आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने का अपना रूमान है। इस लड़ाई में उपस्थिति भले ही चंद लाइक या स्टेटस से ही क्यों न हो क्रांतिकारी होने का भ्रम देती है। मुझे देती है तो माने ले रहा हूँ औरों को भी देती होगी। लेकिन आज़ादी क्या केवल इतने से हासिल होती है। क्या इसमें आज़ाद करना शामिल नहीं है। मसलन हम सहज ही चाहते हैं कि व्यवस्थाएं और तंत्र तथा दूसरे लोग असहमतियों का सम्मान करें। खासकर हम व्यवस्थाओं से तो असहमतियों के प्रति सम्मानपूर्ण होने की अतिरिक्त अपेक्षा रखते हैं। कुछ लोगों के असहमति को नारों या कुछ पैंफ्लेट्स से सामने रखने का सवाल हो या कश्मीर आज़ादी की मांग, हम चाहते हैं कि इसे सुना जाना चाहिए, न मानने लायक हो तो भले ही न मानें, पर उन्हें कहने और सुने जाने का पूरा हक़ है भले उनकी बात कितनी ही विचित्र व अस्वीकार्य क्यों न हो।
यहां तक बात एकदम ठीक है ऐसा होना चाहिए। यह भी सच है कि हमारी व्यवस्थाएं फिलवक्त ऐसी हैं नहीं। सवाल अब ये है कि ऐसा क्यों नहीं ही। जवाब आसान है, ऐसा नहीं है क्योंकि हमने उन पड़ावों को पार किया ही नहीं कि यह लोकतांत्रिकता उन तक पहुँच सके। व्यक्ति से समाज और उससे ही तंत्र तक मूल्य पहुँचते हैं अन्यथा आप लाख संरचनाएं खड़ा कर लीजिये वे निरर्थक रहती हैं।
यानि सवाल इतना भर है कि हम खुद कितना लोकतांत्रिक हैं, हम खुद पर सवालों को, खुद से असहमति को कितना स्वीकार व स्वागत भाव देते हैं। यदि हम खुद को अप्रश्नेय मानते हैं लेकिन रोहित वेमुला, कन्हैया, दलित, स्त्री और न जाने किस किस मोर्चे पर तंत्र को आड़े हाथ लेते हैं कि वह असुविधाजनक आवाजों को दबा रहा है तो हम दरअसल पाखंडी हैं। क्योंकि यदि असहमति के स्वरों पर हमारी प्रतिक्रिया इस बात से तय होती है कि हम सत्ता समीकरण में किस ओर हैं तो ज़ाहिर है दुसरे पक्ष को भी इसी आधार पर आपकी असहमति को दबाने का पूरा नैतिक आधार है। जब आपकी पत्नी आपके लंपट आचरण पर हल्की सी आपत्ति रखे या कोई सवाल उठाये तो आप उसे किनारे कर लतिया दें, या खारिज कर दें पिछड़ा घोषित कर दें, या जो आपके बस में हो वो सब करें फिर जब सरकार किसी मुद्दे पर आपके या जनता के साथ ऐसा करे तब उम्मीद करें कि आपके आचरण को व्यक्तिगत मानकर अप्रश्नेय समझा जाए और सरकार के आचरण पर नुक्ताचीनी हो पाये तो आप एक भयंकर भूल कर रहे हैं।
हमने जो परिवार, धर्म, समाज की संरचनाए खड़ी की वे सब और बाद में शिक्षा और राज्य जैसी संरचनाएं जो विकसित हुईं वे सब सवालों को कुफ़्र मानती हैं ऐसे में खुद को इन संरचनाओं के खिलाफ संघर्षरत समझने वाले किसी आसमान से तो आएंगे नहीं वे भी भले बाकी किसी भी ढाँचे पर कितने सवाल उठाने की आज़ादी चाहें खुद पर सवाल नहीं चाहते। हर सवाल को खारिज करते हैं। ऐसे क्रांतिकारी न्यायवादियों से न्याय को बचाना बेहद जरूरी है।
यानि सवाल इतना भर है कि हम खुद कितना लोकतांत्रिक हैं, हम खुद पर सवालों को, खुद से असहमति को कितना स्वीकार व स्वागत भाव देते हैं। यदि हम खुद को अप्रश्नेय मानते हैं लेकिन रोहित वेमुला, कन्हैया, दलित, स्त्री और न जाने किस किस मोर्चे पर तंत्र को आड़े हाथ लेते हैं कि वह असुविधाजनक आवाजों को दबा रहा है तो हम दरअसल पाखंडी हैं। क्योंकि यदि असहमति के स्वरों पर हमारी प्रतिक्रिया इस बात से तय होती है कि हम सत्ता समीकरण में किस ओर हैं तो ज़ाहिर है दुसरे पक्ष को भी इसी आधार पर आपकी असहमति को दबाने का पूरा नैतिक आधार है। जब आपकी पत्नी आपके लंपट आचरण पर हल्की सी आपत्ति रखे या कोई सवाल उठाये तो आप उसे किनारे कर लतिया दें, या खारिज कर दें पिछड़ा घोषित कर दें, या जो आपके बस में हो वो सब करें फिर जब सरकार किसी मुद्दे पर आपके या जनता के साथ ऐसा करे तब उम्मीद करें कि आपके आचरण को व्यक्तिगत मानकर अप्रश्नेय समझा जाए और सरकार के आचरण पर नुक्ताचीनी हो पाये तो आप एक भयंकर भूल कर रहे हैं।
हमने जो परिवार, धर्म, समाज की संरचनाए खड़ी की वे सब और बाद में शिक्षा और राज्य जैसी संरचनाएं जो विकसित हुईं वे सब सवालों को कुफ़्र मानती हैं ऐसे में खुद को इन संरचनाओं के खिलाफ संघर्षरत समझने वाले किसी आसमान से तो आएंगे नहीं वे भी भले बाकी किसी भी ढाँचे पर कितने सवाल उठाने की आज़ादी चाहें खुद पर सवाल नहीं चाहते। हर सवाल को खारिज करते हैं। ऐसे क्रांतिकारी न्यायवादियों से न्याय को बचाना बेहद जरूरी है।
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