(एक)
नहीं मेरा निशाना तुम नहीं थीं
न तुम्हारा घर-तिलिस्म ही ढहाने निकली थी
माने वही सब जिसे तुम घर कहती हो तुम्हारा
वो नहीं था निशाना मेरा
कोलेट्रल डैमेज है बस
मेरे दुश्मन की खंदक के बहुत पास होना था कसूर उसका
बस
और कुछ नहीं।
कसूर तुम्हारा मुझे पता नहीं
जैसे नहीं पता मुझे कि
दूर अंजान देश तुवालू के अखबार में
क्या छपा होगा आज।
न मैं तुम्हारे घर से प्यार में नहीं हूॅ
कि उसे बना लेना चाहूँ अपना
न, मैं तुम्हारे नहीं अपने घर से नफरत में हूॅं
प्रेम नहीं ये घृणा का आख्यान है।
घर से भागती हर औरत
रास्ते में कई घरों से टकराती है
घरौंदों को कुचलती है
पर वो सिर्फ अपने घर से भाग रही होती है।
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