Thursday, February 21, 2008

ये शब्‍द कहॉं से आ रहे हैं

अजितजी अक्‍सर शब्‍दों के इतिहास व अन्‍य व्‍युत्‍पत्तिपरक अध्‍ययन प्रस्‍तुत करते हैं तथा सही है शब्‍द भूगोल व इतिहास में लंबी यात्राएं तय करके आते हैं पर शब्‍दों की यात्राएं सदैव इतनी ही निर्दोष नहीं होती मसलन हम जैसे अकादमिक जगत के लोगों में कुछ जीव ऐसे होते हैं जिन्‍हें सेमिनारी जीव कहा जाता है। हम इने गिने सेमिनारों में ही जा पाते हैं (कोई महानता नहीं बस इतना है कि बाल-बच्‍चे वाले कामकाजी युगल होने के नाते समय कम होता है) किंतु तब भी हमें शब्दों के कुछ ट्रेंड्स दिखाई देते हैं। मसलन कॉलेज ने पिछले साल मैमोरियल लेक्‍चर में विषय रखा 'टुवर्ड्स इन्‍क्‍लूसिव सोसाइटी' था। इस साल राष्‍ट्रीय सेमिनार में कल और आज, कपिला वात्‍स्यायन, उपेंद्र बक्‍शी, टीके ऊमेन, मनोरंजन मोहंती, नामवर सिंह आदि आदि जिस विषय पर विचार कर रहे हैं वह भी है - 'रीइमेंजिनिंग इंडिया: एक्‍सक्‍लूजन एंड इन्‍क्‍लूजन' । उपेंद्र बक्‍शी ने एक ब्‍लंट सवाल उठाया कि ये शब्‍द कहॉं से आ रहे हैं- वाशिंगटन डीसी। उपेंद्र ने सवाल व जबाव एक ही सांस में खुद पेश किए और फिर अनुभवों और तथ्‍यों से उन शब्‍दों की आनुवंशिकता को प्रस्‍तुत किया जो समय समय पर पूरी दुनिया के विमर्शवृत्‍त (विमर्श का बाजार)  में उछाले जाते हैं। इससे पहले उछाले गए शब्‍द रहे हैं- पार्टिसिपेशन (आई, यू, यू,यू...वी पार्टिसिपेट- ही प्राफिट्स) , स्‍पेस, डेमोक्रेसी...। उफ्फ हम तो इन शब्‍दों को बेहद प्रगतिशील मानकर इन्‍हें फैशन की तरह खूब इस्‍तेमाल करते आ रहे हैं...सैम अंकल के लिए।

funded thought बात वहॉं तो खत्‍म हो गई पर फिर और सोचने पर अनुमान लगाना संभव हुआ कि दरअसल ये सारे महौल को अराजनैतिक बना देने की गहरी घोर राजनीति है। आप इन्‍क्‍लूजन का शब्‍द देते हैं ताकि एक्‍सक्‍लूडिड खुद ताकत बनकर शामिल न हो पाएं न ही वे देख पाएं कि जिसे इन्‍क्‍लूजन कहा जा रहा है वह बाकायदा सोची समझी उत्‍पीड़न प्रक्रिया को ढकने की कोशिश भर है। और भी बहुत कुछ है पर भाषा का वयक्ति होने के नाते जो सहज समझ आता है कि अब शब्‍दों को निर्दोष वाहक मानना खत्‍म करना होगा...ये जो शब्‍द आ रहे हैं उनपर विचार करें कि क्‍यों आ रहे हैं कहॉं से आ रहे हैं। शब्‍द अब 'फंडिड थॉट' हो रहे हैं।

Sunday, February 17, 2008

'पंकज जी परेशान हैं' तो हैं पर मसिजीवी क्‍यों परेशान हैं

क्‍योंकि मसिजीवी के दिमाग में ही कोई लोचा है। बात आर्काइव में दब जाए इससे पहले ही कह देना ठीक है। हम इसलिए परेशान नहीं हैं कि पंकजजी ने हमारी टिप्‍पणी अपने ब्‍लॉग से मिटा दी (स्‍क्रीनशाट देखें)

वो तो उनका ब्‍लॉग है और उन्‍हें हक कि वे हमारी बकबक वहॉं रहने दें या नहीं, यूँ भी हमने ही उन्‍हें लिख दिया था कि अगर उन्‍हें पसंद नहीं तो वे हमें वहॉं से मिटा दें। उन्‍होंने मिटा दिया। पर हर कोई जो हमें पसंद नहीं हम उसे मिटाते चलेंगे...कितने धुरविरोधी मारे जाएंगे। ज्ञानदत्‍तजी ने वहॉं लिखा है कि वे कुछ कुछ समझ रहे हैं पर अन्‍य लोग जो नहीं समझ पाए हों  उनके लिए पूरी कहानी इस तरह है-

बाजार नाम के कोई बेनाम ब्‍लागर (भले ही शैली से खूब पता लगता हो कौन, पर सिद्धांतत: ये गलत है कि बेनाम को जबरन सनाम किया जाए) हैं बिना लाग लपेट के जो कहा जाए वही सच है नाम का बलॉग चलाते हैं। ये ब्लॉग हमें विशेष पसंद नहीं रहा है, पर पसंद तो हमें बैंगन भी नहीं उससे क्या, तो हम उस ओर नहीं जाते थे, लेकिन उसके बने रहने के अधिकार की प्राणपण से पैरवी करते हैं। वहॉं एक पोस्‍ट आई

 

इस पोस्‍ट में हमें याद पड़ता है कि  लिंक के साथ ही संजयजी के चिट्ठे से पंकजजी की निम्‍न टिप्‍पणी दी गई थी

संजय जी एक और संशय दूर करिये। आपको तो पता है कि कुछ ही दिन मे साल के पहले विवादास्पद इनाम दिये जाने है, रायपुर मे। कुछ लोग मुझसे सम्पर्क कर रहे है कि रवि जी कैसे ब्लागिंग करे इसकी क्लास लेंगे। मैने तो इंकार कर दिया है और कहा है कि यदि मिलना हो तो मै आ जाऊंगा पर इस तरह की कार्यशाला प्रायोजित होती है और व्याख्यान देने वालो को खूब पैसे मिलते है। - ऐसा मैने सुना है। क्या आप इस पर कुछ प्रकाश डाल सकते है? यह भी बताये कि क्यो गूगल ने एक आदमी को हिन्दी ब्लागिंग का मसीहा बनाके रखा है। सब जगह एक ही व्यक्ति की पूजा। यह तो इस जगत की सेहत के लिये अच्छा नही जान पडता है। खालिस गुटबाजी को बढावा देता है। क्या रवि जी के आस-पास डोलने ही को पुरुस्कार मिलेंगे या आप सफल ब्लागर कहलायेंगे। लानत है ऐसी मानसिकता पर।

यहॉं तक तो सब ठीक है, ब्‍लॉगिंग है ही ये, कुछ छिछली कुछ गंभीर। पर अचानक पंकज अवधिया की बमकी पोस्‍ट आती है- उन्‍होंने गूगल में एब्‍यूज नोटिस भेजा और अदालती कार्रवाई शुरू की- जीतूजी ने झट बधाई दे डाली

बहुत अच्छा कदम। आपका यह कदम मील का पत्थर साबित होगा।
हमे अपनी बौद्दिक सम्पदा के प्रति सजग होना ही पड़ेगा। अपने लेखों की चोरी को रोकने के प्रति सजग रहे।

मेरे जीतू भाई से लाख मतभेद हों पर इतना समझ सकता हूँ कि उन्होंने ये टिप्‍पणी ये समझकर की है पंकजजी के किसी लेख को किसी ने अपने नाम से प्रकाशित कर लिया है, वरना वे इस बात पर तो प्रसन्‍न हो नहीं सकते कि किसी ने नाम देकर, लिंक देकर, संजयजी के चिट्ठे से कोई टिप्‍पणी विचारार्थ प्रस्‍तुत की इस पर पंकज चले मुकदमा करने। हमारे लिए अफसोस यह कि शायद कानूनी पचड़े से डरकर बाजार साहब ने ब्‍लॉग डिलीट कर दिया या हटा लिया। ये एक ओर धुरविरोधी का जाना हुआ। हमने अपनी टिप्‍पणी में पंकजजी से अनुरोध किया था कि मित्र अगर कोई किसी सामग्री का केवल अंश पूरे लिंक व क्रेडिट के साथ संदर्भ प्रस्‍तुत करने के लिए समीक्षा, चर्चा, समाचार के लिए प्रस्‍तुत करता हे तो इसे प्‍लेगिरिजम न मानें...तिसपर टिप्‍पणी उनके नहीं संजय के चिट्ठे पर है जिन्‍होंने आपत्ति दर्ज नहीं की है। टिप्‍पणी पर कापीराइट किसका है ये मसला खुद अभी अनिर्णीत है। 

इसके अलावा पंकजजी की दिक्‍कत है कि 'परेशान हैं पंकज अवधिया'  शीर्षक गैरकानूनी है क्‍योंकि उनके नाम का इस्तेमान बिना अनुमति के किया गया...उई दइया... लोग नाम लेकर गंदा नेपकिन कह गए, आज ही कांइया और फरेबी कहा नाम लेकर किसी ने किसी को। यहॉं जो लिख रहा है 'संशय में हूँ' उसे 'परेशान' लिखने के लिए अनुमति। पत्रकार तो बेरोजगार हो जाएंगे- अमिताभ लिखने के लिए बच्‍चन से और सोनिया लिखने के लिए गांधी से पूछना पड़ेगा। चिट्ठाचर्चा, भड़ास, मो‍हल्‍ला, टिप्‍पणीकार और हममें से अधिकांश लोगों के चिट्ठे इस तर्क से बंद करने होंगे।

मेरा पुन: अनुरोध पंकज भाई आप चिट्ठाकारी में विविधता लाने का अहम काम कर रहें हैं कृपया थोड़ा इस माध्‍यम की प्रकृति भी समझिए। इतनी असहनशीलता हम आप जैसे अकादमिक लोगों को शोभा नहीं देती। और हॉं, हो सके तो वकील भी बदलिए अपना :))।

एक अनुरोध उन सज्‍जन/मोहतरमा से भी जो बिना लाग लपेट के सच वाला ब्लॉग चलाते हैं। आप पाठकों के प्रति और संवेदनशील होने का प्रयास करें। पर अन्‍यथा भी आप अपना ब्‍लॉग डिलीट न करें। इसे संघर्ष मानें। पंकजजी के नाराज होने वाले दोनों कुकृत्‍य मैंने भी इस पोस्‍ट में किए हैं- शीर्षक में उनका नाम है (और दिल में उनके लिए सम्‍मान)  और लिंक व नाम के साथ वही टिप्‍पणी फिर से दी है। फिर भी मुझे उम्‍मीद हैं पंकजजी मुझसे नाराज नहीं होंगे। आप भी भय छोड़ें और ब्लॉग फिर से जारी रखें। अगर ये ब्‍लॉग डिलीट गूगल ने किया है तो बताएं इस लड़ाई को वहॉं ले जाएंगे।

लीजिए अब हमारा चिट्ठा रीडायरेक्‍ट नहीं हो रहा

कल से ही लगातार संदेश आ रहे हैं कि यह चिट्ठा हर विजिटर को चिट्ठाजगत पर रीडायरेक्‍ट कर रहा है । कम से कम काकेशजी व संजय के चिट्ठों के साथ भी ऐसा होने की सूचना है, शायद कुछ और भी हों। शायद चिट्ठाजगत के उस कोड में कोई तकनीकी लोचा था जो चिट्ठे पर था। फिलहाल कोड हटा दिया है अब आप पोस्‍ट पढ पाएंगे।

चटका लगाएं

'पंकजजी परेशान हैं' तो हैं पर मसिजीवी क्‍यों परेशान हैं

Friday, February 15, 2008

उजड़ता खेल गांव स्‍टेशन और बेबस बाप का नॉस्‍ताल्जिया

कम से कम हम तो, खुद को रूक्ष व्‍यक्ति गिनते आए हैं। इसलिए इस बात की कम ही उम्‍मीद करते हैं कि किसी सरकारी दफ्तर से आई रस्‍मी पावती भर से हमारी ऑंखें पनीली हो सकती हैं। पर ऐसा हुआ- आज ही दिल्‍ली की मुख्‍यमंत्री के कार्यालय से एक ईमेल मिला ये मेल 11 जनवरी को भेजे गए एक ईमेल के जबाब में थी। इसका संबंध दिल्‍ली के बाल भवन से है। दिल्‍ली का बाल भवन शायद देश की अकेली जगह है जहॉं बच्‍चों के लिए एक ऐसी टॉय ट्रेन है जो है जो स्‍टीम इंजिन से चलती है। भाप के इंजिन से सैर करने का आनंद अब भी कुछ बेहद शाही गाडि़यों में उपलब्‍ध है पर बच्‍चों के लिए है मात्र एक रूपए में वाकई छुक छुक करती ट्रेन। जिसने दिल्‍ली में अपना बचपन गुजारा है, जैसे हमने, वह जानता है कि दिल्‍ली के बचपन का बाकायदा फेयरी टेल है यह ट्रेन। पर है नहीं थी। जी एकाएक यह विश्‍वास करने को जी नहीं चाहता कि गुपचुप इस ट्रेन को बंद कर दिया गया है। मेरे बेटे ने जब वह और भी छोटा था कई बार इस ट्रेन की सैर की थी और मैंने तो उसे किलकते देख कर ही अपने बचपन की यात्रा कर ली थी। पर अब जब वह अपनी छोटी बहन को इसकी सैर कराने ले गया तो ट्रेन को बंद पाकर बाकायदा रो पड़ा (और मैं... हॉं मैं भी)

 

train

बाल भवन में इस ट्रेन के दो स्‍टेशन होते थे और रेलयात्रा के हर अवयव का मिनी संस्करण है- स्‍टेशन, यार्ड, सिग्‍लन, गार्ड, कोयला, सीटी...छोटी सी ट्रेन सिर्फ एक फुट गेज की। मैंने इस ट्रेन पर सवार आज तक कोई शख्‍स नहीं देखा चाहे वो किसी भी उम्र का क्‍यों न हो खुशी से किलक न रहा हो। बाकायदा एक सुरंग आती थी और छोटी सी झील पर बना पुल भी। बाल भवन के अहाते का पूरा चक्‍कर लगाकर ट्रेन वापस स्‍टेशन आती थी। इस ट्रेन का संचालन खुद भारतीय रेलवे किया करती है। वैसे होने को तो राष्ट्रीय रेल संग्रहालय दिल्‍ली में ही है पर व‍हॉं का रेलगाड़ी भद्दी डीजल की शादियों वाली जनरेटर गाड़ी से खिंचने वाली ऐसी ट्रेन है जो रामलीला के मेलों में भी होती है। उसकी तुलना इस स्‍टीम इंजिन के रोमांस से हो ही नहीं सकती।

बेहद उदास मैंने अपने बेटे की इन शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की 'वे' (सरकार) इस नन्‍हीं खुशी को क्‍यों बंद कर रहे हैं। और कैसे इसे रोका जाए...उसे लगा कि केवल वह एक रुपए की जगह पचास रुपए देने के लिए तैयार हो जाए तो ट्रेन चल पड़ेगी। मैं इस मासूम सोच पर चुप रह गया। व्‍यावहारिक तौर पर मैंने सोचा कि पत्रकारिता के अपने जान पहचान वालों से बात करूं, ज्ञानदत्‍तजी से आग्रह करूं ओर ऐसे ही बचपने भरे तरीके। पर अंत में खुद बेटे से ही कहा कि वह खुद मुख्‍यमंत्री को एक पत्र लिखे कि वे ही शहर की इस विरासत को बचाने के लिए कुछ करें। उसने ये पत्र लिखा-

 Request to CM

इस पत्र को मेल में नत्‍थी कर मुख्‍यमंत्री को भेज दिया। आज संदीप के नाम से (मुख्‍यमंत्री के बेटे हैं) इस मेल की पावती आई है पूरे एक महीने बाद..

Dear *****ji,
I have received Prabhav's lovely request and would certainly get it lookked into.
With best wishes and regards.

और अब मेरे पास बेटे को बहलाने के लिए कुछ शब्‍द हैं।

Thursday, February 14, 2008

कमलानगर की जलेबी में कड़वा फोर्डीय शीरा और रम भरी चाकलेट की मिठास...

अविनाश ने दो बार मोहल्‍ले पर और एक बार भड़ास पर ब्‍लॉगसंगत की सूचना दी थी। हम पहुँचे। मुख्‍य आकर्षण सुनील दीपक का वहॉं होना था। सुनील दीपक हमारे पसंदीदा चिट्ठाकार हैं और आज से नहीं वर्षों से हैं। तो सराए से जब लौटे तो हमारे कंप्‍यूटर में राकेश से मांगी हुई कुछ तसवीरें थीं। सुनीलजी से मिली रम वाली कुछ इतालवी चाकलेट थीं और सुखद यादें भी थीं] अच्छी बैठक थी। हॉं सराए के पैसे की जलेबियॉं और समोसे तथा एक प्‍याला चाय भी भकोसीं थीं। घर पहुँचकर भड़ास की पोस्‍ट दिखी-

विदेशी धन(फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं के पैसे से) पर चलने वाली दुकानों से अविनाश जैसों का लगाव देख कर दुख हो रहा है। सराय , csds जैसी दुकानों के द्वारा बौद्धिक साम्राज्यवाद कैसे फैलाया जाता है उससे हिन्दी चिट्ठेकारों को सावधान होना होगा। मसिजीवी - नीलिमा अब यह भी बतायें कि 'चोखेर बाली'का 'सराय' जैसी दुकान से कोई सम्बन्ध है या नहीं?मैथिलीजी या सुनील दीपक विदेशी फन्डिंग एजेन्सियों से धन ले कर चलने वाली दुकानों के बारे में क्या सोचते हैं-यह उन्हें बताना होगा।

चोखेर बाली किस पालिटिक्‍स से चलेगा ये आंख की किरकिरियॉं ही जानें, कम से कम अब तक हम उसके सदस्‍य नहीं हैं। IMG_0008 इसलिए हम जो कुछ लिख रहे हैं अपने बारे में लिख रहे हैं। वैसे चोखेरबाली के ऐजेंडे से हमारी सहमति है पर वक्‍त आने पर उस मामले में अपना पक्ष रखेंगे यहॉं तो उस आपत्ति पर विचार किया जाए जो अफलातूनजी उठा रहे हैं। सबसे पहले तो समझें कि मूलत: आपत्ति क्‍या है- मूल विचार यह है कि सराए और इस जैसी संस्‍थाएं जो विदेशी वित्‍त से पोषित होती हैं वे एक व्‍यापक बौद्धिक साम्राज्‍यवाद का औजार होती हैं जो जाने अनजाने इन 'फोर्ड फाउंडेशनों' के कहे अनकहे एजेंडों को ही क्रियान्वित कर रही होती हैं। इसलिए इस तरह की संस्‍थाओं से जुड़ने, इनसे पैसे लेने में नैतिक दिक्‍कतें हैं।

जिन लोगों को सराए के विषय में कम पता है वे इसकी साइट से जानकारी हासिल कर सकते हैं। जानकारी के लिए बताया जाए कि अपने चिट्ठाकारों में रवि रतलामी लगभग नियमित रूप से सराए की फैलोशिप का लाभ लेते हैं, मुझे गैर चिट्ठाकारी विषयक एक शोध परियोजना पर फैलोशिप मिल चुकी है, नीलिमा को भी ब्‍लॉग संबंधी शोध के लिए वित्‍त समर्थन सराए से मिला था। इरफान, आलोक पुराणिक, गौरी पालीवाल, नरेश, राकेश, विनीत, नीटू, शिवम, महमूद फारूकी आदि लोग (और भी हैं सभी अब याद नहीं आ रहे) जिन्‍हें कोई न कोई वित्‍तीय जुडा़व सराए से रहा है। कहने का आशय यह है कि वाकई यदि ये कोई बौद्धिक गुलामी का यंत्र चल रहा हे तो 'डेमेज इज आल्‍रेडी डन'  (हम पर तो चलो मान लो सराए ने पैसा बरबाद ही किया पर बाकी तो खासे बौद्धिक हैं)

इससे पहले कि हम इस मसले पर अपनी राय बताएं स्‍पष्‍ट कर दें कि खुद सराए के रविकांत जो सराए की हिंदी वाली गतिविधियों को निकटता से देखते हैं और दीवान नाम की मेलिंग लिस्‍ट चलाते हैं, उनसे हमने अफलातूनजी के इन सवालों को सीधा दागा था, इसलिए भी कि खुद हमें भी ये सवाल परेशान करते रहे हैं- रविकांत के वे जबाव जो हमें अब तक याद रह पाए हैं वे कुछ इस तरह थे-

  1. पैसे की कोई राष्‍ट्रीयता नहीं होती, हॉं फंडिंग ऐजेंसियों की अपनी वरीयताएं होती हैं पर कम से कम हम अपने शोधकर्ताओं को पूरी आजादी देते हैं, हमारा ऐजेंडा हम खुद तय करते हैं और फिर उसके अनुकूल फंडर खोजते हैं।
  2. लोकलाइजेशन व क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों में जो काम सराए ने किया है वह साम्राज्‍यवाद के प्रतिरोध में है
  3. संवाद क प्रक्रियाओं से चीजें अपनी राह खुद बना लेती हैं
  4. रजनी कोठारी, आशीष नंदी, योगेन्‍द्र यादव, शाहिद, अभय कुमार दुबे .... क्‍या इन नामों से ये उम्‍मीद की जा सकती हे कि ये बोद्धिक रूप से खरीदे बेचे जा सकते हैं या ये किसी अन्‍य से कम प्रतिबद्ध हैं, यदि ये आजादी से काम कर पाते हैं तो...

ऐसे ही कुछ और तर्क भी रहे होंगे। तर्क विरोध में भी होंगे। हमारा कहना बस इतना है कि शायद नैतिक अपेक्षाओं का ही समय नहीं रहा है। मेरा मन अफलूजी से सहमत होने का करता है पर मेरे अनुभव में ऐसा कुछ नहीं है कि मेरे काम के दौरान मुझ पर कोई दबाब था। पर यह भी सही है कि इन पुरानी शोधवृत्तियों के विषयों को छान जाइए आपको शायद ही कोई विषय ऐसा दिखे जो सामूहिक प्रति‍रोधपरक चेतना का समर्थन करता दिखाई दे। आम तौर पर वैयक्तिता, उद्यमशीलता, निजी पाठों और निजी रचनाधर्मिता को ही बौद्धिक विमर्श के केंद्र में लाते विषय हैं। मतलब बहस अभी चालू आहे। ये भी सही है कि अब देशी-विदेशी धन की शब्दावली में बात ही कौन करता है।

हॉं संगत के दौरान सुनीलजी ने हम सबको चाकलेट खिलाई- ये चाकलेट जाहिर है विदेशी थी और चूंकि उसमें रम भरी थी इसलिए कड़वी भी थी पर इन्‍हें भेंट करते शख्‍स का दिल बिल्‍कुल देसी है जनाब। दूसरी तरफ सराए के पैसों से आई जलेबी कमलानगर से आई थी, इसमें देसी चाशनी भरी थी और ये मीठी थी, कोई कड़वाहट नहीं लेकिन पैसा तो फोर्ड फाउंडेशन का ही था क्‍या मुझे कुछ कसैला लगना चाहिए ?   बहुतई कन्‍फ्यूजन है सर।।

Monday, February 11, 2008

हिन्‍दयुग्‍म मूलत: ए‍क ऑफ/ऑन लाइन सेतु फिनामिना है

ऐसा कोई मुगालता नहीं है कि खुद को बुद्धिजीवी मानें। लेकिन पढ़ने पढ़ाने से ही रोटी खाते हैं तो उस टाईप के ही गिने जाएंगे। लेकिन अगर हम इस बिरादरी से हैं तो इसके किस खित्‍ते से। क्रांति-बिरांति में हमारी के गटरवीथियों में हम घोर भटकाव के दिनों में भी नहीं गए थे, इसलिए एक्टिविस्‍ट नहीं कहे जा सकते, कहलाना भी नहीं चाहते। शोध वगैरह में भी, भले ही नौकरी की मजबूरी में फील्‍डवर्क किया है पर मन कभी भी उस चीज में नहीं रमा जिसे एंपिरिकल रिसर्च कहते हैं। तो बस जा बचा वह थ्‍योरी का इलाका, उसी में जितना हो पाता है हाथ पांव मारते हैं नाक घुसाते हैं।

लेकिन थ्‍योरी की बड़ी दिक्‍कत यह है कि प्रेक्टिस से उसे बार बार चुनौती मिलती रहती है काउंटर थ्‍योरी से तो खैर मिलती ही है। जब हमने कहा कि मोहल्‍ला और भड़ास के रूप में कम्‍यूनिटी ब्‍लॉगों के क्षेत्रीय-घेटो बन जाने की आशंका है तब भी हमें हिन्‍द युग्‍म के रूप में एक सामुदायिक ब्लॉग दिख रहा था जो इस सिद्धांत का अतिक्रमण करता है। और फिर तरकश सम्‍मानों की घोषणा हुई, मोहिन्‍दर और रंजना (स्‍वीकार करूंगा कि मैंने भी उनकी पोस्‍टें यानि कविताएं नहीं पढ़ीं थीं) को स्‍वर्ण कलम सम्‍मान मिला और लोग हैरान हुए, परेशान हुए और बाद में तो बाकायदा बेईमानी के आरोप-प्रत्यारोप भी हुए। मास्‍टर होने के नाते जानते हैं कि नकल-बेईमानी परिणामों को आम तौर पर प्रभावित नहीं करती क्‍योंकि बेईमानियॉं म्‍यूच्‍युअल नेगेशन कर लेती हैं। तब कहीं कहीं से ये बात उठी कि भड़ास-मोहल्‍ला तो खैर जो हैं सो हैं ही पर समझें कि हिन्‍द-युग्‍म भी एक फिनामिना है।

हमें इस बात में एक थ्‍योरिटिकल चुनौती दिखी उसकी वजहें निम्‍न थीं-

  1. अंग्रेजी सहित तमाम बलॉग जगत में माना जाता हे कि कविता मूलत: ब्‍लॉग विधा नहीं है, hindyugmlogo कभी कभार हर ब्‍लॉगर एकाध कविता ठेलता है पर कविता मात्र के भरोसे ब्‍लॉगिंग नहीं की जा सकती।तब हिन्‍द युग्‍म कैसे एक इतने सफल ब्‍लॉग के रूप में खड़ा दिखाई देता है।
  2. हम कविता करते कम हों पर पढ़ते पढ़ाते तो हैं ही, इसलिए साफ है कि अधिकांश हिन्‍द युग्‍मी रचनाएं उच्‍चतम स्‍तर की न होकर...औसत भर होती हैं, कुछ कुछ वैसी जेसी कि हमें कॉलेज पत्रिकाओं के लिए अपने विद्यार्थियों से मिलती हैं। तब इतने लोगों को जोड़ पाने के पीछे क्‍या है।
  3. यह सही है कि हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत का आकार बढ़ा है किंतु इस अनुपात में पाठक नहीं बढे हैं यानि अब सब, सबको नहीं पढ़ते इसलिए इन कवियों को पाठक कहॉं से मिल रहे हैं।
  4. इतने वोट आए कहॉं से- ध्‍यान दें कि भले ही संख्‍या कितनी भी बढ़ गई हो लेकिन अभी भी हिन्‍दी में उतने ब्‍लॉगर कतई नहीं हैं जितने कि पिछले साल तक अंग्रेजी में थे। और अगर पिछले साल के आंकड़ें देखें तो साफ होता है कि पिछले विजेता ने इंडीब्‍लॉगीज हिन्‍दी श्रेणी में इतने मत नहीं जीते थे जितने मोहिन्‍दरजी ने तरकश चुनाव में जीत लिए हैं, यही नहीं 280 मतों के साथ तो वे अंग्रेजी श्रेणी को टक्‍कर दे सकते हैं।  मतलब ये कि अगर हिन्‍द युग्‍म ने ठान लिया और बाकी हिन्‍दी वालों का साथ मिला तो वे किसी हिन्‍द युग्मी को सारी भाषाओं का सर्वश्रेष्‍ठ ब्‍लॉग बनाकर देसी पंडित के समकक्ष ला बैठाएंगे।

इस विचित्र स्थितियों को समझने के लिए जब हमने इस फिनामिना को छाना, इस प्रक्रम में पुस्‍तक मेले में कई बार हिन्‍द युग्‍म के मित्रों से मिला भी। शैलेशजी से भी बात हुई तो जो बात अब तक समझ आई है वह यह है कि हिन्‍दयुग्‍म इस स्‍तर पर है क्‍योंकि वे हिन्‍दी ब्लॉगजगत में बाकी सबसे अलग दृष्टिकोण से आगे बढ़ रहे हैं। हिन्‍द युग्‍म दरअसल एक हाइब्रिड ब्‍लॉग है, वह न केवल आनलाइन है वरन आफलाइन भी है, इस मायने में आन व आफ लाइन के बीच का सबसे सक्रिय सेतु ब्‍लॉग (ब्रिज ब्‍लॉग) है। वे सम्‍मेलनों, प्रशिक्षणों, पुरस्‍कार, पाठक, चित्रकारी कार्यशालाओं, आरकुट, ईमेल, फोन इन सभी माध्‍यमों का समग्र इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जो अभी तक कोई और ब्‍लॉग नहीं कर रहा। थोड़ा बहुत मो‍हल्‍ला/भड़ास में दिखता है पर तमाम चीजों के बाद भी ये मॉडरेटर ब्‍लॉग बने हुए हैं जहॉं लिखने वाले, मैं वहॉं भी लिखता हूँ से ही संतोष पाते हैं जबकि हिन्‍द युग्म का हर कवि रैली के छोटे नेता की तरह अपने टैंपो में पाठक भर कर लाता है- एक सामान्‍य दिन में हिन्‍द युग्‍म के पाठकों की संख्‍या 1000 से ऊपर बताई जा रही है जो यकीनन उपलब्धि है। तो अब तक तो हमारा जो निष्‍कर्ष बनता है वह यह कि अभी हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत एक पूरी तरह आनलाइन समुदाय नहीं है वरन यह आफलाइन का ही आनलाइन विस्‍तार भर है।