कुछ खाते पीढि़यों के हिसाब से चलते हैं। मसलन बहु को सास ने तंग किया तो बदले में बहु जब सास बन जाएगी तो अपनी बहू को तंग करेगी। पूरी पीढ़ी बीतेगी तब जाकर उधार चुकेगा- अगली पीढ़ी की बहु टेढ़ी निकली तो बेचारी मंझली पीढ़ी वाली मारी गई- पहले सास ने सताया बाद में बहू सताएगी। ये सब भूमिका इसलिए कि हमें लगता है बहुत से मामलों में हमारी पीढ़ी बस यही मंझली पीढ़ी है। जब बालक थे तो पिता की पीढ़ी को लगता था कि हमारी पीढ़ी के बेटे बेहद नालायक हैं, थोड़ा बड़े हुए खुद बाप बने तो बच्चों की पीढ़ी को लगता है (कहा तो नहीं पर लगता जरूर है) कि बडे नालायक बाप हैं। अब उन्हें कैसे समझाएं कि वो हम पर नालायक होने का आरोप अब नहीं लगा सकते क्योंकि अपने हिस्से के नालायकी के आरोप हमने तब भुगत लिए थे जब हमारी बारी थी और कायदा ये कहता है कि अब आरोप लगाने की बारी हमारी है।
खैर...अगर आप सोच रहे हैं कि सुबह सुबह इतना ज्ञान हमें कहॉं सो हो गया तो आसान सा तरीका समझाते हैं...15 किलो का वजन अपने पर लादें आपके भी ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे। बच्चे को स्कूल बस तक छोड़ने बस स्टाप तक गए थे, वो तो खाली हाथ, लडि़याती आवाज में जानना चाह रहा था कि हम बीएमडब्ल्यू क्यूं नही ले लेते (हम तो खैर कभी न पूछ पाए कि पिताजी साइकल के टूटे पैडल को ठीक क्यों नहीं करवा लेते) जबकि हम उसके भयानक भारी बस्ते के बोझ के नीचे कराह रहे थे। तभी हमने सोचा कि जब हम छोटे थे तब तो हमारी पीढ़ी के बच्चे अपने बस्ते खुद उठाया करते थे, हमारे ही नहीं पास पड़ोस के भी किसी बाप को हमने बालक का बस्ता उठाए नहीं देखा था... तो मतलब ये कि पिछली पीढ़ी में भी हमने बस्ता उठाया और अब भी उठा रहे हैं- कुल मिलाकर हम भी मंझली पीढ़ी की बहु हुए न। तब भी कमर दुखी अब भी हम दु:खी। कथित ज्ञान के इस बस्ते की बिडंबना ही यह है कि जो एक बार इसे उठाता है वह दु:खी ही रहता है।
पहली बार नहीं है कि मंझली पीढ़ी के बाप इस कराह से गुजर रहे हैं..अनादि काल से होता रहा है। दरअसल खुद की निगाह में तो हर पीढ़ी मंझली पीढ़ी होती है। बेचारा राम- बाप के पास तीन तीन बीबीयॉं थीं, बुढ़ापे की लपलपाहट में जवान बीबी की बात में आया और रामजी गए चौदह साल के लिए जंगल में..लेकिन अगली पीढ़ी ने कहॉं मानी उसकी बात.. वो तो तैयार थे धनुष उनुष लेकर मां का बदला लेने को। बेचारे राम आक्खी जिंदगी एक बीबी के लिए भी तरसते रह गए। दरअसल जैसे जैसे समय बहता है वह हर किसी को किसी न किसी लिहाज से तो मंझलेपन की त्रासदी में डालता ही है। जाति आधारित शोषण, स्त्री शोषण, आरक्षण, पोलिटिकल करेक्टनेस के बाकी मोर्चे किसी को भी देख लो मंझली पीढ़ी ही कीमत चुकाती दिख रही है।