Wednesday, January 28, 2009

अब जीमेल ऑफलाइन भी

सबसे ज्‍यादा इस्‍तेमाल होने वाली चीजों पर कम ध्‍यान जाता है जैसे कि जीमेल। याद आता है जब हॉटमेल पर एकाउंट हुआ करता था, और वो काफी वक्‍त तक रहा तो ये बात ही काफी होती थी कि अब ईमेल जॉंचने के लिए विश्‍वविद्यालय में टेलनेट से सर नही मारना पड़ता, जहॉं इंटरनेट मिले बेवबेस्‍ड ईमेल से काम चला लो। 1एमबी की सटोरेज थी और वो इतनी लगती थी कि शायद कभी खत्‍म नहीं होगी। अब जीमेल है जिसके बाद स्‍टोरेज की सीमा की अवधारणा ही खत्‍म हो गई।

कम लोग जानते हैं और उससे भी कम इस्‍तेमाल करते हैं लेकिन जीमेल में कई सारी सुविधाएं मुखपृष्‍ठ की बजाय जीमेल लैब्‍स पर दी जाती हैं। आज ही पता चला कि जीमेल ने आफलाइन ईमेल सेवा प्रदान करनी शुरू कर दी है। तकनीकी तौर पर इसका मतलब है कि इसे सेटिंग में जाकर लागू करने के बाद गूगल की तकनीक जिसे वे गीयर कहते हैं आपकी मेल्‍स को संजो कर रख लेंगी और बाद में रास्‍ते में या कहीं भी जब आप इंटरनेट पर न हों तब भी इन मेल्‍स को पढ़ सकेंगे, सर्च आदि कर सकेंगे। तकनीक साधारण लेकिन बहुत काम की दिख रही है। खासकर घूमते फिरते लागों के लिए। आप उपने उत्‍तरों को कम से कम ड्राफ्ट रूप में तो संजो ही सकेंगे। हमें बस यही समझना है कि इस आफलाइन अवतार में भी एडसेंस वाली ईमेल होगी या विज्ञापन मुक्‍त क्योंकि आफलाइन मोड में विज्ञापन तो क्लिक हो नहीं पाएंगे।

यदि आपने गूगल लैब को परखा नहीं हे तो जीमेल सेटिंग में जाएं वहॉं ऐसे कई और औजार हैं। आफलाइन जीमेल पर और जानकारी के लिए ये वीडियो देखें।

Tuesday, January 20, 2009

संजय-प्रिया (दत्‍त) के बहाने कुलनाम पर

बच्‍चे अभी छोटे हैं लेकिन अपनी कुछ बातें उन्‍हें अजीब लगती हैं। इनमें से एक है मंदिर व मूर्ति की जीवन व घर से अनुपस्थिति, इस बारे में फिर कभी लिखेंगे आज एक और शून्‍य पर विचार करते हैं। ये उनके नाम के बाद। बेटे का नाम प्र.. है और बेटी का श्रे.. न कम न ज्‍यादा। उनकी कक्षा में बच्‍चे शर्मा, वर्मा, धींगरा, त्रिपाठी, शुक्‍ला, गुप्‍ता...हैं पर ये बेचारे बस पहले नाम भर हैं न कम न ज्‍यादा। हमारे अपने नाम में इन अलंकरणों की कोई कमी नहीं। मुझे याद है कि शादी के निमंत्रण पत्र में नाम से पहले कुँवर लगाया था बाद में तो सरनेम खैर था ही। कुँअर अजीबोगरीब प्रताप सिंह चौहान टाईप। ठकुराई का कोई अंश बकाया नहीं रखा गया आखिर बेटा जाति से बाहर विवाह करने जा रहा था, विजातीय पक्ष पर दबाब बनाना जरूरी था। सरनेम एक रूतवा है एक 'एसेट' है जिस पर कब्‍जा बरकरार रखना जरूरी था।

मान्‍यता ने सुनील दत्‍त के परिवार में विवाह किया और झट से मान्‍यता दत्‍त हो गईं पता नहीं उससे पहले क्‍या थीं। शादी प्रिया ने भी की पर वो पहले भी दत्‍त थीं और बाद में भी बनी रहीं। संजय को बहन की ये हरकत नागवार गुजर रही है। 'दत्‍त' पिता के परिवार का ब्रांड है जिसे पुत्र के ही पास जाना चाहिए। वैसे कई और जुगाड़ भी प्रचलित हैं इंदिरा 'नेहरू' नहीं रहीं गॉंधी हो गईं सोनिया न जाने क्‍या से गॉंधी हो गईं जबकि प्रियंका वढेरा के साथ साथ गॉंधी भी हैं- क्‍या पता कब काम आ जाए।

हमें ये सरनेम या कुलनाम के लिए संघर्ष, जातिवाद तथा पितृसत्‍ता की लड़ाई तो दिखता ही है साथ ही यह उत्‍तराधिकार या संपत्ति पर कब्‍जे की भी लड़ाई है। सरनेम समाज की यथास्थिति के पक्ष में कई काम एक साथ करता है। इस मामले में कई दलित समुदायों द्वारा सवर्ण समुदायों के नाम अपना लेना एक शानदार औजार है। इस अहम को तोड़ने का। कोई शुक्‍लाजी म्‍यूनिसिपैलिटी का पाखाना साफ करते दिखें, सिंह साहब अनुसूचित जाति वर्ग से कॉलेज में एडमिशन लें... तो कम से कम शहर में तो बहुत कुछ बदलता है। आप नाम भर से जाति पता लगा सकने लायक नहीं रहते बाकी काम शहर की गुमनामता कर देती है। लेकिन दूसरी लड़ाई ज्‍यादा कठिन है दरअसल पितृसत्‍ता के खिलाफ लड़ाई पश्चिमी समाजों सहित किसी भी समाज में एक सबसे कठिन लड़ाई है। इसलिए प्रिया के खिलाफ संजय का आरोप केवल ननद भाभी की नोंक झोंक नहीं है। क्‍योंकि जिस जमीन पर संजय ने ये लड़ाई लड़ने की ठानी है वह पितृसत्‍ता के सबसे मजबूत आधारों में से है।  

Saturday, January 17, 2009

एसओएस: रेमिंग्‍टन के लती मैक पर क्‍या करें

कंप्‍यूटर से दोस्‍ती पुरानी है लेकिन मैक से पहचान भर भी नहीं रही। apple-notebook-6 हाल में काम पड़ा तो खिलौने सा लगा, पर काम की चीज है और खास बात ये है कि काम न करने का विकल्‍प मौजूद नहीं है। गूगल व दोस्‍तों की सहायता से पता चला कि कैसे हिन्‍दी पढ़ी जा सकती है लेकिन लिखी कैसे जाए। इंटरनेशनल की सेटिंग में जाकर उसे लिखने लायक बनाया पर जिस कीबोर्ड के इस्तेमाल की उम्‍मीद करता है वो हमसे होगा नहीं। पंद्रह साल से रेमिंग्‍टन पर काम कर रहे हैं और अब इस उम्र में क्‍या राम राम पढेंगे। तो भइया ये डिस्‍ट्रेस काल है, किसी भले या कम भले मानस को पता हो कि इंडिक, बाराहा, कैफेहिन्‍दी जैसा कोई हिन्‍दी इन्‍पुट का औजार मैक पर काम करता हो जो रेमिंग्‍टन (साथ साथ ट्रांसलिटरेशन का भी आप्‍शन हो तो और भला) में काम करने की सुविधा देता हो जरूर बताएं। इतना सुंदर सा सेब लैपटाप है हम नहीं चाहते कि इसका इस्‍तेमाल सिर्फ बच्‍चों के गेम खेलने में हो।

वैसे खूब सोचने पर भी आलोकजी को छोड़कर कोई हिंदीदॉं याद नहीं आ रहा जो मैक का शौकीन हो इसलिए उन्‍हें भी मेल कर देते हैं। आप कोई राह सुझा सकें तो जरूर बताएं।

नहीं जी हमारा कोई बर्थडे नहीं है बख्शिए हमें

अच्‍छा बताइए हर किसी का पैदा होना क्‍यों जरूरी है, लोग अवतार लेते रहे हैं, खोजे जाते रहे हैं, निर्मित किए जाते रहे हैं। अच्‍छा चलिए हम पैदा हुए भी थे तो भी अचानक सारी दुनिया ईर बीर फत्‍थे हमारे जन्‍मदिन के बारे में इतने चिंतित क्‍यों हो गए हैं। इतने जितने कि हम खुद भी कभी नहीं हुए। आजकल हमारे मेलबाक्‍स में दे दनादन हमारा जन्‍मदिन जानने की आकांक्षा रखने वालों की कतार पाई जाती है-

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अब ये बताइए कि बहिनजी की तरह हम मुख्‍यमंत्री तो हें नहीं कि धिक्‍कार, सम्‍मान, थू थू और न जाने क्‍या क्‍या दिवस के रूप में मनाए जाने के लिए हमारे जन्‍मदिन की जरूरत हो। हम होते तो बता देते हम बर्थडे जानने वाले से कुछ रोकड़ मिलता।

मजे की बात है कि हमने अरसे से मशीनों को जवाब  न देने की नीति अपना रखी है। मतलब न तो 10000000000000000000000 डालर की लाटरी नि‍कलने की सूचना पर, न बीबो, फीबो, बर्थडे वगेरह वगैरह।

लेकिन फिर भी कोई इच्‍छुक हो जान ले कि जिस साल इंदिरा का राज था उस साल के बहुत बारिश वाले दिन जब केंचुए अपने  बिलों से बाहर निकल आए थे, पड़ोस की रामवती की बेटी को हैजा हुआ था जब ही हमारा अवतार हुआ था।

जन्‍मदिन खोजक बिरादरी अब हमें माफ करें।

Friday, January 09, 2009

पसंद न कर पाने के बहाने का अंत- नया ब्‍लॉगवाणी विज़ेट

घुघुतीजी ने एक बहुपसंदीदा पोस्‍ट लिखी थी जिसमें शिकायत थी कि 'बहुत अच्‍छा' कहकर खिसक लेने वाले टिप्‍पणीकार ब्‍लॉगवाणी में पसंद है का चटका क्‍यों नहीं लगाते।

एक बात जो मुझे समझ नहीं आती वह यह है कि बहुत से पाठक बहुत से चिट्ठों पर टिप्पणी में कहते हैं बहुत बढ़िया। परन्तु उसी चिट्ठे पर पसन्द में एक भी चटका ( या चटखा ? )नहीं लगा होता।

लेकिन सच्‍चाई ये है कि उन्‍हें समझ आ गया था कि इसकी वजह क्‍या है उन्‍होंने कहा-

इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि वे ये चिट्ठे ब्लॉगवाणी पर न पढ़कर किसी अन्य स्थान पर पढ़ते हैं

सच ही है कि पढें नागपुर में और पसंद करने वापस बंबई जाएं तब तो हो ली पसंद। सही तरीका तो यही है कि पढें और वहीं कमेंट के बराबर में या उसी पढे़ जा रह ब्‍लॉग पर ही पसंद की सुविधा हो तो मजा आए। हमने यही सलाह अपने कमेंट में दी थी-

मुझे लगता है कि पसंद व पाठ अलग अलग जगह होना इसकी वजह है। मतलब सिरिल को अब ऐसा औजार बनाना चाहिए के पोस्‍ट को चिट्ठे पर ही ब्‍लॉगवाणी के लिए पसंद किया जा सके

उद्यमी और मेधावी बालक सिरिल आ गए दबाब में और लीजिए अब ब्‍लॉगवाणी ने ये सुविधा दे दी है। आपको करना ये है कि ब्‍लॉगवाणी के मुखपृष्‍ठ पर दाईं ओर कोने में दिख रहे -

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बक्‍से को क्लिक करें और विजेट कोड लेकर अपने ब्‍लॉग में जहॉं चाहें चेप लें। साईडबार में चेपना सबसे आसान है लेकिन हमने तो पोस्‍ट के ठीक नीचे चेपा है ताकि किसी के पास आलस करने का कोई कारण न रहे, इसलिए भी कि गलती वलती से भी क्लिक हो सके :))। इस तरह पसंद पाने के लिए अच्‍छा लिखने की कोशिश के झंझट से पूरी तरह मुक्ति।  तो देर किस बात की नीचे दिख रहे पसंद पर चटकाएं और अपने विजेट को लेने के लिए ब्‍लॉगवाणी पर जा धमकें।

Thursday, January 08, 2009

तर्कविरोध के बरक्‍स विचार की बस

हाल में अनुजा की पोस्‍ट की पोस्‍ट पढ़ी थी फिर आज लंदन में चल रहे अनीश्‍वरवादियों के अभियान का भी परिचय मिला। मिलीटेंट नास्तिक नहीं हूँ पर सहानुभूति अनीश्‍वरवादियों के ही साथ रही है जिसकी वजह तार्किकता पर उनकी आस्‍था तथा व्‍यवहार का अधिक लोकतांत्रिक होना रहा है। अनीश्‍वरवादी ईश्‍वर को नहीं मानते इसलिए 'उनका ईश्‍वर' किसी दूसरे के ईश्‍वर से श्रेष्‍ठ नहीं होता, पाप पुण्‍य का हिसाब नहीं रखा जाता जो डरा धमकाकर दलित, स्‍त्री या अन्‍य वंचितों का मातहतीकरण हो सके। ये अलग बात है कि मिलीटेंट किस्‍म के निरीश्‍वरवाद में कभी कभी आस्‍थावादियों के लिए उपहास देखने को मिलता है जो हमें नही रुचता (लेकिन पूरी तरह दावा नहीं कर सकते कि हम इससे मुक्‍त हैं वरना पड़ोस के मंदिर से फिल्‍मी धुनों के आधार पर बने भक्ति गीतों की कर्कशता इतना न चिढ़ाती) कुल मिलाकर हमारा पंथ रहा है कि प्रत्‍येक को अपनी आस्‍था का, जिसमें आस्‍थाहीन भी शामिल हैं, का अधिकार है। हालॉंकि मानवता का इतिहास बताता है कि धर्मों ने क्रूरता को बढ़ावा ही दिया है और अनीश्‍वरवाद ने तार्किकता को।

इस सब के बावजूद अनीश्‍वरवादी सदैव अल्‍पमत में ही रहे हैं इसलिए वे कभी एकजुट हो कोई संप्रदाय नहीं बन सके हैं। ऐसे में लंदन की बसों पर ईश्‍वर में विश्‍वास न होने के आनंद का प्रचार बेहद सुखद महसूस होता है। काश ऐसा कभी अपने शहर में भी हो। यूँ चार्वाक तथा बौद्ध दर्शन मूलत: ईश्‍वर के न होने में ही विश्‍वास करते हैं लेकिन वे आधुनिक समय में इसका ऐसा उत्‍सवीकरण नहीं कर पाते।

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यहॉं इस अभियान के बीज शब्‍द प्रोबेबली (शायद) पर जोर देखें। ईश्‍वरवादियों की तरह त्रिशूल और ऐके सैंतालीस के दम पर 'हम ही ठीक हैं' के स्‍थान पर संदेह की गुंजाइश ही इसे इतना आनंददायी सोच बनाती है। ये बात भी कि यदि ईश्‍वर नहीं है तो वर्तमान जीवन अनूठा तथा खूबसूरत है क्‍योंकि ये अब फिर नहीं आएगा। इसके बरक्‍स लंदन की बस पर ही  ईश्‍वरवादियों के निम्‍न संदेश को देखें-

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आतंकवाद से डरे लोगों को पहले विस्‍फोट की तस्‍वीर से डराया फिर संदेश: ईसा ने कहा कि जो मुझमें विश्‍वास रखता है उसका उद्धार होगा- सवाल है जो ईसा में विश्‍वास नहीं रखता उसका   क्‍या होगा, मतलब मेरा। जवाब है कि नर्क में आग की झील है जिसमें जलना पड़ेगा (मानो ईश्‍वर झील का लाइफ गार्ड हो, और अगर वो इतना ही अच्‍छा है तो कमबख्‍त आग की झील जैसी बुरी तकलीफ देनेवाली चीज बनाई ही क्‍यों...उफ्फ देखा मैं उपहास करने लगा)  इस अभियान का आधिकारिक अंतर्जालस्‍थल ये है तथा एक वीडियो जिसमें वे अपने अभियान के पक्ष को स्‍पष्‍ट कर रहे हैं आप नीचे देख सकते हैं।

 

 

 

Wednesday, January 07, 2009

खानपान का देहलवी अंदाज : चाचे दी हट्टी

आइए एक तस्वीर से बात शुरू करें-

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इस तस्‍वीर को देखकर लाजिमी तौर लगेगा कि कोई किरासिन का डिपो है या ज्ञानदत्‍तजी के ब्‍लॉग पर टिप्‍पणीकार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं पर नहीं दरअसल ये पूरी तस्‍वीर कुछ ऐसे है-

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एक अन्‍य कोण से ये कुछ यूँ दिखती है

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जी दो दो कतारें, पुरुषों के लिए अलग तथा स्त्रियों के लिए अलग। जैसे कि आप अनुमान कर चुके होंगे हम दिल्‍ली की खानपान को लेकर दीवानगी का एक प्रमाण पेश कर रहे हैं। ये छोटी सी लेकिन बहुत जानी मानी दुकान है- चाचे दी हट्टी:

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चाचे दी हट्टी उत्‍तरी दिल्‍ली के व्‍यावसायिक केंद्र कमला नगर में बँग्लो रोड पर है, किरोडीमल कॉलेज के पीछे। वर्षों से दिल्‍ली भर के ग्राहक इस दुकान पर सुबह 10 से लगभग 3 बजे तक लाइन लगाते हैं ताकि वे आलूवाले या सादा भटूरों का मजा ले सकें पिंडी छोलों के साथ। उसके बाद दुकान बंद  तथा रविवार को पूरे दिन की छुट्टी। ठेठ ठसक की दुकानदारी....है कि नहीं।

जैसाकि आप दुकान के आकार से अनुमान लगा सकते हैं ये बेहद छोटी सी दुकान है बमुश्किल सत्‍तर वर्ग फुट की। जिसमें जैसे तैसे कड़ाहा रखकर भटूरे तलने तथा छोले के साथ परोसने वालों के लिए खड़े होने भर की जगह है। लेकिन दिल्‍ली भर इस स्‍वाद की दीवानी है। विश्‍वविद्यालय के छात्र छात्राओं के लिए ये दशकों से मिलने-जुलने व खानपान की जगह बनी हुई है।

अगर दिल्‍ली के स्‍वाद ग्रंथि के इतिहास पर नजर डालें तो दो महत्‍वपूर्ण पड़ाव सहज ही दिखाई पड़ते हैं एक है मुगल चरण, जो पुरानी दिल्‍ली में केंद्रित है- तंदूरी मुर्ग, बटर चिकन, दाल मक्‍खनी, पुरानी दिल्‍ली की चाट आदि वे व्‍यंजन हैं जो इस चरण की देन हैं। दूसरा सोपान है विभाजन के कारण बड़े पैमाने पर विस्‍थापित पंजाबियों के दिल्‍ली आने और दिल्‍ली के अपने दिल व द्वारों को इन पंजाबियों के लिए खोल देने का चरण। इन शरणार्थियों में से अनेक ने खोमचा खानपान का धंधा अपनाया छोले भटूरे इसी कोटि का एक बेहद लोकप्रिय व्‍यंजन सिद्ध हुआ है। चाचे दी हट्टी इसी परंपरा से है।

ऊपर व्‍यक्‍त इतिहास बेहद सरलीकृत है तथा यहॉं उद्देश्‍य दिल्‍ली व पंजाब विशेषकर लाहौर के पहले से विद्यमान संबंधों की उपेक्षा करना कतई नहीं है। दूसरी ओर जब दिल्‍ली की इस शानदार संस्कृति पर विचार करते हैं कि बाहरी प्रभावों को लेकर ये शहर कितना स्‍वागत का रवैया अपनाता है तो आप निश्चित तौर पर गर्व महसूस करते हैं। भाषा, जायका, पहनावा, अंदाज सभी को लेकर एक देहलवी लोच।

आपको इस जायके को खुद महसूस करने के लिए दिल्‍ली सदैव ही आपको आमंत्रित करती है। आलूवाले अठारह रुपए, सादा सोलह रुपए।

Monday, January 05, 2009

मौसमी तस्‍वीरें

गूगल न्‍यूज के सहारे देश के मौसम का हाल जानने की कोशिश में इस पोर्टल पर जा पहुँचे और यहीं पहुँचकर पता चला कि कश्‍मीर व अन्‍य जगहों पर हुए हल्‍के हिमपात की खबर देने का जिम्‍मा बाकायदा मनमोहन सिंह ने ले रखा है। मैडम ने बाकी जरूरी कामों के लायक नहीं समझा होगा न :))

(दरअसल मौसम विभाग के अधिकारी का नाम भी संयोग से मनमोहन सिंह है तथा पोर्टल के संपादकों ने इस नाम से पैदा हुए भुलावे में प्रधानमंत्री की तस्‍वीर चेप दी है।

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Sunday, January 04, 2009

दुश्‍मन देश की बच्चियॉं मुझे सोने क्‍यों नहीं देती

पाकिस्‍तान एक 'शत्रु' देश है, उसकी मुसीबतों के लिए के वो खुद जिम्‍मेदार है, जैसा बोएगा वैसा काटेगा...जैसे कई दिलासे देने वाले कथन सोचे जा सकते हैं पर मुझे फिर भी नही लगा कि पाकिस्‍तान के इलाके की इन बच्चियों को 'उनकी औरतें' मानकर उनकी बदहाली पर प्रसन्‍न हुआ जा  सकता है। खबर है कि पाकिस्तान के स्‍वात घाटी क्षेत्र में तालीबान शासन लागू हो चुका है। और इन शासनों का पहला निशाना जाहिर है महिलाएं होती हैं। सभी लड़कियों के स्‍कूल बंद कर दिए गए हैं (ज़ाहिर है सहशिक्षा की अवधारणा वहॉं है ही नहीं) जो सात साल से ज्‍यादा उम्रकी बच्‍ची बाहर दिखे उसे कत्‍ल कर देने का फरमान है, किसी महिला को घर से बा‍हर अकेले जाने की इजाजत नहीं है किसी मर्द के साथ दिखें तो निकाहनामा लेकर चलना अनिवार्य है, पूरी तरह से शरीर ढककर चलना है,  घर की सभी कुंआरी बच्चियों का नाम मस्जिद में दर्ज कराना अनिवार्य है ताकि उनका निकाह तालीबानी लड़ाकों से किया जा सके। वे अध्‍यापिकाएं जो बच्चियों के इन स्‍कूलों में पढ़ाती थीं बेरोजगार हो चुकी हैं, यूँ भी किसी महिला को बाहर काम करने की इजाजत नहीं है...

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ओह।। खैर मुझे क्‍या वो तो दुश्‍मन देश की बात है...या शायद मुझे खुश होना चाहिए कि ये दुश्‍मन देश की बात है। मेरी बच्‍ची तो होमवर्क निपटाकर इत्‍मीनान से सो रही है दुनियाभर की बच्चियों का ठेका मैं नहीं ले सकता। मुझे सोने दो दुश्‍मन देश की बच्चियों।

 

 

तस्वीर यहॉं से