Tuesday, March 25, 2008

जब हम आप गूगल के भृत्‍तक योद्धा बन ही गए हैं तो लें गूगल एनालिटिक्‍स का भी लाभ उठाएं

डिस्‍कलेमर: ये पोस्‍ट पूरी तरह प्रयोक्‍ता अनुभव पर आधारित है अत: हम पर तकनीकी होने का आरोप न लगाया जाए। हम मगलू ही हैं।

स्‍टेटकाउंटर का लंबा साथ हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के साथ रहा है। बाद में कुछ और औजार भी आए लेकिन हिन्‍दी के ब्‍लॉगरों के इन साइटमीटरों से सरोकार बहुत सीमित थे कुल मिलाकर बस इतना जानना चाहते थे कि भला  कितने लोग हमारे द्वारे आए। ये हमें यूनीक विजीटर व पेजलोड के आंकड़ों से पता लग जाता था। और वो भी कितना होता था 50-75 विजीटर और 150 के आस पास पेजलोड, इतना हमें मुदित करने के लिए काफी था। किसी ब्‍लॉग को 300 पेजलोड मिल जाएं तो उसे इतना नशा होने लगता था कि पांव लड़खडा जाते थे। इस गिलहरी प्‍यास का काम स्‍टेटकाउंटर से बखूबी चल जाता था जो 500 के आंकड़े तक मुफ्त में प्रदान करता है। किंतु साफ है कि अब सिर्फ इतनी  सूचनाओं से काम नहीं चलने का। नए युग में सूचना ही शक्ति है इसलिए आप अपने ब्‍लॉग के आंकड़ों को अधिक से अधिक जानना चाहते हैं। आप नहीं चाहते कि 500वें पेजलोड के बाद पिछले आंकड़े गायब हो जाएं। और जाहिर है बाकी इंटरनेटी चीजों की ही तरह आप सच्‍चे भारतीय की तरह ये सूचनाएं मुफ्त चाहते हैं।ScreenHunter_01 Mar. 25 17.06

 

 

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ऐसी कामना रखने वालों को रूख करना चाहिए गूगल देवता की तरफ। आपमें से अधिकतर तकनीकी रूप से मुझसे प्रबुद्ध हैं और शायद पहले से ही गूगल एनालिटिक्‍स से परिचित होंगे व इसके प्रयोक्‍ता भी होंगे। मैंने इसका प्रयोग महीने भर पहScreenHunter_02 Mar. 25 17.07ले से शुरू किया है और वाकई क्‍या औजार है। इस औजार से मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं में हैं

दस लाख तक के ट्रेफिक का लेखा।

कीवर्ड आदि की पूरी सूचना

ट्रेफिक के स्रोत की पूरी जानकारी

चाहे जितनी साईट जोडें

आप अपने गूगल एकांउट से लॉगइन कर सकते हैं।

पूरे ग्राफिक्‍स से अपने आंकडें आसान तरीके से समझें और आगे के लिए रणनीति बनाएं।

मुझे गूगल एनालिटिक्‍स बहुत काम की चीज लगी तो आपसे साझा किया। किंतु पुन: एक डिस्‍क्‍लेमर हमें इस्‍तेमाल में अचछा लगा का मतलब ये नहीं है कि हम नहीं जानते कि 'डू नो इविल' बस दिखावा है। इस तरह के आंकडे गूगल के पास सहेजने से ये हमें ही नहीं गूगल को भी उपलब्‍ध हो जाते हैं और इससे उनका ही ज्‍यादा फायदा होता है पर वह पूरी गूगल अर्थव्‍यवस्‍था का ही क्रिटीक है। हम जानते समझते हैं कि हम इस गूगल अर्थव्‍यवस्‍था में गूगल के भृत्‍तक योद्धा भर हैं। उस पीड़ा से इतर ये औजार बहुत काम का है। दिखाए गए स्‍क्रीनशॉट केवल बानगी के लिए हैं इन्‍हें इस चिट्ठे के आंकडे मानकर शर्मिंदा न करें :)

Monday, March 17, 2008

ये रईसजादे वापस तो न आएंगे, न !!

आजकल हिंदी में ब्‍लॉगिंग के विषय में अपने शिथिल पड़े ब्‍लॉग "Hindi Blog Reporter" पर भी समय दे रहा हूँ। आपको शायद पता ही हो कि हम मास्‍टर बिरादरी के लोगों के पास मार्च अप्रैल में खूब समय आ जाता है और जुलाई वुलाई तक इसका आमद बनी रहती है (मानो बाकी समय में हम कोई पहाड़ खोद रहे होते हैं)। तो ब्‍लॉग रिपोर्टर में लिखने के उपक्रम में पढ़ना भी हो रहा है। बहुत कुछ पढ़ रहे हैं तथा इसी से अंदाजा भी लग रहा है कि कितने सारे बिष्‍ाय हैं जिन पर हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग में लिखा नही जा रहा है। तिब्‍बत पर कोई दमदार पोस्ट नहीं दिखी, वार्डरोब मालफंक्‍शनिंग होकर बीत गई पर किसी ने खास तवज्‍जोह न दी। अभी तक हिन्‍दी में होली के संदेश, एसएमएस आदि वाली पोस्‍टें भी नहीं दिखीं (ये सब हिन्‍दी के वो शब्‍द थे जो गूगल के हॉट सर्च थे) इसी क्रम में इस खबर पर भी नजर गई।

खबर ये है कि भारत से जो रईसजादे विदेश में उच्‍च शिक्षा के लिए जाते हैं वे हर साल लगभग 13 अरब डालर (सीधे गणित से 52000 करोड़ रुपए) बाहर ले जाते हैं। मेरा विश्‍वविद्यालय देश के ठीक ठाक विश्‍वविद्यालयों में है और सौ करोड़ से कम खर्च करता है। यहॉं ये रईसजादे जिनकी संख्‍या केवल 450000 है, इतना पैसा खर्च करते हैं जबकि दूसरी ओर हम मिड डे मील में 4 रुपए प्रति छात्र का प्रावधान करने में हांफ रहे हैं।

अब जिसके पास पैसा है वो जाकर खर्च कर रहा है हमें मिर्च क्‍यों लग रही हैं। अब सावधान मुद्रा में दम साधे जन गण मन छाप देशभक्ति से भी परे पहुँच गए हैं लेकिन फिर भी सच्‍चाई इतनी तो है ही कि अगर इतना खर्च कर गए ये लोग वापस आना चाहेंगे तो इनकी कीमत चुकाना देश की वयवस्था के लिए मुश्किल होगा। दूसरी परेशानी ये है कि इन संख्‍याओं को दिखाकार  और आई आईटी/आई आई एम की मांग की जाती है ताकि इतना ही पैसा खर्च करके देश में लोग तैयार हों जो इनके ही साथ मोटे पैकेजों पर विदेश के लिए काम करें। हम तो तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि ये देश में देश तैयार होने को लेकर खुश हों कि दु:खी।

Saturday, March 15, 2008

चलो कहीं तो पत्रकार की कीमत संपादक से ज्‍यादा है

हम इधर कुछ ज्यादा ही टाईम ब्‍लॉगिंग पर खोटी कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि कुछ ज्‍यादा लिख रहे हैं पर फिर भी बहुत सा समय पढ़ने में लगा रहे हैं। जितना हो सके समझने की कोशिश कर रहे हैं। अनाप शनाप सैद्धांतिकियॉं भी सामने आ रही हैं। जितना हो पा रहा उतना  समझ रहे हैं बाकी को बाद के लिए टाल दे रहे हैं। काफी ताकत इस बात को समझने में लगा रहे हैं कि यह ट्रेफिक क्‍या बला है, कहॉं से आता है, क्‍यों आता है और क्‍याकर लाता है साथ में। सवाल हमने लगभग साल भर पहले पूछा था, अब भी वैध सवाल है। इस सवाल पर कई मित्रों ने उत्‍तर में पोस्‍ट लिखीं थीं

सवाल ये कि पेशेवर चिट्ठाकारी से कितना दूर है हिन्‍दी ब्लॉगिंग- उत्‍तर है 'काफी दूर'। सही बात ये है कि हिन्‍दी में लिखने से कहीं ज्‍यादा फायदे का सौदा है हिन्‍दी के बारे में अंग्रेजी में लिखना। भले ही वह टूटी फूटी घटिया अंग्रेजी हो- हम जैसी- हिन्‍दी के झोलाटाईप मास्‍टर की अंग्रेजी। बावजूद इसके कि कई लोगों ने अपने अपने ब्‍लागों पर एडसेंस चेप रखे हैं पर मुझे नहीं लगता कि हममें से कोई नियमित कमाता है। और यकीन मानिए इसका कारण ठीक वही नहीं है जो आपको लगता है, यानि ट्रेफिक की कमी। यह सही है कि ट्रेफिक कम  होने से फर्क पड़ता है पर ये भी सही है कि यदि आप अपने ट्रेफिक का विश्‍लेषण करें तो कई नई चीजें आपको पता लगेंगी। मैं कई की चर्चा करना चाहता हूँ पहली आज केवल एक बात और वो ये कि इस दुनिया में रिपोर्टर संपादक से बड़ा होता है- मतलब कमाई के बारे में। हिन्‍दी में लिखने पर विज्ञापन तो कम हैं ही, पर विज्ञापनों के क्लिक होने पर मिलने वाला पैसा भी बहुत कम है- देखो न

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इसके विपरीत अंगेजी में लिखते समय आप गूगल एडवर्ड के ट्रेफिक एस्‍टीमेटर से अनुमान लगाकर अपने लेखन को बेहतर कमाई के लिए व्‍यवस्थित कर सकते हैं।  अगर आप अंग्रेजी में देखें तो

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यहॉं एक एक क्लिक डालर भर का है। इससे ज्‍यादा के भी हैं पर केवल बानगी के लिए ये रखें हैं। पत्रकार मित्रों को खुश करने के लिए भी कि देखो कोई तो जगह है जहॉं पत्रकार की 'कीमत' संपादक से ज्यादा है :)) [वैसे गूगल अर्थव्‍यवस्‍था में हैं सब बिकाऊ ही :)) आप नाराज न हों इसलिये अध्‍यापक भी जोड़ दिए हैं सूची में]

तो भैया हिन्‍दी के चिट्ठाकारों के हीथ रीते इसलिए हैं कि एक तो पाठक गजब कंजूस हैं जो अंगुली हिलाकर चटका लगाने से भी परहेज करते हैं ऊपर से कोई क्लिक हो भी जाए तो जिन कीवर्ड पर हिन्‍दी में लिखा जा रहा है उनका बाजारभाव ही कौडि़यों से भी कम है। हमने तो सोचा है कि अभी इंतजार ही करें।

Thursday, March 13, 2008

पाशविक कबीलाई नंगई के खिलाफ मेरे क्रोध को दर्ज मानें

ऐसा कुछ भी तो खास नहीं हुआ, ढंग की पूरी खबर भर के भी लायक नहीं। हमारे कुछ विद्यार्थी भोपाल के कुछ संस्‍थानों से शिक्षा के नवाचारी प्रयोगों का अध्‍ययन कर लौट रहे थे। हरियाणा में पलवल के निकट उनके आरक्षित कोच में घुसकर कुछ स्‍थानीय वीरों ने समूह की छात्राओं के साथ बदतमीजी की स्वाभाविक सी कोशिश की। सत्‍तर छात्र व सात अध्‍यापकों व कर्मचारियों  को इसका कीमत चुकानी पड़ी। ट्रेन के इस डब्‍बे का बाकी ट्रेन से काट दिया गया, छात्रों को मारा पीटा गया, छात्राओं के साथ बदतमीजी के प्रयास हुए। फिर कोच में केरोसीन आदि फेंककर आग लगाले की कोशिश। सात विद्यार्थी घायल हुए एक छात्र दिवाकर अभी तक एम्‍स में है जिसकी ऑंखों को शायद बचाया नहीं जा सकेगा।

मेरे पास भी खूब बौद्धिक विश्‍लेषण के औजार हैं।  भीड़तंत्र के बलवrageती होते जाने पर बात कर सकता हूँ। यह भी याद दिला सकता हूँ कि अब मुंबई वाली ही हरकतें यानि पाशविकता का सामुदायिक व्‍यवहार बन जाना, आम हो गया है..वगैरह वगैरह। चोखेरबाली दृष्टि से देखकर भी व्‍याख्‍या की जा सकती है। पर नहीं मैं केवल क्षुब्‍ध हूँ, आक्रोश में हूँ- रोने या चीखने भर से ही अपने भाव व्‍यक्‍त करना चाहता हूँ। सीआईई (केंद्रीय शिक्षा संस्‍थान), दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय जहॉं के छात्र व अध्‍यापकों के साथ ये हादसा हुआ, मेरा अपना संस्‍थान ही है और इस समय मेरी प्रतिक्रिया परिवार में किसी के साथ हुए हादसे पर प्रतिक्रिया जैसी ही है, एकदम असंतुलित- ये सत्‍तर बच्‍चे अपने साथ कुछ हथियार लेकर क्‍यों नहीं गए। जब उनके साथ ये हो रहा तो पुलिस ने मौजूद होते हुए भी गोली क्‍यों नहीं चलाई वगैरह।

हॉं ये बचकाना क्रोध है, पर जब सब प्रेम, मखौल, स्‍नेह, याद सबको ब्‍लॉगित करते हैं तो मैं अगर आक्रोश, क्रोध में हूँ तो उसे कहने कहीं और क्‍यों जाउं। यहीं दर्ज करूंगा।

Monday, March 03, 2008

'नोबोडी' इज़ नेवर मर्डर्ड...ओन्‍ली 'समबोडी' इज़ मर्डर्ड

जासूसी उपन्‍यास हर किसी की तरह हमने भी पढ़े हैं पर दिल्‍ली की कच्‍ची बस्‍ितयों में, जहॉं हमने उम्र का वह हिस्‍सा बिताया हे जिसमें लोग जासूसी उपन्‍यासों की बारीकियों को पढ़ते समझते हैं, वहॉं केवल हिन्‍दी के सस्‍ते किस्म के उपन्‍यास ही मिला करते थे। वेदप्रकाश शर्मा या राजन इकबाल सीरीज वगैरह...यानि हमारा ज्ञान इस मामले में उथला है। प्रमोदजी के मारके का तो नहीं ही है। इसलिए कुछ दिन पहले जब उदयप्रकाश ने एक जासूसी उपन्‍यास के हवाले से मर्डर मिस्‍‍ट्री का सिद्धांत समझाते हुए कहा कि कत्ल के केस में सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि शिकार  कौन था, उससे भी जयादा यह कि उसमें खास क्‍या था। क्‍योंकि यदि उसका कत्‍ल हुआ हे तो उसका खास होना जरूरी है...ही गॉट टू बी समबोडी...ही कैननोट बी नोबोडी...ओन्‍ली समबोडी इज़ मर्डर्ड...नोबोडी इज़ नेवर मर्डर्ड।

एक मायने में मैंने राहत महसूस की। मेरे कत्‍ल होने की गुंजाइश कम है। शहर में नोबोडी होना बहुत आसान है यहॉं सभी नोबोडी होते हैं। मैं बार बार महानगर की जिस सुखद ऐनोनिमिटी का जिक्र करता हूँ वह इससे ही उपजती है। जैसे ही कोई समबोडी होने की राह पर चलता है बाकी सारे समबोडी (और नोबोडी) इस समबोडी से दिक्‍कत में आते हैं और आगे की घटनाएं होती हैं।

अभी छोटे शहर जैसे हैं हम। बहुत जल्‍द ही अपने समबोडी होने का भ्रम पाल लेते हैं और नोबोडी तो हमें कष्‍ट नहीं देते पर हम समबोडी से परेशान हो जाते हैं। है कि नहीं ?

ये सब पुराण क्‍यों? बस ऐसे ही।

बस ऐसे ही यह भी कि हाल की जगह घेरने की कवायद में (जिन्‍हें लगा हो कि मोहल्‍ला भड़ास बस यूँ ही भिड़ गए, उनके भोलेपन से मैं केवल ईर्ष्‍या ही कर सकता हूँ) मुझे जिस बात से पुरजोर हैरानी हुई वह यह भी थी कि चोखेरबालियों को पैटर्नाइज करने(की कोशिश) के लिए उत्‍सुक इतने लोग कहॉं से आ गए (ये तो भारत में स्‍त्री संवेदनशील कुल जनसं. का एक सौ पांच प्रतिशत था)। खैर ये पतनशीलाएं खूब चेतस हैं...वे भी इसे देख ही चुकी होंगी। दे नाउ डिजर्व टू वी मर्डर्ड। इट्स नॉट इजी टू बी समबोडी एंड सर्वाइव।

Sunday, March 02, 2008

लीजिए एक और संत, इस बार औरत

धर्म के मामले में कुछ भी कहना अपनी ही अंगुलियॉं जलाना है पर हम ऐसा बार बार करते हैं, करते ही रहते हैं। आज ही एक समाचार देखा- सिस्‍टर अलफोंसा (साफ बता दें कि हम इन्‍हें नहीं जानते थे, खबर पढ़कर ही पता चला कि इनकी मृत्‍यु 1947 के आस पास हुई) को वेटीकन ने संत पदवी से नवाजने का निर्णय लिया है। हमें क्‍यों दिक्‍कत होनी चाहिए उनका चर्च उनकी संत। तिसपर ये घोर सांप्रदायिक सवाल भी उठाया जा सकता है कि भई पार्वत्‍याचार्य प्रकरण में तो कुछ नहीं बोले। देखा जाए तो सही बात हे कि लाख नौटंकी शामिल हो पर धर्म भी है तो ए‍क सत्‍ता संरचना अब अगर उसमें स्त्रियों को भागीदारी मिलती है तो एक तरह से सत्‍ता में बदलाव तो आएगा ही इसलिए पार्वत्‍याचार्य हों या मदर टेरेसा और अब अलफोंसा जितनी स्त्रियॉं (जीवित और दिवंगत) धर्म नाम के गोरखधंधे में आएं अच्‍छा ही है। alphonsa क्‍यों मोटी मोटी तोंद वाले महंत ही धर्म की दुकानों की मलाई खाते रहें इसमें औरतों को भी हिस्सा मिलना चाहिए। वैसे भी चर्च के लिए भी जरूरी हे कि वह ज्‍यादा से ज्‍यादा औरतों को अपने मिथकों व अन्‍य ढॉंचों में जगह दें ताकि चर्च जैसी संस्‍थाओं की वैधता बनी रहे।

दूसरी ओर जब संतत्‍व की घोषणा की पूरी नौटंकी पर विचार करते हैं तो दिक्‍कत होती है। अरे जब सबको पता ही है कि संत घोषणा चर्च का एक राजनैतिक फैसला है तो उसे वैसे ही व्‍यक्त किया जाना चाहिए। वेटीकन में सफेद चोगा पहनकर पोप खड़े हों और घोषणा करें कि भारत में एक संत की जरूरत महसूस हुई जो स्‍त्री हो तो हमने फलां-ढिंका को संत घोषित करने का निर्णय लिया है। आपकी दुकान है कोई क्‍योंकर एतराज करेगा चाहे जिसे अपना 'ब्रांड' घोषित करो। अगर ज्‍यादा धार्मिक दिखना है तो कह दें कि भारत के इसाइयों की भावनाओं का सम्‍मान करते हुए अमुक को   अमुक पदवी दे रहे हैं। पर जब आप 2008 में अमुक चमत्कार हुआ (इस मामले में एक विक्लांग मकबरे पर पूजा के बाद कूदने फांदने लगा) जैसे तर्क देकर दुनिया को मूर्ख बनाने का उपक्रम करते हैं तो लगता है कि कम से कम दर्ज तो कर ही दें कि हुजुर हमें आपकी नौटंकी में दो धेले का यकीन नहीं है। ये अलग बात है कि जब सारे ही धर्म नौटंकियों में लीन हैं तो आप क्‍योंकर पीछे रहेंगे। तो संतन अलफोंसा, संतन पार्वत्‍याचार्य, संतन उमा भारती, संतन मायावती.... की जै जै जै।

Saturday, March 01, 2008

ब्‍लॉगवीर ओवरटाइम कर रहे हैं

इस मामले में (अरे भई वही भड़ास का मामला) हमें भी कहना तो बहुत कुछ था। साथ हैं मनीषा के, पर बैन नहीं चाहते। उधर विनीत उत्‍पल ने भी बता दिया है कि इरफान, यशवंत व अविनाश एक (अच्‍छे दोस्‍त) हैं (मतलब सबकुछ अविनाश ही  हैं, वैसे ये बात चैट की गटरगंगाओं में पहले भी बह रही थी) यानि नूरा कुश्‍ती है।

बताते चलूं मोहल्ला हो, टूटी- बिखरी हो या भड़ास सभी को मोडरेट करने वाले एक अच्छे दोस्त हैं, बेवकूफ बन रही है तो मनीषा और पूरी ब्लागर दुनिया।

पर इस सब पर लिखने की इच्‍छा नहीं हो रही। इसलिए केवल नीचे की तस्वीर देखें ये हमारे पूरे डिस्‍प्‍ले की ही तस्‍वीर है देखिए ब्‍लॉगवीर कितना ओवरटाईम कर रहे हैं, ऐसे में किसी और के लिए जगह ही कहॉं बची रह जाती है। पूरी स्‍क्रीन पर तो आप ही छा गए हैं-

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