Thursday, December 10, 2009

ब्‍लॉगवाणी पर हैकर हमला

ब्‍लॉगवाणी पहुँचने की कोशिश करने पर आज ये चेतावनी दिख रही है

ScreenHunter_01 Dec. 10 16.45

चिंतित हो मैथिलीजी से संपर्क किया तो उन्‍होंने पुष्टि की कि ये ब्‍लॉगवाणी तथा उनकी कुछ अन्‍य साईट्स पर ये हैकर अटैक है। उनके तनाव का अनुमान कर हमने आगे बात की नहीं पर उन्होंने बताया कि टीम काम पर लगी है उम्‍मीद है ब्‍लॉगवाणी जल्‍द ही दिखने लगेगी... हमारा अनुमान कुछ घंटों का है।

कृपया ध्‍यान दें यदि आपके ब्‍लॉग पर ब्‍लागवाणी के विजे़ट हैं तो कई ब्राउजर आपके ब्‍लॉग पर पहुँचने की कोशिश करने वाले पाठकों को माल्‍वेयर चेतावनी दे रहे हैं तथा ब्‍लॉग पर नहीं पहुँचने दे रहे हैं।  आप प्रतीक्षा न करने चाहें तो अस्‍थाई रूप से ब्‍लॉगवाणी विजेट अपने ब्‍लॉग से हटा लें फिर आपका ब्‍लॉग सक्रिय हो जाएगा।

यह पोस्‍ट केवल सूचनार्थ है।

खून खौलाना की काफियापूर्ति करते मौलाना (आजाद)

टॉम ऑल्‍टर की कुछ सबसे दमदार प्रस्‍तुतियों में से एक है मौलाना आज़ाद। हम पिछले कुछ सप्ताह से इंतजार कर रहे थे और फिर कल दोपहर इस एकल नाटक (सोलो)  की प्रस्‍तुति हमारे कॉलेज सभागार में की गई। आधुनिक भारत में भारतीय मुसलमानों के राजनैतिक जीवन की उथल पुथल पर बेबाक टिप्‍पणी है ये नाटक। बहती हुई उर्दू में टॉम ऑल्‍टर मौलाना आजाद के किरदार को इस खूबसरती से अदा करते हैं कि इस सोलो प्रस्‍तुति को भारतीय रंगमंच की चंद सबसे दमदार प्रस्‍तुतियों में शुमार किया जाता है इसलिए कल जब खुद अपने ही कॉलेज में इसे देखने का मौका मिला तो हमने झट लोक लिया। नाटक पीरो ट्रूप  रंगमंच समूह द्वारा मंचित किया गया। कॉलेज में हुई प्रस्‍तुति से चंद तस्‍वीरें-

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यूट्यूब से प्राप्‍त इसी नाटक से संबंधित दो वीडियो जिनमें से एक तो इस नाटक पर इसके निर्देशक सईद आलम साहब की टिप्‍पणी है जबकि दूसरा कहीं अमरीका में हुए प्रदर्शन का वीडियो है किंतु इस अमरीकी प्रस्‍तुति में सेट तथा प्रस्‍तुति उतनी दमदार नहीं दिख रही है जितनी कल थी... इसकी वजह शायद यह कि कॉलेज में उर्दू को लेकर महौल तथा स्‍वीकृति दोनों ही अधिक है। सेट भी कॉलेज सभागार में कहीं अधिक संसाधन संपन्‍न था।

वीडियो-1

वीडियो 2

हमारी राय पूछें तो इस मायने में ये एक साहसिक प्रस्‍तुति है कि सईद आलम लिखते हैं... टॉम ऑल्‍टर किरदार अदा करते हैं पर वे अल्‍पसंख्‍यकों की रिवाजी देशभक्ति के चक्‍कर में नहीं पड़ते... सरदार पटेल (और नेहरू) को जिन्‍ना के बराबर विभाजन का दोषी बताना साहस का काम है और इस प्रस्‍तुति में इस तरह से कही गई है कि विश्‍वसनीय जान पड़ती है।

Wednesday, December 09, 2009

हमारा अँगूठा हाजिर है श्रीमान

थोड़ी देर लिंक खोजा पर मिला नहीं लेकिन याद ताजा है कि पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि कुछ लोग अपने कार्यालय से ब्‍लॉगिंग करते हैं ये कहॉं तक उचित है ये संभवत पाबलाजी, अनूपजी या ज्ञानदत्‍तजी को या शायद हमें भी संबोधित था, लेकिन  अपने मन में ये कोई सवाल ही नहीं है क्‍योंकि हमारे लिए नैतिकता की परिभाषा इतनी स्‍थूल नहीं है। तब भी पिछले दिनों इलाहाबाद में जब ज्ञानदत्‍तजी समय प्रबंधन के मसले पर मंच से मुखातिब थे तो हमने ये कहकर कि सवाल हमारा नहीं बेनामी है पूछा ...ये बताऍं कि क्‍या दफ्तर से ब्‍लॉगिंग करने में नैतिकता का कोई सवाल उठता है... ज्ञानदत्‍तजी का उत्‍तर बेहद शांत व स्‍पष्‍ट था... नहीं ये कतई नैतिकता का सवाल नहीं है। सुबह उठते ही ज्ञानदत्‍तजी अल्‍ल सुबह घर से कंप्‍यूटर चलाते हैं और देखते हैं कि ट्रेनों का स्‍टेटस क्‍या है... ब्‍लॉगिंग करते हैं..काम करते हैं...दफ्तर में भी ये क्रम रहता है...दरअसल दफ्तर व घर का जो बंटवारा समझा जा रहा है वह बेहद कृत्रिम है असल जिंदगी में दोनों जगह काम होता है ... चौबीस घंटे की नौकरी है... इस मायने में घर के सब काम भी उसी कार्यालयी मनोदशा से ही जुड़े हैं इनके बीच तनाव व नैतिकता का सवाल बेमानी है।

हमें पांडेयजी के इस उत्‍तर से न कोई हैरानी हुई न परेशानी क्‍योंकि हमारा खुद का दृष्टिकोण यही रहा है। ये सवाल हमारे पेशे के बारे में अक्‍सर उठाया जाता है..दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में शिक्षकों को प्रति सप्‍ताह अठारह घंटे कक्षाएं लेनी होती है, हम विद्यार्थियों की हाजिरी लेते हैं तथा इसे सत्र के बाद दाखिल कर देते हैं इसे ही हमारी हाजिरी भी माना जाता है  अलग से न आने के समय की बंदिश है न जाने की... बस उम्‍मीद ये की जाती है कि कक्षा के समय हम कक्षा में उपस्थित रहेंगे। इतने सब के बाद भी जितनी शिद्दत से हम छुट्टियों का इंतजार करते हैं कोई और नहीं करता दिखता।  आखिर क्‍यों ?

वजह वही है जो ज्ञानदत्‍तजी ने बताई। शिक्षक के लिए कक्षा और कक्षा से बाहर के काम की जो हदबंदी कई लोगों खासकर नौकरशाही किस्‍म की सोच के लोगों के दिमाग में है वो शैक्षिक दुनिया का सच नहीं है। आज ही फेसबुक में एक दोस्‍त ने पूछा कि बायोमैट्रिक हाजिरी के बारे में आपकी क्‍या राय है- उनका इशारा विश्‍वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा प्रत्‍येक शिक्षक के अंगूठे के छाप से रोजाना हाजिरी लेकर ये सुनिश्चित करने के प्रस्‍ताव से था जिसके तहत हर शिक्षक को रोजाना 6-8 घंटे कॉलेज में रहना होगा। फिलहाल प्रस्‍ताव को टाल दिया गया है पर ये प्रस्ताव कितना फूहड़ है इसे केवल वे ही समझ सकते हैं जो दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय या जेएनयू जैसे विश्‍वविद्यालयों की कार्यसंस्‍कृति से परिचित हैं। ऐसा नहीं है कि यहॉं  गैरहाजिर रहने की समस्‍या यहॉं है ही नहीं पर वाथवाटर के साथ बेबी फेंक देना मूर्खता है। शिक्षक केवल 6-8 घंटे रोजाना शिक्षक नहीं होता वो चौबीस घंटे केवल शिक्षक ही होता है। जिस पचास मिनट के पीरियड में वह कक्षा लेता है उसमें उसके अब तक के सारे ज्ञान को शामिल रहना होता है ठीक वैसे ही जैसे कि एक कलाकार के श्रम को उसके प्रदर्शन के मिनटों की गणना करके नहीं समझा जा सकता। ये पचास मिनट शिक्षक का काम नहीं होते वरन उसकी परफार्मेंस होते हैं उसका काम तो उस सारे रियाज को समझा जाना चाहिए जो वह पूरे दिन करता है और हमारे लिए तो दिन भी कम पड़ता है।  अगर हमारे कॉलेज हमें कॉलेज में ही इस रियाज के मौके देने को तैयार हों तो शायद किसी को भी पूरे दिन वहॉं रहने में तकलीफ न हो। हम जब कॉलेज से  रवाना होते साथियों से दिन भर की विदाई का हाथ मिलाते हैं तो सदैव सवाल होता है ...कहॉं ? क्‍योंकि अधिकांशत: कॉलेज के बाद किसी गोष्‍ठी, लेक्‍चर, पुस्‍तकालय, सुपरवाइजर, मंडी हाउस, विश्‍वविद्यालय ही जाना होता है या कभी कभी उत्‍तर सुनाई देता है ... कहीं नहीं यार घर ही जाउ़ंगा थकान है घर जाकर पढूंगा... कोई शुद्ध लिपिकीय तरीके से इस बात की जॉंच पर बल दे सकता हे कि इस सब 'कामों' में कितने 'पर्सनल' हैं कितने 'आफीशियल' यानि बताएं कि जो उपन्‍यास आप पढ़ रहे हैं वो पाठ्यक्रम का ही है न... वगैरह।  हमारी नजर में कसौटी ये है कि आउटपुट की तुलना करें। देश के बहुत से राज्‍यों में शिक्षक हाजिरी देते हैं स्‍कूल कॉलेज में मौजूद रहते हैं लेकिन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का परिणाम कहीं कम होता है... क्‍या स्‍वविवेक पर निर्भर स्‍वाभिमानी  प्रोफेसर को अंगूठाछाप बना देना उन्‍हें बेहतर शिक्षक बनाएगा.. हमें तो शक है, पर अगर अब द्रोणाचार्य के एकलव्‍य बनने की बारी है तो हमारा अंगूठा हाजिर है श्रीमान।