थोड़ी देर लिंक खोजा पर मिला नहीं लेकिन याद ताजा है कि पिछले दिनों किसी ने सवाल उठाया था कि कुछ लोग अपने कार्यालय से ब्लॉगिंग करते हैं ये कहॉं तक उचित है ये संभवत पाबलाजी, अनूपजी या ज्ञानदत्तजी को या शायद हमें भी संबोधित था, लेकिन अपने मन में ये कोई सवाल ही नहीं है क्योंकि हमारे लिए नैतिकता की परिभाषा इतनी स्थूल नहीं है। तब भी पिछले दिनों इलाहाबाद में जब ज्ञानदत्तजी समय प्रबंधन के मसले पर मंच से मुखातिब थे तो हमने ये कहकर कि सवाल हमारा नहीं बेनामी है पूछा ...ये बताऍं कि क्या दफ्तर से ब्लॉगिंग करने में नैतिकता का कोई सवाल उठता है... ज्ञानदत्तजी का उत्तर बेहद शांत व स्पष्ट था... नहीं ये कतई नैतिकता का सवाल नहीं है। सुबह उठते ही ज्ञानदत्तजी अल्ल सुबह घर से कंप्यूटर चलाते हैं और देखते हैं कि ट्रेनों का स्टेटस क्या है... ब्लॉगिंग करते हैं..काम करते हैं...दफ्तर में भी ये क्रम रहता है...दरअसल दफ्तर व घर का जो बंटवारा समझा जा रहा है वह बेहद कृत्रिम है असल जिंदगी में दोनों जगह काम होता है ... चौबीस घंटे की नौकरी है... इस मायने में घर के सब काम भी उसी कार्यालयी मनोदशा से ही जुड़े हैं इनके बीच तनाव व नैतिकता का सवाल बेमानी है।
हमें पांडेयजी के इस उत्तर से न कोई हैरानी हुई न परेशानी क्योंकि हमारा खुद का दृष्टिकोण यही रहा है। ये सवाल हमारे पेशे के बारे में अक्सर उठाया जाता है..दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों को प्रति सप्ताह अठारह घंटे कक्षाएं लेनी होती है, हम विद्यार्थियों की हाजिरी लेते हैं तथा इसे सत्र के बाद दाखिल कर देते हैं इसे ही हमारी हाजिरी भी माना जाता है अलग से न आने के समय की बंदिश है न जाने की... बस उम्मीद ये की जाती है कि कक्षा के समय हम कक्षा में उपस्थित रहेंगे। इतने सब के बाद भी जितनी शिद्दत से हम छुट्टियों का इंतजार करते हैं कोई और नहीं करता दिखता। आखिर क्यों ?
वजह वही है जो ज्ञानदत्तजी ने बताई। शिक्षक के लिए कक्षा और कक्षा से बाहर के काम की जो हदबंदी कई लोगों खासकर नौकरशाही किस्म की सोच के लोगों के दिमाग में है वो शैक्षिक दुनिया का सच नहीं है। आज ही फेसबुक में एक दोस्त ने पूछा कि बायोमैट्रिक हाजिरी के बारे में आपकी क्या राय है- उनका इशारा विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा प्रत्येक शिक्षक के अंगूठे के छाप से रोजाना हाजिरी लेकर ये सुनिश्चित करने के प्रस्ताव से था जिसके तहत हर शिक्षक को रोजाना 6-8 घंटे कॉलेज में रहना होगा। फिलहाल प्रस्ताव को टाल दिया गया है पर ये प्रस्ताव कितना फूहड़ है इसे केवल वे ही समझ सकते हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय या जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों की कार्यसंस्कृति से परिचित हैं। ऐसा नहीं है कि यहॉं गैरहाजिर रहने की समस्या यहॉं है ही नहीं पर वाथवाटर के साथ बेबी फेंक देना मूर्खता है। शिक्षक केवल 6-8 घंटे रोजाना शिक्षक नहीं होता वो चौबीस घंटे केवल शिक्षक ही होता है। जिस पचास मिनट के पीरियड में वह कक्षा लेता है उसमें उसके अब तक के सारे ज्ञान को शामिल रहना होता है ठीक वैसे ही जैसे कि एक कलाकार के श्रम को उसके प्रदर्शन के मिनटों की गणना करके नहीं समझा जा सकता। ये पचास मिनट शिक्षक का काम नहीं होते वरन उसकी परफार्मेंस होते हैं उसका काम तो उस सारे रियाज को समझा जाना चाहिए जो वह पूरे दिन करता है और हमारे लिए तो दिन भी कम पड़ता है। अगर हमारे कॉलेज हमें कॉलेज में ही इस रियाज के मौके देने को तैयार हों तो शायद किसी को भी पूरे दिन वहॉं रहने में तकलीफ न हो। हम जब कॉलेज से रवाना होते साथियों से दिन भर की विदाई का हाथ मिलाते हैं तो सदैव सवाल होता है ...कहॉं ? क्योंकि अधिकांशत: कॉलेज के बाद किसी गोष्ठी, लेक्चर, पुस्तकालय, सुपरवाइजर, मंडी हाउस, विश्वविद्यालय ही जाना होता है या कभी कभी उत्तर सुनाई देता है ... कहीं नहीं यार घर ही जाउ़ंगा थकान है घर जाकर पढूंगा... कोई शुद्ध लिपिकीय तरीके से इस बात की जॉंच पर बल दे सकता हे कि इस सब 'कामों' में कितने 'पर्सनल' हैं कितने 'आफीशियल' यानि बताएं कि जो उपन्यास आप पढ़ रहे हैं वो पाठ्यक्रम का ही है न... वगैरह। हमारी नजर में कसौटी ये है कि आउटपुट की तुलना करें। देश के बहुत से राज्यों में शिक्षक हाजिरी देते हैं स्कूल कॉलेज में मौजूद रहते हैं लेकिन सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का परिणाम कहीं कम होता है... क्या स्वविवेक पर निर्भर स्वाभिमानी प्रोफेसर को अंगूठाछाप बना देना उन्हें बेहतर शिक्षक बनाएगा.. हमें तो शक है, पर अगर अब द्रोणाचार्य के एकलव्य बनने की बारी है तो हमारा अंगूठा हाजिर है श्रीमान।