था) सो मोबाइल से शिकायत दर्ज कराई, शिकायत संख्या लिखी और इंतजार करने लगे। मिनट बीते, घंटे बीते होते होते दिन बीत गया। अगले दिन भी कोई घंटी नहीं बजी, इंटरनेट नहीं...अब दिक्कत होने लगी। तो निकले कि दरियाफ्त्ा करें कि पचड़ा क्या हे भई। अभी सोसाइटी के गेट पर ही थे कि गार्ड से समाचार मिला कि पूरे सेक्टर के फोन बंद हैं- केबल चोरी हो गई है।
मुझे दो चोरियॉं बहुत ही हैरान करती रही है और ये दिल्ली के सरकारी तंत्र की मोस्ट अमेजिंग कटैगरी की चोरी हैं- एक तो है अस्पताल से 'एक्स-रे' चोरी होना दूसरा है जमीन के नीचे से टेलीफोन के केबल चोरी होना। क्या बात है...चोर भी कमाल के- मरीज रपट का इंतजार कर रहा है और साहब उसका एक्सरे ही ले उड़े क्यों... बताते हैं कि रासायनिक क्रिया से उस फिल्म से कुछ काम की धातुण् निकलती हैं। और दूसरा रहा कि और भी मजेदार जमीन को खोदकर केबल को काटकर चोरी करने वाला चोर। कंबख्त को पता है कि कहॉं खोदने से सीवर का पाइप नहीं केबल निकलेगी और इतनी देर तक एन सड़क पर अगले खुदाई करेंगे तार निकालेंगे ये भी सिर्फ उससे निकलने वाले तांबे औ रांगे जैसे पदार्थों के लिए। बड़े जुगाड़ु और मेहनती चोर हैं भई।
यह समझने के लिए आपको कोई शरलॉक होम्स होना जरूरी नहीं हे कि ये दोनों ही चोरियॉं कर्मचारियों की मिली भगत से ही हो पाती हैं। इनसे चोर का फायदा तो बहुत कम ही होता है पर सरकार और आम व्यक्ति (मरीज या फोन उपभोक्ता की असुविधा के रूप में) का नुक्सान बहुत अधिक होता है।
हम रोजाना कई कई बार पता कर रहे थे हर बार बताया गया कि दिन रात काम जारी है, 3-4 दिन लगेंगे। सिफी के परचे घर घर पहुँचने लगे थे, कि उनका इंटरनेट कनेक्शन लो, अंतत: हम खुद उस खुदी साईट पर पहुँचे कि भैया बताओ इरादा क्या है। 7-8 मजदूर कड़कड़ाती ठंड में लगे हुए थे, लाइनमैन व सुपरवाइजर भी थे मैंने लाइनमैन से पूछा तो उसने बिना लाब लपेट के बताया जी ये प्राइवेट कंपनी (एयरटेल) आ गई है उसकी ही कारस्तानी है। ठेकेदार को खरीद लिया है कि हमारे केबल काटे ताकि लोगों को गुस्सा आए वे फोन कपनी बदल लें। 'साब ये कंपनियॉं बरबाद करने पर उतारू हैं' वैसे इस नए बदलते केबल से निकल स्क्रेप को ये मजदूर वहीं एक कबाड़ी को बेच रहे थे।
उफ्फ अंतर्विरोध पीछा नहीं छोड़ते, घोषणा ये कि बाजार में प्रतियोगिता होती है जो खुद ही उपभोक्ता को लाभ देती है पर बाजार में कोई नैतिकता नहीं...। निजी क्षेत्र लाभ के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विकारों को हथिया लेता है। हममें से राष्ट्रवाद का कीड़ा पूरी तरह से निकलने को तैयार नहीं इसलिए परेशानी सहकर भी सार्वजनिक क्षेत्र से सद्भाव मिटता नहीं। क्या करें...कया बनें कुछ्छे नहीं बूझता। और हॉं हम एक आरटीआई जरूरै फाइल करेंगे (एमटीएनएल सरकारी है वहीं इस तरह सूचना मांगी जा सकती है प्राइवेट में नहीं)
ब्लॉगराईन होना गज़ब की त्रासदी है, पति है पर नहीं है क्योंकि ब्लॉगर है। आधुनिक यशोधरा हैं बेचारी। पर वो कहानी तो हो चुकी।ये भी कहा था हमने कि अगर ब्लॉगराइन खुद ब्लॉगर हो तो करेला नीम चढ़ जाता है। कई तकलीफें हैं इस जोड़े को। कुछ को गिना देते हैं-
आपको ब्लॉगिंग की खुड़क ठीक तब ही उठती है जबकि आपके पति/पत्नी का का कब्जा कंप्यूटर पर होता है।
जब आप साम दाम दंड भेद से कंप्यूटर हथियाते हैं तब तक इस राजनीति के दांव पेंच में पोस्ट का मूल आइडिया ही भूल चुके होते हैं
आप अपनी पत्नी/पति के बंधुआ और सनातन साधुवादी टिप्पणीकार होते हैं जबकि आपको लगता है कि वह आपकी/आपका सनातन आलोचक है।
साथ रहते रहते पति पत्नी एक जैसे हो जाते हैं इसलिए आपको पता ही नहीं लगता कि जिस आइडिया को दुनिया-जहॉं का सबसे मौलिक पोस्ट आइडिया माने बैठे होते हैं, ठीक उसी समय 'उनके' दिमाग में भी ठीक वही विचार खदबदा रहा होता है।
आप अपने 'उन' को कभी नहीं कह सकते कि आप कंप्यूटर पर 'काम' कर रहे हैं क्योंकि 'उन्हें' खूब पता है कि ब्लॉगर ब्लॉगिगं करता है काम नहीं।
आप अपने अच्छे पोस्ट-आइडिया को पंगेबाज से भले ही फोन पर डिस्कस कर लें पर पत्नी के सामने मुँह न खोलें- अगर उन्हें पसंद आ गया तो वे कहेंगी, इस पर तो मैं लिखूंगी '....तब तक तुम जरा राजमॉं में तड़का लगा दो' पोस्ट छिनी राजमा पकाना पड़ा सो अलग।
पत्नी के के अच्छे पोस्ट आइडिया कतई नहीं सुन सकते भले ही अनूप से अन्य विषयों पर चर्चा कर लें, क्योंकि आपने अच्छी राय दी तो आदेश मिलेगा की जरा टाईप कर दीजिए, ड्राफ्ट वहॉं रखा है मैं तब तक राजमॉं उबाल लूँ (उबलते तो वे अपने आप हैं, इतना तो हम जैसे एलीमेंट्री पाकशास्त्री तक जानते हैं), बुरी राय देकर आप अपने राजमॉं-चावल के डिनर को खतरे में डालना नहीं चाहते।
ये तो कुछ गिनाई हैं तथा वो गिनाई हैं जिन्हें गिनाने से 'कम' नुकसान (मैटरीमोनी में 'नुकसान न हो' होता ही नहीं) समाधान कुछ खास सूझा नहीं। पर एकठो लप्पू टप्पू (बधाई उधाई न दें वह पहिले ही ले चुके हैं) ले आए हैं और एमटीएनएल के इंटरनेट को वाईफाई करवा लिया है ताकि एक तो घर में कुल कंप्यूटर दो हो गए हैं तथा दूसरा हम घर के किसी भी कोने में छिपकर ब्लॉगिंग कर सकें। देखते हैं इस बेतार आजादी से कितना फर्क पड़ता है।
ये कविता इस सप्ताह के रविवारीय जनसत्ता में प्रकाशित हुई है- छापे में अभी भी 'कैडर के लोगों' का जमावड़ा है इसलिए इस कविता का छपना हमें अच्छा लगा। सामान्यत: हम पर कविताई में लिप्त होने का आरोप नहीं लग पाता है (एकाध पर बहके हैं, पर लती नहीं ही हैं) इसलिए कविता का ब्लॉगपक्ष बता दें कि कैडरबद्ध पत्रकारिता के चलते कविता जनसत्ता के संपादकीय कार्यालय से अयोध्या से बाबरी की तरह 'गायब' हो गई और बाकायदा थानवीजी के हस्तक्षेप के बाद ही रोशनी में आ पाई-
जी हमें बिलकुल मालूम है कि अमरीका में जब कहते हैं इंडियन, तो उसका मतलब भारतीय नहीं होता। पर उसके बावजूद हमें इस कार्टून में बहुत कुछ चिढ़ाने वाला लगता है। आप क्या कहते हैं ?
यूँ तो एक सीधे सीधे संस्कृति के तत्वों का मामला है, कि भैया वहॉं यानि अमरीका में अपने समाज के एक तबके को लेकर जो दरअसल अमरीका का असल मालिक तबका है, यानि मूल अमरीकी लोग उन्हें लेकर वे क्या सोचा जाता है। केवल एक मुहावरे की वक्रता (गूस इज़ कुक्ड, का मतलब मुहावरे के रूप में होता है कि बज गया बैंड तुम्हारा) से हास्य के लिए पूरे समुदाय का मजाक...ये ठीक कैसे हो सकता है।
पर हमें मिर्च क्यों लगीं- सीधी वजह है कि ये कार्टून किसी बदतमीज बुश के अमरीका में नहीं छपा है। ये बाकायदा हमारे देश में स्टेट्समैन के दिल्ली संस्करण में कल छपा है, दरअसल पूरे देश में छपा है। सवाल सीधा है कि क्या हमारे अपने देश में भी 'इंडियन' का मतलब मैं मूल अमरीकी लगाऊं, क्या स्टेट्समैन का संपादक ये चाहता है, क्यों। जब इस देश की संस्कृति की निर्मिति में इस कार्टून की व्यंजना ही समाप्त हो जाती है तो इसे इस रूप में छापकर ये एहसास करवाने की क्या जरूरत है कि हमारे देश के नाम से वहॉं जंगलीपन व्यंजित होता है। जब ये कठपुतली संपादक वहॉं के अपने आकाओं से कोई सामग्री पाते हैं तो उसे छापने से पहले वो बिल्कुल उस पर विचार नहीं करते। ध्यान रहे कि मूल अमरीकी संदर्भ में लेने पर भी ये कार्टून उस संप्रदाय के लिए बाकायदा नस्लवादी कहा जाएगा।
तकनीक को जो लोग मूल्यों से निरपेक्ष समझते हैं वे शायद उसे पूरी तरह नहीं समझते। विज्ञान का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विज्ञान जगत भी उतनी ही किस्म राजनीतियों से दो चार होता है जितना कि मानविकी के क्षेत्र। मूल्यों का संघर्ष तकनीक के अखाड़े में भी वेसे ही होता है जैसा कि दूसरे हर क्षेत्र में। इसलिए जब ऐस्क्लेटर्स पर झपट कर सवार होते जवान लोगों के लिए तकनीक 'बराबरी' का ही मामला है जबकि जिन अक्षम या उम्रदराज लोगों को इस तकनीक की जरूरत है जिनके लिए तकनीक इनेबलिंग हो सकती है वे या तो टेक्नोफोबिया के कारण (आखिर इस तरह की चीजें उन्होंने कभी देखी नहीं...अज्ञात से भय इतना अस्वाभाविक भी नहीं)
परसों की शाम अपने एक मित्र के साथ था, हम पिछले कम से कम 16-17 साल से कंप्यूटर वाले हैं (पहले कंप्यूटर की हार्डडिस्क 20 एमबी की थी, जी साहब मैं रैम नहीं हार्ड डिस्क की बात कर रहा हूँ) इसलिए यदा कदा इन दोस्त को साफ्टवेयर या पेरीफेरल आदि में कोई मदद हो पाती है तो करता रहा हूँ । हिन्दी के वक्ता रहे हैं तथा संगीत पर अच्छा अधिकार है- राग, सुर सब समझते हैं तथा संगीत कार्यक्रमों की समीक्षा आदि भी करते हैं। इसलिए हमें लालच रहा है कि किसी तरह घसीटकर अगर इन्हें हिंदी ब्लॉगिंग में लाया जा सके तो सच मजा आ जाए क्योंकि इतनी जानकारी के साथ संगीत को समर्पित कोई हिन्दी ब्लॉग अभी नहीं है, मतलब शास्त्रीय की समझ के साथ। पर हर बार तकनीक ही आड़े आती रही है। जो तकनीक हम दौड़ते कूदते लागों को और भी ज्यादा इनेबलिंग बनाती है वही डिसेबलिंग जान पड़ती है अगर हम डिसेबल्स की बात कर रहे हों।
दरअसल हमारे ये मित्र दृष्टिहीन हैं। और मजा देखिए कि समझा जाता है कि कंप्यूटर तकनीक दृष्टिहीनों के लिए रामबाण है। जो पढ़ना है उसे स्कैन करो और ओसीआर से वह टेक्स्ट में बदल जाएगा और फिर जाज़ जैसे किसी स्क्रीनरीडर से उसे सुनो। यानि ये समस्या ही खतम हो गई कि आपको कोई इंसानी रीडर चाहिए जो आपको पढ पढकर सुनाए, या सिर्फ वही पढें जो ब्रेल में उपलब्ध हो। अब तो जो चाहो वह स्कैनर पर रखो और रीयल टाईम में पढो। पर इतनी संभावनाएं होते हुए भी सच बहुत ही गड़बड़ है- जाज़ अगर असली खरीदा जाए तो बहुत मंहगा है और आम पाठक की शक्ति से परे है। केवल पाईरेटेड का ही सहारा है वह भी 5-7 हजार में मिल पाता है। पर असल दिक्कत ये है कि आप इससे केवल अंग्रेजी ही पढ़ सकते हैं, हिन्दी की सुविधा आमतौर पर नहीं है। स्कैन व ओसीआर तो नहीं ही है। लेकिन पता चला कि यूनीकोड से हिन्दी रीडर जाज़ में चल सकता है अगर ईस्पीक नाम का वॉइस इंजन डाल में डाला जाए तो। परसों की शाम इसी में लगाई। पहले उनके लैपटॉप में ट्रांसलिटरेशन कीबोर्ड में आईएमई डाला इस तरह उनका कंप्यूटर हिंदी क्षमता वाला बना। अब इस्पीक से हिंदी पढ़ने लायक बनवाया। अब वे खुद टाईप कर उसे पढ़ सकते हैं। जाहिर है ब्लॉगिंग की पहली शर्त तो बस इतनी ही है।
उनकी पहली पोस्ट अभी नहीं आई है वे बिना सहायता के या न्यूनतम सहायता से इसे तैयार करना चाहते हैं। मुझे लगा यही सही है। पर फिर भी मुझे अफसोस होता है कि चूंकि तकनीक के विकास को हम पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ देते हैं इसलिए वह उन तक सबसे बाद में पहुँचती है जहॉं उसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है।
शहर के बीचों बीच बैठे हैं, बोले तो कनॉट प्लेस का सेंट्रल पार्क। आए तो देखने कि कैसे वो भद्दा घंटाघर बिग बैंग (बेन) शहर के बीचों बीच टांग दिया है। आए तो सुखद अनुभूति हुई कि बिग बेन हटा दिया गया है।
ओस भरी शाम है सर्द पर खुशनुमा। बच्चे किलक रहे हैं। नए लैपटाप के साथ जाहिर है मन ललच रहा हे कि पहली आऊटडोर पोस्ट ठेल दी जाए। तो इस सूचना के बहाने कि हमारे शहर दिल्ली पर लंदन के मेयर को खुश करने के लिए औपनिवेशिक मानसिकता का जो प्रतीक थोपा गया था उसे अब शहर के माथे से हटा दिया गया है। हम अपनी पहली पहली बेतार पोस्ट आपको समर्पित करते हैं- जुगाड़ के यंत्र हैं- कम्पैक सी-700 (सबसे सस्ता, जाहिर है) और इंटरनेट कनेक्शन है इंडिकॉम का (मंगनी का)
मूलत: जो शीर्षक सोचा था इस पोस्ट का वह था, सावधान ब्लॉगिंग अब पाठ्यक्रम का हिस्सा होने जा रही है। कुछ कुछ सुधीशजी वाली पोस्ट की तरह। पर फिर खुद को सुधार लिया। माना विश्वविद्यालय चिरकुटई के महामिलन स्थल होते हैं पर कब तक हर चीज से सावधान, हैरान परेशान होते रहेंगे। आने दो ससुरे पाठ्यक्रम को भी देखें हमारा क्या बिगाड़ लेता है। बहुत होगा तो ये कि इतिहास में चार नाम पढ़ाने लगेगा, अमुक ने शुरू किया, अमुक चिट्ठाकारी का शुक्ल है अमुक द्विवेद्वी। अमुक युग अमुक वाद। थोड़ी मठाधीशी आ पैठेगी..निपट लेंगे।
हॉं तो मूल समाचार ये कि गढ़वाल के किसी विश्वविद्यालय में जिसकी न ईसी(कार्यकारी परिषद) है न एसी (अकादमिक परिषद) ने अपने एकवर्षीय पत्रकारिता पाठ्यक्रम में हिन्दी ब्लॉगिंग को भी जगह दी है। खबर की पुलकित च खिलकित घोषणाराकेश ने हाल में की। हम जब उन आशंका के द्वीपों को निपटा चुके जो विश्वविद्यालयी जिंदगी को पिछले बीस सालों से देखने के बाद उग आए हैं, तो बहुत ही शरारती विचार आने शुरू हुए।
कल्पना करें कि स्लाइडशो में जितेंद्रजी व महावीर प्रसाद द्विवेदी का चेहरा गड्डमड्ड होते हुए कोई डाक्साब हिन्दी चिट्ठाकारी के नारद युग की तुलना सरस्वती से कर रहा है। भगवा चिट्ठे, लाल चिट्ठे पर टिप्पणी पूछी जा रही हैं। वाह वाह। बाहर चैंपियन च कुजिओं के ऊपर ही ब्लॉगवाणी बनी है। प्रेक्टिकल परीक्षा में परीक्षक बनने व बनवाने का धंधा चल रहा है। ब्लॉगरोल माफिया सक्रिय है। आचार्य ब्लॉगर का झोला (लैपटॉप) थामने के लिए पीछे पीछे शोधार्थियों की सेना चल रही है....आनंदम परम-आनंदम।
बहुत से इंटरनेट प्रयोक्ताओं की ही तरह मुझे भी सरकार द्वारा इंटरनेट माध्यम को नियंत्रित करने की हर कोशिश आला दरजे का घटियापन लगती है। आज एक कार्यशाला में अपने परचे में चीमा ने बातें रखी जिनमें से कुछ तो पहले से ज्ञात थीं बाकि की दिशा पता थी पर एक साथ सुनकर फिर से बुरा लगा।
पहली बात तो ये कि इंटरनेट पर नियंत्रण के लिए सरकार ने कई ढांचे तैयार कर रखे हैं। यं सभी वैधानिक नहीं हैं, कई तो बाकायदा संविधान विरोधी प्रतीत होते हैं। मसलन जनप्रतिनिधियों ने साईबर कैफे में लॉग रजिस्टर रखने के प्रावधान को नकार दिया था, पर अक्सर पुलिस आईटी एकट के स्थान पर सीपीसी का सहारा लेकर पूरे देश में इस रजिस्टर को आवश्यक बनाए हुए है।
पर असल खेल तो सरकार वहॉं चलाती है जहॉं का पता ही नहीं चलता, इसलिए भी कि एक लोकतंत्र के रूप में अपनी अभिव्यक्ति का आजादी का सम्मान करना हम खुद नहीं जानते। यदि उन शर्तों पर नजर डाली जाए जिसके तहत सरकार आईएसपी यानि इंटरनेट सेवा प्रदाता को लाईसेंस देती है तो हमें पता चलेगा कि दरअसल सरकार की नीयत समस्त इंटरनेट संचार, उसके प्रवाह, पर नजर रखने, रोक लगाने की है, जिसे कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र कतई स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए भी कि संसद का कानून कार्यपालिका को इसकी इजाजत नहीं देता पर कार्यपालिका जैसा कि सभी जानते हैं, अधिकार हस्तगत करने के जुगाड़ कर ही लेती है।
सबसे भयानक जुगाड़ है CERT-in अपने नाम आदि से लगता है कि वायरस, स्पैम, हैक वगैरह के आपातकालीन जोखिमों के लिए बनी कोई विशेषज्ञ संस्था होगी, कागजी तौर पर है भी। पर चर्चा से पता चला कि विज्ञान मंत्रालय के कम और गृह मंत्रालय के ज्यादा लोग दिखते हैं यहॉं (मतलब आईबी, इंटैलिजेंस आदि) और भले ही विधायिका ने कोई अनुमति दी हो या नहीं (दरअसल इसके पास कोई विधाई मुहर नहीं है यह एक प्रशासनिक नोटिफिकेशन से बनी एंजेंसी है) पर ये गुपचुप देश भर की इंटरनेट गतिविधियों पर जासूसी नजर रखते हैं। सबसे भयानक बात यह है कि किसी भी गुप्तचर कर्म की तरह ये लोग पारदर्शिता और जबाबदेही दोनों से मुक्त हैं। (तो जब हम अपने ब्लॉग पर ये लिख रहे हैं तो अगर किसी सरकारी बाबू या पुलिसिए को नागवार गुजरा तो वह किसी कानून की चिंता किए बिना मेरे घर आ धमक सकता है) ऐसा अक्सर या तो आतंकवाद विरोधी या अश्लीलता विरोधी कानून का सहारा लेकर किया जाता है, पर प्रमाणस्वरूप जो भी प्रस्तुत किया जाता है वह इंटरसेप्शन से हासिल किया गया होता, जो खुद गैरकानूनी होता है।
ऊपर के तथ्यों का अंदेशा तो इस 'लोकतंत्र' में हमें होता है पर जानना फिर भी त्रासद है कि हम पर नजर रखी जा रही है। पर उससे भी त्रासद यह है कि अधिकांश के लिए ये बेकार का मुद्दा है, तर्क ये कि हमारे पास छिपाने के लिए क्या है, पर सच यह है कि जो लोकतंत्र अपनी स्वतंत्रता का सम्मान करना नहीं सीखता, उसके लिए त्याग करना नहीं सीखता वह बचा नहीं रह पाता।
यू ट्यूब पाकिस्तान में (या विदेश में बसे पाकिस्तानियों का) प्रतिरोध व्यक्त करने का नायाब जरिया बनकर उभरा है। उदाहरण के लिए मुझे शिवम के ब्लॉग पर पंजाबी कविता का यह मजेदार वीडियो देखने का मिला। आप भी देखें मजे लें (कश्मीर वगैरह पर एकाध लाईन से कुछ गुस्सा आए तो बेचारे पड़ोसी देश पर तरस खाते हुए नजरअंदाज कर दें :))
दिल्ली की उत्तरी रिज़ या तो अपनी कॅटीली झाडि़यों, सघन वनस्पति (अत: प्रेमी युगलों की शरणस्थली) के लिए जाना जाता है तथा किसी भी महानगर की तरह हम अपने शहर के खंडहरों को भुला बैठते हैं। इस सप्ताह हमें एक मोका मिला इसी रिज के रास्ते छानने का, ताकि उसमें छिपी उन इमारतों तक जा सकें जिनका संबंध महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं विशेषकर 1857 के विद्रोह से रहा है। दरअसल 1857 के 150 साला समारोह के ही अंतग्रत विश्वविद्यालय ने अपने विद्यार्थियों के लिए कुछ कार्यक्रमों का आयोजन किया है जिनमें से एक है- तारीख़ के गलियारों की सैर: उत्तरी रिज़ के स्मारक और 1857
कार्यक्रम की शुरुआत सुबह नौ बजे से हुई, पहले अल्काजी न्यास की 1857 के चित्रों की अति दुर्लभ प्रदर्शनी से हुई, जो एक पूरी पोस्ट की मॉंग करती है, उसे अभी छोड़ा जा रहा है । इसी प्रकार वाइस रीगल लॉज के बॉलरूम व संग्रहालय भी जाना हुआ पर वह तो कई पोस्टों की मॉंग में प्रतीक्षा करेगा।
इस रिज व हिंदूराव क्षेत्र में कम स कम 5-6 अहम स्मारक हैं। 1857 में जब मेरठ से विद्रोही दिल्ली पहुँचे और दिल्ली शहर पर कब्जा हुआ तो वे शहर, किले आदि में काबिज हुए। उनका संपर्क शेष विद्रोहियों से बरास्ता दिल्ली गेट रहा। पर कश्मीरी गेट वाले इलाके से भागकर अंग्रेज दिल्ली रिज के इलाके में जा छिपे तथा वहीं से उनकी लड़ाई विद्रोहियो से जारी रही- सबसे पहले वे उस जगह पहुँचे जो आजकल बाउंटा के नाम से जानी जाती है यानि फ्लैग स्टफ टॉवर
लगभग 200 अंग्रेज इस बेहद छोटी सी इमारत में आकर जम गए और तोपों से हमला करने और बचाव में जुटे
दूसरी ओर बिद्रोही इस चौबुर्जा मस्िजद में जमे थे और लड़ रहे थे। बाद में अंग्रेजों को अंबाला व करनाल से मदद मिलनी भी शुरू हुई
पर दिल्ली पर फिर से कब्जा करने के उपक्रम में अंग्रेजों का असली जमावड़ा इस इमारत यानि कोठी हिदूराव (आज का हिंदूराव अस्पताल) रहा।
पीर गायब है तो तुगलक कालीन इमारत पर लड़ाई में इसकी आड़ में होकर भयंकर लड़ाई लड़ी गई।
और जब विद्रोह को पूरी तरह कुचल दिया गया तो अंगेजों ने अपनी जीत के स्मारक के रूप में बनवाया म्यूटिनी मेमोरियल जिसके शिलालेख 'शत्रु' तो छोडि़ए अपनी ओर से सेना में लड़े व मरे भारतीय सैनिकों तक को उपेक्षा से नेटिव की कैटेगरी में डालते हैं तथा कोई नामोल्लेख नहीं करते।
विशेष आभार - डा. संजय शर्मा जो इस कार्यक्रम के समन्वयक हैं
पिछले दो दिन तो ऐसे बीते कि एकबारगी तो ब्लाग ही डिलीट करने वाली थी, पर जब तक जिन्दगी सामान्य ना हो जाए आपको कोई कदम नहीं उठाना चाहिए सो मैंने भी डिलीट नहीं किया। आखिरकार ये आपके अपने होने जैसा है
हिन्दी ब्लगजगत में अपने चिट्ठे को डिलीट कर देने का विचार कोई बिल्कुल नया हो ऐसा नहीं है। यदा कदा लोग ऐसा विचार व्यकत करते रहे हैं। मसलन धुरविरोधी तो ऐसा कर ही गुजरे। कुछ अन्य के मन में भी हो सकता है ऐसा विचार आया हो। ब्लॉग हमने भी डिलीट किया था पर बस तकनीकी लोचा था, लगा कि हटो मिटाते हैं, नया बना लेंगे, इसके कोई अन्य निहितार्थ तब पता न थे। लेकिन खुद की नेट शख्सियत को मिटा देना, ब्लॉगजगत से खुदकशी कर खत्म हो जाना एकदम अलग विचार है।
एक परिचित ब्लॉगर हैं- रिवर। उनका ब्लॉग हमारे पसंदीदा ब्लॉगों में से रहा है वे मई से अक्तूबर तक 194 दिन तक नदारद रही ब्लॉगजगत से। 194 दिन.. ध्यान रहे कि यह ब्लॉग गूगल पेजरैंक 5 का ब्लॉग था, कुल टेक्नोराटी उस समय 20000 के आस पास था। यथार्थ जगत में कोई घनिष्टता नहीं है, पर मिलीं, तो पूछा कि क्या विचार है, कहॉं गायब हैं तो गोलमोल सा टालू जबाव मिला, हम टल गए। अब अपनी इस पुनरागमन पोस्ट में उन्होंने मंशा जाहिर की कि वे 'ब्लॉग स्यूसाईड' करने पर विचार कर रही थीं।
मौत पर जो आधे शटर वाला चिंतन पिछले दिनों आलोकजी कर रहे थे उसी क्रम में मेरा भी मन बहक रहा है कि भला कोई चिट्ठा क्यों आत्महत्या करता होगा ? गूगल खोजा तो कुछ खास नहीं मिला, एक कारण तो ये दिखा कि कभी कभी चिट्ठे के हिट, लिंक, टिप्पणियों से खुद उसके चिट्ठाकार का ही अहम हिलने लगता है - अरे ये मेरा ही तो बच्चा है और इसका कद खुद मुझसे बढ़ गया है (शायद भड़ास के साथ हुआ था ऐसा, पर यशवंत मानेंगे थोड़े ही) एक ब्लॉग पर विचार मिला कि ब्लॉग स्युसाईड इसलिए भी की जाती है कि ब्लॉग खुद उस जिंदगी के दुश्मन हो जाते हैं जो उस चिट्ठे को चलाती है। पर सच कहूँ तो मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूँ कि चिट्ठे को सुबह शाम तक खटना नहीं होता, रोज रोज एक ही किस्म की जिंदगी की ऊब से दो चार नहीं होना होता, चिट्ठों के देश में बलात्कार कर किसी चिटृठे को सड़क पर छोड़ नहीं दिया जाता। चिट्ठों अपने मिट जाने के बाद किसी पुनर्जन्म, स्वर्ग की उम्मीद नहीं होती तो फिर वे भला क्यों आत्महत्या करते है?
पहले हसन जमाल ने ये तर्क या इन तर्कों के भाई बहन प्रस्तुत किए थे, ज्ञानोदय में, मसला कुछ कड़वा चला गया था। इधर जब आप किसी लोकतांत्रिक स्पेस में रहते हैं तो मुद्दे घूम फिरकर वापस आते रहते हैं। आज यही हुआ हमारे दो विद्वान मित्र दो मग कॉफी और यही कुछ आधा दर्जन तर्कों के साथ हमें हिन्दी बलॉग जगत का प्रतिनिधि मानकर (न न हमें ऐसी कोई गलत फहमी नहीं है पर वे भी क्या करें शायद हमारे मुँह से इस मीडिया रूप के बारे में कुछ ज्यादा सुनते हैं) आ बहसियाए। एक भले वातावरण में हुई ठीक ठाक बहस, पर तर्कों में कोई रियायत नहीं न उधर से इधर से। उनके तर्क हमारे जिस जुमले से भड़के वह यह था कि हमने उनके ब्लॉग मीडिया को खारिज किए जाने के उपक्रम को ब्लागोफोबिया करार दिया और उन्होंने फिर तो तर्क दिए ही, हमने भी जबाव दिए पर हमारे जबाव क्या रहे होंगे आप अनुमान लगा सकते हैं। मित्रों के तर्क हमारी भाषा में ये थे-
वही हसन जमाली राग कि ब्लॉग हिन्दी की दुनिया की नहीं खाए पीए अघाए लोगों का शगल है। तकनीक स्वयं वर्गीय मार्कर है, कंप्यूटर की कीमत, जटिलता का मतलब ही है कि ये हिन्दी जमात की चीज नहीं है (गनीमत है एक मित्र की राय को दूसरे मित्र ने ही नहीं स्वीकारा वैसे ये उनका सबसे मजबूत तर्क था भी नहीं)
ब्लॉग भले ही संपादन, प्रकाशन की सीमाओं का अतिक्रमण करता है इसलिए अनसुनी आवाजों को स्पेस देता है पर ये मुख्यधारा मीडिया की तुलना में जनमत निर्माण की कोई क्षमता नहीं रखता (केवल कम संख्या की वजह से नहीं वरन इसलिए कि इसकी प्रकृति में ये निहित है कि समूह को इससे संबोधित नहीं किया जा सकता)
हिन्दी के मुख्यधाराई संघर्षों से पलायन कर रहे, या हिन्दी के मुख्यधाराई स्पेस से खदेड़े गए लोगों की शरणस्थली बन चुका है ब्लॉगोस्पेस। (उनका कहना था कि घरेलू महिलाएं, मैकेनिक, तकनीकी लोग आदि आदि ब्लॉग में आए ये तो ठीक- बेआवाजों को आवाज मिली पर ठेठ हिन्दी वाले जिनके पास बसने पसरने का स्पेस था वे क्यों भागकर, ब्लॉग के गैर पेशेवरों के ऑंचल में छिपते हैं)
ब्लॉग वैयक्तिक दिक्कतों की चोट को निकाल बाहर करने का सेफ्टी वाल्व भर है ताकि सब जुटकर कोई बड़ी सामुदायिक पहल न बन सके।
संपादन व अन्य क्वालिटी चैक न होना ब्लॉग की सामग्री को कम विश्वसनीय बनाते हैं- ये लेखक की एकाउंटेबिलिटी का अंत है। (मैं जो मानता हूँ लिखूंगा, उसके प्रति खुद भी जबाबदेह नहीं)
लेखकीय तेवर में ब्लॉग अक्खड़ व गरूर भरा लेखन है तिसपर ये भी कि इस गरूर व अक्खड़ता का कोई ऐसा गुणात्मक आधार भी नहीं कि इसे सहा जाए ( एक तो कोई तोप विचार या लेखन नहीं उस पर अकड़ ऐसी कि महान क्रांतिकारी लेखन कर रहे हैं)
इन तर्कों पर हमारा नजरिया क्या है वह पहले कई बार कह चुके हैं चर्चा में दोहरा भी दिया। पर इतना तय है कि एक तो ये सवाल इसलिए खड़े होते हैं कि ब्लॉग मीडिया की प्रकृति समझने में कई लोग असमर्थ रहते हैं। इसीलिए ये जरूरी हो जाता है कि प्रिंट आदि में और अधिक लिखा जाए। हम तो कह आए कि इनके जवाब ब्लॉग मित्र खुद ही दे देंगे पर आपको अपना फोबिया छोड़कर कंप्यूटर तक आकर देखना पड़ेगा। तो हम आप सब टैगित हैं। इसे टैग मानें और बताएं कि ऊपर के तर्क क्यों सही नहीं हैं?
स्मृति किन्हीं बहानों की मोहताज नहीं। लोग अपने गंवाए प्रियजनों को केवल उनकी बरसी पर याद करते हों, ऐसा नहीं है। किंतु फिर भी समय-आवृत्ति की स्मृति के उदृदीपन में अपनी भूमिका तो होती ही है। एक नवंम्बर भी ऐसा ही अवसर है। 1984 में मेरी उम्र 12 साल थी, कक्षा आठ में पढ़ता था और मेरी वैकल्पिक भाषा संस्कृत नहीं थी जैसा दिल्ली के स्कूलों में तब आमतौर पर होता था वरन पंजाबी थी। इसलिए मेरी कक्षा में कई सिख छात्र थे। एशियाई खेल हो चुके थे, दिल्ली के मध्यवर्ग तक रंगीन तो नहीं पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पहुँच चुका था, हम आपरेशन ब्ल्यू स्टार से परिचित थे। इंदिरा गांधी, भिंडरावाले, खालिस्तान सुनी हुई संज्ञाएं थीं पर ये मेरे स्कूली खेलों को प्रभावित नहीं कर पाई थीं। ये सब सिख साथी मेरे दोस्त थे। मैंने दोस्त सुखदेव से पूछ लिया कि खालिस्तान बन गया तो क्या करोगे। मैं सुनना चाहता कि दोस्त सुखदेव सिंह कहे कि वह मुझे छोडकर किसी खालिस्तान नहीं जाएगा पर उसने कुछ सोचकर कहा कि 'मैं सभी हिंदुआं नू वड देवेंगा' इस जवाब पर तब मैंने क्या सोचा मुझे नहीं याद, पर आज सोचता हूँ कि इस बात का मतलब था कि दिलों में दीवार बढ़ रही थी, बच्चों तक भी पहुँच रही थी। लेकिन तब भी प्रभात फेरियों में हिंदू सिख शामिल होते थे।
फिर 31 अक्तूबर आया और 31 की रात को कुछ सुगबुगाहट रही होगी पर हमें पता नहीं चली। हमारे लिए इंदिरा की मौत केवल छुट्टी लाई थी। क्रिकेट खेलने पहुँच गए पर तब दोपहर तक धुएं की लकीरें दिखने लगीं। सिख विरोधी दंगेशुरू हो चुके थे। खून का बदला खून से लेंगे वह नारा था जो दंगाईयों की जुबान पर था। हमारा मोहल्ला भजनपुरा नाम का इलाका था जो यमुनापार के सबसे अधिक प्रभावित इलाके में से था। गांवड़ी की वह गली जिसे बाद में इस दंगे की सबसे अधिक प्रभावित गली के रूप में माना गया पास ही थी। गुरूद्वारों, ट्रकों, घरों को जलाना शुरू हुआ। लोग सकते में थे। अफवाहों और जलने की गंध से सारा वातावरण भरा हुआ था। पड़ोस में एक सिख परिवार था। रात को हमारा दरवाजा खटखटाया गया इस परिवार के बुजुर्ग, महिलाएं व बच्चे हमारे घर में आ गए, पुरुष लोग एक दूसरे पड़ोसी के यहॉं जाकर टिके। बड़े भाई ओर पिताजी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे पर हम बच्चों के लिए ये भी उत्सव ही था, सारा मोहल्ला छत पर था- इस तरह छतों पर उग आए मोहल्ले की तुलना मेरी माताजी ने 1978 की बाढ़ से की पर एक बड़ा फर्क यह था कि तब आपस में सहयोग था जबकि अब नफरत थी।
अगले दो दिन तक दिल्ली में वही रहा जिसे बाद में मोदी ने गुजरात में लागू किया। पुलिस चुप थी। लोग छतों से पुलिस के सिपाहियों को एक तरफ जाने को कहते ताकि कुछ लोग बचाए जा सके पर वे दूसरी ओर जाते। अपनी आंखों, लूट, तलवारें, जली लाशें देखीं। मोहल्ले का कलसी का गुरूद्वारा जला दिया गया वह और उसके तीनों लड़के मार दिए गए। घर जला दिया। कुल मिलाकर 7 लाशें निकलीं वहॉं से। दिल्ली की जनता भली-भांति जानती है, उसे किसी स्टिंग की जरूरत नहीं 1984 के दंगों में कांग्रेस शामिल थी, बिला शक। स्थानीय कांगेसी दंगों की अगुवाई कर रहे थे। इसलिए जब पिछले महीने सीबीआई ने टाईटलर के खिलाफ आरोप वापिस लिए तो तय हो गया कि मोदी के खिलाफ भी कुछ नहीं हो सकता।
मेरी स्मृति के लिए इन दंगों की विशेष भूमिका है। मुझे पता लग गया था कि दंगाई कहीं बाहर से नहीं आते। आम घरबारी लोग ही किसी दिन दंगाई बन जाते हैं। हम मौने-सरदार को मारो का खेल खेलते थे। यह भी जाना कि अच्छाई बुराई एक ही मन में होती है। इन दंगों में हिंदू और मुसलमानों दोनों ने मिलकर हत्याएं कीं जबकि पूरे देश में ये कौमें एक दूसरे को ही मारती आई हैं। सिख परिवार के घर में होने से हम डरे हुए थे इसलिए जब उन्हें राहत शिविर भेज दिया गया तो हमने राहत की सॉंस ली पर उन तीन दिनों में हम कई बार मरे। जब दोबारा स्कूल खुले तो पंजाबी की कक्षा से कई बच्चों के परिवार में लोग मारे गए थे या घर जला दिए गए थे। आज सोचता हूँ कि एक उन दंगों ने इस शहर की एक पूरी पीढ़ी से उसकी सहजता छीन ली।
नौकरियॉं करना शुरू की थी 1991 में, उम्र थी 19 वर्ष। डिप्लोमा के आखिरी साल में कैंपस इंटरव्यू में वोल्टास, महाराजा और शायद सीएमसी ने चुना था पर घर पर नहीं बताया क्योकि हिंदी आनर्स में प्रवेश ले लिया था और हिंदी पढ़ना चाहता था, फिर नौकरी करना और पढ़ना साथ साथ जारी रहा है- एक फैक्टरी में बजाज की आयरन के ईसीआर और ह्यूमिडिटी टेस्ट करने के अलावा सारी नौकरियॉं अकादमिक जगत की रही हैं। सरकारी नौकरी तीन बार छोड़ी इसलिए उसी का अनुभव अधिक है, इसलिए पिछले दिनों कारपोरेट दुनिया से जब एक नौकरी का प्रस्तावनुमा आया तो थोड़ा चौंकना पड़ा। वो इसलिए कि एचआर का प्रस्तावक जानना चाहता था कि मेरी सीटीसी अपेक्षा क्या है।...अब ये ससुरा क्या हुआ ?
सीटीसी हमारे लिए तो चाय के मतलब चीज है, इसलिए शानूं जी जाने तो जानें हमें क्या पता सीटीसी? हॉं सीटीस्कैन जरूर पता है पर क्या कोई नौकरी देने से पहले हमारा दिमाग स्कैन करवाएगा क्या ? ऐसे तो सारा पागलपन पकड़ में आ जाएगा। खैर गए गूगल देवता की शरण में तो पता लगा महाशय उस चीज की बात कर रहे हैं जिसे कॉस्ट टू कंपनी कहा जाता है। पर गलतफहमी में न रहिएगा इसका मतलब वेतन नहीं है, वेतन तो इसका छोटा सा हिस्सा है। कहावती रूप में देखें तो आपकी सुविधा के लिए लगाए गए टायलेट पेपर तक की कीमत इसमें जोड़ लेती है कंपनी। वैसे शुद्ध बीए, एमबीए, सीए तक यानि नए नवेले बालकों तक को कंपनियॉं 10-25 लाख तक का सीटीसी देने लगी हैं, भले ही हाथ में महीने के 30-35 हजार ही पकड़ाए (पता नहीं कितना टायलेट पेपर इस्तेमाल करते हैं, प्राइवेट सेक्टर वाले) हम तो फिर भी 17 साल से इधर उधर धक्के खा रहे हैं।
तो हमें बताना है कि अगर हम लगी लगाई इस सरकारी नौकरी (कस्बाई अभिव्यक्ति में कहूँ, और चौपटस्वामी, प्रियंकर नाराज न हों तो, दिल्ली की प्रोफेसरी ) को छोड़कर अगर हम कोई प्राइवेट नौकरी करना चाहें तो कितने रूपे के पड़ेंगे...उस कंपनी को। पर इससे हमारे मन में सवाल कौंधा कि अब कितने के पड़ते हैं भई सरकार को। यानि हम सरकारी मास्टरों का सीटीसी क्या है, भई।
तो पहले तो होता है वेतन, मान लीजिए 25 हजार (हॉं भई उतने पुराने नहीं हैं, मोटी तनख्वाह वाले मास्साब तो वो हैं, वो हैं, यहॉं तक कि वो हैं :)) फिर सरकार पेंशन की गारंटी देकर बाल बच्चों की जिम्मेदारी लेगी, छुट्टियॉं- असल माल तो मास्टरी में ये ही मिलता है, नियमत: कॉलेज में 11 घंटे प्रति सप्ताह लेक्चर लेने होते हैं, पांचेक घंटे ट्यूटोरियल बस। आने जाने पर कोई बंदिश नहीं है। इतनी पढ़ाई भी तब ही हो पाती है जब ग्रीष्मावकाश(पौने चार माह), शरदावकाश(15 दिन), बसंतावकाश(15 दिन), पर्व, चुनाव, परीक्षा, जाम, हड़ताल (कर्मचारी, शिक्षक, विद्यार्थी), मौसम होने दें। तिस पर कैज्यूअल लीव, अर्न लीव, मेडिकल लीव, मेटरनिटि/पैटरनिटि लीव, भी होती हैं। और हॉं सारा चिकित्सा व्यय पूरे परिवार का सरकार की ही जिम्मेदारी है। इसके अलावा पूरी नौकरी में कुल मिलाकर पॉंच साल की स्टडी लीव भी मिलती है जिसमें सरकार पूरा वेतन देती रहती है। नौकरी करते हुए मर मरा गए तो सरकार पूरा बीमा करती है तथा घरवालों को पेंशन देती है। वैसे टायलेट में टायलेट पेपर हमारे यहॉं भी होता है। पर असल बात सुरक्षा की है, आप नौकरी में हैं तो बस हैं। पिछली बार नौकरी छोड़ने की कोशिश की तो दो साल तक इस्तीफे के बाद इंतजार में रहा पर कंबख्त नहीं छूटी, फिर से शुरू की और दो साल करने के बाद फिर से छोड़ी तब जाकर छूटी। तो कोई भला मानस बताए कि कॉस्ट टू कंपनी क्या बैठी। ध्यान रहे कि ये तो सरकार के सबसे दरिद्र तबके मास्टर की सीटीसी बताई है जिसे बंगला, नौकर, अर्दली, सैलून कुछ नहीं मिलता। ध्यान रहे कि छठा वेतन आयोग फिर से वेतन बढ़ाने वाला है और उसका भी मत है कि केवल वेतन न देखें कॉस्ट टू नेशन देखो। अपना अनुमान है कॉस्ट टू कंपनी( बोले तो जनता) हमारी भी खूब है। तो कहो कितने सीटीसी पर जाएं इस नगरी को छोड़कर।
उम्मीद हैं संघी मित्र नाराज नहीं होंगे। नागार्जुन की कविता मंत्र सही मायने में एक ब्लॉगिया कविता है- बिंदास, सपाट, दुनिया की ऐसी की तैसी टाईप सच्ची कविता। संजय झा ने फिलम बनाई है स्ट्रिंग जिसमें इस कविता को ज़ुबीन ने गाया है। खुद संजय झा ब्लॉग बनाकर प्रचार भी कर रहे हैं। इस ब्लॉग में हिंदी भी है- तो इस मायने में इस तरह का पहला ब्लॉग हुआ। खैर पूरी कविता नीचे है और हमारे पहले पॉडकास्ट में हम इस गीत को प्रस्तुत कर रहे हैं।
अगर यह खबर देश की राजधानी के पहले पन्ने तक पहुँच पाई हे तो इसने कई रास्ते तय किए होंगे। या शायद देशभर में हो रहे घटनाक्रम का केवल एक अंश है जो राजधानी तक पहुँच पाया है। गोरखपुर कोई अनजान गॉंव नहीं है, महंतो से लेकर साहित्यिकों, राजनीतिकों सब का अखाड़ा है। आज की एक मुखपृष्ठ खबर के अनुसार 50 साल केविनोदकुमार की भूखमरी से मौत हो गई। जिला प्रशासन आसानी से भुखमरी की मौतों को स्वीकार नहीं करते इसलिए पता नहीं औपचारिक रूप से इसका क्या कारण दर्ज किया जाएगा पर सच्चाई यही हे कि देशभर में गरीबी का नाच बढ़ा है और अब भूख दर दराज के गॉंवों ही नहीं वरन ऐन शहरों की भी सच्चाई हो गई है। इस गरीब विनोद के ही परिवार के दो और सदस्य अभी अस्पताल में मौत से लड़ रहे हैं पर गरीबी एक बार के इलाज से दूर होने वाली बीमारी नहीं है।
इस खबर के बरक्स प्रदेश की मुख्यमंत्री की महारैली पर ध्यान दें, कम से कम 16 लाख लोगोंको जुटाने में हर जिले का स्थानीय प्रशासन (जी, पार्टी तो जो करेगी वो करेगी ही, कलक्टर और आला पुलिस अधिकारी भी इसी काम में लगे हैं) इस रैली को सफल बनाने में जुटा है। यह भी त्रासद व्यंग्य है कि इस गरीब विनोद कुमार ने अपने बच्चों में से दो के नाम कलक्टर व डीआईजी रखे हुए थे। कलक्टर व डीआईजी नाम के बच्चों का यह पिता भुखमरी का शिकार हुआ।
अब यदि कोई कहना चाहे कि देश भर में व्याप्त इस भुखमरी व बाजारवादी नीतियों के बीच संबंध है तो हमें तो शक है कि इस बात कोई गंभीरता से सुनेगा भी नहीं। पर केवल राज्य ही की बात क्यों करें पास पड़ोस, नाते रिश्तेदारी सभी सामाजिक सपार्ट स्ट्रक्चर चरमरा गए हैं वरना इतना निकट एक पूरा परिवार महीनों भूखा मरता रहा और सब सोते रहे। इस घनघोर संवेदनहीनता का दोषी कौन माना जाए....क्या हम खुद भी नहीं।
इधर चिट्ठों की दुनिया में चोरी-चकारी खूब बढ़ गई है- कुछ तो बाकायदा पेशेवर चोर हैं। अब जब ऐसा है तो जाहिर है कि कुछ लोगों को इन्हें रंगे हाथों पकड़ने का जिम्मा भी लेना पड़ेगा। तो बेचारे शास्त्रीजी सरीखे कुछ मित्र मेहनत कर कर खोजते रहते हैं कि कब, कहॉं, किसने, क्या चोरी किया, किसका माल चोरी गया। चुराए जाने का गौरव प्राप्त लोगों में अधिकतर कवि बिरादरी के लोग हैं पर व्यंग्यकारों ने भी जब तब गर्व से घोशित किया है कि हमें ऐसा वैसा न जानो आखिर हमें भी चुराया जाता है। हम इस चुराने-चुराए जाने के मामले में किनारे खड़े बस देखते रहते हैं। बहुत बार चुराए गए माल पर नजर डाल ये जरूर जानने की कोशिश करते हैं कि भई इसे आखिर चुराया क्यों गया। किसी अधेड़ दंपत्ति को जाते देख जब कोई ये बताए कि देखो इन्होंने 'लव मैरिज' की थी, तो कुछ लोग खूब आंखे गाड़कर ये जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर इसमें क्या रहा होगा....। हम भी चुराई पोस्टों में चोरिएबिलिटी के तत्व खोजते हैं। पर सही कहें कि हम तो खूब कन्फ्यूज हैं।
पहला भ्रम तो यह है कि भई किसी ब्लॉग में ब्लॉगर का क्या है- मतलब तकनीकी तौर पर पूरा ब्लॉग बनता है पोस्ट से और उसपर की गई टिप्पणियों से। टिप्पणी पाठक की 'रचना' है और पोस्ट लेखक की। दोनों मिलकर तो लेखक-पाठक की रचना हुए फिर काहे की चोरी- तेरा तुझको सौंपे क्या लागे मेरा। पर ये भी तो सच है कि अगले (लेखक) ने इतनी मेहनत से लिखा तो श्रेय पर तो हक बनता है कि नहीं। पर अगर एडसेंस की दुनिया से बात करें तो (वैसे हम खूब जानते हैं कि महीने भर की हिंदी एडसेंस से हफ्ते भर की प्याज खरीदने लायक भी कमाना संभव नहीं पर मात्रा छोड़ें सैद्धांतिक स्तर पर बात करें) तो चूंकि लेखन से कमाई पर लेखक का हक बनता है इसलिए बिना अनुमति किसी और की सामग्री नहीं छापी जानी चाहिए। यहॉं एक और लोचा है- कई ब्लॉगों पर गेस्ट लेखकों की रचनाएं छपती हैं (मसलन रचनाकार, मोहल्ला) तो उनकी अनुमति लेखक से ली जाए कि ब्लॉगर से।
पर असल भ्रम है रूपातंरित रचनाओं पर। नया चिट्ठाजगत आया है। अंगेजी में। देखें वो बाकायदा आपकी ही नई नवेली (और पुरानी) पोस्टों के रोमन संस्करण को सामने रख रहा है- डंके की चोट पर। वहॉं कहा गया है-
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अब आप क्या कहेंगे। चोरी .... या क्रिएटिविटी। हम बताएं हमें तो लगता है कि अपने लिखे पर मालिकाना हक को कुछ लोचदार बनाया जाना चाहिए। कोई अगर लिंक व नाम देकर उपयोग करे तो करने दें। लिंक व नाम नहीं भी दे रहा होगा तो हम कर ही क्या लेंगे पर कम से कम तब हम नैतिक रूप से जरूर उसे 'चोर' कह सकते हैं।
कादम्बनी में बालेन्दुजी के लेख के बाद फिर से छापे में ब्लॉग की कवरेज की ओर ब्लॉगरों का ध्यान गया है। अत: जरूरी जान पड़ा कि आपको याद दिलाया जाएं कि हिंदी ब्लॉगिंग पर एक नियमित कॉलम प्रतिष्ठित पत्रिका कथादेश में छपता हे जिसे अविनाश लिखते हैं। एक नई जानकारी ये है कि गंभीर समझे जाने वाले दैनिक जनसत्ता ने भी एक नियमित कालम अपने रविवारीय में पाक्षिक रूप से शुरू किया है। इस स्तंभ का शीर्षक है ब्लॉग लिखी। यह स्तंभ भी अविनाश ने ही लिखना शुरू किया है। यानि अब दो ही नियमित स्तंभ हैं- एक इंटरनेट का मोहल्ला जो कथादेश में आता है और दूसरा ब्लॉगलिखी जो जनसत्ता में शुरू हुआ। इस मायने में अविनाश की छापे में यह पहलकदमी निश्चय ही स्वागतयोग्य है।
इस रविवार को आए ब्लॉगलिखी का स्कैन्ड संस्करण इस प्रकार है-
(बड़े आकार में देखने के लिए क्लिक करें)
फिर भी हमने इतनी बदमजा हैडिंग क्यों दी, सनसनीखेजता के लिए नहीं वरन इसलिए कि दोस्तों से कुछ आजादी ले ली जाती है। कथादेश के स्तंभ में तो अविनाश अपने रंग में होते हैं- साफगोई होती है तथा साधुवादी सवर नहीं होता- किसी को बुरा लगे तो लगे वाला स्वर होता है- सो ठीक अविनाशोनुकूल है पर जनसत्ता में अब तक वो आजाद स्वर दिखा नहीं। शिष्टाचार को ताक पर रख कहे दे रहे हैं कि दोस्त बिंदास लिखो। है तो ये भी अच्छा पर हमें अविनाश से और बेहतर की उम्मीद है आखिर तमाम लोगों की तिरछी भौंहों के बावजूद वे इस साल के सबसे तेजी से आगे बढ़े ब्लॉगर हैं- टेक्नोराटी, चिट्ठाजगत या बाकी जो स्केल हो हर पर वे सबसे तेजी से बढे ब्लॉगर हैं- इसलिए मित्र हमारी अपेक्षाओं के ही लिए सही- इन बड़े नामों के पदार्पण पर हर्ष दिखाने की बजाय उन पर ध्यान केंद्रित करें जिनकी वजह से हिंदी ब्लॉगिगं सर्वाधिक लोकतांत्रिक किस्म की विधा है। आने दें चक्रधरों, राजकिशोरों, उदयप्रकाशों को अच्छी बात है आएं पर हिंदी की ब्लॉगिंग खास है इसलिए कि यहॉं वे आते हैं - जमते हैं, जो हिंदी लेखन में कहीं न थे- सागर, अरुण, शुएब,ज्ञानदत्त ....। सुनोगे अविनाश ??
लेख मेरा नहीं है, मौलिक नहीं है। दिलीप मंडल का है जो भड़ास पर है, रिजेक्ट माल पर है और समकालीन जनमतपर भी है। फिर भी यहॉं दिया जा रहा है, अपने समर्थन को व्यक्त करनेके लिए। बोलो, कि चुप रहोगे तो अपराधी कहलाओगे
दिलीप मंडल
1974 में पत्रकारों और लेखकों के बड़े हिस्से ने एक गलती की थी। उसका कलंक एक पूरी पीढ़ी ढो रही है। इमरजेंसी की पत्रकारिता के बारे में जब भी चर्चा होती है तो एक जुमला हर बार दोहराया जाता है- पत्रकारों को घुटनों के बल बैठने को कहा गया और वो रेंगने लगे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अपवाद उस समय कम थे, जिन्होंने अपना संपादकीय खाली छोड़ने का दम दिखाया था। क्या 2007 में हम वैसा ही किस्सा दोहराने जा रहा हैं?
मिडडे में छपी कुछ खबरों से विवाद की शुरुआत हुई, जिसके बारे में खुद ही संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने मिड डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए चार-चार महीने की कैद की सजा सुनाई है। इन पत्रकारों में एडीटर एम के तयाल, रेजिडेंट एडीटर वितुशा ओबेरॉय, कार्टूनिस्ट इरफान और तत्कालीन प्रकाशक ए के अख्तर हैं। अदालत में इस बात पर कोई जिरह नहीं हुई कि उन्होंने जो लिखा वो सही था या गलत। अदालत को लगा कि ये अदालत की अवमानना है इसलिए जेल की सजा सुना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई रोकने की अपील ठुकरा दी है। कार्टूनिस्ट इरफान ने कहा है कि चालीस साल कैद की सजा सुनाई जाए तो भी वो भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाते रहेंगे।
मिडडे ने भारत के माननीय मुख्य न्याधीश के बारे में एक के बाद एक कई रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट तीन चार स्थापनाओं पर आधारित थी। - पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल के सरकारी निवास के पते से उनके बेटों ने कंपनी चलाई। - उनके बेटों का एक ऐसे बिल्डर से संबंध है, जिसे दिल्ली में सीलिंग के बारे में सब्बरवाल के समय सुप्रीम कोर्ट के दिए गए आदेशों से फायदा मिला। सीलिंग से उजड़े कुछ स्टोर्स को उस मॉल में जाना पड़ा जो उस बिल्डर ने बनाया था। - सब्बरवाल के बेटों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा में सस्ती दर पर प्लॉट दिए। ऐसा तब किया गया जबकि मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे।
अदालत के फैसले से पहले मिड-डे ने एक साहसिक टिप्पणी अपने अखबार में छापी है। उसके अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं। -हमें आज सजा सुनाई जाएगी। इसलिए नहीं कि हमने चोरी की, या डाका डाला, या झूठ बोला। बल्कि इसलिए कि हमने सच बोला। हमने जो कुछ लिखा उसके दस्तावेजी सबूत साथ में छापे गए। हमने छापा कि जिस समय दिल्ली में सब्बरवाल के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के बेंच के फैसले से सीलिंग चल रही थी, तब कुछ मॉल डेवलपर्स पैसे कमा रहे थे। ऐसे ही मॉल डेवलपर्स के साथ सब्बरवाल के बेटों के संबंध हैँ। सुप्रीम कोर्ट आदेश दे रहा था कि रेसिडेंशियल इलाकों में दफ्तर और दुकानें नहीं चल सकतीं। लेकिन खुद सब्बरवाल के घर से उनके बेटों की कंपनियों के दफ्तर चल रहे थे। लेकिन हाईकोर्ट ने सब्बरवाल के बारे में मिडडे की खबर पर कुछ भी नहीं कहा है। मिड डे ने लिखा है कि - हम अदालत के आदेश को स्वीकार करेंगे लेकिन सजा मिलने से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा।
अदालत आज एक ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ खड़ी है, जो उस पर उंगली उठाने का साहस कर रही है। लेकिन पिछले कई साल से अदालतें लगातार मजदूरों, कमजोर तबकों के खिलाफ यथास्थिति के पक्ष में फैसले दे रही है। आज हालत ये है कि जो सक्षम नहीं है, वो अदालत से न्याय पाने की उम्मीद भी नहीं कर रहा है। पिछले कुछ साल में अदालतों ने खुद को देश की तमाम संस्थाओं के ऊपर स्थापित कर लिया है। 1993 के बाद से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका खत्म हो चुकी है। माननीय न्यायाधीश ही अब माननीय न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में अंतिम फैसला करते हैँ।पूरी प्रक्रिया और इस सरकार की राय आप इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं। बड़ी अदालतों के जज को हटाने की प्रक्रिया लंगभग असंभव है। जस्टिस रामास्वामी के केस में इस बात को पूरे देश ने देखा है।
और सरकार को इस पर एतराज भी नहीं है। सरकार और पूरे पॉलिटिकल क्लास को इस बात पर भी एतराज नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जोडी़ गई नवीं अनुसूचि को न्यायिक समीक्षा के दायरे में शामिल कर दिया है। ये अनुसूचि संविधान में इसलिए जोड़ी गई थी ताकि लोक कल्याण के कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके। आज आप देश की बड़ी अदालतों से सामाजिक न्याय के पक्ष में किसी आदेश की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार को इसपर एतराज नहीं है क्योंकि सरकार खुद भी यथास्थिति की रक्षक है और अदालतें देश में ठीक यही काम कर रही हैँ।
कई दर्जन मामलों में मजदूरों और कर्मचारियों के लिए नो वर्क-नो पे का आदेश जारी करने वाली अदालत, आरक्षण के खिलाफ हड़ताल करके मरीजों को वार्ड से बाहर जाने को मजबूर करने वाले डॉक्टरों को नो वर्क का पेमेंट करने को कहती है। और जब स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि अदालत इसके लिए आदेश दे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इन डॉक्टरों को वेतन दिया जाए,लेकिन हमारे इस आदेश को अपवाद माना जाए। यानी इस आदेश का हवाला देकर कोई और हड़ताली अपने लिए वेतन की मांग नहीं कर सकता है। ये आदेश एक ऐसी संस्था देती है जिस पर ये देखने की जिम्मेदारी है कि देश कायदे-कानून से चल रहा है।
अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले आम है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशन की इस बारे में पूरी रिपोर्ट है। लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं। लेकिन उसकी रिपोर्टिंग मुश्किल है।
तो ऐसे में निरंकुश होती न्यापालिका के खिलाफ आप क्या कर सकते हैँ। तेलुगू कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव ने हमें एक कार्यक्रम में बताया था कि इराक पर जब अमेरिका हमला करने वाला था तो वहां के युद्ध विरोधियों ने एक दिन खास समय पर अपने अपने स्थान पर खड़े होकर आसमान की ओर हाथ करके कहा था- ठहरो। ऐसा करने वाले लोगों की संख्या कई लाख बताई जाती है। इससे अमेरिकी हमला नहीं रुका। लेकिन ऐसा करने वाले बुद्धिजीवियों के कारण आज कोई ये नहीं कह सकता कि जब अमेरिका कुछ गलत करने जा रहा था तो वहां के सारे लोग बुश के साथ थे। क्या हममे है वो दम?
बहुत बार दोहराने से कई वाक्यॉंश अपने अर्थ खो बैठते हैं। 'यमुना मर रही है' भी एक ऐसा ही वाक्यॉंश है। रामसेतु के संदभ्र में जब बार बार पर्यावरण का सवाल उठाया जा रहा है तो ऐसे में कुछ रामभक्तों से ये सवाल पूछा जाना बेहद प्रासंगिक है कि जब दिल्ली के रिवरबैड पर अक्षधाम नाम के 'धार्मिक माल' का निर्माण किया जा रहा था (कल जारी नोटिस में मंदिर से पूछा गया है कि आपकी व्यवसायिक गतिविधियों की व्याख्या करें) तब क्यों चुप्पी थी। यहॉं यह नहीं कहा जा रहा है कि रामसेतु के मामले में यदि कोई पार्यावरणीय चिंताएं हों तो उन्हें व्यक्त न किया जाए पर इस कराहती मरणासन्न नदी दिल्ली पर भी एक नजर डालें।
दिल्ली में 2010 में एक बड़ा जमावड़ा खेल खिलाडि़यों का होने वाला है जिसे कॉमनवेल्थ खेल कहा जाता हे। इसकी कीमत 70,000 करोड़ रुपए आंकी जा रही है जो किसकी जेब से आएगा हमें पता ही है और ये किसकी जेब में जाने वाला है इससे भी हम अपरिचित नहीं हैं। पर एक बात जिससे हम अपरिरिचित हैं वह यह कि शायद इसकी कीमत चुकाने में हमें इस शहर के अस्तित्व से ही हाथ धोना पड़ेगा। कैसे ?
दिल्ली का अस्तित्व प्राचीन काल से ही यमुना पर निर्भर रहा है, दिल्ली की सभी वावडि़यों, कुओं और बरसाती नदियों को खत्म कर चुकने के बाद अब हमने अनी यमुना को भी समाप्त प्राय: कर दिया है। और इस ताबूत की आखिरी कील है कॉमनवेल्थ खेलगॉंव जो यमुना के खादर में बनाया जा रहा है। ये खादर ही वह बचा हुआ एकमात्र सहारा है जो बरसात में पानी का संचय भूजल के रूप में कर अब तक दिल्ली को पानी मुहैया कराता रहा है। 10000 हेकटेयर का यह क्षेत्र जल को सोख सकने की दुनिया में सबसे अधिक खमता वाला क्षेत्र हे जो 70% तक जल सोखने की क्षमता रखता है।
इस त्रासद कहानी की शुरूआत अक्षरधाम मंदिर नाम की इमारत बनने से होती है। रामभक्त पार्टी के प्रधानमंत्री ने तमाम आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए इस निर्माण की अनुमति दी तो मानो दिल्ली सरकार को बस मौका ही मिल गया है। उसने यमुना प्लान नाम से बड़े पैमाने पर निर्माण कर इस रिवरबैड को समाप्त कर देने की योजना बनाई है। यदि वह हो गया तो जिसे रोकने की फिलहाल तो किसी में इच्छाशक्ति नहीं ही दिखाई दे रही है तो हमारा शहर ओर इस देश की राजधानी एक जींत शहर के रूप में समापत हो जाएगी क्योंकि उसके सभी जलस्रोत इस निर्माण के बाद समाप्त हो चुके होंगे, भूजल भी।
इस सारी विनाशकारी प्रकिया के खिलाफ जल सत्याग्रह पिछले पचास दिनों से दिल्ली में चल रहा है। शिक्षिका के खिलाफ नकली स्टिंग से भीड़ भड़काकर दंगे करवा सकने वाला ताकतवर मीडिया क्या कर रहा है वह ही जानता होगा। राज्य की मुख्यमंत्री ने बेशर्मी से विधानसभा में ही कह डाला कि इस 10000 हेकटेयर जमीन का दोहन कर दिल्लीवासियों को लक्जीरियस जिंदगी उपलब्ध करवाना उनका अधिकार है। मानो हमें पता नहीं कि यह लग्जरी किसे मिलेगी और इसकी कीमत कौन चुकाने वाला है।
साहित्य शास्त्र में एक अवधारणा 'सहृदय' की होती है जिसका मतलब होता है साहित्य का सुधि पाठक होना और यह काम आसान नहीं है, इसकी भी बाकायदा कुछ योग्यताएं हैं। हर ऐरा गैरा सहृदय नहीं हो सकता, साहित्य का आनंद नहीं ले सकता, साहित्य का रसास्वादन कर पाना कठिन काम है। ऐसे ही एक ओर कठिन काम है और इसकी भी योग्यता (इस 'भी' पर गौर करें) का अभाव हमें खुद में दिखाई देता है। ये है नॉस्ताल्जिक हो सकने की योग्यता। अव्वल तो अपनी किताबों में हमने कोई सूखे गुलाब दबा नहीं रखे हैं अगर कोई देखें भी तो उन्हें छूते ही हम बेसाख्ता भावुक हो नहीं जाते हैं। तो बात यह कि नॉस्ताल्जिक हो पाना के लिए जो भावनात्मक निर्मिति चाहिए, शायद वह ही हम में कम है। हम इसे किसी गव्र से नहीं बता रहे हैं, बाकायदा एक कमी है। अगर हम सिर्फ नॉस्ताल्जिक हो सकने वाले होते तो कम स कम दोगुना लिख चुके होते। चाटवाले पर लिखते, टंकी वाले मैदान पर लिखते, घंटाघर पर लिखते, पीपल पर, अमरूद पर, जय जवान चाय स्टाल पर, इस पर उस पर न जाने किस किस पर लिखते। इसलिए जिस दिन हम थोड़ा बहुत नॉस्तॉल्जिक हो पाते हैं, बाद में बहुत खुश होते हैं, देखा कर दिखाया आखिर हम इतने भी एब्नार्मल नहीं हैं।
आज ऐसा ही हुआ। 'मीडिया संस्कृति युवा पीढ़ी को बरबाद कर रही है' जैसा कि समझा जा सकता है कि एक वाद विवाद प्रतियोगिता का विषय था। हमें दो और साथियों के साथ निर्णय देना था। वो तो जो था सो था पर वक्ताओं को सुनना अतीत की यात्रा पर जाने के समान था। वीरेन्द्र ध्यानी, कंचन जैन, आभा मेहता, मनोज, विकास, नीलू रंजन, हरिश्चंद्र जोशी, मनीष जैन और भी न जाने कितने नाम हमारे डिबेटिंग युग के। और वह युग खुद ही - मुस्कराती जीतें व मोहक पराजय। पिलानी, वर्धा, सेंट स्टीफेंस, हंसराज, ये और वो। ये डिबेटिंग फट्टा और वह शैंपेन का झाग, ताबूत की आखिरी कील जैसे जुमले। कई बार वक्ता बोलना शुरू करता था और हम लगते थे मुस्कराना ये सोचकर कि अब ये बोलेगा- 'अध्यक्ष महोदय मेरे विपक्षी मित्र ने विषय पढ़ा तो है लेकिन दुर्भाग्य से समझा नहीं :)' और फिर धीरे धीरे जजों को तक पहचानने लगे- हंसराज से डा. रमा या फिर स्टीफेंस से डा. विनोद चौधरी, वेद प्रताप वैदिक या फिर हरीश नवल। 1992 और 1993 के सत्र में तो पूरे दो सत्र की पढ़ाई का खर्च ही निकाला था वाद विवाद प्रतियोगिताओं के इनामों से। हम बाहर से आए वक्ताओं के सामने अक्सर यह गर्व से बताते थे कि हमारे विश्वविद्यालय का डिबेटिंग सर्किट (आज के टेनिस सर्किट के समान) बेहद संपन्न है। उस जमाने की बनी कुछ दोस्तियॉं आज तक चली आती हैं। दूसरे की राय का सम्मान करना, भले ही वह धुर-विरोधी हो तब ही सीखा। यह भी कि बहती राय के खिलाफ कहना साहस की बात है इसलिए सम्मान की बात है। और यह भी कि जो विचार में आपका विरोधी है वह असल जीवन सबसे प्रिय व अच्छा मित्र हो सकता है, होना चाहिए।
सारे पाठ याद रहे कि नहीं कह नहीं सकता पर इतना तय है कि डिबेटिंग के पोडियम पर एक बार चढ़ा मानुष, कुछ अलग हो जाता है। अगर हम जैसे शुष्क, खुर्राट, ठूंठ को यह चीज़ नॉस्ताल्जिक बना सकती है, तो कुछ भी कर सकती है।