Thursday, February 18, 2010

विनीत का जुकाम 2.0

ईमेल को सार्वजनिक न करने को लेकर एक आचार संहिता सी बन गई है पर फेसबुक/आर्कुट/टि्वटर/बज्‍़ज जैसे स्‍पेस कहीं कम निजी हैं तथा उन्‍हें शेयर करने के मामले में अभी एंबीग्‍युटी (अस्‍पष्‍टता)  है इसका लाभ उठाते हुए अपने बज्‍़ज एंकाउंट से विनीत के सर्दी जुकाम का 2.0 संस्‍करण आपके सामने पेश कर रहा हूँ-

मामला सिर्फ इतना है कि विनीत ने 3:55 PM पर बज्‍़ज (पब्लिक)  किया -

 PRO VINEET

3:55 pm vineet kumar - Buzz - Public -
तमाम कोशिशों के बावजूद भी आखिर आ ही गया- सर्दी,खांसी और बुखार की चपेट में।..रियली,बहुत गंदा फील कर रहा हूं।

इस पर जो बज्‍़ज-पंचायत हुई उसे जस का तस पेश कर रहे हैं..अंतिम बज्‍़ज पोस्‍ट किए जाने के  वक्‍त था...उसके बाद के अपडेट इसमें शामिल नहीं हैं- कैसे वेब 2.0 सीधे सादे जुकाम को पहले डीकंटेक्‍स्‍चुअलाइज कर और फिर शरारती तरीके से रीकंटेस्‍चुअलाइज कर बैठता है इसे देखें- जबरिया दिशा देने वाले जो पद हमें‍ दिखे उन्‍हें हमने बोल्‍ड व रंगीन कर दिया है बाकी कोनो छेड़छाड़ नहीं की है-

dilip mandal - सलाह- गर्म पानी से गरारे यानी गार्गलिंग करें, एक गिलास पानी में एक चम्मच के थोड़ा कम नमक डालें- दिन में कम से कम चार बार।

एक बर्तन में पानी उबालें और भाप लें। कंबल ओढ़ कर भाप लेना अच्छा होता है, दिन में तीन बार। जितना हो सके कफ को बाहर निकालें।

खूब फल खाएं खासकर इस मौसम में संतरा। नींद पूरी लें। खूब पानी पीएं। जुकाम के प्रभाव को कम करने के लिए दिन में एक सिट्रिजीन की गोली लें। एक ही।

धूल धुएं से जितना बच सकें, उतना बचें।4:28 pm

ajay brahmatmaj - अपना तो एक ही इलाज है दिन में खौलता गर्म पानी और शाम में वह कोई रंग ले ले तो जुकाम की बला।4:39 pm

ajit anjum - तुम जवानी में बीमार बहुत पड़ने लगो हो . मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रहा है . दिलीप मंडल की सलाह मानकर भी कुछ नहीं होगा ....9:00 pm

Manisha Pandey - अजीत जी ठीक कह रहे हैं। इलाज कुछ और ही है दोस्‍त। देखो कोई रूपसी हो आसपास।9:43 pm

Prashant Priyadarshi - बाप रे.. एक सर्दी पर इत्ता बवाल? सर्दी जुकाम तो हमें भी है, हमें तो कोई सलाह नहीं देता!! :)10:02 pm

मसिजीवी blog - नहीं मनीषा की बात पर कान न देना.... two wrongs dont make a right :)Edit10:10 pm

vineet kumar - मनीषा की दिली तमन्ना है कि मेरे नाक से पानी निकलने के बजाय आंखों से आंसू चूने लग जाए। जो कि मैं उसके कहे पर कभी नहीं होने दूंगा। बाकी अजीतजी ने जो सलाह दी है तो साल छ महीने बाद उन्हीं पर ये जिम्मेदारी डालने जा रहा हूं। दिलीपजी की बतायी बातों को सीरियसली ले रहा हूं और अजयजी के सुझावों का असर इतना अधिक है कि जब भी गरम पानी पीता हूं उनका ख्याल आता है।..10:30 pm

vineet kumar - अनुभव नहीं है इस मामले में सर। आप कह रहे हैं तो मान ले रहा हूं। एकाध बार कोशिश की थी लेकिन इन्टर्नशिप की आपाधापी में मामला गड़बड़ा गया और प्रोड्यूसर ने इतनी शिफ्ट बदली कि कुछ ठोस होने नहीं दिया। एक पोस्ट भी लिखी है।..अब इस बुढ़ापे में क्या कोशिश करुं।..10:38 pm
ajit anjum - विनीत , दिलीप मंडल और अजय जी , मसिजीवी जैसे बुद्धिजीवियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान मत देना . ये सब बाबा आदम के जमाने के टोटके बता कर तुम्हारी सेहत ठीक करना चाहते हैं . बीमारी की जड़ पर नहीं जा रहे हैं . तुम मनीषा जी की सलाह पर चलो . तबियत ऐसी हरी होगी कि पुदीन हरा भी बेकार हो जाएगा . इस उम्र में इस किस्म की बीमारी ठीक नहीं . फेसबुक पर भी तुम बुद्धिजीवियो के चक्कर में रहते हो . काम भी उसी तरह का करते हो . सोच -विचार भी बौद्धिक है . इस लबादे से बाहर झांको . बीमारी का दवा कहीं न कहीं जरूर मिलेगी10:50 pm

मसिजीवी- अजीतजी भरमा रहे हैं रहे हैं विनीत सावधान... गरम पानी, रंगीन पेय से चिकित्‍सा या स्‍त्री- पदार्थ दोनों में से कौन सा ज्‍यादा पुराना (बाबा आदम के जमाने के टोटके ..) है खुद ही सोचो :)11:00 pm

vineet kumar - आपलोग जो मेरी बीमारी पर इतनी पंचैती कर रहे हैं। बीमारी की जड़ है कि मेरी जब भी तबीयत खराब होती है..मेस का खाना ताकने का मन नहीं करता और लगभग दिनभर भूखा रह जाता हूं। आपलोग घर-गृहस्थीवाले लोग है। घर का खाना खिलाइए कि देखिए तबीयत कैसी हरी हो जाती है।..11:03 pm

Friday, February 12, 2010

राजेश जोशी की एक कविता

हमारी भाषा

                                 - राजेश जोशी

भाषा में पुकारे जाने से पहले वह एक चिडि़या थी बस

और चिडि़या भी उसे हमारी भाषा ने ही कहा

भाषा ही ने दिया उस पेड़ को एक नाम

पेड़ हमारी भाषा से परे सिर्फ एक पेड़ था

और पेड़ भी हमारी भाषा ने ही कहा उसे

इसी तरह वे असंख्‍य नदियॉं झरने और पहाड़

कोई भी नहीं जानता था शायद

कि हमारी भाषा उन्‍हें किस नाम से पुकारती है

 

उन्‍हें हमारी भाषा से कोई मतलब न था

भाषा हमारी सुविधा थी

हम हर चीज को भाषा में बदल डालने को उतावले थे

जल्‍दी से जल्‍दी हर चीज को भाषा में पुकारे जाने की जिद

हमें उन चीजों से कुछ दूर ले जाती थी

कई बार हम जिन चीजों के नाम जानते थे

उनके आकार हमें पता नहीं थे

हम सोचते थे कि भाषा हर चीज को जान लेने का दरवाजा है

इसी तर्क से कभी कभी कुछ भाषाऍं अपनी सत्‍ता कायम कर लेती थीं

कमजोरों की भाषा कमजोर मानी जाती थी और वह हार जाती थी

भाषाओं के अपने अपने अहँकार थे

 

पता नहीं पेड़ों, पत्‍थरों, पक्षिओं, नदियों, झरनों, हवाओं और जानवरों के पास

अपनी कोई भाषा थी कि नहीं

हम लेकिन लगातार एक भाषा उनमें पढ़ने की कोशिश करते थे

इस तरह हमारे अनुमान उनकी भाषा गढ़ते थे

हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है

हम सोचते थे कि इस भाषा से

हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे 

                                (कविता संग्रह - 'दो पंक्तियों के बीच ' से साभार)

Thursday, February 11, 2010

भड़ास-मोहल्‍ला अब ( मौसेरे) भाई भाई

यह पोस्टिका एक रहस्‍यपूर्ण सूचना बॉंटने भर के लिए है। आप में से कुछ को अवश्‍य ही मोहल्‍ला के विषय में याद होगा ऐसे ही भड़ास के भी। दोनों ही ब्‍लॉग रहे हैं और अब मीडिया समाचार पोर्टल बन गए हैं तथा एक मायने प्रतिस्‍पर्धी भी हैं। दोनों ही के संचालकों में विवादों, बलात्कार की कोशिश के आरोप जैसी कई चरित्रगत समानताएं भी बताई जाती  हैं पर तब भी ये समानधर्मी पूर्व-ब्‍लॉगर विरोधी ही कहे जाते हैं या कम से कम पब्लिक ऐसा ही जानती है।   इसलिए कल जब ब्‍लॉगवाणी पर ये दिखा तो हैरानी हुई-

ScreenHunter_01 Feb. 11 15.58

ये अविनाश भला क्‍यों यशवंत का प्रचार कर करने लगे। जब जिज्ञासावश इस पर क्लिक किया तो ये मोहल्‍ले की ओर महीनों बाद पहली बार जाना हुआ था..देखा तो वाकई भड़ास की पोस्‍ट मोहल्‍ले पर विराजमान थी।

ScreenHunter_01 Feb. 10 20.05

समानधर्मी लोग वाकई एक हो गए हैं या इतने दिनों तक एक पोर्टल  के मालिक लोग किसी प्रतिस्पर्धी की फीड को पोस्‍ट होने से रोकना नहीं सीख पाए :)। वैसे अगर ये तकनीक का अनाड़ीपन न होकर वाकई भड़ास तथा मोहल्‍ले का गठजोड़ है तो  ये गठजोड़ हमें बेहद स्‍वाभाविक जान पड़ता है। क्‍या कहते हैं?  

Tuesday, February 09, 2010

हर घेटो खुद शहर पर एक सवाल है

हिन्‍दी के मानूश हैं पर गणित से मो‍हब्‍बत रही है इतनी कि पहले भी कहीं कह चुके हैं कि गणित की याद उस प्रेमिका की तरह टीस देती है जिससे विवाह न हो पाया हो (कोई ये न माने कि हिन्‍दी से चल रहे गृहस्थिक प्रेम में हमें कोई असंतुष्टि है :) पर पुराने प्रेम की टीस इससे कम थोड़े ही होती है) खैर गणित में जब कोई सवाल अटक जाता था तो बस वो अटक जाता था  और जितना सर भिडा़ओ हल न होकर देता था ..जल्द ही समझ आ गया कि ऐसे में कापी बंद कर घूमने चल देना चाहिए वापस आने तक सवाल का हल या अब तक की कोशिशों की गलती सूझ चुकी होती थी। जब पिछले दिनों तमाम कोशिशों के बावजूद छत्‍तीसगढ़ के ब्‍लॉगर साथियों की खुद से नाराजगी पकड़ में न आई तो हम कापी बंद कर इधर उधर टहलने निकल पड़े। इधर यानि अपने ही ब्‍लॉग पर अपने ही ब्‍लॉग पर दो साल पहले जनवरी 2008 की एक पोस्‍ट और उधर यानि कल मित्र बिल्‍लौरे के ब्‍लॉग पर अनूप के साक्षात्‍कार... इन दोनों पोस्‍टों में ही हमें इस फिनामिना को और बेहतर समझने के सूत्र दिखे।
जब हम ब्‍लॉगस्‍पेस को समझना चाहते हैं तो पब्लिक स्‍पेस की शब्‍दावली में ही समझना होगा। इसलिए अगर किसी शहर में घेटो तैयार हों तो इसके लिए खुद घेटो को या उसके बाशिंदो को दोष देना उनके खड़े होने की प्रक्रिया के प्रति उदासीनता को ही दर्शाता है। दिल्‍ली के ओखला या जाफराबाद में लोग घेटो इसलिए नहीं बसाते कि उन्‍हें असुविधाएं पसंद हैं या तंग गलियों में रहना उन्‍हें अच्‍छा लगता है वरन इसलिए कि बाकी शहर उनके प्रति या तो उदासीन हैं या उनकी उपेक्षा कर रहा है।
'घेटो' के घेटो होने में अपरिचित जगह में अपने जैसों को इकट्ठा कर अपनी असुरक्षाओं से कोप करने का भाव होता है। जो पूरे शहर में डरा डरा सा घूमता है क्‍योंकि वह वहॉं खुद को अजनबी सा पाता है, अल्‍पसंख्‍यक पाता है या शक की निगाह में पाता है वह जैसे ही अपनी बस्‍ती में आता है जो उसने बसाई ही है 'अपने जैसों' की वहॉं वह फैलता है कुछ ज्‍यादा ही फैलता है- गैर आनुपातिक होकर। पहली पीढ़ी के प्रवासी महानगर की सुखद एनानिमिटी के आदी नहीं होते और उससे बचकर भागते हैं और वह छोटी सी बस्ती ही उन्‍हें सुकून देती है जहॉं एनानिमिटी की जगह 'पहचान' की गुजाइश होती है इस तरह महानगर में घेटो बसते हैं- ओखला, तैयार होता है, जाफराबाद, बल्‍लीमारान और मुखर्जीनगर।
ये सही है कि ये प्रवृत्ति मूलत: फिजीकल स्पेस की है तथा इसे वर्च्‍युअल पर सीधे सीधे लागू करने के अपने जोखिम हैं। पर ये घालमेल हम हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत में होता ही रहा है एक बार फिर सही।  अगर छत्‍तीसगढ़ या किसी और क्षेत्र या समूह के ब्‍लॉगर इस पूरे ब्‍लॉगशहर को पूरा अपना न मानकर अपनी बस्‍ती बसाना चाहते हैं तो इसे कानूनी नुक्‍तेनजर से समझने की कोशिश इस एलियनेशन को और बढ़ाएगी ही इसलिए जरूरी है इसे पूरे ब्‍लॉग शहर की असफलता के रूप में देखे जो कुछ साथियों में इस एलियनेशन के पनपने को रोक नहीं पाई।
गणित के उस बेहद उलझे सवाल के साथ सुविधा ये होती थी कि किताब के आखिर में दिए हल से मिलाने पर पता चल जाता था कि हमारा हल ठीक हे कि नहीं। काश ऐसी कोई सुविधा यहॉं भी होती।

Thursday, February 04, 2010

कुछ गलतफहमी कितनी प्रिय होती हैं

न जी इस गलतफहमी का चिट्ठाचर्चा, डोमेन स्‍क्‍वैटिंग या इस किस्म के किसी प्रकरण से कोई लेना देना नहीं, वहॉं की गलतफहमी में प्रिय तत्‍व अभी हमें नहीं मिले हैं मिलते ही सूचित करेंगे। यहॉं की गलतफहमी का संबंध हमारी एक अन्‍य पोस्‍ट से है। जब अमिताभ बच्‍चन ने ब्‍लॉगिंग शुरू की तो उस पर हिन्‍दी ब्लॉगजगत में कुछ चर्चा हुई थी, अफलातून ने ध्‍यान दिलाया था कि इसके पीछे अम्बानी का पैसा है, खैर हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत की इस हलचल को हमने अपनी एक पोस्‍ट में रखा था... हमारा ये अंग्रेजी ब्‍लॉग, हिन्‍दी ब्‍लॉगों के बारे में है। इसे आजकल कम ही अपडेट कर पाता हूँ।  इस ब्‍लॉग का सारा ट्रैफिक सर्च के माध्‍यम से ही आता है तथा टिप्‍पणी शायद ही कभी आती हैं हालांकि विजीटर काउंट खूब होता है। किंतु अगर इस अमिताभ वाली पोस्‍ट पर ध्‍यान दें तो आज तक कमेंट आ रहे हैं अधिकतर कमेंट सीधे अमिताभ बच्‍चन को संबोधित होते हैं, हिन्‍दी भाषी क्षेत्र के अमिताभ के प्रशंसक गगूल पर अमिताभ बच्‍चन पर्सनल ब्‍लॉग सर्च करते हैं तथा जैसे कि आप देख सकते हैं कि अमिताभ के अपने ब्‍लॉग के ठीक नीचे की कड़ी इस पोस्‍ट पर भेज देती है

ScreenHunter_01 Feb. 04 18.45

हालांकि पोस्‍ट में पढ़ने पर किसी तरह की गलतफहमी की गुंजाइश नहीं है पर शायद प्रेम ही नहीं फैन भी अंधा होता है इसलिए इसी पोस्‍ट पर कई लोग अमिताभ के बारे में अपने प्रशंसा भरे उद्गार इस पोस्‍ट पर दे गए हैं। इन्‍हें पढ़ना मजेदार है कोई अमित अंकल कहकर बुलाते है कोई गंगा किनारे से होने के कारण निकटता स्‍थापित करता है।

नमस्कार अमित अंकल,
मेरा नाम रचना है और हम आपसे कहना चाहते हैं की 'निः-शब्द' जैसे पिक्चर को करने के लिए आपने क्यों नहीं हमारे सामाजिक परिवेश के बारे मैं सोचा. आपका क्या कांसेप्ट था प्लस. हमे बताइए.

नमस्कार,
वाराणासी उत्तर प्रदेश से मैं विनोद कुंवर छोरा गंगा किनारेवाला और मेरी पत्नी संगम इलाहाबाद से,हमलोग आपके बहूत बड़े फेन हैं. मैं चाहता हूँ कि आप एक फिल्म वाराणासी में शूट कीजिये ताकि यादगार रहे एक बार जरूर आइये.
आपका.विनोद कुमार "दब्बू"

इस तरह गलतफहमी में पड़ने वालों में पत्रकार बिरादरी के लोग भी हैं :)

रेस्पेक्टेड अमिताभ जी,
आप से अटैच होने का मौका पाकर बेहद ख़ुशी का एहसास हो रहा है.
मैं आशुतोष श्रीवास्तवा, आजमगढ़ (उ.प.) में एक नेशनल इलैक्‍ट्रानिक मीडिया चैनल का जर्नलिस्ट हूँ. आप जब श्री अमर सिंह के साथ उनके घर आजमगढ़ ए थे तो आपको करीब से देखने का मौका मिला था. आज भी आपकी तस्वीरें आँखों के सामने रहती हैं. मैं बचपन से आपकी फिल्म्स देखते आया हूँ. इश्वर आपको स्वस्थ और दीर्घ आयु बनाये ये ही कामना है

सिर्फ प्‍यार ही नहीं लोग उपहार भी भेजने की सूचना देते हैं (काश उपहार के पते को लेकर भी ब्‍लॉग के पते की तरह कोई गलतफहमी होती :)

आज आपका इन्‍टरव्‍यू दैनिक भास्कर में पढ़ा. आज दैनिक भास्कर ने आपके बारे में सब कुछ लिखा है आपके 68वे बी'डे पर. आपके इन्‍टरव्‍यू में आपने कहा था क अगर कोई चैलेंजिंग काम हो तो में आज भी उसको करना चाहूँगा....

...दुनिया आपको एक से एक महंगे गिफ्ट्स देती है, मैं ज्यादा कुछ तो नहीं एक छोटा सा तोहफा आपके जलसा वाले बंगलो पर भेज रहा हूँ. यहाँ से भेजने में कुछ वक़्त लगा भी तो 10 दिनों में पहुच जायेगा. थैंक्‍स फॉर रीडिंग दिस कमेन्ट

हम जानते हैं कि बात हमें नहीं सुपरस्‍टार को कही गई है पर कोई हमारे घर को अमितजी का घर समझकर हमें गले लगा रहा है अफसोस भी है कि जो प्रेम किसी ओर के लिए था वो हम जैसे कुपात्र के कारण अटक गया .. पर ये भी सही है कि झुट्टा ही सही पर प्‍यारा तो लगता ही है।