Tuesday, November 20, 2007

मुशर्रफ के खिलाफ प्रतिरोध के मौ‍लिक स्‍वर: लै के पेंशन जाऊंदा क्‍यूँ नईं - वीडियो में

यू ट्यूब पाकिस्तान में (या विदेश में बसे पाकिस्‍तानियों का) प्रतिरोध व्‍यक्‍त करने का नायाब जरिया बनकर उभरा है। उदाहरण के लिए मुझे शिवम के ब्‍लॉग पर पंजाबी कविता का यह मजेदार वीडियो  देखने का मिला। आप भी देखें मजे लें (कश्‍मीर वगैरह पर एकाध लाईन से कुछ गुस्‍सा आए तो बेचारे पड़ोसी देश पर तरस खाते हुए नजरअंदाज कर दें :))

 

 

 

Friday, November 16, 2007

तारीख़ के गलियारों की सैर

दिल्‍ली की उत्‍तरी रिज़ या तो अपनी कॅटीली झाडि़यों, सघन वनस्‍पति (अत: प्रेमी युगलों की शरणस्थली) के लिए जाना जाता है तथा किसी भी महानगर की तरह हम अपने शहर के खंडहरों को भुला बैठते हैं। इस सप्‍ताह हमें एक मोका मिला इसी रिज के रास्‍ते छानने का, ताकि उसमें छिपी उन इमारतों तक जा सकें जिनका संबंध महत्‍वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं विशेषकर 1857 के विद्रोह से रहा है। दरअसल 1857 के 150 साला समारोह के ही अंतग्रत विश्‍वविद्यालय ने अपने विद्यार्थियों के लिए कुछ कार्यक्रमों का आयोजन किया है जिनमें से एक है- तारीख़ के गलियारों की सैर: उत्‍तरी रिज़ के स्‍मारक और 1857

taareqh

कार्यक्रम की शुरुआत सुबह नौ बजे से हुई, पहले अल्‍काजी न्‍यास की 1857 के चित्रों की अति दुर्लभ प्रदर्शनी से हुई, जो एक पूरी पोस्‍ट की मॉंग करती है, उसे अभी  छोड़ा जा रहा है । इसी प्रकार वाइस रीगल लॉज के बॉलरूम व संग्रहालय भी जाना हुआ पर वह तो कई पोस्‍टों की मॉंग में प्रतीक्षा करेगा।

इस रिज व हिंदूराव क्षेत्र में कम स कम 5-6 अहम स्‍मारक हैं। 1857 में जब मेरठ से विद्रोही दिल्‍ली पहुँचे और दिल्‍ली शहर पर कब्‍जा हुआ तो वे शहर, किले आदि में काबिज हुए। उनका संपर्क शेष विद्रोहियों से बरास्‍ता दिल्‍ली गेट रहा। पर कश्‍मीरी गेट वाले इलाके से भागकर अंग्रेज दिल्‍ली रिज के इलाके में जा छिपे तथा वहीं से उनकी लड़ाई विद्रोहियो से जारी रही- सबसे पहले वे उस जगह पहुँचे जो आजकल बाउंटा के नाम से जानी जाती है यानि फ्लैग स्‍टफ टॉवर

 flagstaff tower

लगभग 200 अंग्रेज इस बेहद छोटी सी इमारत में आकर जम गए और तोपों से हमला करने और बचाव में जुटे

 chauburja

दूसरी ओर बिद्रोही इस चौबुर्जा मस्‍िजद में जमे थे और लड़ रहे थे। बाद में अंग्रेजों को अंबाला व करनाल से मदद मिलनी भी शुरू हुई

hindurao 1857

पर दिल्‍ली पर फिर से कब्‍जा करने के उपक्रम में अंग्रेजों का असली जमावड़ा  इस इमारत यानि कोठी हिदूराव (आज का हिंदूराव अस्‍पताल) रहा।

 peer gayab

पीर गायब है तो तुगलक कालीन इमारत पर लड़ाई में इसकी आड़ में होकर भयंकर लड़ाई लड़ी गई।

 mutiny memorial

और जब विद्रोह को पूरी तरह कुचल दिया गया तो अंगेजों ने अपनी जीत के स्‍मारक के रूप में बनवाया म्‍यूटिनी मेमोरियल जिसके शिलालेख 'शत्रु' तो छोडि़ए अपनी ओर से सेना में लड़े व मरे भारतीय सैनिकों तक को उपेक्षा से नेटिव की कैटेगरी में डालते हैं तथा कोई नामोल्‍लेख नहीं करते।

विशेष आभार - डा. संजय शर्मा जो इस कार्यक्रम के समन्‍वयक हैं

Wednesday, November 14, 2007

चिट्ठा आत्‍महत्‍या : कुछ स्‍फुट विचार

नीलिमा अरोरा ने एक पोस्‍ट ना अभी ब्लॉग डिलीट नहीं करूंगी में लिखा -

पिछले दो दिन तो ऐसे बीते कि एकबारगी तो ब्लाग ही डिलीट करने वाली थी, पर जब तक जिन्दगी सामान्य ना हो जाए आपको कोई कदम नहीं उठाना चाहिए सो मैंने भी डिलीट नहीं किया। आखिरकार ये आपके अपने होने जैसा है 

हिन्‍दी ब्लगजगत में अपने चिट्ठे को डिलीट कर देने का विचार कोई बिल्‍कुल नया हो ऐसा नहीं है। यदा कदा लोग ऐसा विचार व्‍यकत करते रहे हैं। मसलन धुरविरोधी तो ऐसा कर ही गुजरे। कुछ अन्‍य के मन में भी हो सकता है ऐसा विचार आया हो। ब्‍लॉग हमने भी डिलीट किया था पर बस तकनीकी लोचा था, लगा कि हटो मिटाते हैं, नया बना लेंगे, इसके कोई अन्‍य निहितार्थ तब पता न थे। लेकिन खुद की नेट शख्सियत को मिटा देना, ब्‍लॉगजगत से खुदकशी कर खत्‍म हो जाना एकदम अलग विचार है।

एक परिचित ब्‍लॉगर हैं- रिवर। उनका ब्‍लॉग हमारे पसंदीदा ब्‍लॉगों में से रहा है  वे मई से अक्‍तूबर तक 194 दिन तक नदारद रही ब्‍लॉगजगत से। 194 दिन.. ध्‍यान रहे कि यह ब्‍लॉग गूगल पेजरैंक 5 का ब्लॉग था, कुल टेक्‍नोराटी उस समय 20000 के आस पास था। यथार्थ जगत में कोई घनिष्‍टता नहीं है, पर मिलीं, तो पूछा कि क्‍या विचार है, कहॉं गायब हैं तो गोलमोल सा टालू जबाव मिला, हम टल गए। अब अपनी इस पुनरागमन पोस्‍ट में उन्‍होंने मंशा जाहिर की कि वे 'ब्‍लॉग स्‍यूसाईड' करने पर विचार कर रही थीं।

मौत पर जो आधे शटर वाला चिंतन पिछले दिनों आलोकजी कर रहे थे उसी क्रम में मेरा भी मन बहक रहा है कि भला कोई चिट्ठा क्‍यों आत्‍महत्‍या करता होगा ? गूगल खोजा तो कुछ खास नहीं मिला, एक कारण तो ये दिखा कि कभी कभी चिट्ठे के हिट, लिंक, टिप्‍पणियों से खुद उसके चिट्ठाकार का ही  अहम हिलने लगता है - अरे ये मेरा ही तो बच्‍चा है और इसका कद खुद मुझसे बढ़ गया है (शायद भड़ास के साथ हुआ था  ऐसा, पर यशवंत मानेंगे थोड़े ही) एक ब्‍लॉग पर विचार मिला कि ब्‍लॉग स्‍युसाईड इसलिए भी की जाती है कि ब्‍लॉग खुद उस जिंदगी के दुश्‍मन हो जाते हैं जो उस चिट्ठे को चलाती है। पर सच कहूँ तो मैं बहुत आश्‍वस्‍त नहीं हूँ कि चिट्ठे को सुबह शाम तक खटना नहीं होता, रोज रोज एक ही किस्‍म की जिंदगी की ऊब से दो चार नहीं होना होता, चिट्ठों के देश में बलात्‍कार कर किसी चिटृठे को सड़क पर छोड़ नहीं दिया जाता।  चिट्ठों अपने मिट जाने के बाद किसी पुनर्जन्‍म, स्‍वर्ग की उम्‍मीद नहीं होती तो फिर वे भला क्‍यों आत्‍महत्‍या करते है?

Monday, November 05, 2007

ब्‍लॉगविरोधी/ब्‍लॉगफोबिक कुछ भले तर्क: एक टैग हम-आप पर

 

पहले हसन जमाल ने ये तर्क या इन तर्कों के भाई बहन प्रस्‍तुत किए थे, ज्ञानोदय में, मसला कुछ कड़वा चला गया था। इधर जब आप किसी लोकतांत्रिक स्‍पेस में रहते हैं तो मुद्दे घूम फिरकर वापस आते रहते हैं। आज यही हुआ हमारे दो विद्वान मित्र दो मग कॉफी और यही कुछ आधा दर्जन तर्कों के साथ हमें हिन्‍दी बलॉग जगत का प्रतिनिधि मानकर (न न हमें ऐसी कोई गलत फहमी नहीं है पर वे भी क्‍या करें शायद हमारे मुँह से इस मीडिया रूप के बारे में कुछ ज्‍यादा सुनते हैं) आ बहसियाए। एक भले वातावरण में हुई ठीक ठाक बहस, पर तर्कों में कोई रियायत नहीं न उधर से इधर से। उनके तर्क हमारे जिस जुमले से भड़के  वह यह था कि हमने उनके ब्‍लॉग मीडिया को खारिज किए जाने के उपक्रम को ब्‍ला‍गोफोबिया करार दिया और उन्‍होंने फिर तो तर्क दिए ही, हमने भी जबाव दिए पर हमारे जबाव क्‍या रहे होंगे आप अनुमान लगा सकते हैं। मित्रों के तर्क हमारी भाषा में ये थे-

  1. वही हसन जमाली राग कि ब्‍लॉग हिन्दी की दुनिया की नहीं खाए पीए अघाए लोगों का शगल है। तकनीक स्‍वयं वर्गीय मार्कर है, कंप्‍यूटर की कीमत, जटिलता का मतलब ही है कि ये हिन्‍दी जमात की चीज नहीं है (गनीमत है एक मित्र की राय को दूसरे मित्र ने ही नहीं स्‍वीकारा वैसे ये उनका सबसे मजबूत तर्क था भी नहीं)
  2. ब्‍लॉग भले ही संपादन, प्रकाशन की सीमाओं का अतिक्रमण करता है इसलिए अनसुनी आवाजों को स्‍पेस देता है पर ये मुख्‍यधारा मीडिया की तुलना में जनमत निर्माण की कोई क्षमता नहीं रखता (केवल कम संख्‍या की वजह से नहीं वरन इसलिए कि इसकी प्रकृति में ये निहित है कि समूह को इससे संबोधित नहीं किया जा सकता)
  3. हिन्‍दी के मुख्‍यधाराई संघर्षों से पलायन कर रहे, या हिन्‍दी के मुख्‍यधाराई स्पेस से खदेड़े गए लोगों की शरणस्‍थली बन चुका है ब्‍लॉगोस्‍पेस। (उनका कहना था कि घरेलू महिलाएं, मैकेनिक, तकनीकी लोग आदि आदि ब्‍लॉग में आए ये तो ठीक- बेआवाजों को आवाज मिली पर ठेठ हिन्‍दी वाले जिनके पास बसने पसरने का स्‍पेस था वे क्‍यों भागकर, ब्‍लॉग के गैर पेशेवरों के ऑंचल में छिपते हैं)
  4. ब्‍लॉग वैयक्तिक दिक्‍कतों की चोट को निकाल बाहर करने का सेफ्टी वाल्‍व भर है ताकि सब जुटकर कोई बड़ी सामुदायिक पहल न बन सके।
  5. संपादन व अन्‍य क्‍वालिटी चैक न होना ब्‍लॉग की सामग्री को कम विश्‍वसनीय बनाते हैं- ये लेखक की एकाउंटेबिलिटी का अंत है। (मैं जो मानता हूँ लिखूंगा, उसके प्रति खुद भी जबाबदेह नहीं)
  6. लेखकीय तेवर में ब्‍लॉग अक्‍खड़ व गरूर भरा लेखन है तिसपर ये भी कि इस गरूर व अक्‍खड़ता का कोई ऐसा गुणात्‍मक आधार भी नहीं कि इसे सहा जाए ( एक तो कोई तोप विचार या लेखन नहीं उस पर अकड़ ऐसी कि महान क्रांतिकारी लेखन कर रहे हैं)

इन तर्कों पर हमारा नजरिया क्‍या है वह पहले कई बार कह चुके हैं चर्चा में दोहरा भी दिया। पर इतना तय है कि एक तो ये सवाल इसलिए खड़े होते हैं कि ब्‍लॉग मीडिया की प्रकृति समझने में कई लोग असमर्थ रहते हैं। इसीलिए ये जरूरी हो जाता है कि प्रिंट आदि में और अधिक लिखा जाए। हम तो कह आए कि इनके जवाब ब्‍लॉग मित्र खुद ही दे देंगे पर आपको अपना फोबिया छोड़कर कंप्‍यूटर तक आकर देखना पड़ेगा। तो हम आप सब टैगित हैं। इसे टैग मानें और बताएं कि ऊपर के तर्क क्‍यों सही नहीं हैं?

Thursday, November 01, 2007

1984 : एक दंगाई स्‍मृति कोलाज

स्‍मृति किन्‍हीं बहानों की मोहताज नहीं। लोग अपने गंवाए प्रियजनों को केवल उनकी बरसी पर याद करते हों, ऐसा नहीं है। किंतु फिर भी समय-आवृत्ति की स्‍मृति के उदृदीपन में अपनी भूमिका तो होती ही है। एक नवंम्‍बर भी ऐसा ही अवसर है। 1984 में मेरी उम्र 12 साल थी, कक्षा आठ में पढ़ता था और मेरी वैकल्पिक भाषा संस्‍कृत नहीं थी जैसा दिल्‍ली के स्‍कूलों में तब आमतौर पर होता था वरन पंजाबी थी। इसलिए मेरी कक्षा में कई सिख छात्र थे। एशियाई खेल हो चुके थे, दिल्‍ली के मध्‍यवर्ग तक रंगीन तो नहीं पर ब्‍लैक एंड व्‍हाईट टीवी पहुँच चुका था, हम आपरेशन ब्‍ल्‍यू स्‍टार से परिचित थे। इंदिरा गांधी, भिंडरावाले, खालिस्‍तान सुनी हुई संज्ञाएं थीं पर ये मेरे स्‍कूली खेलों को प्रभावित नहीं कर पाई थीं। ये सब सिख साथी मेरे  दोस्‍त थे। मैंने दोस्‍त सुखदेव से पूछ लिया कि खालिस्‍तान बन गया तो क्‍या करोगे। मैं सुनना चाहता कि दोस्‍त सुखदेव सिंह कहे कि वह मुझे छोडकर किसी खालिस्‍तान नहीं जाएगा पर उसने कुछ सोचकर कहा कि 'मैं सभी हिंदुआं नू वड देवेंगा' इस जवाब पर तब मैंने क्‍या सोचा मुझे नहीं याद, पर आज सोचता हूँ कि इस बात का मतलब था कि दिलों में दीवार बढ़ रही थी, बच्‍चों तक भी पहुँच रही थी। लेकिन तब भी प्रभात फेरियों में हिंदू सिख शामिल होते थे।

फिर 31 अक्‍तूबर आया और 31 की रात को कुछ सुगबुगाहट रही होगी पर हमें पता नहीं चली। हमारे लिए इंदिरा की मौत केवल छुट्टी लाई थी। क्रिकेट खेलने पहुँच गए पर तब दोपहर तक धुएं की लकीरें दिखने लगीं। सिख विरोधी दंगेRiot1 शुरू हो चुके थे।  खून का बदला खून से लेंगे वह नारा था जो दंगाईयों की जुबान पर था। हमारा मोहल्‍ला भजनपुरा नाम का इलाका था जो यमुनापार के सबसे अधिक प्रभावित इलाके में से था। गांवड़ी की वह गली जिसे बाद में इस दंगे की सबसे अधिक प्रभावित गली के रूप में माना गया पास ही थी। गुरूद्वारों, ट्रकों, घरों को जलाना शुरू हुआ। लोग सकते में थे। अफवाहों और जलने की गंध से सारा वातावरण भरा हुआ था। पड़ोस में एक सिख परिवार था। रात को हमारा दरवाजा खटखटाया गया  इस परिवार के बुजुर्ग, महिलाएं व बच्‍चे हमारे घर में आ गए, पुरुष लोग एक दूसरे पड़ोसी के यहॉं जाकर टिके। बड़े भाई ओर पिताजी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे पर हम बच्‍चों के लिए ये भी उत्‍सव ही था, सारा मोहल्‍ला छत पर था- इस तरह छतों पर उग आए मोहल्‍ले की तुलना मेरी माताजी ने 1978 की बाढ़ से की पर एक बड़ा फर्क यह था कि तब आपस में सहयोग था जबकि अब नफरत थी।

अगले दो दिन तक दिल्‍ली में वही रहा जिसे बाद में मोदी ने गुजरात में लागू किया। पुलिस चुप थी। लोग छतों से पुलिस के सिपाहियों को एक तरफ जाने को कहते ताकि कुछ लोग बचाए जा सके पर वे दूसरी ओर जाते। अपनी आंखों, लूट, तलवारें, जली लाशें देखीं। मोहल्‍ले का कलसी का गुरूद्वारा जला दिया गया वह और उसके तीनों लड़के मार दिए गए। घर जला दिया। कुल मिलाकर 7 लाशें निकलीं वहॉं से। दिल्‍ली की जनता भली-भांति जानती है, उसे किसी स्टिंग की जरूरत नहीं  1984 के दंगों में कांग्रेस शामिल थी, बिला शक। स्‍थानीय कांगेसी दंगों की अगुवाई कर रहे थे। इसलिए जब पिछले महीने  सीबीआई ने टाईटलर के खिलाफ आरोप वापिस लिए तो तय हो गया कि मोदी के खिलाफ भी कुछ नहीं हो सकता।riot2

स्रोत:http://www.sikhspectrum.com/012003/images/1984.jpg

मेरी स्‍मृति के लिए इन दंगों की विशेष भूमिका है। मुझे पता लग गया था कि दंगाई कहीं बाहर से नहीं आते। आम घरबारी लोग ही किसी दिन दंगाई बन जाते हैं। हम मौने-सरदार को मारो का खेल खेलते थे। यह भी जाना कि अच्‍छाई बुराई एक ही मन में होती है। इन दंगों में हिंदू और मुसलमानों दोनों ने मिलकर हत्‍याएं कीं जबकि पूरे देश में ये कौमें एक दूसरे को ही मारती आई हैं।  सिख परिवार के घर में होने से हम डरे हुए थे इसलिए जब उन्‍हें राहत शिविर भेज दिया गया तो हमने राहत की सॉंस ली पर उन तीन दिनों में हम कई बार मरे। जब दोबारा स्‍कूल खुले तो पंजाबी की कक्षा से कई बच्‍चों के परिवार में लोग मारे गए थे या घर जला दिए गए थे। आज सोचता हूँ कि एक उन दंगों ने इस शहर की एक पूरी पीढ़ी से उसकी सहजता छीन ली।

टाईटलर आज भी दिल्‍ली के सांसद हैं।