Monday, March 26, 2007

विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन 2007 : छा जाओ चिट्ठाकारो

एक मित्र मिले, पत्रकार हैं हमारे अनुजवत् हैं उन्‍होंने हमें सूचना दी कि अगला विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन न्‍यूयार्क में 13-15 जुलाई को हो रहा है और वे सरकारी प्रतिनिधि की हैसियत से उसमें भागीदारी करेंगे। सम्‍मेलन भारतीय विद्या भवन और अन्‍य कई संस्‍थाओं के सहयोग से विदेश मंत्रालय कराता है और जुगाड़-सेटिंग वगैरह वगैरह की सारी कलाबाजियॉं इसमें होती है और हम पहले से भी इससे खासे वाकिफ़ हैं लेकिन अभी इतने सिनीकल नहीं हो पाएं हैं कि कोई आशा ही न रखें।
तो भैया लोग हम तो इसे हिंदी चिट्ठाकारी के लिए सही मौके की तरह देख रहे हैं।
अमरीका और कनाडा के वे चिट्ठाकार जो 13-15 जुलाई के बीच 27वीं स्‍ट्रीट 7वाँ ऐवेन्‍यू न्‍यू यार्क पहुचने की जहमत और खर्चा उठा सकते हों (या सरकारी खर्चे का जुगाड़ कर सकते हों) कृपया करें। और जोर शोर से हिंदी चिट्ठाकारी की बात वहाँ उठाएं। हमने पिछले दिनों एक नेशनल कांफ्रेंस में हिंदी चिट्ठाकारी पर परचा पढ़ा था इसलिए काफी सामग्री इसके सिद्धांत, पहचान और भाषा वगैरह पर तैयार है और भी परिश्रम कर आपके मतलब की सामग्री आपको देने के लिए तैयार हैं। इन मित्र को तो हम खैर पूरी तरह तैयार करके भेजेंगे ही। जितने हो सकें चिट्ठाकार वहाँ रहें और संभव हो तो एकाध सत्र या परचा इस विषय पर जुटा लें, हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अच्‍छा रहेगा। और भी योजनाएं बनाई जा सकती हैं।पत्रकार-चिट्ठाकार भी काफी सहयोग कर सकते हैं।तो अविनाश, मिर्ची सेठ, समीर भाई और अन्‍य चिट्ठाकारो गाड़ दो झंडे....

Sunday, March 25, 2007

निठारी के बाल-बोटी कबाब और मेरी बिटिया का चिकेन

कहा गया कि मसिजीवी व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता के पक्षकार हैं, मुझे खुद भी यही लगता रहा है कि अपने व्‍यवहार को तय करने की आजादी हर शख्‍स को होनी चाहिए और अपने क्रियाकलापों की जिम्‍मेदारी भी उसकी ही होती है। इसलिए लोगों की खानपान, साफ-सफाई, वेशभूषा आदि पर टिप्‍पणी करने और नाक-भौं सिकोड़ने से यथासंभव बचता हूँ। और अपने विषय में ऐसे ही व्‍यवहार की उम्‍मीद भी करता रहा हूँ। दरअसल हमने तो एक ब्‍लागर की प्रोफाइल में ‘पत्‍नी द्वारा बाथरूम में वाइपर लगाने के लिए विवश किए जाने’ से व्‍यक्‍त परेशानी अपनी श्रीमतीजी को दिखाकर बताया कि देखो हम ही ऐसे नही हैं- इस तरह की टोका टोकी से परेशान और भी हैं।


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कोई मुर्गा खाए कि मछली या सूअर यह उसका चयन है और होना चाहिए। जाहिर है यही मानकर बड़े हुए, खुद भी शाकाहारी हैं तो सिर्फ इसलिए हुए कि ये हमारे घर का डिफाल्‍ट डिसीजन था, और जब इतने बड़े हुए कि खानपान को बदल सकें तब तक आदत पड़ चुकी थी। इतना जरूर रहा कि माँस खाना या न खाना श्रेष्‍ठता या हीनता का बोधक नहीं लगा। जब वीर सांघवी ने जोर देकर बताया कि कोबे बीफ एक लजीजदार व्‍यंजन है तब भी हम कतई आहत नहीं हुए ऐसे ही जब एक मुस्लिम मित्र ने जब सहज ही गौमाँस के अपने अनुभव बताए तो उन्‍हें कतई यह नहीं लगा कि हम इससे आहत हो सकते हैं...हम हुए भी नहीं।
किंतु क्‍या हमें माँस हमें कोई एक और अन्‍य भोज्‍य पदार्थ लगता है...सच यह है कि नहीं। शायद कोई भी शाकाहारी यदि ईमानदार है तो मानेगा कि माँस न खाने का निर्णय बैंगन पसंद न होने के निर्णय से अलग है। इसमें छिपी अनछिपी नैतिकता शामिल है। भले ही आदमी हम जैसा खुदा निरपेक्ष ही क्‍यों न हो।


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हमारे एक मित्र कहीं अधिक ‘मिलीटैंट शाकाहारी’ हैं पेशे से एक प्रसिद्ध दर्शनशास्‍त्र अध्‍यापक हैं और व्‍यवहार से लोकतांत्रिक। अब ये हुआ डैडली मिक्‍स। हमने जब बताया कि बच्‍चों की प्रोटीन आवश्‍यकता की पूर्ति के लिए हम एकाध बार के. एफ.सी. ले जा चुके हैं तो वे लगभग तुरंत ही चिंहुक उठे। हमने कहा भई वे खुद निर्णय लेंगें मैं तो केवल विकल्‍प उपलब्‍ध करा रहा हूँ। फिर उन्‍हें इस्‍लाम के प्रकृति के मनुष्‍य के लिए होने के का भी वास्‍ता दिया...थोड़ी ही चर्चा के बाद मैनें अचानक अनुभव किया कि मैं तो अपने बच्‍चों के माँस का निवाला निगलने की कुछ कुछ सफाई सा देने लगा था...क्‍यों भला ?


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दर्शन में एंथ्रोपोसेंट्रि शाखा वह मानी जाती है जिसमें चिंतन के केंद्र में मनुष्‍य होता है तथा एक तरह से मनुष्‍य की अन्‍य प्राणी जगत पर श्रेष्‍ठता को न्‍यायोचित माना जाता है। बकौल हमारे दार्शनिक मित्र, इस दर्शन शाखा का पिछले दो-तीन दशकों से बैंड बजा हुआ है। मनुष्‍य को चिंतन के केंद्र से हटाने के बाद ही वन्‍य प्राणी संरक्षण, पशुओं पर अत्‍याचार का विरोध, मानवाधिकार और जाहिर है शाकाहार को चिंतन की जमीन मिल पाती है।.....पड़ोसी मुर्गा खाए-उसका पैसा है और उसकी ही नैतिकता....पर चूंकि हमारा तादात्‍मय मुर्गे की चीख से होता है इसलिए हमें असहज होना चाहिए। वरना निठारी में सुरेंद्र कोली और पंढेर के हाथों बच्‍चों की बोटियों के कबाब बनाकर खाने को भी हमें उनका ‘व्‍यक्तिगत खानपान’ और अपराध का सवाल मानकर छोड़ देना चाहिए (इस तर्क ने मुझे क्रोध और तार्किक असहायता की स्थिति में ले जा खड़ा किया क्‍योंकि वाकई हम केवल मनुष्‍य के माँस को लेकर ही ऐसी वितृष्‍णा क्‍यों अनुभव करते हैं ? ...सिर्फ एंथ्रोपोसेंट्रिज्‍म ही तो है)। बच्‍चों ने माँस केवल चखा है अभी, पसंद नहीं करना शुरू किया, थामूँ तो थम सकते हैं....थाम लूँ क्‍या।

Saturday, March 24, 2007

ढीली अदवायन की खाट और खचेढ़ू चाचा

लीजिए जब मिला है तो छप्‍पर फाड़ के मिला है। मतलब वक्‍त...। कहॉं लोग काम न होने के मानसिक तनाव में जी रहे थे और हम बेतरह सुलग रहे थे क्‍योंकि काम के बोझ में दबे थे अब देखिए कैसा वक्‍त बदला है, एक तो देश की टीम ने कृपा की, समीर के तमाम दिलासों के दरकिनार कर घर वापस आ रही है अपने जीवित कोच के साथ। यानि कि अब हमारी रात अपनी है...ऑंखे फोड़ मैच देखने से बचे। दूसरा 23 तारीख आकर गई हमने विद्यार्थियों के एसाइनमेंट्स को अंकम् पुष्‍पं प्रदान कर दफ्तर दाखिल कर दिया है और अब तीन महीने तकरीबन छुट्टी है, तकरीबन इसलिए कि परीक्षा के ढक्‍कन किस्‍म के काम अभी भी करने होंगे पर वे न तो ज्‍यादा समय लेते हैं न ही किसी किस्‍म मानसिक शिरकत की उम्‍मीद ही रखते हैं, परीक्षा देते अपने ही विद्यार्थियों की चौकीदारी है....हो जाएगी।
हमारा वक्‍त बीतेगा खचेढ़ू चाचा के साथ। अब जब वक्‍त है ही तो क्‍यों न आपकी भेंट खचेढ़ू चाचा से करा दी जाए...न न मेरे चाचा नहीं हैं या कहें कि वे सिर्फ मेरे चाचा नहीं हैं वरन वे तो मेरे चाचा के भी, मेरे भी और बच्‍चों के भी चाचा हैं यानि वे दरअसल जगतचाचा हैं। अगर आप खचेढ़ू चाचा को नही जानते तो ये दुर्भाग्‍य है और भगवती चरण वर्मा के हीरोजी की तर्ज पर कहें तो दुर्भाग्‍य खचेढ़ू चाचा का भी है कि वे एक और अपने मुरीद से मिलने से वंचित रह गए।
खचेढ़ू चाचा दिल्‍ली के गॉंव गढ़ी मेंडू (दिल्‍ली के निवासी ध्‍यान दें कि यह गॉंव यमुना खादर में बजीरावाद के दूसरे किनारे पर स्थित है) के बाशिंदें हैं और हर चीज नाचीज़ पर वे अपनी मुख्‍तलिफ राय रखते हैं मसलन कल उन्‍होंने ढीली अदवायन की खाट पर धँसे धँसे ये राय व्‍यक्‍त कीं-
बाबरी मस्जिद मामले में दरअसल गॉंधी परिवार ही शामिल है। ये जो कहते हैं कि बाबरी मस्जिद ढहा दी , निरे बाबले हैं। अरे वह तो सोनिया गॉंधी ने चुपचाप एक जहाज पर लदवाकर दिल्‍ली मँगवा ली थी और गढ़ी गाँव के पास छुपाई हुई है। वो तो लोग ज्‍यादा बोलने लगे तो बचवा राहुल को कहना पड़ा कि उनका कुनबा ही तारनहार है। .....
ओर भी काफी कुछ कहा उन्‍होंनें ..पता नहीं सच कि झूठ, अब हम क्‍या करें हम तो रोज ही खचेढ़ू चाचा से मिलेंगें...मजबूरी है।

Sunday, March 18, 2007

कमबख्‍त 23 तारीख भी नहीं आती.....

रवि रतलामी जी ने कहीं मर्फी के नियम गिनाए थे उनमें ही यह भी जोड़ लेना चाहिए कि दुनिया मे तभी सबकुछ घट रहा होता है जबकि आपको दम मारने की भी फुरसत न हो।
अब देखिए न रात काली कर अपनी टीम को कमजोर पड़ोसी से दुरदुराया जाता देखें कि उन एसाइनमेंट को जॉंचे जिनका पहाड़ सर पर खड़ा है। ऊपर से इस चिट्ठाजगत मे मार लगी हुई है। मुखौटों तक से डर व्‍याप्‍त है, आचार संहिता बनी, अखबार मे छपास हुई, कुछ छपा कुछ नहीं, और तो और अविनाश ने घोषणा की कि उनकी नौकरी ही खतरे में पड़ गई है। लगता है NDTV ने ‘ऐसाइनमेंट’ पूरा करने की जो डेडलाइन दी थी वो निकली जा रही है और कुछ खास हो नहीं पा रहा है, वैसे उनका तो कहना है कि कोई एसाइनमेंट नही है भैया । इधर कमबख्‍त 23 तारीख भी नहीं आती.....23 इसलिए कि ये विश्‍वविद्यालय का अंतिम शिक्षण दिवस होता है फिर अनूपजी की भाषा में कहें तो हम भी खूब मौज ले पाएंगे। तब तक आप मौज लीजिए हम भी जब तब झांक लेंगे।

Friday, March 16, 2007

मुड़ के देखें Y2K को, उर्फ मिलना पुरानी प्रेमिका से

चूंकि मुखौटेबाजी काफी हो चुकी तो सोचा क्‍यों न देखा जाए कि कुछ पहले जब भविष्‍य की चिंता करते थे तो कैसा होता था। ये लेख मैंने नवम्‍बर 1998 में लिखा था और यह इत्रिका के प्रवेशांक (जनवरी 1999) का संपादकीय बना था। उस समय Y2K की संमस्‍या पर खूब चर्चा होती थी। मित्रो इत्रिका इंटरनेट पर पत्रिका निकालने का मेरा प्रयास था। उस समय यूनीकोड नहीं था और यह लेख भी अमर फांट में था इसे रूपांतर की मदद से यूनीकोड किया गया है।


'वाई २ के साहित्य' समस्या ....

२१वीं सदी का आरंभ केलेंडर बदलने भर से कुछ अलग है। नई सहस्त्राब्दी का आरंभ मानव सभ्यता के लिए एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण क्षण है। कंप्यूटर जगत की सबसे ज्वलंत समस्या तो २१वीं सदी का पहला क्षण स्वयं है। समझा जाता है कि यह क्षण इस क्षेत्र विशेष की प्रगति के समक्ष विशालतम चुनौती है इसे वे वाई २के समस्या कहते हैं । हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने इसी संदर्भ में वाई २ के पी.ई. समस्या का उल्लेख किया है अर्थात वर्घ् २००० राजनैतिक-आर्थिक समस्या। आशय है कि नई सहस्त्राब्दी के आगमन को मानव सभ्यता का प्रत्येक क्षेत्र एक संकट के रूप में देखता है। कला विशेषकर साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। आशय यह है कि वाई २-के साहित्य एक यथार्थ है और इससे आखें मूँदी नहीं जा सकती।
वैसे तो साहित्य जगत चिंता प्रधान लागों का जमावडा ही होता है उसे वर्तमान और भविष्य की कमीज, पैंट, चाय-कॉफी, खांसी-जुकाम सभी में विघटन के संकेत दिखते हैं लेकिन इधर कुछ दिनों से साहित्य पर मंडरा रहे संकट की बात कुछ अधिक ही की जा रही है। साहित्य की गरिमा, शुचिता, स्वरूप पर मंडरा रहे इस संकट को उत्‍तरआधुनिकता, बाज़ारवाद अपसंस्कृति की शब्दावली में पहचाना जाता है। पर इसे नकारा भी नहीं जा सकता की कुछ बदलाव अवश्य हो रहे हैं यह बात दीगर है कि इसे संकट माना जाए या अवसर।
साहित्य की परंपरा का आरंभ श्रुति परंपरा से होता है फिर लिपि का अविष्कार उसमें एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा है । हमारे साहित्य की दृष्टि से एक अत्यंत क्रांतिकारी मोड़ उन्नीसवीं सदी में आया जब छापेखाने का अवतरण हुआ। यह परिवर्तन एक प्रौद्योगिक घटना मात्र नहीं था यह एक बड़ी साहित्यिक घटना भी थी वह इस मायने में कि प्रेस ने साहित्य को प्रसार दिया और इस प्रसार ने लेखक को मुक्ति प्रदान की। सामंत पर उसकी निर्भरता समाप्त हुई और जन से जुड़ाव शुरू हुआ। साहित्य के इस सार्वजनीकरण ने साहित्य को संवेदना और रूप दोनों स्तर पर प्रभावित किया । जहाँ नए-नए विषयों पर रचना प्रारंभ हुई वहीं उपन्यास,कहानी, नाटक आदि नई-नई विधाएं साहित्य जगत में उभरीं । आशय यह है कि छापेखाने का अवतरण स्वयं में एक प्रौद्योगिक घटना होते हुए भी साहित्य जगत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने पाठक, लेखक परंपरा के रूप में साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया। शब्द की शक्ति खुल कर सामने आई। बीसवीं सदी का अंत साहित्य जगत में एसे ही एक अन्य मोड़ पर है।
राज्य के स्थान पर बाज़ार का केन्द्रिय नियमनकारी शक्ति हो जाना एक राजनैतिक आर्थिक घटना हो सकती है सूचना, संचार और मीडिया के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति एक प्रोद्यौगिक घटना है अवश्य मध्यमवर्ग का विशालतम वर्ग होना एक सामाजिक प्रवृघि है किंतु ये आर्थिक, राजनैतिक सामाजिक और प्रौद्यौगिक परिवर्तन साहित्य से असंपृक्त नहीं है मीडिया के चलते सृजन का सार्वजनिकरण हुआ है। और यह प्रैस द्वारा किए गए सार्वजनिकरण से कहीं अधिक है। आशय यह है कि नई सदी की प्रौद्योगिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों में साहित्य को एक नई वाई-२के स्थिति में ला खड़ा किया है। अंतर यह है कि यह परिवर्तन प्रैस की तुलना में अधिक औचक है, सिर पर एकदम सवार है और साहित्य जगत कम से कम हिंदी साहित्य जगत इसके लिए तैयार नहीं है। इसलिए उसे परिवर्तन, यह अवसर संकट जान पड़ता है। चूंकि उघरआधुनिकता का फ़ज़ी लॉज़िक उसे जंजाल जान पड़ता है और और साहित्य का नया सलीका उसे बेतुका जान पड़ता है। शब्द के साथ दृश्य व श्रव्य का जुडाव़ उसे अपसंस्कृति जान पड़ती है । यानि कुल मिलाकर सारा आंगन ही टेढ़ा है ।
वाई २के साहित्य अन्य क्षेत्र की वाई२के समस्या की भांति किसी संधि या संक्रमण काल की सुविधा नहीं देता अत: साहित्य के सुधी कर्मियों को गंभीरता से यह विचार करना कोगा कि प्रलाप एवं विलाप यदि आवश्यक है तो उसे समानांतर चलने दें किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है साहित्य जगत को तैयार करना ,बदलती स्थितियों से अनुकूलित करना, और उसमें वह जिजीविषा व प्राणवायु फूंकना जिससे वह ४० चैनलों के दूरदर्शन पर साहित्य की गुंजाइश को खोज सकें इंटरनेट के महासमुंद्र में साहित्य का लाइट-हाउस को चिन्हित कर सकें ताकि साहित्य की यह परंपरा अगली पीढी को संग्रहालयों में नहीं जीवंत एवं अधिक विकसित रूप में मिले जहां वे इस विकास को अपने इतिहास में प्रैस की ही भांति एक अवसर के रूप में जाने समझें जिसका पूरा लाभ हमारी पूरी पीढ़ी ने उठाया

Thursday, March 15, 2007

....मुझे मुखौटा आजाद करता है

चिट्ठाकारी में कविताएं खूब चलती हैं, कई बार तो चिट्ठाचर्चा तक कविताई में हो जाती है....कारण कोई बहुत गंभीर नहीं सिर्फ इतना है कि उसमें टाईप कम करना पड़ता है। खैर हम आज आपको कहानी सुनाएंगे।

ये कहानी एक अलग दुनिया की है। ये दुनिया रीयल तो नहीं है लेकिन विश्‍वास करें रीयली यह दुनिया है। इस दुनिया के बहुत से दरवाजे हैं और हर दरवाजे का एक अंधकारमय रास्‍ता है, वह इसलिए कि जब आप इस अंधकारमय रास्‍ते से गुजरें तो आप कोई एक मुखौटा पहन लें। ये आप अपनी मर्जी से चुन सकते हैं और पसंद न आए तो बदल भी सकते हैं, मुखौटों के चेहरे पर लगते ही आप बस एक मुखौटा हो जाते हैं। लोग इस दुनिया में इसलिए जाते हैं कि ये मुखौटे इस दुनिया के वासियों को आजाद करते हैं। आप इन मुखौटों को पहनकर वह सब कर सकते हैं जो करना चाहते थे पर कर नहीं पाते थे और अक्‍सर दिखाते थे कि आप ऐसी कोई चाहत नहीं रखते, मसलन चलते चलते आपका अक्‍सर मन करता था कि चीख कर कहें कि आप खुश नहीं हैं, आपका पति आपको पीटता है...या आप अपनी पत्‍नी को पीटते है...लेकिन जाहिर है ऐसा नहीं कर पाते थे। यह नई दुनिया खूब पसंद की गई, लोग इसमें आते घंटों घूमते मन भर की बातें हरकतें करते...बाद में मुखौटा उतारकर घर चले जाते। वे खुश थे....दुनिया खुश थी।

फिर कुछ ऐसा हुआ कि एक दिन एक मुखौटाधारी को इस दुनिया के, मतलब मुखौटों की दुनिया के ब्रह्मा के खिलाफ कुछ कहते सुना गया। पता नहीं किसने कहा था, मुखौटे के कारण पहचाना नहीं जा सका, क्‍या किया जाए। ब्रह्माजी गुस्‍सा पीकर रह गए। पर उन्‍होंने एक बड़े लाउडस्‍पीकर पर चिल्‍ला चिल्‍लाकर कहा कि खबरदार किसी ने यह सब कहा तो...नहीं चलेगा। आखिर हमने इतनी मेहनत से ये दुनिया बनाई है..ऐसा नही कहो। दुनिया के कई पुराने बाशिंदे जो हमेशा एक ही मुखौटा लगाते थे तुरंत मान गए। पर अब ऐसी घटनाएं बढ़नी लगीं.....ब्रह्मा और कई उनके चेले चपाटे इस बात से दुखी हो गए कि कोई उनकी खड़ी की गई दुनिया में आए और जो मन में आए वह बोले ये तो ठीक नहीं....
इलाज पहले तो ये निकाला गया कि ये लोग जिस तिस के पास जाते और मुखौटे को उठाकर चेहरा देखते ताकीद करते, धमकाते।

लेकिन इसका उलटा असर हुआ...जिनके चेहरे से मुखैटा हटाया जाते उन्‍हें बुरा लगता....वे या तो इस दुनिया में आना बंद कर देते। या अगली बार मुखौटा बदल देते।
दुनिया के उजाड़ होने का भी खतरा था पर यहॉं तो कुछ नया ही हुआ कि....दुनिया के सभी दरवाजों पर एक बोर्ड लगाया गया कि अब से 'इस दुनिया में मुखौटा लगाकर प्रवेश वर्जित है'।

मित्रो, कहानी यहीं समाप्‍त हो जाती है। पर दुनिया जारी रहती है। मैं चिट्ठाशास्‍त्र की बात इतनी शिद्दत से इसीलिए कर रहा था इतने दिनों से। कृपया इस बात का सम्‍मान कीजिए कि यहाँ इस चिट्ठाकारी की दुनिया का दस्‍तूर ही है कि यहाँ मुखौटा लगाकर रहा जाता है...मुखौटा यहाँ का अजूबा नहीं है। इसलिए इस पोस्‍ट को अवश्‍य पढ़ें



‘भाया, अगर नकाब पहनकर कुछ भी कहना है तो बहुत आसान है। पर्दे के पीछे अगर आप किसी को गाली भी दोगे तो कोई भी आपका कुछ नही बिगाड़ सकेगा। इसलिए जो कहना है, सामने आकर कहो। ये परिवार सबकी सुनता है, सारे निर्णय सामूहिक होते है।‘
इन अभिव्‍यक्तियों में दिक्‍कत है। जिसे नोटपैड (.....मुझे लगता है परिवार वाली अवधारणा मे ही दिक्कत है. पहले हम परिवार बनाएगे फिर सास-ससुर,जेठ-जेठानी,ननद-बहनोई भी पैदा होगे ही.तब तो हमारा यह परिवार बन जाएगा" कहानी घर घर की"....!! ) व अनुपम ने दर्ज किया है और ठीक किया है।
ध्‍यान दें कि खतरा यह है कि यदि आप इसे वाकई मुखौटों से मुक्‍त दुनिया बना देंगें तो ये दुनिया बाहर की ‘रीयल’ दुनिया जैसी ही बन जाएगी – नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी करते हैं एक झीना मुखौटा पहनते हैं जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो---ये हमें मुक्‍त करता है।


और हाँ मेरी बेटी की एक्टिविटी बुक में कई सारे मुखौटे बने हैं, जिन्‍हें रंग करना, पहनना उसे बेहद पसंद है। देखिए मेरा फैमिली फोटो




(ये समुद्री डाकू मैं हूँ, शेरनी स्‍वाभाविक है श्रीमतीजी हैं, सुदर राजकुमारी हमारी बिटिया श्रे... है और डोनाल्‍ड हमारा बेटा प्र... रास्‍ते में मिले तो पुचकार देना...कहना आप उसके पापा के दोस्‍त हैं।)

Wednesday, March 14, 2007

....क्‍योंकि हर पाठ उत्‍पाद है।

मैं इस कथन के निहितार्थ और चिट्ठाकार मित्रों की संभावित प्रतिक्रिया से वाकिफ हूँ। आप पढ़ेंगे और हँसेंगे- अमाँ ये मसिजीवी बिला शक अहमक है, पूछों कि पाठ उत्‍पाद कब नहीं था। तुलसी कबीर की ग्रंथावलियां बिकती हैं और राजकमल के महेश्‍वरी लाला मानें या न मानें पर ठीक ठाक बिकती हैं। स्‍कूल के पाठ और पाठ्यपुस्‍तक बिकती हैं। अरे जनाब पाठशालाएं तक बिक जाती हैं ऐसे में पाठ का उत्‍पाद होना कौन सी नई बात है। भैये मसिजीवी, इतनी छोटी समझदानी के ही बूते मौलिक चिट्ठाशास्‍त्र की बातें करने चले थे ?
इन सब प्रतिक्रियाओं की आशंका के बावजूद मैं कहूँगा कि हम इसे समझें इस पर विचार करें.....फिर भले ही फालतू लगे तो इस पर कुछ न करें।
शिल्‍पा ने इशारा किया है। वैसे भी पहले से ही यह दिखाई दे रहा था कि भारतीय भाषाओं की सामग्री की माँग लगातार बढ़ने वाली है और उसके अनुपात में सामग्री का सृजन नहीं हो रहा है। चिट्ठाकार पेशेवर होने की दिशा में इसलिए नहीं सोच पा रहे हैं कि वे मानते हैं कि पर्याप्‍त पाठक नहीं हैं इसलिए ब्‍लॉग को मोनेटाइज करने यानि उस पर एड चेपने से कोई खास फायदा होने वाला नहीं। इसलिए इंतजार करो और मजे लो (वेट एंड वाच)। लेकिन ठहरिए ये इंतजार खुद हिंदी के लिए बेहद नुकसानदेह हो सकता है। वो इसलिए कि यदि पर्याप्‍त सामग्री के अभाव को हिंदी का सच स्‍वीकार कर लिया गया तो हम उस ‘कटेंट एक्‍सप्‍लोजन’ से वंचित रह जाएंगे जिसके मुहाने पर हम खड़े हैं। याहू, गूगल दोनों को सामग्री चाहिए वो उन्‍हें मिल नहीं रही। आप खुद ही जरा काम की सामग्री हिंदी में खोजने की कोशिश कर देखिए। मुझे रोमन में Linguistic Identity के लिए परिणाम मिला




जबकि देवनागरी में जो 116 पृष्‍ठ मिले भी उसमें से भी अधिकतर हिंदी के न होकर मराठी के थे। यहॉं तुलना करना न उद्देश्‍य है न उससे कुछ हासिल होने वाला है। यहॉं कहना सिर्फ इतना है कि जो भी सामग्री हम तैयार कर रहे हैं उसे और अधिक प्रासंगिक बनाएं। साथ ही यह भी समझें कि ऐसा करना केवल हिंदी की सेवा जैसा पुनीत रिटोरिक ही नहीं है बल्कि ऐसा करने में पेशेवर समझदारी है। क्‍योंकि यदि माँग है और आपूर्ति पर्याप्‍त नहीं तो फिर कम से कम अर्थशास्‍त्र के नियमों के अनुसार तो कीमत बढ़नी चाहिए। पर अविनाश बेहतर जानते हैं कि अर्थशास्‍त्र के नियम जो ‘आम’ का भला करते हों अक्‍सर काम करते नहीं दिखाई देते (वरना मँहगाई का लाभ किसानों को मिलता दिखना चाहिए था)। पर तय यह ही है कि माँग व पूर्ति के इस अंतर का लाभ उठाना जरूरी है इसलिए भी कि इससे हिंदी की बढ़ोतरी भी होगी।
यह सोचने पर कि ये कैसे किया जा सकता है मुझे लगता है कि रेवेन्‍यू जनरेशन के भिन्‍न मॉडल की परिकल्‍पना की जानी चाहिए। यानि बजाए उस मॉडल के जो गूगल एडसेंस साईट मालिकों से वयवहार में लाता है हमें चाहिए कि सामूहिक रूप से अपनी सामग्री उस मॉडल के आधार पर ऑफर करें जो गूगल एडसेंस अपने विज्ञापनदाताओं से काम में लाता है। मैंने इस पर थोड़ा बहुत सोचा और नोटपैड खुरचा है पर याहू/गूगल वालों तक अपनी पहँच नहीं। नारद की व्‍यवसायिकता को लेकर एक साझी समझ है इसलिए उससे पहल के लिए कहना कठिन है वरना नारद एक अलग कंपनी लांच कर ऐसा कर सकता था। कुल मिलाकर ये कि हम जी तोड़ कोशिश करें कि नए सर्विस प्रदाताओं को पर्याप्‍त सामग्री मिलती रहे और हिंदी के सामग्री रचियताओं को बाजिव कीमत।

Tuesday, March 13, 2007

आइए रचें हिंदी का मौलिक चिट्ठाशास्‍त्र

इधर चिट्ठाकार मित्रों में अलग अलग अनुपात में एक आचार संहिता के लिए उत्‍साह देखने में आया है। कुछ मित्र मसलन सृजन, अमिताभ आदि मिशनरी रूप से इसके पक्षधर हैं तो कुछ असमंजस में ही सोच रहे हैं कि मोहल्‍ला प्रकरण के आलोक में शायद ये जरूरी है। चूँकि मौन को स्‍वीकृति मानने की नाजायज सी परंपरा सागर शुरू कर चुके हैं इसलिए मुझे लगा कि जो मानसिक कवायद हमने की है उसे साझा किया जाए। अविनाश और अन्‍य लोगों से जो छुटपुट चर्चा रविवार को हुई थी उसमें और अन्‍यथा भी मुझे अक्‍सर लगा है कि हिंदी चिट्ठाकारी के लोग स्‍वयं को चिट्ठाशास्‍त्र (ब्‍लॉग थ्‍योरी) से अलगा कर एक नई दुनिया बना रहे हैं।



यह ठीक है कि उपलब्‍ध चिट्ठाशास्‍त्रीय प्रतिमान हिंदी चिट्ठाकारी की प्रवृत्ति का पूरा ढाँचा व्‍याख्‍यायित करने में असमर्थ हैं किंतु इसका समाधान अपना मौलिक चिट्ठाशास्‍त्र गढ़ना है न कि उससे निरपेक्ष हो जाना। ऐसा करना सारे चिट्ठा जगत को गिफ्टरैप कर बरास्‍ता अविनाश इलैक्‍ट्रानिक मीडिया को भेंट कर देने जैसा होगा। हम कितना भी नकारें हमें मानना होगा कि कि चिट्ठाजगत को बाकी मीडिया वाले चिट्ठा उद्योग की तरह देखते हैं अत: उससे दो दो हा‍थ करने के लिए हमें अपना चिट्ठाशास्‍त्र चाहिए ठीक वैसे ही जैसे कि साहित्‍य को अपना स्‍वरूप निश्चित करने के लिए साहित्‍यशास्‍त्र चहिए होता है।

ऐसा तुरंत क्‍यों जरूरी है ?
इसलिए कि चिट्ठाकारी को ‘एक तरह की डायरी’, मीडिया ऐक्‍सटेंशन, छपास रोगियों का अभयारण्‍य आदि प्रचारित कर इसके स्‍वतंत्र रूप पर प्रश्‍नचिह्न लगाने की कवायद खूब आसानी से दिखाई दे रही है। ‘लो चलो हम सिखाते हैं’ के भाव से लोग टीवी की दुनिया से आ रहे हैं और महमूद फारूकी जैसे मित्र जाने अनजाने इस ‘बेचारे’ चिट्ठाजगत पर जो कृपा कर रहे हैं बिना इसे जाने समझे वे ऐसा इसलिए कर पा रहे हैं कि वे आँखों में आँखें डाल कह पा रहे हैं कि हिंदी चिट्ठाकारी क्‍या है यह खुद हिंदी चिट्ठाकारी को ही नहीं पता। वे इसलिए ऐसा कर पा रहे हैं कि अपने जैविक विकास में चिट्ठाकारी ने जो अपना विशिष्‍ट रूप हासिल किया है वह खुद को उस सैद्धांतिकी से नहीं जोड़ पाया है जो ब्‍लॉगिं‍ग ने पिछले दस वर्षों में खड़ी की है। ब्‍लॉग शोध की प्रवृत्ति शायद ऐसा करने की दिशा में एक सही कदम हो पर अभी तो एक ‘शायद’ मुँह बाए खड़ा है।

क्‍या सैद्धांतिकी इस औपनिवेशिक सोच को रोक पाएगी जिससे खतरा झांक रहा है ?

हाँ, जरूर। एक बार दम भर इस ओर देखें आप पाएंगे कि चिट्ठाशास्‍त्र मुख्‍यधारा हिंदी जगत का मातहत या छोटा भाई नहीं है। वह खुद एक मुकम्‍मल संरचना है। यह बोध चमत्‍कार करने में समर्थ है।

चलिए मान लिया कि चिट्ठाशास्‍त्र जरूरी है पर कौन रचेगा इसे, समय की तो कमी है ही साथ ही हम साइबर कैफै चलाने वाले हैं, ऐकाउटेंट हैं, साफ्टवेयर वाले हैं ये सैद्धांतिकी का काम हम कैसे करें?

इसी लिए जरूरी है कि ये काम हम करें, कोई सुधीश पचौरी, कोई नामवर, कोई राजेंद्र यादव इसे करने बैठ जाए इससे पहले जरूरी है कि हम इसे निष्‍पादित करें। क्‍योंकि हम जो है उसके जैविक विकास से इसके सिद्धांत निकालेंगे, कृत्रिमता से मुक्‍त। विश्‍वविद्यालयी एप्रोच से चिटठाकारी का भला संभव नहीं, ये अपने अनुभव से कह रहा हूँ मान लीजिए। बाकी रही आचार संहिता की बात तो कितनी भी बना लो ये तो नूह्हें चाल्‍लेगी।

Sunday, March 11, 2007

दिल्‍ली की मीट यानि हरी घास में दम भर

इधर हिंदी का चिट्ठाजगत एक किस्‍म की बेचैनी साफ दिखाई देती है, क्राइसिस है कि नहीं कहना कठिन है पर इतना तय है कि बदलाव के मुहाने पर तो हैं ही हम। दिल्‍ली की आज की ब्‍लॉगर मीट में भी इस बदलाव की छाया और स्‍वर दोनों थे। पहला बदलाव तो यह था कि मेजबान नदारद थे, और जिनके जैसे तेसे पहुँच जाने भर की उम्‍मीद थी वे बैठे हर मेज पर जाकर कुरेद कुरेदकर पूछ रहे थे कि भाईसाहब क्‍या आप वो हिंदी ब्‍लॉगर....., फिर हमारा साक्षात्‍कार एक आपत्तिसूचक नकार से होता था। हमें लगा कि ये ब्‍लॉगर मीटिंग कहीं ब्‍लॉगर डेंटिंग में न बदल जाए (जी साहब ब्‍लॉग शोधार्थी थीं ही वहाँ) पर खैर होनी को कौन टाल सकता है। धीरे धीरे ये लोग पहुँच गए-
(किसी नाम के आगे ‘जी’ नहीं लगाया गया है, हमारी संघ-आयु मात्र दो घंटे है....)





मैं
नीलिमा
नोटपैड
अमिताभ
सृजनशिल्‍पी
जगदीश
अमित
अविनाश
व मुक्‍ता
भूपेन



वैसे पता चला कि मैथिली मिल न पाने के कारण उल्‍टे पाँव लौट गए थे और अमित काफी पहले से ही किसी और कॉफी डे में कॉफी सुढ़क रहे थे।

खैर चर्चा शुरू हुई (बाद में खत्‍म भी हुई इसी बात पर कि) ये.....ये माजरा क्‍या है ? अविनाश से तो हमने सीधे पूछा कि बताएं कि आपके इरादे क्‍या हैं- उन्‍होंने राष्‍ट्र के नाम संदेश नुमा कुछ बताया और अंत तक उसी पर कायम रहे। (शायद नौकरी का सवाल हो...) हमे लगा कि शायद अविनाश का निजी एंजेंडा तो कुछ न हो पर वैसे इलैक्‍ट्रानिक मीडिया के मोहल्‍ले में कुछ पक रहा है......वे आ रहे हैं। हमारी राय में कल की चिट्ठाचर्चा के कयासों में दम था। खैर चर्चा चली, कॉफी चली.....चर्चा गर्म हुई, काफी ठंडी हुई।
लोकमंच बनाम मोहल्‍ला हुआ, पर तू-तू मैं-मैं नहीं हुई, सद्भाव कायम रहा। और बात...किस किस पर बात नहीं गई, महमूद फारुकी, इरफान, जितेंद्र, अनूप, नारद, घुघुती, प्रत्‍यक्षा, ...
कैफे कॉफी डे के बाद ‘हरी घास में दमभर’ बैठे और भूखे पेट चिट्ठाकारी को आसमान पर जा ले बैठाया। हम तो इसी मेल मिलाप के लिए गए थे सो बतला दिया। सृजनशिल्‍पी जरूर किसी तयशुदा ऐजेंडा से थे सो बताएंगे ही। हमारे लिए काम के मिनट्स ये हैं।


कैफे कॉफी डे के टायलेट में पानी नहीं था।
अविनाश के सेलफोन पर जब मनीषा का फोन आता है, तो वो सबको सुनाते हैं
हमें मुफ्त में कैफे की शक्‍कर तक मिले ये तक नीलिमा से बर्दाश्‍त नहीं
नोटपैड को ‘boys will be boys’ से परहेज है
पहली हिंदी टीन को जगदीशजी चिट्ठाकारी में लाने वाले हैं
लोकमंच पर लाल सलाम होगा- मोहल्‍ले में नमस्‍ते सदा वत्‍सले...
आयरिश एक तरह की कॉफी होती है जिसे 90+(वजन, उम्र नहीं) के ब्‍लॉगर पी सकते हैं
अमित खजुराहो हो आए हैं, यानि केवल वयस्‍कों के लिए पोस्‍ट आने वाली है

दोनों तस्‍वीरें नोट पैड के सौजन्‍य से हैं

इति श्री मीट कथा

Friday, March 09, 2007

....क्‍योंकि भाषा भी एक फ्रैक्‍टल है

मेरे एक साथी अध्‍यापक हैं डा. साहा। वे एक वरिष्‍ठ व प्रसिद्ध गणितज्ञ हैं जिन्‍हें गैर रेखीय गणित का विद्वान माना जाता है। उनका एक प्रस्‍तुतीकरण था, हमें भी होने का अवसर मिला। अब था तो निखट्ट गँवारों के बीच, मतलब डिग्रियॉं तो उनमें से शायद ही किसी के पास हम से कम हो पर वही समस्‍या जो हमारी शिक्षा पद्धति की है यानि ज्ञान तो शायद कम देती है पर ज्ञान का दंभ ज्‍यादा भर देती है। खैर उस प्रस्‍तुतीकरण को विशेष सराहना न मिल सकी किंतु मैं उसपर वाकई मुग्‍ध था। क्‍यों...यह अभी बताता हूँ।

जब तक गणित पढ़ा मेरा प्रिय विषय था और ऐसा इसलिए कि यह अमूतर्न को जिस माहिर अंदाज से साधता है खुद धर्म और दर्शन भी उसके सामने पानी भरते नजर आते हैं। हॉं तो डा. साहा की प्रस्‍तुति का विषय था ‘आर्डर एंड केओस’, गणितीय तो नहीं किंतु भाषा में इस विषय पर मैं लगातार सोचता रहता हूँ। शायद इसी वजह से यह संभाषण मुझे पसंद आया हो।
नीचे कही गई बातें उसी व्‍याख्‍यान का या तो अंश थीं या बाद में काफी सुढ़कते हुए उनसे हुई बातचीत के आधार पर लिखी गई हैं-


हम प्रकृति को जानना चाहते हैं, इसलिए नहीं कि वह उपयोगी है वरन इसलिए कि वह खूबसूरत है।
प्रकृति खूबसूरत है क्‍योंकि वह लीनीयर नहीं है, वह व्‍यवस्‍था व गैर व्‍यवस्‍था (केओस) का मिला जुला रूप है। मसलन एक बागीचे में कतार से लगे पौधों में व्‍यवस्‍था है पर इन पौधों की विविधता एक प्रकार के केओस से उपजती है।

हर व्‍यवस्‍था को रेखीय समीकरण में बदला जा सकता है इसलिए वह इन समीकरणों के आधार पर व्‍याख्‍यायीत की जा सकती
हैं। किंतु गैर रेखीय समीकरणों के साथ ऐसा नहीं है, वे जिन भी वैरिएबलों (चरों) पर निर्भर करते हैं उनमें जरा सा बदलाव अंत में बहुत ही बड़ा अंतर ला देते हैं। पृथ्‍वी पर जीवन का उदय होना, पेड़ की पत्तियाँ, आदि आदि की व्‍याख्‍या इससे की जा सकती है। दरअसल कम से कम तकनीकी तौर यह संभव है कि पूरे ब्रह्मांड के जन्‍म या मृत्‍यु की व्‍याख्‍या की जा सके बशर्ते हम इतनी गणनाएं कर पाएं। कुछ सरल गणनाएं करना अब कंप्‍यूटर से संभव हो गया है। और उसका उदाहरण फैक्‍टल होते हैं। (मुझे याद है कि इस चिट्ठे पर मैनें कुछ फ्रैक्‍टल पोस्‍ट किए थे....वे यहॉं, यहॉं, यहॉं और यहॉं हैं।) और भी कुछ खूबसूरत व्‍याख्‍याएं थीं और यह भी कि गणित ने ये सब बातें 1886 में ही कह दी थीं और सैद्धांतिक तौर पर ये आईंस्‍टाइन के सिद्धांत का विरोध करती हैं।


मुझे सबसे रोचक लगता है जब मैं इसे भाषा पर लागू करता हूँ, सोचिए जरा कि एक आम व्‍यक्ति भाषा में चंद ही शब्‍दों का इस्‍तेमाल करता है (शायद आधारभूत शब्‍दावली के शब्‍द 2000 से कम होंगे) पर इनसे इतने संवाद बन जाते हैं कि न केवल कोई भी अपने जीवन में कभी कोई भाषिक संवाद नहीं पूरी तरह दोहराता वरन मानव सभ्‍यता में ही कोई भाषिक संवाद जस का तस आज तक नहीं दोहराया गया। (शब्‍द, वाक्‍य, क्रम,वक्‍ता, श्रोता, प्रभाव, आदि के स्‍तर पर कोई न कोई अंतर अवश्‍य आ जाएगा चाहे आप स्‍वयं ऐसा जानबूझकर ही क्‍यों न करने की कोशिश करें) हॉं लिपि इस केओस में व्‍यवस्‍था लाने का प्रयास करती है और खूबसूरती से स्‍वयं केओस का शिकार हो जाती है।
लंबी बोझिल पोस्‍ट के लिए क्षमा मुझे डर था कि कहीं मैं बाद में लिखूंगा तो वह यह नहीं होगा जो अब है। पोस्‍ट के फ्रैक्‍टल मेरे पुराने बनाए हुए हैं। आप भी कोई टूल डाउनलोड कर कोशिश करें। ये बिल्‍कुल आसान है।

ट्रांसलिटरेशन औजार की परख

ट्रांसलिटरेशन से लिखने की आदत तो नहीं पर इतना शर्तिया कहा जा सकता है यह औजार कई लोगों को हिंदी ओर आकर्षित करने में समर्थ है। यह पोस्ट केवल इस औजार को टेस्ट करने के लिए लिखी गयी है। केवल ऐडिटिंग में दिक्‍कत हो रही है पर खुद शब्‍द सुझा सकने की इसकी बुद्धि आमतौर पर सही ही है। अच्‍छा दिन है। तो अब हिंदी में न लिखने का एक और बहाना कम हुआ लोगों का।
इसे टेस्‍ट पोस्‍ट भर माना जाए।

Thursday, March 08, 2007

एक उजड्ड हिंदीवाले की ब्‍लॉग दिक्‍कतें

कंप्‍यूटर हम उस जमाने से इस्‍तेमाल कर रहे हैं जब वह 8088 प्रोसेसर से चला करता था और PC-XT और PC-AT ही इसके वर्गीकरण थे। डिस्‍क में 20 एमबी की हार्ड डिस्‍क होती थी। MSDOS में मजे से काम करते थे, मतलब ये कि टेक्‍नॉल्‍जी से फोबिया कभी नहीं था। पर वह हमें हमेशा साधन ही लगती थी- साध्‍य नहीं। इसलिए टेकीज में हमारी गिनती कभी नहीं हुई। सबसे पहले हिंदी टाईप शायद वर्डस्‍टार (वर्जन III plus) जैसे एक वर्डप्रोसेसर ‘अक्षर’ में की फिर विंडोज आया और पेजमेकर व वेंचुरा का समय आया। इस सारी यात्रा में कंप्‍यूटर केवल प्रिटिंग की दुनिया की सहायता भर कर रहा था। हम कोने पर खड़े देख रहे थे भोग रहे थे।
अब मामला काफी अलग है। कंप्‍यूटर बाकायदा एक संचार माध्‍यम है और बहु ऐंद्रिय है- टेक्‍स्‍ट, आडियो, वीडियो की गुंजाइश के साथ है। यह भाषा को उसकी आखिरी सीमा तक ले जाकर परखता है और फिर उसका बाकायदा अतिक्रमण करता है। ब्‍लॉग यही कर रहा है। हिंदी की दुनिया का व्‍यक्ति हूँ किंतु यहॉं देखता हूँ कि टेकीज लोग ई पंडित, रवि, अनूप, आलोक सब उसी दुनिया के हैं ये अलग बात हे कि हिंदी की विषय वस्‍तु के भी माहिर ही हैं। हमें कई बातें बेचैन करती हैं उनमें से कुछ आपको हमारी अल्‍पज्ञता का प्रमाण लगें तो उन्‍हें सहेजें नहीं क्‍योंकि हम ऐसे ही बता देते हैं कि बुड़बक आदमी हैं- प्रभुजी मेरे अवगुण चित्‍त न धरौ...
कुछ लोगों को अभी भी लगता है कि हिंदी और इंटरनेट अलग चीजें हैं और हिंदी पढ़ने ओर लिखने के लिए ज्‍यादा मेहनत करनी पढ़ती है। पता नहीं मुझे तो अतुल की यह टिप्‍पणी जायज जान पड़ती है-

‘जीतू भाई , यह बात स्वामी की पोस्ट पर भी लिख चुका हूँ, मेरी नजर में वह हिंदीभाषी
लोग जिनकी रोजी रोटी कंप्यूटर की बदौलत है या जिनका पाला आये दिन कंप्यूटर से पड़ता
है, अपने ब्लाग पर आकर अगर फोन्ट का रोना रोते हैं “कि बाक्स दिखता है” उनसे बड़ा
ढकोसलेबाज , बहानेबाज और लुच्चा कोई इंसान नही हो सकता। जिस शख्स ने माँ को पुकारना
भी हिंदी मे सीखा हो आज अगर कंप्यूटर पर बैठे बैठे पाँच दस साल निकाल चुका है और
उसने एक भी हिंदी साईट नही देखी तो इससे बढा झूठ क्या होगा? कोई जरूरत नही ऐसे
बहानेबाजो को स्पूनफीडिंग कराने की। मैने शुरू में बहुतो को आपकी तरह पकड़ पकड़ कर
पढाया, अब नहि करता। पढना है तो खुद ढूढों फोंट और पड़ लो वरना देखते रहो कटिंग
चाय।‘

हॉं गैर हिंदी या गैर कंप्‍यूटर के लोगों के साथ फिर भी थोड़ी रियायत की जा सकती है।
सही कहें तो अब सिवाय चंद्रबिंदु (ँ ) के कोई विशेष परेशानी आती। मतलब यदि मैं Indic IME ही इस्‍तेमाल करना चाहूँ और रेमिंगटन कीबोर्ड इसतेमाल करूँ तो किसी किसी जगह चंद्रबिंदु ँ की जगह कॉं की तरह दिखती है लेकिन चूँकि मैं उतना शुद्धतावादी हूँ नही इसलिए काम चला लेता हूँ ।
मेरी असल दिक्‍कतें विषय वस्‍तु को ले‍कर ज्‍यादा हैं। क्‍यों हम लोग दुनिया जहान के विषयों पर नहीं लिख पा रहे हैं। मसलन आज आशीष नंदी को सुना उन्‍होंने डा. गिरींद्रनाथ का उल्‍लेख किया। ये भारत में मनोविज्ञान के पिता कहे जाते हैं। लेकिन जिस बात से मैं ज्‍यादा आकर्षित हुआ वह यह कि ये बंगाली और अंग्रेजी दोनों में मनोविज्ञान पर लिखते थे लेकिन मजेदार बात यह है कि इनका लेखन जो बंगाली में है वह अधिक प्रामाणिक है, साहसी है मौलिक है और आज प्रासंगिक है। काश हुगली के किनारे पर बैठा कोई पुरबिया उनके लेखन को हिंदी में ब्‍लॉगरों के लिए लिखता। हो सकता है उसे आज पढ़ने वाले चंद लोग ही हो पर चिट्ठा तो यहॉं हमेशा के लिए है। कोई लिखो तब तक वर्तनी जॉंचने का काम मैं देख लेता हूँ कोई गलती हो भी गई तो आप आकर सुधार देना।

Sunday, March 04, 2007

वे तीन साथ-साथ थे

कविताएं मैं कम लिखता हूँ। ये भी एक पुरानी कविता है। यूनीकोड में बदलकर देखा, बदल गई। सोचा बॉंटा जाए। पेश है-

कविता

वे तीन
साथ-साथ थे
सड़क साफ थी
अचानक
सामने से धूल भरी आंधी का
एक जबरदस्त झोंका आया
दरअसल तूफान आने वाला था
एक ने झट से उसकी और पीठ कर ली
दूसरे ने मींच लीं आखें
तीसरे ने आखें फाड़ धूल के पार
देखने की चेष्टा की,
वैसे दिखाई उसे भी कुछ खास न दिया
आखें उसकी
रेत से भर गईं
आखें मलते
उसके मुंह से निकला
बड़ी तेज आंधी है, शायद तूफान...
:
:
वह
आंधी लाने के षडयंत्र में
धर लिया गया
उसके दोनों साथी
बने चश्मदीद गवाह।

Friday, March 02, 2007

मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ? ----- ओपन सोर्स में

इस पोस्‍ट का सोर्सकोड यह है ...
मंटो का वक्‍तव्‍य 'मैं अफसाना क्‍यों लिखता हूँ' लिया। फाइंड-रिपलेस कमांड से अफसाना की जगह चिट्ठा चेपा। तदनुसार कागज-कलम की जगह कंप्‍यूटर के शब्‍द रखे। .....पोस्‍ट कर दिया। कॉपराईट या तो मंटो का माना जाए या ओपनसोर्स में माना जाए। हाजिर है-
मुझसे कहा गया कि मैं यह बताऊँ कि मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ? यह 'क्यों कर' मेरी समझ में नहीं आया. 'क्यों कर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह?
अब आपको क्या बताऊँ कि मैं चिट्ठा क्योंकर लिखता हूँ. यह बड़ी उलझन की बात है. अगर में "किस तरह" को पेशनज़र रखूं को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में कुर्सी पर बैठ जाता हूँ. कीबोर्ड पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके चिट्ठा लिखना शुरू कर देता हूँ. मेरे तीन बच्‍चे शोर मचा रहे होती हैं. मैं उनसे बातें भी करता हूँ. उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए "सलाद" भी तैयार करता हूँ. अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर चिट्ठा लिखे जाता हूँ.
अब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ.
अगर यह पूछा जाए कि मैं चिट्ठा 'क्यों' लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है.
मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.
मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.
मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैने किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे चिट्ठे लिखे हैं, जिन पर आए दिन विवाद चलते रहते हैं.
जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ कखग होता हूँ जिसे हिंदी आती है न संस्‍कृत, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी.
चिट्ठा मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती. मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई चिट्ठा निकल आए. कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूंकता रहता हूँ मगर चिट्ठा दिमाग से बाहर नहीं निकलता है. आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ.
अनलिखे चिट्ठे की घोषणा वसूल कर चुका होता हूँ. इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है. करवटें बदलता हूँ. उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ. बच्चों का झूला झुलाता हूँ. घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ. जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ. मगर कम्बख़्त चिट्ठा जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ.
जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता.
सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है. मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता. लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं ब्‍लॉगिस्‍तान का बहुत बड़ा चिट्ठाकार हूँ.
मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ. उन पर कोई जादू कर रहा हूँ.

माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया. किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ.
अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई उसने मुझसे यह कहा है, "आप सोचिए नहीं, कीबोर्ड पीटिए और लिखना शुरू कर दीजिए."
मैं इसके कहने पर कीबोर्ड पर अंगुलियॉं चलाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई चिट्ठा उछलकर बाहर आ जाता है.
मैं खुद को इस दृष्टि से चिट्ठाकार नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?

Thursday, March 01, 2007

.......सच बड़ा मजा आए

यूँ तो बार बार पीछे मुड़ के देखना ओर हाय हमारा अतीत....हाय वे मोहक दिन.....वो पीली छतरी वाली लड़की.....वो काले छाते वाले मास्‍टरजी......वो सफेद टोपी वाले इरफान साहब......वो बड़े छाते वाली यूनीवर्सिटी स्‍टाल......वगैरह वगैरह ये पीछे मुड़ मुड़ के देखना, ये अपना डोमेन नहीं है। अविनाश, इरफान, जितेंद्र वगैरह इसे अच्‍छा कर पाते हैं हालांकि इसकी चैंपियन फिर भी प्रत्‍यक्षा ही हैं ;) पर थोड़ा बहुत होली की पिनक में हम भी बहक गए थे। पर सच मानिए अपने ही पॉंवों पर खड़े हैं और 'मैं कुछ हूँ' की खामख्‍याली अब छोड़ चुके हैं। इसलिए उन अतीत की फाइलों को रहने ही देते हैं जिसके यूनीकोड में परिवर्तन के बाद साझा करने का आदेश (था तो सुझाव ही पर हम उसे भी आदेश की तरह ही लेते हैं) हमें रविजी, श्रीशजी और अनूपजी ने दिया। इसलिए कि मुझे लगता है कि डींगें और शौर्यगाथाएं तब गाएंगे जब जंग जीत लेंगे अभी तो लड़ाई जारी है। इसलिए पीछे नहीं चलिए आगे देखें। और बॉंटनी ही हैं तो मोहक अतीत की बजाय चलिए अपने सपने बॉटूं, मोहक सपने भी होते हैं लेकिन उनके साथ एक जिम्‍मेदारी भी होती है कि या तो उन्‍हें पूरा करो नहीं तो कम से कम ऐसा पत्‍थर तो बन ही जाएं जिसपर होकर भविष्‍य के अद्यतन लोग उसे पूरा करने निकलेंगे।

मैं टाफलर नहीं न ही जो मैं भविष्‍य के रूप में देख रहा हँ वह कोई प्रो़द्योगिकीय अनुमान है मैं तो केवल सपने की तरह इसे देख रहा हँ पर अलौकिक व अवास्‍तविक की गुंजाइश पैंतीस साल की उम्र में बहुत नहीं रह जाती है। हिंदी चिट्ठाकारिता को लेकर जिस बात की मैं सबसे पहले कामना करता हँ वह यह है कि ये पिता की अपने पिता से बात करने भर की भाषा न हो वरन अपने बच्‍चों से बात करने की भाषा हो। मेरा मतलब है मैं इस चिट्ठा समुदाय को किशोर किशोरियों से भरा देखना चाहता हूँ जो कभी कभी किसी गुरू गंभीर विषय पर र्भी बात कर लें तो मुझे कोई हर्ज नहीं लेकिन आम तौर पर वे आपसी छेड़छाड़, इश्‍क मोहब्‍बत, हम बड़ों की बुराइयॉं, कूल, हैंगिंग आउट, पढ़ाई .....ये सब बातें करते ही दिखें ( न कि हमेशा किसी गुरूभार में दबे कि ये सब वे अपनी भाषा के संरक्षण या बढ़ावे वगैरह के लिए कर रहे हैं) कुछ ऐसे चिट्ठाकार बिरादरियॉं हों जहॉं देशी विदेशी गीत-संगीत नाच आदि की बातें होती हों और तीस साल से बड़े लोगों को वहॉं मुँह न लगाया जाता हो। मतलब हिंदी की चिट्ठाकारिता सॉंस लेने की हद तक स्‍वाभाविक हो कोई महत कार्य न रह जाए, न तो तकनीकी तौर पर ना सांस्‍कृतिक तौर पर। वैसे तकनीकी तौर पर तो ये बस एक कदम भर दूर है आज एक अच्‍छा हिंदी स्‍पीच रेकगिनिशन औजार आया जो हिंदी में बोले को झट यूनीकोड में बदल दे बस फिर क्‍या है....सांस्‍कृतिक तौर पर जरूर एक लंबी लड़ाई है। यानि हमें चाहिए हिंदीटीन (हिंदी के किशोर)। वैसे ये ना समझें कि हमें रैप-रॉक पसंद हैं अरे हम तो बस इतना चाहते हें कि ये हिंदी की दुनिया इतनी बड़ी हो जाए कि भले बुरे सब करम होने लगें इसमें।

चिट्ठाकारिता का दूसरा सपना जरूर ऐलिस इन वंडरलैंड किस्‍म का है। जाहिर है चिट्ठाकारिता की दुनिया विशाल होती जाएगी ओर फिर गूगलदेव के नित नवीन अवतारों के आते जाने के बाद भी कितना मजा आए कि ऐसे ही तफरीह करते हुए हम बाहर निकलें और कोलम्‍बस की तरह हमें कोई नया अमरीका मिल जाए। यानि चिट्ठाकारिता की एकदम अनदेखी दुनिया जिससे हम अब तक अपरिचित थे। किस्‍से कहानी जैसी बात है पर सबकुछ संभव है। नए आबाद ग्रह मिलना अगर स्‍वीकृत सपना है तो दस-बीस नारद क्‍यों नहीं मिल सकते......चलते चलते जमीन पर ऑंखें गढ़ाकर चलता था बचपन में कि शायद कोई सिक्‍का पड़ा मिल जाए। सच बड़ा मजा आए।