Thursday, February 25, 2016

सदन पटल पर विषय है, मैं खुद नहीं हूँ।

स्मृति ईरानी के भाषण पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया हूँ न स्टेटस से न कमेंट में ही। कारण साफ है कि पक्ष वाली प्रतिक्रियाएं तो खैर भक्त टाईप हैं ही पर विरोध में आ रही प्रतिक्रियाएं उनसे व्यक्तिगत खुन्नस टाईप ज्यादा दिख रही हैं - एक्ट्रेस है, सास बहु, थिएट्रिकल है आदि...मूलत: उनके औरत होने पर। मुझे भी स्मृति पसंद नहीं कारण ये कि मैं विश्वविद्यालय शिक्षक हूँ और मानता हूँ कि स्मृति के कार्यकाल में शिक्षा के क्षेत्र में नीतिगत अनाचार बढ़ा है पर मेरी उस मान्यता से उनके संसद भाषण का विश्लेषण बहुत सही तरीका नहीं ही है। यदि हम उनके भाषण को सास-बहु, औरताना, हाथ नचाऊ आदि कहकर शेर बनते हैं तो ये बहुत सेक्सिस्ट नजरिया है जान लीजिए। 
पर एक और पक्ष है। डिबेटिंग कम से कम 25 सालों से मेरा पैशन रहा है, पहले एक डिबेटर के रूप में फिर एक शिक्षक के रूप में। उस लिहाज से कह सकता हूँ कि डिबेटिंग के तीनों एम यानि मैटर, मैथड, मैनर से परखें तो साफ है कि उनकी डिबेट सदन को संबोधित नहीं थी उसकी ऑडिएन्स सदन से बाहर थी, मैटर में आपको कमजोर लगेगी, थी भी पर जिन्हें संदेश देना था उनके लिए उसमें मैटर था...मैनर/मैथड के लिहाज से ये कोई एतिहासिक डिबेट नहीं थी औसत थी। हम डिबेटिंग के दिनों में जिन्हें प्रवाहजीवी डिबेटर कहते थे, स्मृति वैसी तो रहीं ही यानि फ्लो, फट्टों और उतार चढ़ाव से प्रभावित करने वाले। यद्यपि मुझसे कोई पूछने नहीं जा रहा पर मैं ज़जमेंट कर रहा होता तो मैटर के 5, मैथड के 5.5 मैनर के 6 कुल तीस में से 16.5 ! प्रोत्साहन पुरस्कार । लेकिन हूटिंग करने वालों को पक्का सदन निष्कासन smile emoticon 
‪#‎smriti‬

एक स्‍त्रैण कविता

कविता से अपनी
कविता से तमाम दुनिया की
मैं हटा देना चाहता हूँ मर्द कविताएं
इनसे नोच लेना चाहता हूँ
(देखा मर्द बिना नोचे कविताएं तक नहीं जन्‍मते)
सारी मर्दानगी
इनमें घोलना चाहता हूँ
खुद को
ऑंसुओं को अपने
हया औ शर्म अपनी
सपने अनदेखे वर्जित
मुझमें जो कुछ जितना कुछ स्‍त्री है
प्‍यार में अपने, पुलक सा
मिला देना चाहता हूँ
कविता-मर्द में ।।
हरेक कविता को मैं बना देना चाहता
स्‍त्रैण जितना हो सके
कैसे कहूँ कि कितना जरूरी हो गया है ये
जब से कविताएं औरतों की
बधिया हुई हैं।

Monday, February 22, 2016

पराजयाकांक्षा




अकेले अंधेरों से युद्ध
आज फिर हारने का है मन।

हैं सवाल दर सवाल, और सवाल चाहिए

आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का अपना रूमान है।  इस लड़ाई में उपस्थिति भले ही चंद लाइक या स्टेटस से ही क्यों न हो क्रांतिकारी होने का भ्रम देती है। मुझे देती है तो माने ले रहा हूँ औरों को भी देती होगी। लेकिन आज़ादी क्या केवल इतने से हासिल होती है।  क्या इसमें आज़ाद करना शामिल नहीं है। मसलन हम सहज ही चाहते हैं कि व्यवस्थाएं और तंत्र तथा दूसरे लोग असहमतियों का सम्मान करें। खासकर हम व्यवस्थाओं से तो असहमतियों के प्रति सम्मानपूर्ण होने की अतिरिक्त अपेक्षा रखते हैं।  कुछ लोगों के असहमति को नारों या कुछ पैंफ्लेट्स से सामने रखने का सवाल हो या कश्मीर आज़ादी की मांग, हम चाहते हैं कि इसे सुना जाना चाहिए, न मानने लायक हो तो भले ही न मानें, पर उन्हें कहने और सुने जाने का पूरा हक़ है भले उनकी बात कितनी ही विचित्र व अस्वीकार्य क्यों न हो।
यहां तक बात एकदम ठीक है ऐसा होना चाहिए। यह भी सच है कि हमारी व्यवस्थाएं फिलवक्त ऐसी हैं नहीं।  सवाल अब ये है कि ऐसा क्यों नहीं ही। जवाब आसान है, ऐसा नहीं है क्योंकि हमने उन पड़ावों को पार किया ही नहीं कि यह लोकतांत्रिकता उन तक पहुँच सके।  व्यक्ति से समाज और उससे ही तंत्र तक मूल्य पहुँचते हैं अन्यथा आप लाख संरचनाएं खड़ा कर लीजिये वे निरर्थक रहती हैं। 
यानि सवाल इतना भर है कि हम खुद कितना लोकतांत्रिक हैं, हम खुद पर सवालों को, खुद से असहमति को कितना स्वीकार व स्वागत भाव देते हैं। यदि हम खुद को अप्रश्नेय मानते हैं लेकिन रोहित वेमुला, कन्हैया, दलित, स्त्री और न जाने किस किस मोर्चे पर तंत्र को आड़े हाथ लेते हैं कि वह असुविधाजनक आवाजों को दबा रहा है तो हम दरअसल पाखंडी हैं।  क्योंकि यदि असहमति के स्वरों पर हमारी प्रतिक्रिया इस बात से तय होती है कि हम सत्ता समीकरण में किस ओर हैं तो ज़ाहिर है दुसरे पक्ष को भी इसी आधार पर आपकी असहमति को दबाने का पूरा नैतिक आधार है।  जब आपकी पत्नी आपके लंपट आचरण पर हल्की सी आपत्ति रखे या कोई सवाल उठाये तो आप उसे किनारे कर लतिया दें, या खारिज कर दें पिछड़ा घोषित कर दें,  या जो आपके बस में हो वो सब करें फिर जब सरकार किसी मुद्दे पर आपके या जनता के साथ ऐसा करे तब उम्मीद करें कि आपके आचरण को व्यक्तिगत मानकर अप्रश्नेय समझा जाए और सरकार के आचरण पर नुक्ताचीनी हो पाये तो आप एक भयंकर भूल कर रहे हैं।
हमने जो परिवार, धर्म, समाज की संरचनाए खड़ी की वे सब और बाद में शिक्षा और राज्य जैसी संरचनाएं जो विकसित हुईं वे सब सवालों को कुफ़्र मानती हैं ऐसे में खुद को इन संरचनाओं के खिलाफ संघर्षरत समझने वाले किसी आसमान से तो आएंगे नहीं वे भी भले बाकी किसी भी ढाँचे पर कितने सवाल उठाने की आज़ादी चाहें खुद पर सवाल नहीं चाहते।  हर सवाल को खारिज करते हैं। ऐसे क्रांतिकारी न्यायवादियों से न्याय को बचाना बेहद जरूरी है।

Tuesday, February 16, 2016

रकीब के पक्ष में तैनाती: महबूब जो न करा दे सो कम

वक़्त कैसे कैसे दिन दिखाता है, किसे पता था कि जिस जेएनयू को सदा रकीबी नज़र से देखा, हर जेएनयू वाले को जब मौका मिला याद दिलाया कि लाख अच्छा हो पर जेएनयू इस शहर के साथ अपने व्यवहार में टापूवादी है। उसी जेएनयू के पक्ष में दम लगाउंगा। मेरे विद्यार्थी कन्फ्यूज़ न हो जाएं इसलिए इस रकीब पर उमड़ते प्यार की सफाई दी जाए। 
मेरा प्यार अपनी इस जान दिल्ली शहर से है सो है उससे कोई बेवफाई नहीं। जेएनयू में टापू रहकर बनने की एक बीमारी रही है माने शहर के दुःख दर्द में फिलॉन्थ्रोपी टाइप या मुद्दे के समर्थन में जेएनयू कैम्पस से शहर की ओर निकलता है कभी कभी पर वो अपनी पहचान को शहर से एकात्म नहीं करता, जैसे चांदनी चौक करता है, मेरा दिल्ली कॉलेज (ज़ाकिर हुसैन) या दिल्ली विश्वविद्यालय करता है। जेएनयू मुनीरका भर को अपनी पहचान में जुड़ने दे तो दे वर्ना वो एक टापू होना ज्यादा पसंद करता है। 
ये न समझें कि इस बेरुखी का मतलब है कि दिल्ली भी उसे तन्हा छोड़ देती है, न जी मेरी महबूबा इस जेएनयू को न केवल भरपूर तवज्जो देती है बल्कि दरअसल उस पर जान छिड़कती है। (तो महबूबा के आशिक़ होने की वजह से जेएनयू हुआ न रकीब) इस तरह यह शहर इस टापू को अपनी पहचान में बाकायदा शामिल मानता है और सच्चाई तो यह है कि जेएनयू को जेएनयू होने, बने रहने देने में इसके दिल्ली में होने की बड़ी भूमिका है और अब यह दिल्ली के लिए भी एक परीक्षा की घडी है कि उसकी इस पहचान पर जो संकट है, उसे यह सहारा दे। चाहे खुद जेएनयू में कितनी ही बेमुरव्वती क्यों न दिखाई हो लेकिन ये दिल्ली की अपनी ग़रज़ है कि वह कुक्कुटों को इस खूबसूरत चमन को बर्बाद न करने दे। 
तो मैं जेएनयू के लिए उतना नहीं अपने महबूब दिल्ली शहर के लिए ज्यादा इस बेचैनी में हूँ। 
लेकिन अब एक सवाल उनके भी लिए जिनका जेएनयू से रकीब का नहीं महबूबा का रिश्ता है, सोचो दोस्तो अगर ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज पर यह हमला होते तो उनके शहर अपने विश्वविद्यालय को तन्हा छोड़ देते क्या? आपने अपने पूरे देश समाज से प्यार किया है लेकिन खुद दिल्ली शहर से वो नाता नहीं बनाया। जब इससे भी ज्यादा नृशंस ताकतों ने दिल्ली कॉलेज को बंद कर दिया था तो यह शहर पूरी ताकत से इसके पक्ष में आ खड़ा हुआ था, दिल्ली की मोहब्बत जेएनयू पर बरकरार है पर इकतरफा मोहब्बत ज्यादा इम्तिहान लेती है, इस शहर की मोहब्बत को लौटाने की जिम्मेदारी लो जेएनयू वालों।

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Thursday, February 11, 2016

कीवर्ड कविता

आलीशान डेटा सेंटरों के सर्वर
उछालते हैं
चंद फूहड़ असंगत शब्द
ट्रेंड्स-
मल्लिका शेरावत, उगाड़ी, डीवार्मिंग
नारायण खेद, वुशू , सन्नी लियोन
मानो समस्यापूर्ति एल्गारिदम्स की
गूगल कवि पहेली सुलझाता
हगता है एक कीवर्ड कविता
लिंक, इमोटिकॉन्स, एसईओ, सीएसएस से लैस
आलोचक कब के फना हुए
पेजरैंक में भला क्यों पिटेगी
कीवर्ड कविता

Wednesday, February 10, 2016

हाट की कविता

शब्दों के हाट से उसने
चंद शब्द मोल लिए
बदले में दिया थोड़ा सा खुद को
हाट के कारीगर को सौंपे वे शब्द
उसने गढ़ दी कविता
मेहनताने में दिया थोड़ा और खुद को
कविताओं को लिए टोकरी में फिर
वो खुद जा बैठा हाट में
खुद जो खुद से थोड़ा कम था
हाट की कविता के बदले
अब वो लेता है न जाने क्या
खुद लेकिन पूरा फिर से नहीं होता

Friday, February 05, 2016

चुस्कियोँ की राहजनी

कायदे से होना तो नहीं चाहिए
कुछ तय चाय के प्यालों का
न घट पाना
ऐसा भी क्या है कि
कविता का विषय हो जाए
उम्र की ढलती सांझ पर ली जानी थी चंद चुस्कियॉं
शिखरों की यात्राओं के हाथोँ हुई
ये राहजनी
ऐसा भी गिने जा सकने लायक गुनाह नहीं
थी मेरी यही कुल पूंजी, तो हुआ करे।

Wednesday, February 03, 2016

अनाथ शब्द

बियावान में भटकते
आकाशगंगाओं परे जाते
सरहदों की बाड़ के कॉंटों में उलझे
हिमस्खलनोँ के नीचे दबे
हर टूटे पुल से लटके
अपने सभी अनाथ शब्दों को
जिनकी मोमदार रस्सी से
निरपराधों को लटकाया गया
मैं एतद द्वारा इन्हें बुलाता हूँ अपनी गोद
स्वीकार करता हूँ इनका स्वामित्व
प्रस्तुत हूँ
तारीखी इंंसाफ के लिए।
क्योंकि दुनिया का कोई शब्द
त्रिशंकु नहीं होना चाहिए
चुप्पियों के ब्रह्मांड
बनने से कहीं पहले रोकने जरूरी हैं