Saturday, April 21, 2007

तू तक, तू तक, तू तिया....अई जमाल होए

जब कॉलेज में पढ़ते थे तो यह एक लोकप्रिय पंजाबी गीत था..तू तक, तू तक, तू तिया....अई जमाल होए। मुझे नहीं मालूम था आज भी नहीं मालूम कि इसका कोई अर्थ है कि नहीं। मुझे यह जोश में गाई निरर्थक ध्‍वनि ही लगता था। अब क्‍यों याद आई...जमाल से और इस निरर्थकता से।
पहले पूरी पृष्‍ठभूमि संक्षेप में। मनीषा ने नया ज्ञानोदय के फरवरी अंक में एक लेख लिखा इंटरनेट पर हिंदी साहित्‍य, कोई पातालफोड़ लेख नहीं है जैसा हम लोग प्रिंट की पत्रिकाओं में लिखते हें परिचयात्‍मक सा ठीक ठाक लेख है। अगले अंक में इस पर प्रतिक्रिया में श्रीमान हसन जमाल ने जो शेष नाम की पत्रिका चलाते हैं इसकी प्रतिक्रिया में बेहद भड़काउ अंदाज में कुछ कुछ मोहल्‍ले नुमा प्रतिक्रिया लिखी- अर्थ पकड़ना तो आसान नहीं पर कुल मिलाकर यह कि भरे पेट के लोगों की बिन रोटी वालों को केक खाने की सलाह है इंटरनेट पर साहित्‍य की बात। और ये भी कि पूरी नस्‍ल बरबाद कर रहा है कंप्‍यूटर और इंटरनेट....क्‍या क्‍या गिनाएं खुद अनूमान लगा लीजिए।
हम तो विश्‍वविद्यालयी हिंदीबाजों में ऐसे तर्कों से भाल रोज ही फोड़ते हैं। अब अप्रैल के अंक में हसन जमाल साहब की प्रतिक्रिया से असहमति बताते हुए तीन प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुई हैं- एक तो अपने रवि रतलामी जी ने संयत और मैं तो कहूँगा कि कुछ ज्‍यादा ही नरम शब्‍दों में हसन साहब को समझाने की कोशिश की है कि भाई पहले जानो समझो फिर बात कहो। बाकी दो टिप्‍पणियाँ पुणे की दीप्ति गुप्‍ता और दिल्‍ली के नीलाम्‍बुज सिंह की हैं। मुझे ये दोनों मित्र याद नहीं आ रहे पता नहीं चिट्ठाकारी में हैं कि नहीं पर इन्‍होने भी जमकर खबर ली है हसन जमाल साहब की।
मामला खत्‍म होना या समझा जाना चाहिए, पर दिक्‍कत है। और दिक्‍कत यह है कि हम पहले ही कह चुके हैं कि भई हम बड़े बुडबक इंसान हैं। मित्र लोग बिध्‍न संतोषी भी घोषित कर चुके हैं। तो भाई जहॉं लोग मान जाते हैं कि बात खत्‍म हो गई हमें लगता है कि बात तो शुरू हुई है। अब तक चिट्ठाकारी चंद सिरफिरों के खतूत भर थी इसलिए एम एस एम यानि मेन स्‍ट्रीम मीडिया या मुख्‍यधारा मीडिया उदासीन उपेक्षा से काम लेता था पर अब आवरण कथाएं आ रही हैं, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया पर कवरेज हो रहा है, लेख भी छप रहे हैं।
यानि सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों के जड़ दरवाजों पर खटखटाहट अब शुरू हो गई है इसलिए इन दुर्गों के किलेदार हसन जमाल साहब जैसे ही तर्कों के हथियारों से हमला करने वाले हैं। कम से कम दो तर्क तो बार बार आने वाले हैं पहला ये कि इंटरनेट चंद खाते पीते लोगों की चीज है इसका हिंदी मुख्‍यधारा से कोई सरोकार नहीं और दूसरा यह कि यह हिंदी के बहुत छोटे समुदाय की नुमाईंदगी करता है ( यानि से विध्‍न संतोषी लोग हैं) इन्‍हें मत सुनो। ऐसा नहीं जबाव हें नहीं या दिए नहीं जा सकते पर बंधु लोगों संवाद उससे ही हो सकता है जो संवाद में यकीन करता हो। हम तो अपने बीच के अविनाशों से संवाद कायम कर पाने में असफल सिद्ध हुए जो कम से कम हमारी भाषा में तो बात करते हैं- हसन जमाल का क्‍या करेंगे जो तू तक तू तक जैसे निरर्थक तर्कों से अपनी बात कहते व सिद्ध मानते हैं?

11 comments:

Jitendra Chaudhary said...

सही इलाज तो यही रहेगा कि ज़माल का एक ब्लॉग बनवा दिया जाए, नकारात्मक सोच को सकारात्मक मे बदल दिया जाए।

जहाँ तक इन्टरनैट के फायदों की बात है, इनको आईटीसी वाला ईचौपाल वाला प्रोजेक्ट बताया जाए। अभी ऐसे सैकड़ो प्रोजेक्ट आएंगे, ग्रामीण भारत मे इन्टरनैट के प्रति जागरुकता जगाने वाले।

लेकिन जमाल साहब वाले लोग भी आते रहेंगे। इनको बाखबर करते रहिए।

Anonymous said...

यार, आप कमाल की प्रतिभा के शख्‍स हैं... आपको गंभीरता से कुछ और फैल के लिखना चाहिए... नेट और नेट के बाहर बिखरे काग़ज़ों पर भी...

ePandit said...

जमाल साहब की बुद्धि पर तरस आ रहा है। भगवान उन पर दया करे।

Neelima said...

जमाल साहब को पहले ही बहुत खींच लिया गया था आपने और कसर पूरी कर दी

Anonymous said...

तो आप ई सब बांच लिये!

रवि रतलामी said...

"...हम तो विश्‍वविद्यालयी हिंदीबाजों में ऐसे तर्कों से भाल रोज ही फोड़ते हैं।..."

अरे! तो वहां पर भी अज्ञानी कूपमंडूकों का जमावड़ा लगा रहता है? ये तो नई बात पता चली.

Arun Arora said...

"जो बुद्धि बृह्मा कि मिले,टनो बादाम है खाओ,
नेहरु कालेज कौ पढौ,वाय तबहु न समझा पाओ""
मसिजीवी जी ध्यान दे कबीर दास जी भी यह कह कर चले गये थे उन्होने भी हठ छॊड दी थी आप किस किस्स पर तरस खायेगे वो भी अब स्माप्त होने को होगा बदबू भरा बजार,कस्बे के मुहाल्ले से
आती सडी बास और अब ज्ञानोदय

Anonymous said...

भईये, जितना मन्ने बेरा है, दो तरह के लोग होवे हैं। एक वा जो निर्दोष अज्ञानी होवे हैं, जाने नई हैं और जब जान लेहे हैं तो समझदार हो जावे हैं। दूसरे वा जो मूढ़ भी होवे हैं और हठी भी, जो किता भी समझा लयो मान के कोनी दें कि जो उनको समझाया जा रिया है वो सई है!! ईब मन्ने यो जमाल बाऊ तो दूसरे टाईप का बन्दा लगे है। दोनों तरह के लोग बहुतेरे होवे हैं, पैले वालों को समझाओ और दूसरे वालों को नमस्ते कै आगे बढ़ लयो!! :)

अफ़लातून said...

जीतेन्द्रजी,
ई-चौपाल भारत के किसानों से बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा फसल खरीदने की परियोजना है जिसका प्रादुर्भाव मण्डी-कानूनों को बद्ल कर हुआ है। ऐसे योजना का प्रतिकार मप्र में किसानो,मण्डी कर्मियों और छोटे गल्ला व्यापारियों सभी ने किया।

मसिजीवी said...

हॉं जितेंद्रजी, अब जमाल साहब तक तो मेरी पहुँच नहीं पर आजकल हम फुलटाईम ब्‍लॉग बनवाने का ही काम कर रहे हैं, छुट्टियॉं जो हैं।
अविनाश अब पैंतीस के हो गए हैं, तारीफ सुनना तो अभी भी कुछ अच्‍छा लगता है पर इतनी लंबी लपेटना बस में नहीं। :)
सही कहा श्रीश
जी अनूपजी कुछ घर में ही मिला बाकी नोट पैड से मिला।
रविजी ज्ञान की तो नहीं कहता पर कूपमंडूकता पर तो विश्‍वविद्यालया हिंदीबाजों का इंटैलेक्‍चुअल प्रोपर्टी राईट है :), वैसे पत्रकारिता वाले बहुत पीछे नहीं हैं पर हैं पीछे ही।
अमित बेरा त मन्‍ने वी सै, पर नूं कहूँ कि इनैं सुणना वी कोई कम झौट्टा काड़ना नी है।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

शायद यह समय का फेर है। जमाल जी ने ऐसा क्यों कहा ये बात समझ से बाहर है। हम तो इतना हि कहेंगे कि ऐसा नही ही होना चहिये था। वैसे चौधरी जी की सलाह अच्छी है।