Friday, August 29, 2008

हिन्‍दी को हिन्‍दी-प्रेम की बैसाखियों से आजाद करने के लिए ब्‍लॉगवाणी को वोट दें

tata_nen_logo चिट्ठाचर्चा में अनूपजी ने दिखाया और हमने देखा, अच्‍छी खबर है।पहली चर्चा में वे ब्‍लॉगवाणी को भूल गए थे, उन्‍होंने केवल देबूदा के पॉडभारती के लिए सिफारिश की पर अगली पोस्‍ट में फिर से साफ कर दिया गया है कि ब्‍लॉगवाणी भी इस कतार में है। फिलहाल इसका रैंक 5 है, कल तक 9 था। हम चाहते हैं शाम तक पहला हो जाए।  हिन्‍दी तो बाजार में अपनी पहचान जमा ही रही है पर ये घटना हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की है। टाटा की मुहर और इंटरनेट पर हिन्‍दी उपक्रम की पहचान वाकई अहम बात है। यूँ भी कई दिन से वोटिंग शोटिंग का खेल इधर हुआ नहीं है। तो चलो जुट जाएं हिन्‍दी को शिखर पर देखने के लिए। पूरा तरीका मैथिलीजी ने अपनी पोस्‍ट में साफ कर दिया है। देखें और वोट दें- कम से कम दो वोट तो आप डाल ही सकते हैं- एक टाटा नैन से रजिस्‍टर करके इंटरनेट पर और दूसरा फोन से एसएमएस से।

हमने सोचा था कि इसे दिल का मामला मानकर, जैसा मैथिलीजी ने कहा हिन्‍दी के इस मुकाम तक पहुँचने की तरह देखेंगे और वोट देंगे तथा देने के लिए कहेंगे। पर सोचें ये तो फर्जीवाड़ा हुआ, आखिर हमसे एक ऐसे नए उपक्रम को चुनने का आग्रह है जो दमदार शुरूआती व्‍यावसायिक उपक्रम है और हम दिल के नामपर वोट दे रहे हैं। ठीक है हमें जीजान से पसंद है ब्‍लॉगवाणी, पर तब भी एक बार जॉंचे कि एक उपक्रम के रूप ब्‍लॉगवाणी कितनी संभावनाएं समेटे है। ऐसा इसलिए भी करें कि इस नजरिए से देखने पर आपको और गर्व की अनुभूति होगी। 

हिन्‍दी की चिट्ठाकारी का समुदाय निरंतर बढ़ रहा हे अत: ये विज्ञापन व आय की संभावनाएं लिए है तथा मजेदार बात ये है कि गूगल एडसेंस द्वारा हिन्‍दी ब्‍लॉगों को बेसहारा छोड़ देने को हमारे अपने एग्रीगेटर ने अवसर की तरह लिया लगता है। टाटा नैन के इस सवाल के जबाव में कि वाकी सब तो ठीक पर ये बताओ कि रोकड़ कैसे कमाओगे, सिरिल साफ करते हैं-

How does the business make money?

We plan to introduce a shopping portal in our website and use our 1600 strong blogger network to advertise, bloggers will be given a commission against sales.

:

It has Marathi and Hindi blogging now, but soon it will be available in all the Indian languages, and also in English. The aim is to becoming the number one community for Indian bloggers.

तथा यह भी-

Just want to put in my two words that the blogger-affiliation scheme is not the only way to earn from a website like blogvani. We'll be exploring the full plethora of options including conventional ones like advertising too.

वाकई .. तो इसका मतलब है कि हमें जल्‍द ही ब्‍लॉगवाणी पर लिस्‍ट होने के लिए, ज्‍यादा से ज्‍यादा लिखने के लिए पैसा मिला करेगा। ये बात तो अच्‍छी लागै है। :)) उससे भी अच्छी बात ये कि हिन्‍दी सिर्फ 'हिन्‍दी प्रेम' की बैसाखी पर नहीं अपने पैरों पर चलेगी। हिन्‍दी प्रेम के भरोसे रहने में बुराई ये है कि तब ये कल्‍याण खाते के आसरे हो जाती है तथा इसमें त्‍याग का दर्प भी आ जाता है फिर क्‍या होता है, पुराने ब्लॉगर जानते हैं कि उसका हश्र क्‍या होता है।   इसलिए आपसे अनुरोध है कि हिन्‍दी को बैसाखी से आजाद कर अपने कदमों चलाने के लिए ब्‍लॉगवाणी को वोट दें। यदि आप एक वोट पहले ही हिन्‍दी-प्रेम के नाम पर दे चुके हैं तो एक और दें- इस बार हिन्‍दी की आर्थिक आत्‍मनिर्भरता के लिए।

Monday, August 11, 2008

ये है सैम-इंडिया मेरी जान

जुगाड़ और रचनात्मकता हम भारतीयों के यूएसपी हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश की जुगाड़गाड़ी हो यी वाशिंग मशीन का इस्तेमाल थोक में लस्‍सी बनाने के लिए करने की जुगत- हम हैरान करने से नहीं चुकते। ऐसी ही हैरानी से कल दो-चार  हुए जब एन पिज्‍जाहट के  बरोबर में पूरी लकदक के साथ उसका देसी जबाव देखा। ये था समोसा जी अपना बेचारगी भरा समोसा पर पूरे आत्‍मविश्‍वास के साथ। दिल्‍ली की एक सबसे मशहूर समोसे की दुकान पूंचकुइयॉं वालों के समोसे की है जो पिछले साठ सालों से समोसे खिलाने का दावा करती है। उसकी ही एक दुकान पर हमें ये देखने को मिला..IMG_0976

जी आपने सही पढ़ा सैमबर्गर- जिसका हैमबर्गर के बर्गर से गहरा नाता हे पर हैम से बिलकुल नहीं। हैम की जगह है सैम...बोले तो समोसा। समोसे के सैम हो जाने से हमारा परिचय बिट्स पिलानीIMG_0977 में हुआ था वहॉं समोसों को इंजीनियर-विद्यार्थी सैम कहते हैं। इन्‍हीं सैम को सैम विशेषज्ञों ने बर्गर के साथ गठबंधन कर सैमबर्गर तैयार किए हैं। ये दो वैरिएंट में पाए जाते हैं। आलू सैमबर्गर व पनीर सैमबर्गर।

  चित्र के बाद बताने की जरूरत नहीं कि बर्गर-बन में समोसा, चीज़, सलाद रखने से तैयार होने वाला सैमबर्गर वाकई दमदार चीज था। उबाऊ बर्गरों से तो बेहतर था ही। हॉं तेल इसमें काफी था। पर दाम बेहद कम हैं और इस दुकान ने पास के पिज्‍जाहट का तेल कर रखा है।

तो ये हे अपना सैमइंडिया।

 

 

अभी देखा की लाल्‍टू ने कुछ शानदार पोस्‍टें अपने ब्‍लॉग पर लिखी हैं। किसी वजह से न पढ़ पाए हों तो आप इन पोस्‍टों तक इन लिंकों से पहुँच सकते हैं-

खोजते रहो, हर जगह होमो सेपिएन्स
वॉट हैव वी डन

Thursday, August 07, 2008

एक डायरी नोट के साए में सहमा बचपन

बिटिया पढ़ना अभी सीख ही रही है इसलिए जो संदेश उसकी स्‍कूल डायरी में नत्‍थी किया गया था उसकी इबारत से अनजान थी। पर उसमें लिखे संदेश का मर्म उस तक पहुँचा दिया गया था। कक्षा में उसकी अध्‍यापिका ने कक्षा को समझाया था कि किसी भी व्‍यक्ति से कोई टॉफी, चाकलेट या किसी तरह का गिफ्ट न लें। गंदे लोग इसमें बॉम्‍ब रख सकते हैं आदि आदि। डायरी का संदेश इस तरह है-

notice

 

दरअसल तीन दिन पहले की अखबारों की रिपोर्ट थी कि अब दिल्‍ली में आतंकवादियों का अगला निशाना स्‍कूल हो सकते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने स्‍कूलों को आगाह किया है कि वे सुरक्षात्‍मक उपाय करें। स्‍कूलों पर आतंकी हमला, सिहरन पैदा करने वाली आशंका है। नन्‍हें खिलखिलाते बच्‍चों को कोई निशाना भला कैसे बना सकता है। पर ये बात कहते हुए भी हमें पता है कि बात बेतुकी है। इन ताकतों पर कोई तर्क काम नहीं करता। पर सच कहें कि इस डायरी-नोट की छाया में बच्‍चे को स्‍कूल भेजते रूह कांपती है। इतना लंबा चौड़ा स्‍कूल हजारों बच्‍चे, हजारों स्‍कूल बैग, बीसियों स्‍कूल बस, टिफिन, खेल का सामान और ये सब तो बस एक ही स्‍कूल में, ऐसे सैकड़ों स्‍कूल है शहर भर में- ऐसे डायरी नोट की आशंका में बेचैन होने वाला पिता मैं अकेला तो नहीं। अब अगर कोई शैतान तय कर ही ले तो उसके लिए क्‍या मुश्किल है एक बम को सरका देना .... उफ्फ।

लेकिन जब फलक को थोड़ा विस्‍तार देते हैं तो लगता है कि बचपन पर ऐसी तलवारें तो पूरी दुनिया में हैं। फिलीस्‍तीन, अफगानिस्‍तान या इराक के बच्‍चे जिन्‍हें कोई स्कूल या तो नसीब नहीं और है तो भी उनके सुरक्षित से सुरक्षित स्‍कूल हमारे स्‍कूलों से ज्‍यादा असुरक्षित हैं। खुद हमारे देश के कई हिस्‍से वर्षों से इस हिंसा के शिकार हैं। सुना है इराक में बच्‍चे उन मैदानों में खेलते हैं जिनमें बारूदी सुरंगे होने की आशंका है। जब अनुराधा ने कहा कि भगदड़, आतंकवाद आदि घटनाओं को देखने का एक नजरिया औरतों जैसे हाशिए के वर्गों पर उसके प्रभाव के आकलन का भी है तो लोगों को ये अति लगा। पर हम जोर देकर कहते हैं कि आतंकवाद हो, दुर्घटनाएं या फिर प्राकृतिक आपदाएं इनकी मार होती सबके लिए बुरी ही है किंतु ये मार सब पर बराबर नहीं होती।

काश हम बच्‍चों को सहमा देने वाले डायरी नोट्स की छाया से मुक्‍त बचपन दे पाएं।

Wednesday, August 06, 2008

ब्‍लॉगिंग आग्रह की वस्‍तु है

बीमा कंपनियों के विज्ञापनों से शहर आच्‍छादित है। चहुँ ओर मौत और बुढ़ापे का भय बिखरा है। इतना दो तुम्‍हारे अपने इतना पाएंगे...अस्पताल जाना पड़ा तो बिल हम चुकाएंगे... और अंत में पुच्‍छल्‍ला ये कि 'बीमा आग्रह की वस्‍तु है' (इंश्‍योरेंस इज़ अ मैटर ऑफ सालिसिटेशन)। भाषिक प्रयुक्तियॉं बेचैन करती हैं सो हमने पड़ताल की तो पता लगा कि ये कानूनी शब्‍दावली है जिसका अर्थ है कि बीमा को बीमा कराने का इच्‍छुक व्‍यक्ति अधिकार की तरह नहीं मांग सकता। यह तभी किया जा सकता है जब इच्‍छुक कहे कि मेरा बीमा कर दो और बीमा कंपनी कहे कि हम आपका बीमा करना चाहते हैं...दोनों राजी तभी बीमा होगा। ये नहीं कि बोर्ड टंगा देखा और हो गया बीमा। तो इस तरह बीमा आग्रह की वस्‍तु है।

पर भई बीमा तो बीमा है कि नोट-शोट का मामला है। पर ये ब्‍लागिंग कैसे आग्रह की वस्‍तु है। है न.. अगर आप हाल फिलहाल की पोस्‍टें पढें तो आपको भी लगेगा। हमने पढ़ा कि किसी ने पोस्‍ट लिखी कविता या कहानी (या जिस विधा की मान लें उस विधा की रचना थी) एक अन्‍य को मजाक की सूझी उसने उसी तर्ज पर एक और लिख डाली। व्‍यंग्य तो खैर नहीं था विनोद ही था पर शुद्ध विनोद तो शुद्ध घी हो गया है, मिलता ही कहॉं है। करने वाला विनोद भी करे तो सुनने वाला उसे व्‍यंग्‍य ही मानता है। अगला बिफर पड़ा, तुम दो कौड़ी के पाठक मैं प्रसाद, प्रेमचंद- अगले ने कहा कि मेरा ब्‍लॉग आग्रह की वस्‍तु है जिसे मैं चाहता हूँ वो पढ़े बाकी मेरा वक्‍त बर्बाद न करें।    वैसे जब लोगों को पता चला कि 'वक्त बर्बाद न करें' एक गांरटीशुदा जुमला हो गया है तो कृपया वक्‍त बर्बाद करें की भी गुजारिश हुई :))

तो भैया अब  ब्‍लॉगिंग, हम लिखें-दुनिया पढे नहीं रह गई :))। अब इसे सैडिस्टिक प्‍लेज़र कहना चाहें तो कहें पर हमें तो ये विवाद बड़ा मोहक सा लगा। वैसे हम साफ बता देना चाहते हैं कि हमारा ब्‍लॉग पढना कतई आग्रह की वस्‍‍तु नहीं है। जो चाहे पढे- रिक्‍शावाला, झल्‍लीवाला या सामानवाला सबका स्‍वागत है। 

 

(बहुत दिनों बाद किसी के फटे में टांग अड़ा रहे हैं, हमें डर लगा कि जैसे पिछले दिनों पंगेबाज पर आरोप लगा कि बस नाम के ही पंगेबाज रह गए हैं, कहीं हमारी भी इमेज न बिगड़ चुकी हो)