Thursday, December 10, 2009

ब्‍लॉगवाणी पर हैकर हमला

ब्‍लॉगवाणी पहुँचने की कोशिश करने पर आज ये चेतावनी दिख रही है

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चिंतित हो मैथिलीजी से संपर्क किया तो उन्‍होंने पुष्टि की कि ये ब्‍लॉगवाणी तथा उनकी कुछ अन्‍य साईट्स पर ये हैकर अटैक है। उनके तनाव का अनुमान कर हमने आगे बात की नहीं पर उन्होंने बताया कि टीम काम पर लगी है उम्‍मीद है ब्‍लॉगवाणी जल्‍द ही दिखने लगेगी... हमारा अनुमान कुछ घंटों का है।

कृपया ध्‍यान दें यदि आपके ब्‍लॉग पर ब्‍लागवाणी के विजे़ट हैं तो कई ब्राउजर आपके ब्‍लॉग पर पहुँचने की कोशिश करने वाले पाठकों को माल्‍वेयर चेतावनी दे रहे हैं तथा ब्‍लॉग पर नहीं पहुँचने दे रहे हैं।  आप प्रतीक्षा न करने चाहें तो अस्‍थाई रूप से ब्‍लॉगवाणी विजेट अपने ब्‍लॉग से हटा लें फिर आपका ब्‍लॉग सक्रिय हो जाएगा।

यह पोस्‍ट केवल सूचनार्थ है।

खून खौलाना की काफियापूर्ति करते मौलाना (आजाद)

टॉम ऑल्‍टर की कुछ सबसे दमदार प्रस्‍तुतियों में से एक है मौलाना आज़ाद। हम पिछले कुछ सप्ताह से इंतजार कर रहे थे और फिर कल दोपहर इस एकल नाटक (सोलो)  की प्रस्‍तुति हमारे कॉलेज सभागार में की गई। आधुनिक भारत में भारतीय मुसलमानों के राजनैतिक जीवन की उथल पुथल पर बेबाक टिप्‍पणी है ये नाटक। बहती हुई उर्दू में टॉम ऑल्‍टर मौलाना आजाद के किरदार को इस खूबसरती से अदा करते हैं कि इस सोलो प्रस्‍तुति को भारतीय रंगमंच की चंद सबसे दमदार प्रस्‍तुतियों में शुमार किया जाता है इसलिए कल जब खुद अपने ही कॉलेज में इसे देखने का मौका मिला तो हमने झट लोक लिया। नाटक पीरो ट्रूप  रंगमंच समूह द्वारा मंचित किया गया। कॉलेज में हुई प्रस्‍तुति से चंद तस्‍वीरें-

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यूट्यूब से प्राप्‍त इसी नाटक से संबंधित दो वीडियो जिनमें से एक तो इस नाटक पर इसके निर्देशक सईद आलम साहब की टिप्‍पणी है जबकि दूसरा कहीं अमरीका में हुए प्रदर्शन का वीडियो है किंतु इस अमरीकी प्रस्‍तुति में सेट तथा प्रस्‍तुति उतनी दमदार नहीं दिख रही है जितनी कल थी... इसकी वजह शायद यह कि कॉलेज में उर्दू को लेकर महौल तथा स्‍वीकृति दोनों ही अधिक है। सेट भी कॉलेज सभागार में कहीं अधिक संसाधन संपन्‍न था।

वीडियो-1

वीडियो 2

हमारी राय पूछें तो इस मायने में ये एक साहसिक प्रस्‍तुति है कि सईद आलम लिखते हैं... टॉम ऑल्‍टर किरदार अदा करते हैं पर वे अल्‍पसंख्‍यकों की रिवाजी देशभक्ति के चक्‍कर में नहीं पड़ते... सरदार पटेल (और नेहरू) को जिन्‍ना के बराबर विभाजन का दोषी बताना साहस का काम है और इस प्रस्‍तुति में इस तरह से कही गई है कि विश्‍वसनीय जान पड़ती है।

Wednesday, December 09, 2009

हमारा अँगूठा हाजिर है श्रीमान

थोड़ी देर लिंक खोजा पर मिला नहीं लेकिन याद ताजा है कि पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि कुछ लोग अपने कार्यालय से ब्‍लॉगिंग करते हैं ये कहॉं तक उचित है ये संभवत पाबलाजी, अनूपजी या ज्ञानदत्‍तजी को या शायद हमें भी संबोधित था, लेकिन  अपने मन में ये कोई सवाल ही नहीं है क्‍योंकि हमारे लिए नैतिकता की परिभाषा इतनी स्‍थूल नहीं है। तब भी पिछले दिनों इलाहाबाद में जब ज्ञानदत्‍तजी समय प्रबंधन के मसले पर मंच से मुखातिब थे तो हमने ये कहकर कि सवाल हमारा नहीं बेनामी है पूछा ...ये बताऍं कि क्‍या दफ्तर से ब्‍लॉगिंग करने में नैतिकता का कोई सवाल उठता है... ज्ञानदत्‍तजी का उत्‍तर बेहद शांत व स्‍पष्‍ट था... नहीं ये कतई नैतिकता का सवाल नहीं है। सुबह उठते ही ज्ञानदत्‍तजी अल्‍ल सुबह घर से कंप्‍यूटर चलाते हैं और देखते हैं कि ट्रेनों का स्‍टेटस क्‍या है... ब्‍लॉगिंग करते हैं..काम करते हैं...दफ्तर में भी ये क्रम रहता है...दरअसल दफ्तर व घर का जो बंटवारा समझा जा रहा है वह बेहद कृत्रिम है असल जिंदगी में दोनों जगह काम होता है ... चौबीस घंटे की नौकरी है... इस मायने में घर के सब काम भी उसी कार्यालयी मनोदशा से ही जुड़े हैं इनके बीच तनाव व नैतिकता का सवाल बेमानी है।

हमें पांडेयजी के इस उत्‍तर से न कोई हैरानी हुई न परेशानी क्‍योंकि हमारा खुद का दृष्टिकोण यही रहा है। ये सवाल हमारे पेशे के बारे में अक्‍सर उठाया जाता है..दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में शिक्षकों को प्रति सप्‍ताह अठारह घंटे कक्षाएं लेनी होती है, हम विद्यार्थियों की हाजिरी लेते हैं तथा इसे सत्र के बाद दाखिल कर देते हैं इसे ही हमारी हाजिरी भी माना जाता है  अलग से न आने के समय की बंदिश है न जाने की... बस उम्‍मीद ये की जाती है कि कक्षा के समय हम कक्षा में उपस्थित रहेंगे। इतने सब के बाद भी जितनी शिद्दत से हम छुट्टियों का इंतजार करते हैं कोई और नहीं करता दिखता।  आखिर क्‍यों ?

वजह वही है जो ज्ञानदत्‍तजी ने बताई। शिक्षक के लिए कक्षा और कक्षा से बाहर के काम की जो हदबंदी कई लोगों खासकर नौकरशाही किस्‍म की सोच के लोगों के दिमाग में है वो शैक्षिक दुनिया का सच नहीं है। आज ही फेसबुक में एक दोस्‍त ने पूछा कि बायोमैट्रिक हाजिरी के बारे में आपकी क्‍या राय है- उनका इशारा विश्‍वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा प्रत्‍येक शिक्षक के अंगूठे के छाप से रोजाना हाजिरी लेकर ये सुनिश्चित करने के प्रस्‍ताव से था जिसके तहत हर शिक्षक को रोजाना 6-8 घंटे कॉलेज में रहना होगा। फिलहाल प्रस्‍ताव को टाल दिया गया है पर ये प्रस्ताव कितना फूहड़ है इसे केवल वे ही समझ सकते हैं जो दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय या जेएनयू जैसे विश्‍वविद्यालयों की कार्यसंस्‍कृति से परिचित हैं। ऐसा नहीं है कि यहॉं  गैरहाजिर रहने की समस्‍या यहॉं है ही नहीं पर वाथवाटर के साथ बेबी फेंक देना मूर्खता है। शिक्षक केवल 6-8 घंटे रोजाना शिक्षक नहीं होता वो चौबीस घंटे केवल शिक्षक ही होता है। जिस पचास मिनट के पीरियड में वह कक्षा लेता है उसमें उसके अब तक के सारे ज्ञान को शामिल रहना होता है ठीक वैसे ही जैसे कि एक कलाकार के श्रम को उसके प्रदर्शन के मिनटों की गणना करके नहीं समझा जा सकता। ये पचास मिनट शिक्षक का काम नहीं होते वरन उसकी परफार्मेंस होते हैं उसका काम तो उस सारे रियाज को समझा जाना चाहिए जो वह पूरे दिन करता है और हमारे लिए तो दिन भी कम पड़ता है।  अगर हमारे कॉलेज हमें कॉलेज में ही इस रियाज के मौके देने को तैयार हों तो शायद किसी को भी पूरे दिन वहॉं रहने में तकलीफ न हो। हम जब कॉलेज से  रवाना होते साथियों से दिन भर की विदाई का हाथ मिलाते हैं तो सदैव सवाल होता है ...कहॉं ? क्‍योंकि अधिकांशत: कॉलेज के बाद किसी गोष्‍ठी, लेक्‍चर, पुस्‍तकालय, सुपरवाइजर, मंडी हाउस, विश्‍वविद्यालय ही जाना होता है या कभी कभी उत्‍तर सुनाई देता है ... कहीं नहीं यार घर ही जाउ़ंगा थकान है घर जाकर पढूंगा... कोई शुद्ध लिपिकीय तरीके से इस बात की जॉंच पर बल दे सकता हे कि इस सब 'कामों' में कितने 'पर्सनल' हैं कितने 'आफीशियल' यानि बताएं कि जो उपन्‍यास आप पढ़ रहे हैं वो पाठ्यक्रम का ही है न... वगैरह।  हमारी नजर में कसौटी ये है कि आउटपुट की तुलना करें। देश के बहुत से राज्‍यों में शिक्षक हाजिरी देते हैं स्‍कूल कॉलेज में मौजूद रहते हैं लेकिन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का परिणाम कहीं कम होता है... क्‍या स्‍वविवेक पर निर्भर स्‍वाभिमानी  प्रोफेसर को अंगूठाछाप बना देना उन्‍हें बेहतर शिक्षक बनाएगा.. हमें तो शक है, पर अगर अब द्रोणाचार्य के एकलव्‍य बनने की बारी है तो हमारा अंगूठा हाजिर है श्रीमान। 

Wednesday, November 11, 2009

मैं चर्चाता हूँ...इसलिए मैं हूँ

अगर इंसान पहचान के कई टुकड़ों में साथ साथ जीता है पिता, मित्र, धर्म, जाति... तो भला ब्‍लॉगर की क्‍योंकर एकमुश्‍त पहचान होगी... वो भी अपने अलग अलग चिट्ठों, पोस्‍टों, टिप्‍पणियों से पहचान हासिल करता है... हम भी करते हैं, पर जब कोई हमसे पूछता है तो जिस पहचान को हम मसिजीवी होने के बाद सबसे अहम मानते हैं वह है चर्चाकार होना। चिट्ठाचर्चा के इतिहास पर हमारी कोनो पीएचडी नहीं है, सुकुलजी इतिहास दर्ज कर चुके हैं बांच लें, चिट्ठाचर्चा ने 1000 पोस्‍टों का सफर पूरा करने के अवसर पर हम केवल इस मंच से अपने जुड़ाव की बात करेंगे और नहीं।

मित्रों के सद्भाव के चलते जनसत्‍ता से ब्‍लॉगों पर एक स्‍तंभ जिखने की पेशकश हुई... पहले अविनाश अपना कॉलम लिखते थे पर उन्‍होंने भास्‍कर ज्‍वाइन कर लिया तो जाहिर है जनसत्‍ता में जारी नहीं रख सकते थे, थानवीजी से फोन पर बात हुई उन्‍होंने कहा कि आपका कालम है खुद कोई नाम रखें... 'चिट्ठाचर्चा' हमने बिना झिझक कहा, आखिर नियमित रूप से पोस्‍टों की चर्चा और भला क्‍या नाम आ सकता था हमारे मन में। जब तक जनसत्‍ता में कॉलम आया चिट्ठाचर्चा नाम ही रहा कभी मन में नहीं आया कि ये शुक्‍लजी के मॉडरेशन में चल रहे किसी सामूहिक ब्‍लॉग का नाम है... भले ही शुक्‍लजी हमसे सौगुनी मेहनत करते हैं चर्चा पर, किंतु चिट्ठाचर्चा हम सब का है... ये 'अविनाश के' मोहल्‍ले या 'यशवंत के' भड़ास सा कम्‍यूनिटी ब्‍लॉग नहीं है ये वाकई हमारी चिट्ठाचर्चा है इसलिए जब कोई टर्राते हुए इसे सुकुलजी के किन्‍हीं गुट की चर्चा कहता है तो झट मन में आता है बड़े आए सुकुलजी...(नारद को लेकर भी ऐसा ही मन में आता था अभी तक तो उम्‍मीद है कि चर्चा के मामले में ये विश्‍वास बना रहेगा)  

ऐसा नहीं कि नाराजगी नहीं हुई खुद अनूप धुरविरोधी प्रकरण में हमसे धुर असहमत थे... उनकी क्‍या कहें घर में खुद नीलिमा असहमत थीं

धुरविरोधी के विरोध का अपना एकदम निजी तरीका है इसपर सेंटी होने की भी जरूरत नहीं है उक्त विचार भी आपके एकदम निजी हैं

पर हमने चर्चा का विषय इसे बनाया एक बार नहीं लगा कि चिट्ठाचर्चा अनूप के मॉडरेशन में चल रहा ब्‍लॉग है उन्‍हें आपत्ति होगी। दरअसल चिट्ठाचर्चा में वैयक्तिकता व सामुदायिकता का जो संतुलन है उसे महसूसने की जरूरत है इसे साधुवादी वाह वाह से नहीं पकड़ा जा सकता। आप कौन सी पोस्‍ट चर्चा के लिए चुनेंगे ये प्रक्रिया राग द्वेष से मुक्‍त नहीं है होना मुश्किल भी है पर सिद्धांतत: चर्चाकार मानते हैं कि चर्चाकार को अपने विवेक से यह तय करने का हक है इसलिए इन आपत्तियों को कभी तूल नहीं दिया जाता कि कौन सी पोस्‍टें चुनी गईं... इसी प्रकार चर्चाकार की दृष्टि भी स्‍वतंत्र है किंतु दूसरी ओर सरोकारों की एक स्‍वीकृत सामुदायिकता है। पिछले कुछ महीनों से मेरी, नीलिमा तथा सुजाता की   ब्‍लॉगिंग में सक्रियता कम हुई है पर कम से कम इतना प्रयास अवश्‍य करते हैं कि चर्चा अवश्‍य हो जाए भले ही संक्षिप्‍त रह जाए वैसे इसमें कितना योगदान हमारी प्रतिबद्धता है कितना अनूपजी के तकादों का, यह कहना कठिन है।

भविष्‍य की ओर घूरें तो मुझे लगता है कि जैसा कि इलाहाबाद में इरफान ने अपने परचे में कहा था...हम ब्‍लॉगर खुद ब्‍लॉगिंग पर लिखना बांचना पसंद करते हैं इससे तय है कि चर्चा की यात्रा अभी चलेगी...नए चर्चा मंच दिखाई दे रहे हैं...उनकी मौलिकता को लेकर कुछ संशय है पर ये संशय भी मिटेंगे...अपनी तो राय है मोर दि मेरियर।

Thursday, November 05, 2009

हिन्‍दी के हेड कविता क्‍यों नहीं लिखते ?

हिन्‍दी के हेड हमेशा कवि-आलोचक होते हैं, एकाध तो उपन्‍यास लिखने की धमकी भी दे रहे हैं। ये लोग इसीलिए लेखक को नीची नजर से देखते हैं। साहित्‍य के औजार हैं इनके पास। जब जी चाहा, कुछ भी गढ़ लिया। ये लोग समझदार बहुत होते हैं , लेकिन स्‍याने ? किसने कहा था एजुकेशन कम्‍स बट विज़डम लिंगर्ज। “

- स्‍वदेश दीपक (मैंने मांडू नहीं देखा, पृ. 20)

स्‍वदेश दीपक के इस कथन के आलोक में अपने विश्‍वविद्यालय के पुराने, हाल फिल‍हाल और बेहाल नए-पुराने सब हेड (विभागाध्‍यक्ष...क्‍या भारी शब्द है न) को याद कर जाता हूँ... डा. नगेन्‍द्र, भारी भरकम आलोचक...गैर कवि..और शायद कवित्‍व विरोधी भी। head और फिर सर्वप्रोफेसर सुरेशचंद्र गुप्‍त, नित्‍यानंद तिवारी, बालीजी, महेन्‍द्र कुमार.... और प्रो. निर्मला जैन ( स्‍वदेश दीपक उनके लिए तो ये कथन लिखा ही है) ...और अब प्रो. पचौरी सब के सब एक के बाद एक आलोचक... कवि कोई नहीं। लिखे गए नामों के अलावा कई 'वगैरह' भी हैं जो हेडत्‍व को प्राप्‍त हुए हैं और वे 'वगैरह' इसलिए हैं कि वे कविता तो छोडो कुछ्छे नी लिखते। हमारे विश्‍वविद्यालय को छोडि़ए तमाम हिन्‍दी के हेड शायद इसी व्‍याधि से दर्ज हैं, मैं हैरान हूँ कि विश्‍वविद्यालयी हिन्‍दी की गत का इस तथ्‍य से कोई संबंध बनता है कि हिन्‍दी के हेड कविता नहीं लिखते ?

पुनश्‍च: मैं भी कविता लगभग नहीं ही लिखता :)

Sunday, October 25, 2009

इलाहाबाद...कुर्सियॉं औंधा दी गई हैं, पोडियम दबे पड़े हैं

ब्‍लॉगजगत में हलकान तत्‍व की प्रधानता व सजगता देख दिल बाग बाग हुआ जाता है। लोग हैदराबाद की उपेक्षा और वर्धा वालों की निमंत्रण सूची की अनुपयुक्‍तता से भी दुखी हैं... सजगता भली चीज है इसलिए इन आशंकाओं का स्‍वागत होना चाहिए। पर हम एक ब्‍लॉगर नजर से बात साफ कर देना चाहते हैं कि ब्‍लॉगिंग कोई कूढे का ढेर नहीं कि जिस पर खड़ा होकर कुक्‍कुट मसीहा होने की घोषणा कर सकें...चलिए एक ब्‍लॉगर नजर से बताते हैं कि क्‍यों विश्‍वविद्यालयी आयोजन उत्‍सव भले ही हों...भय खाने की चीज नहीं हैं- अनूपजी हमें यहीं छोड़कर कानपुर चले गए हैं हम भी गेस्‍टहाउस से उसी परिसर में आ गए हैं जहॉं कार्यक्रम था  ताजा हाल ये है कि

नामवरी कुर्सियॉं औंधा दी गई हैं, पोडियम दबे पड़े हैं

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आसनों की अट्टालिका कुछ कहती है क्‍या ?

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घोषणापत्रों की गत ये हो गई है

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अभी संजयजी ने बताया कि हम चौथा पॉंचवा खंबा हैं...

बाहर मीडिया से मिले तो बोल पड़े- यह पांचवा स्तंभ है. संभवत: नामवर सिंह भी मानते हैं कि चार स्तंभ कमजोर हुए हैं इसलिए नियति के कारीगर ने इस पांचवे स्तंभ को गढ़ने का काम शुरू कर दिया है.

गिनती आप खुद कर लें कि कौन सा है पर इतना तय है मीडिया एक खंबा तो है .. देख लें-

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बहुत से लोगों को आपत्ति है कि कुछ को फूल मिले कुछ को नहीं... तो जान लें कि हर गुलदस्‍ते की परिणति एक ही है -'कचरापेटी'

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तो तंबू बंबू उखड़ चुका है...लोगों से मिले उन्हें जाना.. मनीषा, आभा, प्रियंकर, अनूप, इरफान, भूपेन, रवि, अफलातून, बोधिसत्‍व, विनीत, अजीत,प्रवीण....और भी इतने लोग... किसी पर कोई प्राइस टैग नहीं था, कोई बिकाऊ नहीं था... सब जानते हैं मानते हैं कितनी ही संगोष्‍ठी हों... ब्‍लॉगिंग वो तो नूंहए चाल्‍लेगी :)

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Saturday, October 24, 2009

इलाहाबाद से गैर-रपटाना....एकदम ब्‍लागराना

इस रपट बहुल वातावरण में हम सरीखे हमारे सामने बहुतई दिक्‍कत है... जब त्‍वरित रिपोर्टिंगों के चलते एक दो तीन चार पॉंच छ: सात... रपटें आ चुकी हों तो हम का करें। बेचारे एक ही नामवर सिंह है गलत तथ्‍य भी एक ही दिया है अब इस पर कितनी बार लिखा जा सकता है.... अमृत उत्‍सव मना चुका व्‍यक्ति एकाध तथ्‍यात्‍मक भूल का हक तो रखता ही है। अपना संकट ये है कि अगर कुछ नहीं लिखा तो कई लोग जिनमें घर के अधिकार-प्राधिकार संपन्‍न लोग शामिल हैं मान बैठेंगे कि हम इहॉं बस मस्‍ती करने आए हैं... तो हमारी निम्‍न बातों पर जरा ध्‍यान दें कि हम मस्‍ती नहीं कर रहे हैं खूब काम कर रहे हैं....

सुबह सुबह खून के आसुओं कर पृष्‍ठभूमि में दो-ठो चाय पीना कम जोर काम नहीं है...

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दो क्‍यों ? अरे साहब हम दम ठोंक कर कहते हैं कि चाय के प्‍यालों का जितना पतन इस शहर में हुआ है उतना तो सांसदों की गरिमा तक का नहीं हुआ...

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हमने खूब अनुमान लगाए कि इस कप का आयतन क्‍या है पर कोई अनुमान तीस एमएल को छू नहीं पाया।

फिर भी चाय साधुवादी थी....क्यों ? इसलिए कि चायवाला साधु था-

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इतने काम को ही ही हम पर्याप्‍त मानते हैं पर यहॉं तो इलाहाबाद न जाने हमसे कितना काम करवा लेने पर उतारू था..मसलन ये कैथा का अनुभव करना..

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न जी इसे कम वीरता का काम न मानें..देखें ये प्रापर इलाहाबादी बालिका तक इस कैथे को चख कैसे उफ कर बैठी हैं-

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और जिन को अबहू लग रहा है कि हम कुछ नहीं कर रहे तो बताइए कि अगर ये जो नामवरजी लुड़कत्व को प्राप्‍त हुए हैं क्‍या इसमें हमारी कोनो भूमिका नही है...

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फिर शाम को अंडा भक्षण...

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सुबह पोहा पूजन

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रात को गपबाजी के चिरकुट सुख-

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इतने काम कर हम बहुत थक गए हैं अनूपजी सर पर सवार हैं चलो नाश्‍‍ता करना ही पडेगा...सुबह भी जलेबी 'खानी पडीं'।

चलते चलते आयोजकों की व्‍यवस्‍था के विषय में बता दें कि पूरा ध्‍यान रखा गया है यहॉं तक कि ब्‍लॉगर संप्रदाय की अनन्‍य आवश्‍यकता टंकी तक की व्‍यवस्‍था परिसर में है जो चाहे झट टंकी आरोहण कर ब्‍लॉगत्‍व को प्राप्‍त हो... हमारी शिकायत बस यही है कि आयोजकों ने ब्‍लॉगरों को शिकायत की गुंजाइश न देकर शिकायत-ब्‍लागिंग की सुविधा नहीं दी है

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एक और बात विनीत के आडियो रिकार्डर खो जाने की खबर से घर के लोग परेशान होंगे कि विनीत जैसा सुपर सतर्क बालक अगर गुमाने पर आतुर हो गए हैं तो हम जैसे गुमातुर व्‍यक्ति क्‍या होगा... तो आश्‍वस्‍त रहें अब तक केवल एक कंघी लापता है...उसकी भी तफ्तीश जारी है। हमारे कमरे के साथी अनूप शुक्‍ल हैं... ये केवल सूचना के लिए है पिछले वाक्‍य से इसका कोनो संबंध नहीं है।

Tuesday, September 29, 2009

ब्‍लॉगवाणी में चंद कोड्स से अधिक जो कुछ था हमारा था

अब घंटों बाद ये कोई खबर नहीं रह गई है कि ब्‍लॉगवाणी बंद हो गया है। क्रोध, आश्‍चर्य, पीड़ा और भी कई संज्ञाओं से उस भावना को व्‍यक्त करने की कोशिश कर सकता हूँ जो इस खबर को जानने के बाद उपजी हैं। ये सभी संज्ञाएं ठीक भी होंगी पर सच बताने को जी चाहता है और वह ये कि सबसे ज्‍यादा जिस भाव को महसूस किया वह है अपमान। मैथिलीजी व सिरिल से बहुत कुछ सीखा है तथा हम किताबी लोगों में उद्यमी लोगों के प्रति जो अवहेलना का भाव होता हे उससे खुद को जितना कुछ मुक्त कर सका हूँ उसमें इस गुप्‍तद्वय की विशेष भूमिका है। पर इस प्रकरण में ब्‍लॉगवाणी की हत्‍या कर दिए जाने ने मुझे आहत किया है शुद्ध व्‍यक्तिगत हानि। मैथिलीजी तथा सिरिल से संबंध बेहद अनौपचारिक हैं, इतने कि झट से फोन कर दो-चार हजार का उधार मॉंग लेने तक में कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई पर इस प्रकरण में इतना अपमानित महसूस कर रह हूँ कि हिम्‍मत नहीं हुई कि फोन या ईमेल कर कुछ कह सकूँ। लगता है एक झटके से उन्‍होंनें  कुछ कहने का अधिकार ही हमसे छीन लिया।

एकाध जगह जहॉं हमने टिप्‍पणी की वहॉं हमने कहा

''ये पूरा प्रकरण ही अत्‍यंत खेदजनक है। न केवल आरोप-प्रत्‍यारोप खेदजनक हैं वरन नीजर्क प्रतिक्रिया में ब्‍लॉगवाणी को बंद किया जाना भी। क्‍या कहें बेहद ठगा महसूस कर रहे हैं...अगर ब्‍लॉगवाणी केवल एक तकनीकी जुगाड़ भर था तो ठीक है जिसने उसे गढ़ा उसे हक है कि उसे मिटा दे पर अगर वह उससे कुछ अधिक था तो वह उन सभी शायद लाख से भी अधिक प्रविष्टियों की वजह से था जो इस निरंतर बहते प्रयास की बूंदें थीं तथा इतने सारे लोगों ने उसे रचा था.... हम इस एप्रोच पर अफसोस व्‍यक्त करते हैं। यदि कुछ लोगों की आपत्ति इतनी ढेर सी मौन संस्‍तुतियों से अधिक महत्‍व रखती है तो हम क्‍या कहें...'' 

जिन ब्‍लॉगरों की आपत्तियों के परिणामस्वरूप ये हुआ उनसे मुझे कुछ खास नहीं कहना, इसलिए भी नहीं कहना चाहता कयोंकि मुझे नहीं लगता उन्‍हें सीधे संबोधित करने का कोई अधिकार मुझे है, मैं ठीक से उन्‍हें जानता पहचानता भी नहीं। शेष कुछ लोगों को सहज ही नारद प्रकरण तथा धुरविरोधी की हत्‍या याद होगी।  काश धुरविरोधी आस पास होता तो वो देख सकता कि कैसे ब्‍लॉगवाणी प्रकरण में  एक हत्‍या को आत्‍म‍हत्‍या करार दिया जा रहा है। नारद में हमारा पैसा नहीं लगा था पर उसे उन लोगों द्वारा मिल्कियत समझने पर हम खुद को ठगा महसूस कर रहे थे जिनका साझे का ही सही पर पैसा व मेहनत इसमें लगी थी। पैसा अपना ब्‍लॉगवाणी में भी नहीं लगा था पर इसे भी हम अपना सा ही समझते थे...गलती हमारी ही थी...एक बार में नहीं सीखे तो धोखा तो होना ही था।

बहुत कुछ कहने की इच्छा नहीं पर दर्ज कर देना चाहते हैं कि भले ही विधिक या जिस भी नजरिए से कोई 'अपनी' साइट मिटा देने से आपको रोक नहीं सकता पर फिर से बेव 2.0 की प्रकृति पर विचार करें... इसमें लगे कोड भले ही आपने रचे हों पर ये कोड जिन शब्‍दों से मिलकर वास्तविक अर्थ गढ़ते हैं वे प्रयोक्ता रचित (यूजर जेनरेटिड) होते हैं अत: इन प्रयोक्ताओं को संभलने का कोई मौका दिए बिना उनके पैरों से कालीन से यह कहकर छीन लेना कि भई ये हमारा कालीन है, हमें न्‍यायपूर्ण नहीं जान पड़ता। 

बस और कुछ कहने को जी नहीं चाहता !!!

Thursday, September 17, 2009

अरे मेरा विश्‍वविद्यालय खो गया है

अभी कुछ नई जानकारी के लिए अपने विश्‍वविद्यालय की वेबसाइट पर झांका तो ये पाया

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मतलब विश्‍वविद्यालय की भारी भरकम साइट गायब है उसकी जगह एक नवेली हल्‍की फुल्‍की किसी एडवाइजरी समिति की साइट ने हथिया रखी है जिसका विश्‍वविद्यालय से कोई संबंध नहीं है।

वैसे लगता नहीं कि ये हेकिंग का मामला है क्‍योंकि जो साइट आ रही है वो भी एक सरकारी साइट है जिसका पता बाकायदा इलैक्‍ट्रानिक निकेतन का है। यानि ज्‍यादा संभावना ये है कि बाबूगिरी वाले तरीके से नई तकनीक से खेलने का परिणाम है। उम्‍मीद है हमारा खोया विश्‍वविद्यालय ज्‍ल्‍द ही मिल जाएगा। :))

Friday, August 21, 2009

चौं बई जन्‍मदिन तो ठीक, पर जे फोटो चौं चेंपी ए

ठेठ anoopफुरसतिया शैली में अनूप ने सूचना दी है कि वे एक पंचवर्षीय योजना पूरी कर चुके हैं। ये अलग बात है कि जो बात सीधे साधे तरीके से ठग्‍गू का एक लड्डू भेजकर कही जा सकती थी उसके लिए इन्‍होंने इस तस्‍वीर का सहारा लिया। और जब उन लोगों ने पूछा जो पूछ सकते थे (बकिया सब तो वरिष्‍ठ-उरिष्‍ठ, भीष्‍म पितामह वगैरह के चलते हे हे करके रह जाते हैं) - रचना ने सवाल पूछा. बाकी सब ठीक पर ये बताओं की तस्‍वीर और पोस्‍ट में संबंध क्‍या है तो लगे हे हे करने :))

रचनाजी, आपकी बधाई के लिये शुक्रिया। चित्र और पोस्ट का संबंध मैंने जानने की कोशिश नहीं की सिवाय इसके कि चित्र मुझे अच्छा लगा। 

पर जो जानते हैं सो जानते हैं, जैसे जीतू भाई-

अरे वाह! पाँच साल हो भी गए। तुम्हे तो पाठकों को वीरता पुरस्कार देना चाहिए, पाँच साल तक इत्ती लम्बी लम्बी पोस्टें झिलाते रहे। पाँच साल कम समय नही होता, बाकी सभी ब्लॉगवीर कट लिए तुम अभी तक डटे हुए हो, भीष्म पितामह की तरह। याद है पिछली बार भीष्म पितामह किसने कहा था?

पिछले पाँच सालों मे ना जाने कित्ती बार तुम लोगों की चिकाईबाजी करते रहे, सबसे मौज लेते रहे,हमारी खिंचाई करते रहे, सभी विवादों मे टाँग/पैर घुसाते रहे, रात को अमरीकन कुड़ियों से सीयूकूल बनकर बतियाते रहे, सबसे बड़ी बात हर दूसरी चैट विन्डो पर अपने ब्लॉग के लिंक ठेलते रहे। सचमुच काफी वीरता का काम है, कोई मल्टीपरपज बंदा ही इत्ते सारे काम एक साथ कर सकता है। खैर..अब पाँच पूरे हो ही गए है तो बधाई देना तो अपना भी फर्ज है, इसलिए बधाई को नत्थी किया जा रहा है, पावती भेजे।

लिखते रहो, लगातार…..हमे रहेगा इंतजार।

जीतू, ......अमेरिकन कुड़ियों का तो ये आलम है कि जिससे बात करो सब कहती हैं बात नहीं करेंगे -जीतेन्द्र भाई साहब ने रोका है। पता नहीं क्या लफ़ड़ा है तुम्हारा

मतलब ये हैं कि ये जो तस्वीर है न उसके पीछे कोई बात है जिसे कुछ 'पुराने' लोग जानते हैं, हम उनमें शामिल नहीं हैं क्योंकि जो नाम गिनाए हैं उनमें हम नहीं हैं, और हम इससे कतई नाराज नहीं हैं, भला पुराना होने में कौन खुशी की बात है- ठाठ तो नया होने और बने रहने में है।

खैर जो नाम अनूप ने गिनाए हैं वे हैं-

आज के दिन की याद रविरतलामी, देबाशीष, जीतेंद्र चौधरी, अतुल अरोरा,आलोक कुमार, पंकज नरुला, इन्द्र अवस्थी ,रमण कौल,ई-स्वामी, शैल, आशीष श्रीवास्तव , शशि सिंह, जगदीश भाटिया, सृजन शिल्पी , निठल्ले तरुण, श्रीष, बेंगाणी बन्धुओं, काकेश ,प्रियंकर, प्रत्यक्षा, रचना बजाज और बेजी के साथ तमाम ब्लागरों की पुरानी याद के साथ शुरू हुई!

हमारी इच्छा हुई कि ब्‍लॉग-पितामह के जन्‍मदिन के बहाने इनमें से कुछ के ब्‍लॉग झांक लिए जाएं-

रविजी को छोड़ देते हैं क्‍योंकि वे अभी तक नियमित ही हैं।

देवाशीष की ताजातरीन पोस्‍ट 2008 की वार्षिकी से संबंधित है। 

जीतू ने कल ही लिखा है पर दरअसल लिखा 2005 में था उसीका रीठेलन किया गया है।

आलोक अपनी छोटी लेकिन सार्थक बातें करते ही रहते हैं जैसे ब्‍लैकबेरी क्‍यों काला पत्‍थर है हाल में ही बताया उन्‍होंने।

लंबे गोते तो लगाते हैं अतुल अरोरा कम से कम साल भर का आराम करते हैं अगली पोस्‍ट के लिए। मुष्टिका भिड़त पर उनकी पोस्‍ट जून 2008 में आई थी।

गदाधारी विद्वान दोस्‍त सृजन शिल्‍पी ने जून में एक पुस्‍तक समीक्षा पेश की थी उम्‍मीद है फिर कुछ लिखेंगे।

ईस्‍वामी का टंडीरा प्रणय तो आपने पढ़ा ही होगा....न तो जरूर बांचें।

दिमागी हलचल पंकज भाई बोले तो मिर्ची सेठ में भी होती है उम्मीद है देखी होगी।

दूसरों का क्‍या कहें हम खुद ही रिटायर्ड हर्ट सा खेल रहे हैं, जोश सा आइए नही रहा है। वो तो भला हो कल अनूपजी का फोन आ गया जन्‍मदिन की बधाई मांगने के लिए :)) और  प्रमेंद्र की मेल कि कहॉं भाई जागो, इसलिए आज ये कीबोर्ड पीटा है। सो भी इसलिए कि अनूप ये न कहने लगें कि अब कोई हमसे मौज नहीं लेता।

Saturday, July 11, 2009

38 लाख हिन्‍दी पृष्‍ठ इंटरनेट पर

 

हाल में मेरे हाथ एक खजाना लगा है जिसे मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ। चौदह हजार एक सौ बाइस पुस्‍तकों के अड़तीस लाख छत्‍तीस हजार पॉंच सौ बत्‍तीस पृष्‍ठ..... हिन्‍दी के पृष्‍ठ । बेशक ये एक खजाना है जो हम सभी को उपलब्‍ध है एकदम मुफ्त। बस क्लिक भर की दूरी पर। और ये किताबें सब कूड़ा नहीं है वरन खूब काम की दर्लभ किताबें तक इसमें शामिल हैं मसलन 1935 की श्री गणेश प्रसाद द्विवेदी की इस किताब को देखें-

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या चोखेरबालियों को उमंग से भर देने के लिए 1921 की इस किताब को देखें-image

पुरानी किताबों में से फिलहाल मुझे 'टू ईयर्स बिफोर द मास्‍ट' का हिंदी अनुवाद काफी रुचिकर लग रही है, पुस्‍तक 1840 की है पर अनुवाद कब का हे ये पता नहीं चल पा रहा

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केवल पुरानी ही नही नई पुस्‍तकें भी यहॉं उपलब्‍ध है मसलन हिन्‍दी में पहली कक्षा की गणित की इस पाठ्यपुस्‍तक को देखें

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ये सब ओर भी बहुत सी किताबें मुझे मिली हैं भारतीय डिजीटल पुस्‍तकालय पर। भारत तथा विदेश के बहुत से सहयोगियों के साथ चल रहे इस कार्यक्रम के विषय में आप इनकी वेबसाइट से जान ही सकते हैं। किताबें पूरी मूल रूप में उपलब्‍ध हैं तथा TIFF फार्मेट में हैं। आल्‍टरनेटिफ नाम का रीडर वहॉं डाउनलोड के लिए उपलष्‍ण है तथा एक्‍सप्‍लोरर में अच्‍छा काम करता है पर क्रोम पर नहीं चलता । फिर देर किस बात की है जाएं देखें हो सकता है जो किताब आप बरसो से खोज रहे थे पर मिल नही पा रही थी, हो सकता है यहॉं उपलब्‍ध हो फोकट में।

Sunday, June 14, 2009

थेकेडी के एक मसाला उद्यान की यात्रा

देश के तमाम राज्‍यों की तुलना में पर्यटन का जितना विकास केरल ने किया है उतना शायद किसी और राज्‍य ने नहीं। पर्यटन के इस विकास में उनकी रचनात्मकता की विशेष भूमिका है। मसलन बैकवाटर्स को ही लें...अस्‍सी के दशक तक इसे यातायात की बाधा के रूप में देखा जाता था लेकिन दो दशक में ये केरल के यूएसपी के रूप में उभरे हैं, हाउसबोट, आयुर्वेद, मार्शलआर्ट, कुच्‍चीपुड़ी कथकली और यहॉं तक कि मसाले। मसाले जो शुद्ध रूप से एक व्‍यावसायिक गतिविधि हैं को केरलवासियों ने एक पर्यटन गतिविधि बना दिया है। जगह जगह विशेष‍कर थेकेडी इलाके में मसालों के उद्यान लगाए गए हैं जिनका उद्देश्‍य मसाला उत्‍पादन कम है वरन नर्सरी के रूप में एक ही जगह अलग अलग मसालों के चंद पौधे उगाकर उन्‍हें पर्यटकों को दिखाकर उनके विषय में बताना तथा फिर मसाने बेचना, मूल उद्देश्‍य है।

पिछले दिनों हम केरल की यात्रा पर थे वहीं ऐसे ही एक उद्यान में हम गए...सौ रुपए प्रतिव्‍यक्ति की एंट्री फीस अधिक तो लगी (इसका अधिकांश हिस्‍सा उस ड्राइवर को चुपचाप दे दिया जाता हे जो पर्यटकों को ला ता है। नर्सरी मालिक की आमदनी उस बिक्री से होती है जो इन पर्यटकों को मसाले बेचने से होती है)। तो लीजिए आनंद कुछ ऐसे पौधों के चित्रों का जिनके उत्‍पादनों का आनंद तो हम अपने खाने में लेते हैं लेकिन इन पौधों तथा उस प्रक्रिया से अनजान थे जिनसे ये मसाले बनते हैं-

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मीठी शुरुआत- चॉकलेट के पौधे से, इस फल से एक कड़वा कसैला पदार्थ मिलता है जो प्रोसेसिंग के बाद मीठी चॉकलेट में बदल जाता है। ध्‍यान रहे कि केरल के इस हिस्‍से में शानदार घर की बनी चाकलेट खूब खाने को मिलती है।

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ये दुनियाभर में भारत की पहचान कालीमिर्च का पौधा है, दरअसल सही कथन होना चाहिए गोलमिर्च क्‍यों हमें बताया गया कि काली, हरी तथा सफेद गोलमिर्च इसी एक पेड़ से मिलती है...साल में अलग समय तोड़ने तथा प्रोसेसिंग की भिन्‍नता के कारण इनके रंग व तीखापन बदल जाता है।

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अन्‍नानास

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थेकेडी की विशेष पहचान यहॉं की इलायची

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ये बांस की तरह पतला लेकिन नारियल की तरह ऊंचा पेड़ सुपारी का है...अपना दिल तोIMG_3222 इस बात से ही दहल गया कि किसी के पान के स्‍वाद के लिए इस पेड़ पर बाकायदा चढ़कर सुपारी तोड़नी होती है।

तब कहीं जाकर ये फल प्राप्‍त होते हैं, जी हुजूर सुपारी का फल यही है...पान में डाली जाने वाली कठोर वस्‍तु इसी फल में छिपी है।

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ये वृक्ष मजेदार है इसके पत्‍ते ही तेजपात कहे जाते हैं...उससे भी मजेदार ये कि इसी वृक्ष के तने की छाल दालचीनी कहलाती है। जिसे तीन तीन साल की शिफ्ट में तने के आधी आधी ओर से छीला जाता है।

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मौसम न होने के कारण फल दिखाई नहीं दिए पर ये पौधा जायफल (Nutmeg)का है इसकी खसियत ये कि जब फूल होता हे तो वह जावित्री कहलाता है और फल हो, तो हो जाता है जायफल (हम मानते थे ये दो एकदम अलग चीजें हैं :))

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विशेष औषधीय लाल केले... केले की एकमात्र प्रजाति जिसमें फल ऊपर से नीचे के स्‍थान पर नीचे से ऊपर की ओर फलता है।

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इसे पर्यटन की समझ ही कहा जाएगा कि अधिकांश मसाला नर्सरियों ने ये समझते हुए कि ज्ञानवर्धक ओवरडोज बच्‍चों के लिए बोरिंग हो सकता है..उन्‍होंने एक बेहद ऊंचा ट्रीहाउस बना रखा हे जो बच्‍चों को बेहद पसंद आता है।

Thursday, May 28, 2009

मंजन दातुन के लिए बिस्‍लेरी

कल ही दिल्‍ली आकर गिरे हैं बारह दिन के लिए दक्षिण की यात्रा पर थे। दक्षिण भी पूरा नहीं लक्षदीव तथा केरल और बस तमिलनाडु में कन्‍याकुमारी भर। काफी दिन रहे इसलिये अनेक प्रकार के अनुभव रहे अवसर मिलने पर बाकी भी बताएंगे पर लक्षदीव सबसे अनोखा था। दिल्‍ली से हैं पूरी तरह लैंडलाक्‍्ड इसलिए द्वीप के जीवन की कल्‍पना तथा अनुभव एकदम अलग रहा। लक्षदीव पश्चिमी तट के लक्षदीव सागर (अरब सागर का दक्षिणी छोर) में कुछ तीसेक द्वीपों का समूह है ये प्रवाल द्वीप हैं  जिनमें से केवल दस आबाद हैं पर्यटक केवल चार द्वीपों पर जा सकते हैं विदेशी केवल एक द्वीप बंगारम पर ही जा सकते हैं। द्वीप समूह का एकमात्र हवाई अड्डा अगाती द्वीप पर है... इस माह की 16-17-18-19 को हम इसी द्वीप पर थे। जो लोग अंडमान-गोआ-कोवलम या यूरोप अथवा अमरीकी बीचों के अनुभव से समुद्र तथा बीच को पहचानते हैं वे शायद बिना अनुभव किए न मानें लेकिन लक्षदीव इससे बिल्‍कुल अलग है। एक प्रमुख वजह तो है इनका प्रवाल द्वीप होना तथा दूसरा है एकदम अछूता होना। पूरे द्वीप पर एक भी चट्टान नहीं है दरअसल रेत भी रेत न होकर कोरल चूरा ही है इसलिए एकदम सफेद है जिसमें सिलिका का अंश शून्‍य है।

हवाई जहाज से पहली झलक कुछ ऐसी दिखी एक लंबी सी पट्टी और कोने पर छोटी सी बूंद के आकार में।

 

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विकीमैपिया से प्राप्‍त बेहतर तस्‍वीर कुछ ऐसी है-

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अगाती द्वीप का कुल क्षेत्रफल 3.84 वर्ग किमी है ये अधिकतम 6 किमी लंबा तथा एक किमी तक चौड़ा है। हम अगाती बीच रिसॉर्ट में बुकिंग कराकर गए थे वहीं रुके। लक्षदीव जाने के लिए सभी को चाहे वे भारतीय हों परमिट लेना पड़ता है। लक्षदीव का पर्यटन सस्‍ता नहीं है कम से कम हमें तो मंहगा लगा, आफ सीजन के बावजूद तीन दिन का ठहरना बीसेक हजार का पड़ा। लेकिन पूरी दुनिया से परे एकदम दूधिया बीच जिस पर आप लगभग अकेले पर्यटक हों, ये रोजमर्रा अनुभव नहीं है। पूरे द्वीप पर मीठे पानी की कोई नदी आदि नहीं है इसलिए रिसॉर्ट में नलों में समुद्र का खारा पानी ही बहता है जो निवृत्‍त होने यहॉं तक कि नहाने के लिए तो ठीक है पर अगर पीना हो या कुल्‍ला करना हो तो बिस्‍लेरी की उन बोतलों के सहारे रहना पड़ता है जो 450 किमी दूर कोचीन से हवाई मार्ग से आई होती हैं तो हम भी तीन दिनों तक बिस्‍लेरी से कुल्‍ला दातुन का आनंद ले चुके हैं :))

करने को इस छोटे से द्वीप पर कुछ नहीं है सिवाए इस खूबसूरत समुद्र को निहारने और एकदम स्‍वच्‍छ समुद्र में क्रीड़ा करने के, लेकिन इसमें आप कभी थकेंगे नहीं, न बोर ही होंगे। कुछ तस्‍वीरें देखें-

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अभी बस इतना ही शेष बाद में।

Wednesday, April 29, 2009

फ्रान्सिस्‍को गोया और उनकी पेंटिंग '3 मई 1808'

 

'अनभै सॉंचा' दिल्‍ली से निकलने वाली एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका है। ताजा अंक में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने आधुनिक कला की दो अहम पेंटिग्‍स फ्रांसिस्‍को गोया की '3 मई 1808 का नरसंहार' तथा पाब्‍लो पिकासो की 'गुएर्निका' का विवेचन है। ऐसा नहीं है कि इन पेंटिंग्‍स पर कम लिखा गया है पर हिन्‍दी में निश्चित तौर पर कम लिखा गया है। अत: सोचा कि गोया की पेंटिंग के विषय में अशोक भोमिक के विवेचन को आपके सामने रखा जाए।

फ्रांसिस्‍को गोया (1746-1828, स्‍पेन) को कला इतिहासकार निर्विवाद रूप से आधुनिक चित्रकला के जनक के रूप में जानते हैं। स्‍पेन का नेपोलियन के कब्‍जे में आना गोया के जीवन  की अहम घटना थी। 3 मई 1808 का नरसंहार इसी क्रम की एक घटना रही। इस चित्र को मूल घटना के छ: वर्षों बाद बनाया गया लेकिन इससे इस चित्र की कलात्‍मक तीव्रता कम नहीं हुई है। मूल चित्र की छवि ये है-

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गोया के इस चित्र में कई गौरतलब बातें हैं जो आम दर्शकों के लिए और समीक्षकों के लिए इस चित्र को इतना खास बनाती हैं।

1. चित्र में बाई आरे असहाय लोगों का झुंड है जहॉं कुछ लोग मारे जा चुके हैं कुछ लोग मर रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जा मरने वाले हैं। इस सबके साथ साथ आतंकित कुछ और लोब भी हैं जो मारे नहीं जाएंगे पर संहार से भयभीत वे भी हैं। इन बाईं ओर के लोगों की संरचना में सीधी ज्‍यमितीय आकृतियॉं नहीं हैं। वे मुड़ी तुड़ी आकृतियों से बनी आक्रांत-आतंकित आकृतियॉं हैं।

2- दाहिनी ओर कतारबद्ध अतिकाय आकृतियॉं यीधी रेखाओं की ज्‍यमितीय आकारों से बनी सैनिकों की आकृतियॉ है जो बंदूक ताने हैं। पृष्‍ठभूमि में भी साधी रेखाओं से बनी महल की आकृति है जो इस हत्‍याकांड में में किस ओर है ये इसके ज्‍यमितीय होने से पता चलता है।

3- सैनिकों के पीछे का महल व्‍यवस्‍था का प्रतिनिधित्‍व करता है। 

4. चित्र के दोनों हिस्‍सों के संरचनात्‍मक व वर्गीय अंतर ही इस चित्र को गोया की महान रचना बनाते हैं। सैनिकों के चेहरे न दिखाकर गोया ने शोषण, संहार व अत्‍याचार के सहज दिखने वाले सतही माध्‍यमों को अनावश्‍यक महत्‍व न देते हुए संहार को संचालित करने वाली शक्तियों की ओर इशारा किया है।

5. चित्र में सबसे महत्‍वपूर्ण उपस्थिति सफेद कपड़ेवाले आदमी की है जो अत्‍याचार से भयभीत नहीं है।

6. जमीन पर रखी लालटेन से निकलता (पुन: सीधी रेखा में) प्रकाश भी महत्‍वपूर्ण युक्ति है जिसका इस्‍तेमाल गोया ने किया है।

   कुल मिलाकर 3 मई 1808 दो सौ साल पहले की एक घटना का चित्रण भर नहीं है वरन चित्रकार की पक्षधरता व शोषण के तंत्र का शानदार दस्‍तावेज भी है।

Friday, March 13, 2009

अपने बच्‍चे का मैला तो हमने भी कमाया है... शर्माजी जी इतनी नाराज क्‍यों हैं?

मैं लावण्‍याजी का लेखन यदा कदा पढ़ता रहा हूँ...आजकल लावण्‍या आहत हैं... बेहद आहत। आखिर उनकी माताजी को बुरा कहा गया है उन्‍हें नाराज होने का हक है। जरूरी नहीं कि आप वैध बात पर नाराज हों...आप चाहें तो बेबात या कम बात पर भी नाराज हो सकते हैं। हमारी पिछली पोस्‍ट को ही लें... बेचारे प्रोग्रामर ने दिन रात एक कर ज्‍योतिष पर प्रोग्राम बनाया हम बैठेठाले दु:खी होने की ठान बैठे।  लावण्‍याजी तो खैर इस बात पर नाराज हैं कि किसी नीलोफर ने उन्‍हें ये कहा...

कितना प्यारा होता हरिजन होना आज पता चला.
आप भी तो चमारिन ही हैं लावण्या दी यह तो आप ही बता चुकी हैं कि आपकी मां मैला कमाती थीं और आप उससे खेलती थीं।
अपनी जात का जिक्र करने का धन्यवाद।

ये चोखेरबाली की एक पोस्‍ट पर हुआ जिसमें लावण्‍या ने विमान परिचारिका कुंदा के जीवन से परिचय करवाया है थोड़ी बहुत गड़बड़ है मसलन 1976 में अपना कैरियर चुनने वाली कुंदा केवल 25 वर्ष की कैसे हुईं...पर ये ब्‍यौरों की बात दीगर है...विवाद नीलोफर की टिप्‍पणी से हुआ क्‍योंकि जैसे ही लावाण्‍याजी को याद दिलाया गया कि आपकी मॉं भी तो मैला कमाती थीं.. अत: चमारन हुईं वे आहत हो गईं तथा इसे वे अपनी माताजी के विरुद्ध अपशब्‍द मान बैठीं...और फिर नीलोफर नाम के विषाक्‍त मन की खोज शुरू हो गई।

मेरी अम्मा : स्वर्गीय सुशीला नरेंद्र शर्मा

मुझे जल्दी गुस्सा नही आता !परन्तु, मेरी अम्मा के लिए कहे गए

ऐसे अपशब्द,हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकती ।This is absolutely, "unacceptable "

a grave insult to my deceased & respected Mother who is not alive to defend herself.

('शर्मा' पर बलाघात मेरा है)

फिर नीलोफर की पहचान के सूत्र भी दिए गए हैं... ये ब्‍लॉगर तोतो चान नाम का ब्‍लॉग चलाती/ते हैं।

बस यहीं हमारे दिमाग की घंटी बजी.. तोतोचान एक शानदार किताब है तथा औसत पाठक की पसंद नहीं होती, जो अपने ब्‍लॉग का नाम तोता चान रखता है वो आउट आफ बाक्‍स सोचनेवाला ब्‍लॉगर है, कम से कम टुच्‍ची विषाक्‍तता के लिए तो नहीं। मैंनें टिप्‍पणी फिर पढ़ी और अब सोचता हूँ कि मैला कमाना (कथित कर्म आधारित जाति व्‍यवस्‍था के समर्थक सोचें) अगर दलित होने का परिचायक है तो कौन सी मॉं चमारन (सही शब्‍द भंगी बनेगा) नहीं है.. अपने बच्‍चे के पाखाना साफ करने से बचने वाली... बच सकने वाली मॉं कहॉं पाई जाती है ? कौन सा बच्‍चा कभी अपने पाखाने से खेलने का सत्‍कर्म नहीं कर चुका होता?

कितनी भी अरुचिकर लगे पर लावण्‍या दी थोड़ा क्‍लोज रीडिंग करें (मैंने गूगलिंग की पर मुझे वो पोस्‍ट नहीं मिली जहॉं लावण्‍याजी ने अपने 'सत्‍कर्म' की बात लिखी हो पर मैं मान लेता हूँ कि कहीं उन्‍होंने लिखा होगा कि उनकी मॉं शिशु लावण्‍या का पाखाना साफ करती थीं...जिससे वे खेलने पर उतारू होती थीं, ऐसा न भी लिखा हो तो ये कोई आपत्तिजनक कल्‍पना नहीं है)

पर दूसरी ओर देखें कि दलित (लावण्‍या न जाने क्‍यों अभी भी 'हरिजन' शब्‍द के इस्तेमाल पर बल देती हैं जिसे आमतौर पर जागरूक दलित आपत्तिजनक मानते हैं) मुद्दे पर संवेदनशीलता के साथ लिखने वाली लेखिका 'चमार' शब्‍द के इस्‍तेमाल से इतना आहत महसूस करती हैं..उन्‍हें करना भी चाहिए पर इसका प्रतिकार झट 'शर्मा' शब्‍द से विभूषित माताजी का नाम देने की अपेक्षा, चमार शब्‍द में निहित अपमान को हटाने की ओर प्रवृत्‍त होकर ही होना चाहिए। मुझे इस सारे प्रक्रम में बेबात के पैट्रोनाइजेशन लेकिन जरा सी त्‍वचा खुरचते ही जातिवादी अहम की झलक दिखाई देती है।  वरना यदि कोई मैला कमाता है या कमा चुका है इससे उसे हरिजन/भंगी/चमार कहकर अपमानित किया जा सकता है? इस आधार पर हममें से सभी की मॉं हमारा मैला कमा चुकी हैं... तमाम डायपरबहुल पालनपोषण के बावजूद हमने भी अपने बच्‍चों का मैला कमाया है... आप चाहें तो कहें हमें भंगी/चमार।

Thursday, March 05, 2009

धत्‍त !!! अब ज्‍योतिष ब्‍लॉगवाणी में भी

ज्‍योतिष के साथ तो पता नहीं पर ब्‍लॉगजगत के ज्‍योतिषियों साथ हमारा 'स्‍नेह' अब जग जाहिर है। ऐसे में अपनी छवि के साथ न्‍याय करते हुए हमारा हक बनता है कि कहीं नया ज्‍योतिष प्रपंच देखें तो चिहुँकें तो इसी बात से न्‍याय करते हुए आज हम धत्‍त कह रहे हैं। इस छवि को देखें-

jyotish

वैसे तो जो कलंक रेखा :) जो हमने खींची हे वो पर्याप्त मोटी है पर तब भी दिखने में कुछ कठिनाई हो तो छवि पर चटका लगा सकते हैं।

वैसे ये विज्ञापन भर है जो ब्‍लॉगवाणीकार मित्रों की कंपनी द्वारा विकसित उत्‍पाद को प्रचारित भर करता है, और बेशक उन्‍हें इसका पूरा हक है। पर जब हमने दु:खी होने की ठान ली है तो भला हमें कौन रोक सकता है। वैसे प्रोग्रामर मित्र इस साफ्टवेयर को लेकर काफी लौकिक सोच रखते हैं पर आशंका है कि कुछ लोग तो इसकी अलौकिक लपेट में आते ही होंगे।

हमें लगा कि ज्योतिष के पसरते गर्तचक्र पर अपना रंज व्‍यक्त करते चलें। बाकी तो होगा वही जो ब्‍लॉगजगत की 'कुंडली में लिखा' होगा।:) 

Wednesday, February 25, 2009

सारी छपास एक तरफ मेरे टिप्‍पणीकार एक तरफ

लवली हैरान हो रही हैं कि पत्रकार-साहित्‍यकार बिरादरी भला हम ब्‍लॉगरों को क्‍या मानती है। लवली की चिंता एकदम जायज है लेकिन लवलीजी ऐसी तानकाशियों को जाने दें। ब्‍लॉगिंग शब्‍द के जनतांत्रीकरण से शक्ति पाती है। कल मेल बाक्‍स में अपनी कुछ पोस्‍टों पर बालासुब्रह्मण्‍यम साहब की कुछ टिप्‍पणियॉं देखने को मिली...ये सभी नई पोस्‍टें नहीं थीं न ही सभी टिप्‍पणियॉं लेखन की तारीफ ही थीं पर यदि आप इन टिप्‍पणियों को देखें तो सहज समझ आता है कि क्‍यों आपका लिखा पत्रकारीय लेखन से ज्‍यादा दीर्घायु है..इसलिए नहीं कि ये उससे अच्‍छा है या किसी अन्‍य कोटि में 'ग्रेंड' की कोटि का है वरन इसलिए कि ये अजर है तथा इसलिए कि औसत है और औसतपन का ही उत्‍सव है।

इन अपेक्षाकृत लंबी टिप्प‍णियों में से पहली  दूसरी प्रति- बेबात का बैकअप पर थी -

मसिजीवी जी आप मुझे क्षमा करेंगे। आज सर्फिंग करते-करते आपके ब्लोग पर आ धमका, इतना अच्छा लगा कि एक के बाद एक पोस्ट पढ़ता गया और उन पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करता गया, अपने आपको रोक न सका। अब उन्हें अप्रूव करना विप्रूव करना आपके हाथ!
अब विषय पर आते हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी की। आपने उन किताबों को अनपढ़े ही अलमारी में ठूंस दिया, पर पढ़ लेते तो यह टिप्पणी आपको और भी मजेदार लगती। शायद आपने ये किताबें पहले जरूर पढ़ी होंगी।
बात यह है कि ये किताबें हिंदी में प्लेगियरिज्म के सबसे उम्दा मिसालें हैं। यकीन नहीं होता? हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महिमा-मंडित, बीएचयू के वाइस चैंसलर कैसे प्लैगियरिस्ट हो सकते हैं? सब कुछ बताता हूं, फिर आप मानेंगे। और उन्होंने नकल की भी है, तो किसी ऐरे-गैरे-नत्थू गैरे की नहीं, बल्कि अपने ही पूर्वज सुप्रसिद्ध आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तकों की।
अभी हाल में मैं पढ़ रहा था आचार्य शुल्क की एक ऐंथोलजी, जिसके संपादक हैं डा. रामविलास शर्मा। अपनी लंबी संपादकीय टिप्पणी में डा.शर्मा ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है। और अपनी बात की पुष्टि में इतने सारे उद्धरण दिए हैं कि उनकी इस स्थापना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पुस्तक का नाम हैं - लोक जागरण और हिंदी साहित्य, प्रकाशक वाणी प्रकाशन। यदि पूरी भूमिका पढ़ने का समय न हो, तो "इतिहास लेखन की मौलिकता" वाला अनुभाग अवश्य पढ़ें।
मैंने रामविलासजी का पिछली टिप्पणी में भी जिक्र किया है। मैं उनका कायल हो गया हूं। उनकी एक-दो किताबें पुस्तकालय से लाकर पढ़ी थीं। इतना प्रभावित हुआ कि अच्छी-खासी निधि खर्च करके (लगभग पांच-छह हजार)उनकी सारी किताबें दिल्ली जाकर खरीद लाया। अब उन्हें एक-एक करके पढ़ रहा हूं। आपको भी सलाह दूंगा कि समय निकालकर उन्हें पढ़ें (और किताबों से अलमारी की शोभा बढ़ाने की अपनी आदत से बाज आएं :-))
आपने अंबेडकर की बात की है इस पोस्ट में। मैं डा. रामविलास शर्मा की एक किताब की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा जिसमें उन्होंने अंबेडकर की विचारधारा की समीक्षा की है। यदि आप अंबेडकर की संपूर्ण वाङमय को न पढ़ सकें, तो भी इस किताब को अवश्य पढ़ें। इसमें अंबेडकर के अलावा गांधी जी और लोहिया की विचारधाराओं की भी समीक्षा है। हमारे वर्तमान मूल्यहीनतावाले समय के लिए यह किताब अत्यंत प्रासंगिक है। हमारे युवा, और हम भी, गांधी जी को लेकर काफी असमंजस में रहते हैं, हम उनके बारे में और उनके विचारों के बारे में कोई राय नहीं बना पते। डा. शर्मा की यह किताब गांधी जी के विचारों को ठीक तरह से समझाने में कमाल करती है।
पुस्तक का नाम है - गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतयी इतिहास की समस्याएं; लेखक - डा. रामविलास शर्मा, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
अपने ब्लोग में साहित्य की इसी तरह चर्चा करते रहें, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

एक अन्‍य टिप्‍पणी मार्क्‍स - पराजित शत्रु के लिए खिन्‍न मन  पर है

मार्क्सवाद के दुनिया के सबसे बड़े व्याख्याता अपनी भाषा हिंदी के डा. रामविलास शर्मा हैं। भले ही विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में मार्क्सवाद का कद छोटा कर दिया गया हो, डा. रामविलास जी पुस्तकें धड़ल्ले से बिक रही हैं। उनकी लगभग सभी पुस्तकें (मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध: थलेस से मार्क्स तक, आदि... डा. शर्मा ने अपने सुदीर्घ जीवनकाल में 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं हीं, और मार्क्स के दास कैपिटा (पूंजी) का अनुवाद भी हिंदी में किया है), वाणी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से उपलब्ध हैं, और सभी पुस्तकों के रीप्रिंट पर रीप्रिंट निकलते जा रहे है, क्या यह इस ओर सूचित करता है कि मार्क्सवाद अब अजायबघर का सामान बन गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के कुल क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से पर माओवादियों की तूती बोलती है, जिनके भाई-बंद अब नेपाल में भी कमान संभाले हुए हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय मार्क्स से आंख मूंद लें, तो क्या फर्क पड़ता है। आपने शुतुर्मुर्ग के बारे में तो सुना ही होगा कि खतरे के वक्त वह क्या करता है। ये विश्वविद्यालय भारतीय समाज के शुतुर्मुग ही हैं।

एक अन्‍य पोस्‍ट है Alt+Shift की पलटी और ' नितांत निजी' पीड़ा (कैसी अजब बात है कि मुझे अपनी लिखी पोस्‍टें कम ही पसंद आती हैं, सुनील, समीर, अशोक पांडे या अनूप को पढ़ते हुए यूँ भी खुद को पसंद कर पाना आसान नहीं, पर ये एक ऐसी पोस्‍ट है जो मुझे विशेष ब्‍लॉगिंया पोस्‍ट लगती है...पर अफसोस इसे कम ही पढ़ा या पसंद किया गया :-( )

जब आप ओल्ट + शिफ्ट से टोगल करते हैं, तो यह पता लगाना कि आप ट्रफाल्गर स्क्वेयर (अंग्रेजी) में हैं या लखनऊ के चौक (हिंदी) में बहुत आसान है। कंप्यूटर स्क्रीन के ठेठ नीचे की नीली पट्टी (जिसे टाक्स बार कहा जाता है, और जिसमें स्टार्ट आदि बटन होते हैं) को देखिए। उसमें भाषा प्रतीक दिखाई देगा, HI हिंदी के लिए, और EN अंग्रेजी के लिए। हर बार जब आप आल्ट-शिफ्ट करें यह प्रतीक बदलेगा। बिल्लू बाबू (बिल गेट्स) ने हर चीज का इंतजाम किया है, आप चिंता क्यों करते हैं इतना!!

आखिर में एक और पोस्‍ट क्‍या भारतीय कम्‍यूनिस्‍ट चीनी हितों के लिए काम कर रहे हैं 

नहीं ऐसी बात तो नहीं लगती, साम्यवादी दल के नेता उतने ही देश भक्त हैं जितने कि हमारे राहुल गांधी, आडवाणी, वाजपेयी, मनमोहन, आदि। साम्यवादी अलग चश्मे से दुनिया को देखते हैं। उनके लिए आम आदमी का हित पहले आता है, चाहे वह मजदूर हो, किसान हो, महिला हो, बेरोजगार हो, इत्यादि। परमाणु करार का इनसे कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध है अमरीका के बड़े-बड़े महाजन (पढ़ें बैंक), अस्त्र-निर्माता, और भारत में उनके सहयोगी (यहां के धन्नासेठ, विदेशी कंपनियों के दलाल, इत्यादि)। इनके लिए यह करार आवश्यक है। अब अमरीका पूंजीवाद के उस स्तर पर पहुच गया है जहां उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत उसके पास इकट्ठा हो गई अकूत पूंजी पर प्राप्त ब्याज और मुनाफा है, एक दूसरा जरिया अस्त्रों की बिक्री है। भारत में भारी पूंजी लगाने से पहले वह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह पूंजी यहां सुरक्षित रहेगी। इसीलिए वह यह करार चाहता है। इस करार के बिना वह भारत को अस्त्र भी नहीं बेच सकता, जो उसकी आमदनी का मुख्य जरिया है।

साम्यवादी दल और परमाणु करार के अन्य विरोधी नहीं चाहते कि उपर्युक्त अमरीकी उद्देश्यों को पूरा करने में अपने देश के हितों को ताक पर रखकर हम बिना सोचे कूद पड़ें।

हमारी प्राथमिकता परमाणु करार करके अमरीका की पूंजी को यहां खुली छूट देना या अमरीका से महंगे-महंगे अस्त्र खरीदना न होकर, गरीबी, निरक्षरता, कुस्वास्थ्य, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न आदि को दूर करना है। साम्यवादी दल हमेशा से यही कहता आ रहा है कि हमें इस ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, यही तो यूपीए सरकार के कोमन मिनिमम प्रोग्राम में भी कहा गया है। पर मनमोहन देशी-विदेशी धन्ना-सेठों और अस्त्र-व्यापारियों की ओर झुकते जा रहे हैं, जो हमारे देश के हित में नहीं लगता। भूलना नहीं चाहिए कि वे लंबे समय तक विश्व बैंक के सलाहकार रह चुके हैं और उनकी विचारधारा अमरीका-परस्त है।

फिलहाल में इन टिप्‍पणियों के कथ्‍य पर टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ, टिप्‍पणी में बहुपठता, वैचारिक झुकाव दिख रहा है। पर सबसे अहम ये बात सोचें कि सुब्रह्मण्‍यम साहब ने कितनी देर लगाकर मेरी इन पोस्‍टों को पढ़ा होगा इन पर ये टिप्‍पणियॉं की होंगी...शायद कुछ और पोस्‍ट भी देखी हों जिन्‍हें उन्‍होंने नजरअंदाज करने लायक समझा हो...कुल मिलाकर कहना ये कि पाठक ने इतना समय मुझे दिया अपनी अमूल्‍य राय भी दी...अनजान शख्‍स जिनकी प्रोफाइल तक सार्वजनिक नहीं है।

ब्‍लॉग शुरू होने से पहले ही मेरी एक किताब प्रकाशित है जिसके छ: साल में तीन संस्करण आ चुके हैं, पुस्‍तक की समीक्षा भी प्रकाशित हुई थीं, पुस्‍तक पर एक राष्‍ट्रीय कहा जाना वाला पुरस्‍कार मिला था जिसमें बीस हजार रुपए हमें नकद प्राप्‍त हुए थे, हमें हर साल एक छोटी सी राशि रायल्‍टी के नाम पर भी मिलती है.... पर इतने सालों में आज तक एक बंदा नहीं टकराया जिससे बात करते हुए या तारीफ सुनते हुए लगे कि अगले ने किताब पढ़ी है...और उसकी टिप्‍पणी का कोई मतलब है मुझे पूरा विश्‍वास है कि रायल्‍टी सिर्फ लाइब्रेरी खरीद की वजह से मिलती है...समीक्षा मुफ्त की किताब मिलने के एवज में मिली तथा पुरस्‍कार इसलिए कि पुस्‍तक के विषय पर किताबें तब लिखी ही नहीं जा रही थीं..या अंधों में काणा राजा वाली बात रही होगी।

अब आप ही बताएं कि मैं क्‍यों अपने ब्लॉगर होने को छापे का लेखक होने से ज्‍यादा अहम न मानूं। अगर एक सुब्रह्मण्‍यम साहब ही अकेली वजह होते तो भी मैं ब्‍लॉगर होना ही चुनता।

Friday, February 20, 2009

बेटर, बेहतर, बेहतरतम... उर्फ बेहतर की तरतमता

कल दीवान पर एक थ्रेड यानि चर्चा सूत्र देखने को मिला। बात काम की लगी तो इच्छा हुई की आप से भी बॉंटा जाए, शायद अजीतजी की नजर इस पर जाए तो वे इसपर और प्रकाश डालें।

एक सदस्‍य विक्रम ने सवाल पूछा-

'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं?
मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किसी एक दोस्त ने फरमाया है कि अंग्रेज़ी शब्द 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था|

जबाव देते हुए रविकांत ने कहा-

बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब के उर्दू-हिन्दी कोश में
नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे हिन्दी-उर्दू दोनों में धड़ल्ले से चलता है।
वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और बदतरीन भी।
तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते हैँ: तरतमता - जो
अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी फ़ारसी+संस्कृत
परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों में ता लगाकर विशेषण
बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम
आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता है, और इस
ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात साफ़!

मुझे इस क्रम में ये तरतमता एक बेहतरीन प्रयोग लगा। इसलिए भी कि यह शब्‍द अर्थ की अपनी तहें खुद में समेटे है। अब तक मैं हायरार्की के लिए पदसोपान शब्‍द का प्रयोग करता रहा हूँ। पदसोपान हो या पदानुक्रम दोनों में अर्थ संकुचित प्रतीत होता है जो नौकरशाही की तरतमता को तो पकड़ता है लेकिन बाकी दुनिया जहान की तरतमता उसके हाथ से फिसल जाती हैं। तो अगली बार परिवार, ब्‍लॉगजगत, दफ्तर, भाषा, खेल, या कहीं भी हायरार्की दिखे तो उसे कह सकते हैं  तरतमता।

 

पुनश्‍च : यदि कुछ मित्र हिन्‍दी डाक सूची  दीवान से अनभिज्ञ हैं तो मेरी सिफारिश है कि वे दीवान की सदस्यता लेने पर विचार करें। इस मुफ्त डाकसूची पर दुनिया जहान की बातों विशेषकर मीडिया को लेकर बेहतर चर्चा होती हैं, अगर आप लोग भी शामिल होंगे तो चर्चा बेहतरीन हो जाएगी। :)

Thursday, February 19, 2009

ओसामा की खोज गणितीय फार्मूलों से

जब गणित के बारे में कोई बात होती है तो हम एक टीस के साथ उसे पढ़ते हैं गणित के साथ हमारा रिश्‍ता एक ऐसी प्रेमिका का सा हे जिससे विवाह न हो पाया हो। (गणित से विवाह करने वाले जानें कि कि पत्नी के रूप में गणित वाकई पत्‍नी जैसा ही दु:खी करता है या नहीं...)

इस बार हमें यह टीस इसलिए उठी कि कुछ अमरीकी भूगोलविदों ने गणितीय पद्धति से यह खोज की है कि ओसामा बिन लादेन कहॉं छिपा हुआ है। शुद्ध गणितीय फार्मूले और इनसे अफगानिस्‍तान/पाकिस्तान सीमा के शहर पानाचिनार को पहचाना गया जहॉं ओसामा छिपा है उसपर भी शहर के कुल जमा तीन मकान भी पहचान लिए गए हैं जिनमें से किसी एक में वह छिपा है। लीजिए हम आपके लिए ओसामा के ठिकाने की तस्‍वीर दिए देते हैं-

ScreenHunter_02 Feb. 18 22.42 

आप आसपास के इलाके की भी तफरीह करना चाहें तो विकीमैपिया पर इन निर्देशांकों पर जाएं और उन गलियों का दीदार करें जहॉं ओसामा टहलता है।

पूरी तकनीक का विवेचन तो कोई भूगोलविद या गणितज्ञ ही कर पाएगा पर गूगल से जो कुछ हमें समझ आया कि यह तकनीक मूलत: लुप्‍तप्राय जानवरों को खोजने के लिए प्रयोग में लाई जाती है तथा इसका मूल सिद्धांत यह है कि जानवर के देखे जाने के समाचारों से जो पैटर्न बनता है उसका गणितीय रूपांकन किया जा सकता है तथा इसके आधार पर यह गण‍ना करना संभव है कि यह जानवर अब कहॉं मिलेगा। 

काश कोई फार्मूला ये भी गणना कर सके कि और लुप्‍तप्राय चीजें अब कहॉं मिलेंगी मसलन ईमानदारी, मित्रता, निष्‍ठा, सत्‍य....।