Thursday, December 31, 2015

छायायुद्ध

नहीं लड़ोगे तुम,
अब भी नहीं?
तमाम हथियार और पैंतरे सब
मेरे
रखे रहें ऐसे ही
तुम्हारे तर्क़ों से अव्याखेय
में जुटना मेरा
निरर्थक रहेगा यूँ।

तुम्हारी छाया से युद्ध
ख्याली जीत और काल्पनिक हार
थका रही है
फेरो मुंह थूको घृणा से
मेरी आज़ादी होगी नफरत तुम्हारी

ढेर प्यार की गोद
बाहों का वृत्त
दर्पण सा डराते हैं मुझे
उनसे दूर रखो बस
लोहा लो मुझसे
बस वही मेरी मुक्ति।

Wednesday, December 30, 2015

फैसलाकुन होना फितरत है हमारी

चिंतन उपाध्‍याय नाम के एक चित्रकार को हाल में अपनी पत्‍नी और उसके वकील की नृशंस हत्‍या के लिए गिरफ्तार किया गया। तफ्तीश बताती है कि उसकी अपनी पत्‍नी से घृणा इतनी अधिक थी कि उसने अपनी दीवार पर एक पेंटिग बना रखी थी जिसमें उसकी पत्‍नी को कुत्‍तों के साथ संभोगरत दिखाया था जांहिर है एक कलाकार जिसके संवेदनशील होने की अपेक्षा अन्‍यों की तुलना में अधिक है का यह कृत्‍य झिंझोड़ता है। अरविंद शेष  ने इस पर लंबी टिप्‍पणी अपने वॉल पर लिखी है-
इस 'महान' कलाकार ने दो कुत्तों के साथ अपनी पत्नी की सेक्स करते हुए पेंटिंग घर की दीवारों पर बनाई। अब तक सामने आ सकी खबर के हिसाब से पत्नी के खिलाफ नफरत करते हुए वह जितना घटिया स्तर पर गिर सकता था, गिरा। और इससे भी आगे बढ़ा तो पत्नी और उसके वकील की हत्या करा दी।यह 'महान' कलाकार चिंतन उपाध्याय हाल ही में संघियों-भाजपाइयों के नफरत के एजेंडे गाय को निशाना बना कर जयपुर में गाय की कलाकृति को हवा में लटका कर सुर्खियों में था। इसके अलावा, यह गुजरात दंगे के मसले पर सरकार के खिलाफ निर्वस्त्र होकर विरोध जता कर 'क्रांतिकारी' घोषित हो चुका है। भगवा सियासत के खिलाफ और भी क्रांतिकारी उपलब्धियां इसके नाम है। यह एक मशहूर कलाकार है।
अब भविष्य में दुनिया इसके अपनी पत्नी हेमा के खिलाफ जघन्य और निकृष्ट स्तर तक जाने और हत्या तक करा देने के किस्से की हकीकत को भूल जाएगी और इसकी शानदार कलाकृतियों-पेंटिगों को याद रखेगी, इतिहास में यह एक महान कलाकार के तौर पर जाना जाएगा।
पिछले पांच-सात सालों के दौरान इस मसले पर दर्जनों 'क्रांतिकारियों' से टकराना पड़ा है कि अगर कोई बतौर रचनाकार अपने आसपास के लोगों या समाज को प्रभावित कर रहा है, तो उसकी निजी गतिविधियों और चरित्र को नजरअंदाज करना कितना मुमकिन है! लेकिन मुझे सुनना यही पड़ा कि रचनाकार को सिर्फ उसकी रचना के जरिए देखना चाहिए। बाकी निजी जिंदगी में वह क्या है, इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहिए।
सवाल है कि एक बहुत अच्छी कहानी या कविता या कलाकृति बनाने वाला रचनाकार या कलाकार अगर निजी मोर्चे पर बेहद निकृष्ट और आपराधिक हरकत करता है, तब भी क्या उसे उसकी रचना के जरिए कबूल कर लिया जाए? यह एक जटिल सवाल के तौर पर हमारे सामने परोसा जाता रहा है। लेकिन आखिर वे कौन-सी वजहें हैं कि गुजरात दंगों में दो हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने के खिलाफ या देश में नफरत का जहर फैलाने वाली भगवा राजनीति के खिलाफ एक कलाकार इतना संवेदनशील है कि वह अपने विरोध जताने के तरीके को लेकर सुर्खियों में भी रहता है, लेकिन घर की चारदिवारी के भीतर वह अकेली पत्नी के खिलाफ इस कदर बर्बर, कुंठित, स्त्री-द्वेषी, पिछड़ा और सामंती होता है? लगातार कलाकृतियां बनाने के बावजूद कहां से उसके भीतर इतनी कुंठा और नफरत जमा हुईं, जिसने उसे अपनी पत्नी को कुत्तों के साथ सेक्स करते हुए पेंटिंग बनाने की जरूरत पड़ी?
क्यों ऐसा हुआ कि अपनी पेंटिंग में हर रंग से लेकर कलाकारी को लेकर बेहद संवेदनशील यह शख्स स्त्री को गुलाम के तौर पर कबूल करने वाला इस निकृष्टतम पैमाने का मर्दवादी सामंत बना रह गया? दुनिया के सामने 'दिखने' और वैसा ही वास्तव में 'होने' की कसौटी पर वह इस हद तक पाखंडी क्यों था? मुझे समझ में नहीं आता है कि मैं क्यों किसी रचनाकार या कलाकार की सामंती मर्दवादी निकृष्टताओं को सिर्फ इसलिए भूल जाऊं कि उसने नाम कुछ महान रचनाएं हैं...! एक पाखंड निबाहते हुए किसी व्यक्ति के मुकाबले कोई सीधा अपराधी मेरी निगाह में ज्यादा बेहतर है। यह मेरी दिमागी सीमा है कि मैं जो लिखता या दिखता हूं, वह मैं होने की भी मांग खुद से करूंगा।
अरविंद का सवाल कि यदि कोई कवि, कोई रचनाकार अपनी निजी जिंदगी में बेहद घृणित है अपराधिक हरकतें करता है तब भी उसे कबूला जाना चाहिए ? अच्‍छी रचनाएं क्‍या उसे उसके अपराधों से मुक्ति दे सकती हैं ? मैं इसमें ये सवाल भी जोड़ना चाहूँगा कि क्‍या एक पाठक के रूप में हम उसके अपराधों पर जज़ हो जाने की सत्‍ता भी पा जाते हैं?
मेरे पास इन सवालों के तय जवाब तो नहीं हैं किंतु मेरा सोचना मात्र इतना है कि  पाखंड या दोहरापन देखना या दिखाना कुछ सरलीकरण है तथा ये भी कि अंतर्विरोधों के पूर्ण शमन के ही बाद कोई रचनाकार लिख या रच सकता है कि शर्त तो दुनिया को कला से शून्‍य ही कर देगी किंतु तब भी कोई भी कलाकार मात्र कलाकार होने भर से अपने अपराधों की सजा से मुक्ति नहीं पा सकता।  एक अन्‍य पक्ष हिंसा व नफरत को पालने की हमारी संस्‍कृति का भी है। एक कलाकार पर तो सवाल है ही पर उससे ज्‍यादा समाज पर भी तो एक सवाल है न। एक समाज के तौर पर हम प्‍यार करना नहीं जानते, हमें नफरत करनी तक सलीके से नहीं आती तिसपर 'प्‍यार न करना और आजाद छोड़ देना' इसका भी सलीका होता है ये तो हम जानते तक नहीं। 


व्‍यक्तिगत तौर पर मेरे लिए ऐसे व्‍यक्ति का व्‍यक्ति छोडि़ए कलाकार, नेता, एक्टिविस्‍ट के रूप में सम्‍मान करना कठिन है जो इतना अपराधिक, घृणित व मर्दवादी हो। किंतु ये मेरी अपनी व्‍यक्तिगत सीमा भी हो सकती है।




दर्द

एक महीन छलनी हो
जो दुनिया की तमाम कविताओं से
छान सके
सारे उत्तम पुरुष सर्वनाम
कवितायेँ सब
मेरा नहीं तेरा दर्द लिखें
या फिर लिखें
उसका
दुनिया कहीं ज्यादा हो खूबसूरत
अकुंठ और प्रेमिल।

Thursday, December 24, 2015

बामयान के बुत और प्‍यार की पंक्ति


शब्‍द को ही समझना अच्‍छों अच्‍छों के लिए एक बड़ी पहेली है, कैसे एक इंसान के मुँह से निकली आवाजों का एक गुच्‍छा किसी दूसरे इंसान के मन में एक मायने को पैदा कर देता है लेकिन उससे कहीं ज्‍यादा उलझाऊ किस्‍सा लिखित शब्‍द यानि टेक्‍स्‍ट है।  मौखिक शब्‍द में कम से कम वक्‍ता श्रेाता एक ही स्‍थान व समय में उपस्थित तो रहते हैं ताकि अर्थ के पैदा होने और संप्रेषित होने के कुछ कारण तो दिखते हैं। टेक्‍स्‍ट तो माशा अल्‍लाह न वक्त में साझा होने जरूरी हैं न जगह में।  अशोक के शिलालेखों में अशोक के शब्‍द स्‍थान व समय पार करते हुए किस प्रक्रिया से हम तक पहुँचकर कोई अर्थ गढ़ते हैं, जाने वे गढ़ते भी हैं या हम ही खुद उन्‍हें गढ़ लेते हैं? कभी कभी तो लगता है कि न हम  न अशोक ही इसमें बित्‍ते भर की औकात रखते हैं दरअसल अर्थ तो अशोक और हमारे बीच का ढाई हजार साल का इतिहास रचता है। टेक्‍स्‍ट अर्थ का वाहक नहीं वो तो उस सारी पृष्‍ठभूमि से बनता है जिसके सामने टेक्‍स्‍ट को रख देने से अर्थ महकता है। इस ढाई हजार साल का हर क्षण अशोक के कहे के मायने बदल रहा था... मसलन अभी हाल ही तो बामयान के बुत ढहाए गए..देखों झट तालिबान ने बुद्ध के कहे..अशोक के लिखे के मायने बदल दिए न।
अच्‍छा तो कहो, अगर टेक्‍स्‍ट के मायने को बीच के इतिहास की, टेक्‍स्‍ट के पीछे की असलियत की दरकार है तो हायपरटेक्‍स्‍ट के मायने कहॉं से हासिल होते होंगे।  हम जो इतना प्रेम, इतनी नफरत, इतनी राजनीति, इतना झूठ और थोड़ा बहुत सच अपनी टाईमलाइन पर, अपने स्‍टेटस, लाइक, कमेंट, मेसेज में बहाए फिरते हैं, लिखते हैं पढते हैं उनके क्‍या मायने बनते हैं उससे भी अहम कि भला कैसे बनते हैं।  हमारे लिखने और तुम्‍हारे पढ़ने के बीच के मिनटों में, या सेकेंडों में जो अनगिनत बामयान के बुत ढह जाते हैं उनका क्‍या असर इस हाइपरटेक्‍स्‍ट के मायनों पर पड़ता है...पड़ता भी है या नहीं ?
न जवाब की उम्‍मीद मुझसे न रखो, सवाल भर ढंग से पूछ पाऊं खुद को सफल समझूंगा।
अच्‍छा एक तस्‍वीर देखो-


देखी न।  ध्‍यान से। तस्‍वीर ? तस्‍वीर कहॉं ये तो टेक्‍स्‍ट है न ।  हॉं हॉं टेक्‍स्‍ट ही है पर खुद टेक्‍स्‍ट नहीं है बल्कि ये तो एक पंक्ति के हाइपरटेक्‍स्‍ट के सोर्स एचटीएमएल की ही तस्‍वीर है। हॉं एक पंक्ति का फेसबुक स्‍टेटस (जिसमें संयोग से मैंने लिखा था - 'प्‍यार'-  पर क्‍या फर्क पड़ता है वहॉं नफरत, कूढेदान या होनोलूलू भी लिखा हो सकता था)  लिखकर पोस्‍ट किया और फिर पृष्‍ठभूमि का पेजसोर्स देखा तो यही सब जार्गन था। जार्गन इसलिए कि अपना वही प्‍यार जब मैंने पंक्ति दर पंक्ति भी खोजने की चेष्‍टा की तो वो नदारद था, खुद छोड़ो फाइंड के औजार को भी मेरा वह टेक्‍स्‍ट नदारद मिला... मुझे शक नहीं कि मेरी वो पंक्ति हाइपरटेक्‍स्‍ट के बामयानों की वजह से ध्‍वंस को प्राप्‍त हुई। हाईपरटेक्‍स्‍ट के मायने बामयान हजम कर जाते हैं और कुछ ही रख देते हैं उसकी जगह जिसे बाकी छोड़ो हम खुद भी अपने शब्‍द अपने मंतव्‍य जान लाइक कमेंट खेला करते हैं।  इस पेजसोर्स जार्गन से अपने प्‍यार की पंक्तियॉं आजाद कराना आज की चुनौती है।
  

Saturday, December 19, 2015

मिलना सीखो बिछुड़ना सीखो

कुछ रिपोर्ट्स समाज में तलाक के कुछ बढ़ने से चिंति‍त नजर आ रही हैं। यद्यपि अगर पूरी दुनिया की तलाक जनसांख्यिकी पर नजर डालें तो भारत में तलाक (1.1 फीसदी) बेहद कम है इतनी कम तलाक दर का मतलब दरअसल होना तो ये चाहिए कि भारत में दांपत्‍यप्रेम की बयार बल्कि ऑंधी चल रही होनी चाहिए। किंतु मुझे एेसा भीषण प्रेम चारों तरफ दिखता तो नहीं आपको दिखता है क्‍या ? दरअसल हम निहायत ही उजड्ड और पाखंडी समाज हैं उजड्ड इसलिए कि हम चंद बेहद जरूरी मानवीय व्‍यवहारों के प्रशिक्षण से रहित हैं। मसलन हम नहीं जानते कि प्‍यार कैसे किया जाता है, नफरत करना सीखने के मामले में तो हम और गंवार हैं। तिस पर तुर्रा ये कि किसी को न प्‍यार न नफरत वाले तरीके से हमें देखना तक नहीं आता है। कुल मिलाकर हम संवेगाात्‍मक आदिमता का समाज हैं। प्‍यार करते हैं तो ऐसा दमघोंटू कि लगता है प्‍यार के बोझे से मार ही डालेंगे, प्‍यार में ऐसा लदेंगे कि सांस लेने की हवा तक न मिले। ऐसा नहीं कि इकतरफा बीमारी है जिसे प्‍यार किया जा रहा है उसकी भी उम्‍मीदें ऐसा ही दमघोंटू प्‍यार पाने की होती हैं। अब मॉं के प्‍यार को लीजिए न, लल्‍लाजी सत्‍तर साल की मॉं से भी आलू के भरवॉं परांठे वाले प्‍यार मॉंगते हैं और अम्‍माजी लल्‍लाजी का यह परस्‍पर लदान, लल्‍लाजी को कभी ठीक ठिकाने का प्‍यार करने लायक छोड़ता ही नहीं बाद में बीबी, बेटी, बहु हर किसी से बस भरवां पराठें छाप प्‍यार ही चाहिए होता है... अब लल्‍लाजी इस प्‍यार के लिए तैयार होते हैं तो जाहिर लल्ल्यिॉं भी इसी तरह का प्‍यार करने के लिए बनाई जाती हैं और फैक्‍टरी में काम एकदम जारी है।
समाज का लल्‍ला लल्‍ली का यह प्‍यार कारखाना इतने सालों से जारी है कि अब हमें न साथ रहना आता है न अलग होना। जब किसी भी वजह से इस तू मुझे ढोए मैं तुझे वाले प्‍यार से अलग होते हैं, अलग माने सिर्फ घर बदल लेने वाला अलग नहीं बल्कि दिल से अलग होना तो हमें पता लगता है कि प्‍यार करने वाले से अलग होना तो हमें कभी सिखाया ही नहीं गया... अलग होना हमें सिर्फ दुश्‍मन से ही आता है तो बजाए नया रास्‍ता सीखने के हम आसान रास्‍ता अपनाते हैं हम जिससे अलग होना पड़ रहा है पहले उससे नफरत करना शुरू करते हैं सहजता के दुश्‍मन हो जाते हैं अकेले रोने की कला भूल जाते हैं और चीख चिल्‍ला पहले अपने प्रिय को रावण का पुतला बना देते हैं फिर ढेर पटाखे भर इसमें आग लगा देते हैं... पुतला धूं धूं कर जलता है खूब तमाशा होता है और हमारा मन शॉंति पाता है अब फिर से प्‍यार वाले खाने में वही परस्‍पर लदान वाले लोग हैं और शत्रु वाले पाले मेें हैं परस्‍पर साजिश वाले लोग।
फिर लोचा कहॉं है ? लोचा यह है कि हम प्‍यार करना सीखें जिसमें साथ होना सीखना पड़ेगा.. बिना छल के बिना ढेर झूठों के। समाज प्‍यार करने को पेड़ पर फांसी पर लटकाने की चीज समझना बंद करे। जिसमें प्‍यार के लिए मिलने जाने के लिए हजार झूठ न बोलने पडें न सुनने पड़ें। उससे भी जरूरी कि प्‍यार करना सीखने में इससे लौटना भी सीखने कर गुंजाइश हो। अलग होने का तरीका सहज हो बिना झूठों और प्रवंचनाओं वाला। अलग होना पहाड़ का टूट पड़ना नहीं है कि दुश्‍मन, पुतला बनाने फूंकने के तमाशें की प्रक्रिया से गुजरना ही पड़े... जिस समाज में शादी इतनी ज्‍यादा तलाक इतने कम हों वो एक पाखंडी समाज है प्‍यार से रीता समाज है।

Friday, December 18, 2015

सैर

मैं हर शाम सीढि़यों से उतरते हुए
गढ़ता हूँ तुम्‍हें
निहायत महीनता से
एक एक उभार औ गहराई
मन के गुंजल और नैन बैन
एक एक कदम मिलाकर सावधानी से चलती हो साथ
खिलखि‍लाते मुस्‍कराते
फिर असहमत होते रुठते हैं
अच्‍छा चलते हैं कहकर फिर
मैं एक मोड़ के बाद
वापस चढ़ पड़ता हूँ सीढि़यॉं
ऐसे ही हर रात की सैर में गढ़ता मिलता बिछुडता हूँ मैं तुमसे।

Thursday, December 17, 2015

हत्यारी कहन

कहना चाहता हूँ
बहुत कुछ है भी कहने को
किन्तु
प्रतीक आकर पकड़ लेते हैं
बात का गिरेबान
भाषा तौलकर घोंपती है चाक़ू
बात चाक चाक हो तड़ती है
भीड़ बजाती है ताली
मुशायरा देता है दाद
हर शब्द मंतव्य का हत्यारा है।

Wednesday, December 16, 2015

तुम हो कि न हो

' अ ब्‍यूटीफुल माइंड' (रॉन हावर्ड, 2001) रह रहकर याद आ रही है। फिल्‍म में एक गणितज्ञ जॉन नैश के गणितज्ञ की कहानी दिखाई गई है जिसे बाद में नोबेल मिलता है। फिल्‍म में नैश जब एक शोधार्थी की तरह प्रिंस्‍टन विश्‍वविद्यालय आते हैं तो उनके रूममेट से बहुत सी बाते साझा करते हैं फिर बाद में वे एक खुफिया प्रोजक्‍ट पर काम भी करता है इसी क्रम में वह अपने रूममेट की नन्‍हीं भांजी से भी मिलता। फिल्‍म की असली परत तब खुलती है जब पता लगता है कि इतने जटिल संबंन्‍धों और जीवन को प्रभावित करने वाले ये लोग दरअसल कहीं थे ही नहीं। नैश जिनके साथ सालों रहता पढ़ता काम करता रहा वे वहॉं थे ही नहीं...ये सब बस उसके दिमाग की उपज थे, रीयल नहीं थे। उसे ये सब दिमाग की निर्मिति वाले शख्‍स इसी दुनिया में उन लोगों के साथ रहते लगते थे जो रीयल थे।
हमारे पास जो सब हैं वे रीयल में ठीक वैसे हैं जैसे हम उन्‍हें जानते हैं या फिर हमने ही उन्‍हें वैसा गढ़ रखा है, हमारी गढ़न की कैद में न केवल कैद हो रीयल नहीं हो पाते अपितु हम भी इस गढ़न की कैद में ऐसे फंसे हैं कि जो नहीं है उसे खोजने में लगे हैं और न मिलने पर छटपटाते हैं।

प्रतिरोध के पक्ष-प्रतिपक्ष

आंदोलन और प्रतिरोध का ककहरा किसी को स्‍कूल में नहीं सिखाया जाता जाहिर है मुझे भी नहीं सिखाया गया था, स्‍कूल ज्‍यादा से ज्‍यादा अनुशासित अच्‍छे बच्‍चे बनना सिखाते रहे हैं। प्रतिरोध की पहली ट्रेनिंग हम कुछ डायवरजेंट से युवा जब प्रो. अनिल सद्गोपाल और उनके साथियों के साथ जुड़े और शिक्षा पर काम करने लगे। नहीं ये लोग हमारे रोल मॉडल नहीं थे अपितु हम इनसे टकराकर ही सीख रहे थे। हम अक्‍सर इनकी दाढ़ी, इनकी शैली कभी कभी इनके पाखंड का मज़ाक भी उड़ाते पर फिर जब काम करते तो जीजान से करते। खूब पढ़ते खूब मेहनत करते। आंदोलनों के औजार और सैद्धांतिकी हमें इन्‍हीं लाेगों से मिल रही थी और अंदर अंदर हम इस बात के लिए एक किस्‍म कृतज्ञता भी महसूस करते थे।
लेकिन असल परीक्षा आई जब एक मुद्दे पर हम चंद युवा इन प्रोफेशनल आंदोलनकारियों के खिलाफ आ खड़े हुए अब इन लोगों से हासिल समझ को इनके ही विरुद्ध इस्‍तेमाल की जरूरत थी यह बौद्धिक चुनौती तो खैर ही थी एक इमोशनल आघात भी था। आज भी याद आता है कि प्रतिनिधिमंडल के रूप में हमें चंद प्रोफेसरों के एक समूह से मिलना था सबसे ही हमारे बेहद घनिष्‍ठ वैचारिक व आत्‍मीय संबंध थे, अपने ही खिलाफ चलते धरने में भी वे हमारे पास आते हाल चाल पूछते कभी कभी तो सलाहें भी देते... अब इनके ही खिलाफ लडाई करनी थी। मैं अन्‍याय का आरोप सामने रख रहा था और प्रोफेसर नज़मा सिद्दि‍की ऑंसू भर भर इस आरोप पर रो पडी़ं। मन न जैसा कैसा सा हो गया। हमने नुक्‍कड़ नाटक तैयार किया इन सब शिक्षकों को बाकायदा बुलाया जिनके लिए हमारे मन में अगाध सम्‍मान था ये सब भी पूरे विश्‍वास से नाटक देखने आए, विश्‍वास ये कि असहमति मुद्दे पर है वरना हम एक हैं...नाटक में एक रोल नीलिमा का भी था जिसमें नीलिमा ने संवाद बोलना था ' 'ये साले साठसालिया हमारे संपनों का गला घोंटते हैं' संवाद बोला गया नाटक के प्रवाह में ठीक भी था पर मुझे याद है ये बुलाकर गाली देना कभी नहीं पचा न उन्‍हें न हमें ही।
तब से समझ आ गया था कि अौजार हथियार कितने भी क्‍यों न इकट्ठे कर लिए जाएं इन्‍हें इस्तेमाल का सबसे त्रासद समय तब होगा जब अपना हथियार अपनों पर इस्‍तेमाल होगा और किसे भी लगे खुद को ही घायल करेगा । हम सबके अपने सत्‍य होते हैं और अंत में घायल ही करता है पक्ष चाहे सत्‍य का हो या असत्‍य का।

Tuesday, December 15, 2015

बुहरा इतिहास

मत मुड़ो
मत झुको
नीचे मत देखो
पदचिह्नों की भला कभी
किसी ने ली है जबाबदेही ?
हुई तो होगी बालू की
बालू के घरौंदे की
ऐसी भी कोई धँसता है धम्‍म से
एक कदम भर से।।

थामो गिरेबान
समुद्र का
इतना अथाह कि ले गया मेरी निगाहों को
साथ उस असीम अभिसार पर
इतना पास कैसे दिखता फिर

अगले ज्‍वार भर तक है यूँ भी
ये निशान भी घरौंदा भी
इतिहास घरौंदों को नहीं
क्षितिज राहियों को लिखता है।

घर उजाड़ू औरतों के मनस्ताप


(एक)
नहीं मेरा निशाना तुम नहीं थीं
न तुम्हारा घर-तिलिस्म ही ढहाने निकली थी
माने वही सब जिसे तुम घर कहती हो तुम्हारा
वो नहीं था निशाना मेरा
कोलेट्रल डैमेज है बस
मेरे दुश्मन की खंदक के बहुत पास होना था कसूर उसका
बस
और कुछ नहीं।
कसूर तुम्हारा मुझे पता नहीं
जैसे नहीं पता मुझे कि
दूर अंजान देश तुवालू के अखबार में
क्या छपा होगा आज।

न मैं तुम्‍हारे घर से प्‍यार में नहीं हूॅ
कि उसे बना लेना चाहूँ अपना
न, मैं तुम्‍हारे नहीं अपने घर से नफरत में हूॅं
प्रेम नहीं ये घृणा का आख्‍यान है।
घर से भागती हर औरत
रास्‍ते में कई घरों से टकराती है
घरौंदों को कुचलती है
पर वो सिर्फ अपने घर से भाग रही होती है।

Monday, December 14, 2015

भूल गलती

एक कदम
तीन राहें
दिशा मेरी
भूल तुम्‍हारी
भूल तुम्‍हारी मैं बेचारी
मैं बेचारी मारामारी
थामी बेचारी हाय री हाय री
पापी पिग
गंदा री गंदा री

Friday, December 11, 2015

मूर्तिभंजक का पसीना


भारी घन हो कि
हलकी चोट वाली हथौड़ी
बुत पर हर चोट बनाती है तुम्हें और खूबसूरत
चुहचुहाती मोती की झालरें
आवेशित करती हैं
मूर्तिभंजक का पसीना
दुनिया का सबसे मादक द्रव है
सबसे सुन्दर श्रृंगार

घन लेकिन जैसे ही बनता है खंजर
बुतो की जगह लेता है
गर्म खून का गोश्त
हत्याओं के तुम्हारे श्रम से
निकला पसीना
जा मिलता है अपनों के बहते रक्त से
तब
शुरू होती है निस्पन्द प्रतीक्षा
बुतों का अट्टहास बढ़ता है।

Thursday, December 10, 2015

बिना मंज़िल की यात्राएं

तुम्हें दिखती है एक ज़िन्दगी
गली के वन साइड ओपन मकान सी
छोटा सा दरवाजा अदनी सी खिड़की
सोते शब्द जागते झगड़ते खाते पीते दिन बिताते
व्याकरण से बंधे शब्द

और तुम्हें दिखता है प्यार
बेमंज़िल यात्रा सा,
अर्थ के फिज़ूलपन के स्मारक सा

वक़्त मिले तो मकान की दुछत्ती के
बक्से से  दो डाइस के खेल व्यापार को
निकालना बाहर
मकान में कब से धूल खा रही हैं बिना मंज़िल की यात्राएं।

शब्द जल्दी में हैं

शब्द जल्दी में हैं
कविता हो जाने की
सरे राह फिसल कर
बन जाते हैं चिट्ठी
व्यभिसार की
बालों में फिरती उँगलियों के पोरों पर
आ चिपकते हैं
चीकट झूठ
तुम अपनी कविताओ में
शिरोरेखा क्यों नहीं लगातीं
सारी शिरोरेखाएं बन गयीं
कीलें दीवार पर ठुंके
प्रशस्ति पत्रों की।

Thursday, April 16, 2015

तो तुम्हें कौन प्यार करेगा

अच्छा तो तुम्हें कौन प्यार करेगा
सभी कविताएं अगर हो जाएं स्वकीया
प्रेम बन जाए जेलखाना 
कह लो घर जी आए तो 
आटा गूंथती देह पर चुहचुहा आई बूंदों पर 
लुटाने के लिए 
बहुत प्यार है दुनिया के कैदखानों में 
पर कहो 
मेलोड्रामा पर तमतमा आए तन पर
सिकुड़ गई ऑंखों पर भी तो आना चाहिए न प्रेम। 
अपने नहीं कर सकते सच्चा प्रेम 
स्वकीया प्रेम पर तालाबंदी चाहिए।

Saturday, April 04, 2015

पैदा भी होती , फिर बनाई जाती है स्‍त्री

एक फेसबुक मित्र ने सवाल उठाया कि उनकी नन्‍हीं साढ़े तीन साल की बच्‍ची घड़ी घड़ी मेकअप या श्रृंगार में रूचि लेती दिखती है तथा इसकी साफ व्‍याख्‍या समझ नही आ रही। वे खुद बहुत श्रृंगार पसंद नहीं इसलिए बच्‍ची अनुकरण में ऐसा कर रही हो इसकी संभावनाएं कम ही हैं, इसी तरह ''औरतें मर्दों को अच्‍छा दिखने के लिए सजती हैं'' का सामाजिक प्रलाप इतनी नन्‍हीं बच्‍ची पर लागू करने से वे झिझक रहीं थीं क्‍योंकि इतनी छोटी बच्‍ची में भला यौन चेतना कैसे स्‍वीकार की जाए। हम स्‍त्री सवाल पर संवेदना रखने वाले स्‍त्री निर्मिति को समाजीकरण से आकार लिया हुआ ही मानते रहे हैं किंतु खुद हमारे घरों के नन्‍हें पुरुष व नन्‍हीं स्त्रियॉं तमाम सचेत प्रयासों के बावजूद गुडि़यॉं, मेकअप पसंद करती दिखती हैं (या बालक बंदूक या हिंसक हथियारों के प्रति आकर्षित होते दिखते हैं)। क्‍या मसला कुछ कुछ प्राकृतिक भी है ?
इस संबंध में मुझे जोए क्विर्क की पुस्‍तक  ''इट्स नॉट यू इट्स बायोलॉजी'' बहुत काम की लगती है। पुस्‍तक उद्विकास की द्ष्टि से मनुष्‍य के व्‍यवहार की पड़ताल करती है तथा यौनिकता व उद्विकास पर एक नई अंतर्दृष्टि देती है।
सच यह हैं कि हाँ नन्ही बच्चियां भी प्रतिलिंगी को आकर्षित करने के लिए ही ऐसा करती हैं... ये चेतन मन का व्यवहार नहीं है ये उसकी उद्विकास की नियति है। लंबी उद्विकास प्रक्रिया जेनेटिक स्तर पर ऐसी निर्मिति बनाती है अतः यह परिवेश की भूमिका का नकार नहीं है।


साढ़े तीन साल ही नहीं गर्भस्थ शिशु या जन्म के एकदम बाद के शिशु के व्यवहार के भी यौनिक पक्ष हैं, हाँ स्वाभाविक है यह सोशियो बायोलॉजी का वह अंश ही है जिसे  जेनेटिक कहा जाता है  किन्तु genes स्वयं में केवल सूचना रसायनों की श्रंखला भर हैं जो प्रत्येक प्रजाति ने उद्विकास क्रम में तय कर ली हैं तथा प्रत्येक परिवेशगत घटना चाहे वह प्रदूषण हो जुकाम या बलात्कार... ये इन सूचना श्रृंखलाओं में बदलाव ले आती है। 
सामान्य स्त्री व्यवहार पुरुष जीन के धारण के लिए सर्वोपयुक्त पात्र होने का विज्ञापन तथा सामान्य पुरुष व्यवहार उपयुक्त जीन वाहक तथा जन्मोपरांत बेहतर पालक होने का विज्ञापन होता है। 
समाजीकरण की भूमिका इस स्वस्थ गर्भधारक/ अच्छी जीन/अच्छे पालक के अर्थ निर्धारण में है। 
ऐसा कोई जीव वैज्ञानिक नियम नहीं है की जीन पालक से ही ली जाएगी... अलग अलग भी ली जा सकती है। 
नन्ही बच्ची के व्यवहार का यौनिक पक्ष ये है की वह मैं बेहतर पात्र हूँ का विज्ञापन कर रही है... परिवेश व समाजीकरण से वह बाद में यह सीख सकती है की सर्वश्रेष्ठ जीन व पालक प्राप्त करने के इस विज्ञापन की भूमिका वह कम मानने लगेगी तथा अन्य व्यवहारों (मसलन मोर की पूंछ के समकक्ष मनुष्य व्यवहार) पर ज्यादा निर्भर करेगी।