Friday, July 11, 2008

मंझली पीढ़ी के बाप की कमर और बस्ते का बोझ

कुछ खाते पीढि़यों के हिसाब से चलते हैं। मसलन बहु को सास ने तंग किया तो बदले में बहु जब सास बन जाएगी तो अपनी बहू को तंग करेगी। पूरी पीढ़ी बीतेगी तब जाकर उधार चुकेगा- अगली पीढ़ी की बहु टेढ़ी निकली तो बेचारी मंझली पीढ़ी वाली मारी गई- पहले सास ने सताया बाद में बहू सताएगी। ये सब भूमिका इसलिए कि हमें लगता है बहुत से मामलों में हमारी पीढ़ी बस यही मंझली पीढ़ी है। जब बालक थे तो पिता की पीढ़ी को लगता था कि हमारी पीढ़ी के बेटे बेहद नालायक हैं, थोड़ा बड़े हुए खुद बाप बने तो बच्‍चों की पीढ़ी को लगता है (कहा तो नहीं पर लगता जरूर है) कि बडे नालायक बाप हैं। अब उन्‍हें कैसे समझाएं कि वो हम पर नालायक होने का आरोप अब नहीं लगा सकते क्‍योंकि अपने हिस्‍से के नालायकी के आरोप हमने तब भुगत लिए थे जब हमारी बारी थी और कायदा ये कहता है कि अब आरोप लगाने की बारी हमारी है।

खैर...अगर आप सोच रहे हैं कि सुबह सुबह इतना ज्ञान हमें कहॉं सो हो गया तो आसान सा तरीका समझाते हैं...15 किलो का वजन अपने पर लादें आपके भी ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे। बच्‍चे को स्‍कूल बस तक छोड़ने बस स्‍टाप तक गए थे, वो तो खाली हाथ, लडि़याती आवाज में जानना चाह  रहा था कि हम बीएमडब्‍ल्‍यू क्‍यूं नही ले लेते (हम तो खैर कभी न पूछ पाए कि पिताजी साइकल के टूटे पैडल को ठीक क्‍यों नहीं करवा लेते) जबकि हम उसके भयानक भारी बस्‍ते के बोझ के नीचे कराह रहे थे। तभी हमने सोचा कि जब हम छोटे थे तब तो हमारी पीढ़ी के बच्‍चे अपने बस्ते खुद उठाया करते थे, हमारे ही नहीं पास पड़ोस के भी किसी बाप को हमने बालक का बस्‍ता उठाए नहीं देखा था... तो मतलब ये कि पिछली पीढ़ी में भी हमने बस्‍ता उठाया और अब भी उठा रहे हैं- कुल मिलाकर हम भी मंझली पीढ़ी की बहु हुए न। तब भी कमर दुखी अब भी हम दु:खी। कथित  ज्ञान के इस बस्‍ते की बिडंबना ही यह है कि जो एक बार इसे उठाता है वह दु:खी ही रहता है।

पहली बार नहीं है कि मंझली पीढ़ी के बाप इस कराह से गुजर रहे हैं..अनादि काल से होता रहा है। दरअसल खुद की निगाह में तो हर पीढ़ी मंझली पीढ़ी होती है। बेचारा राम- बाप के पास तीन तीन बीबीयॉं थीं, बुढ़ापे की लपलपाहट में जवान बीबी की बात में आया और रामजी गए चौदह साल के लिए जंगल में..लेकिन अगली पीढ़ी ने कहॉं  मानी उसकी बात.. वो तो तैयार थे धनुष उनुष लेकर मां का बदला लेने को। बेचारे राम आक्‍खी जिंदगी एक बीबी के लिए भी तरसते रह गए। दरअसल जैसे जैसे समय बहता है वह हर किसी को किसी न किसी लिहाज से तो मंझलेपन की त्रासदी में डालता ही है। जाति आधारित शोषण, स्‍त्री शोषण, आरक्षण, पोलिटिकल करेक्‍टनेस के बाकी मोर्चे किसी को भी देख लो मंझली पीढ़ी ही कीमत चुकाती दिख रही है।

Thursday, July 10, 2008

ये लीजिए आईएईए से नाभकीय समझौते का मसौदा

अभी कल तक जिन कागज पत्रों को भारत विदेशमंत्री यह कहकर दिखा नहीं रहे थे कि कमअक्‍ल भारतीयों को दिखाना ठीक नहीं है जबतक अमरीकी आका नहीं कहेंगे नहीं दिखाएंगे वह 24 घंटे बीतते न बीतते सबके सामने है। यदि आपने अब तक न पढ़ा हो तथा इच्‍छुक हों तो मसौदा इस लिंक पर उपलब्‍ध है-

भारत- आईएईए ड्राफ्ट सेफगार्ड्स

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Saturday, July 05, 2008

विषयों के गिरते उठते बाजार भाव

हमने कभी शेयर बाजार में दमड़ी का निवेश नहीं किया पर इसका कोई सैद्धांतिक कारण नहीं है सीधी सी वजह है कि गांठ में फालतू दमड़ी रही ही नहीं इसलिए निवेScreenHunter_01 Jul. 05 07.01श नहीं खर्च करते हैं। इसके बावजूद शेयरों के भाव उठने गिरने से जो ग्राफ बनता हे उसे देखने में अच्‍छा लगता है। वो संतरी रंग का आरेख ऊपर उठता और फिर गिरता दीखता है कितना अच्‍छा खेल है। जिसके ढेर पैसे लगे होते होंगे उनके दिल की धड़कन भी ऊपर नीचे होती होगी हमें तो वो बादलों में बन रही आकृति सा लगता है, इसलिए नीचे गिरता सा दिखता है तो मन करता है कि वाह क्‍या भारत के नक्‍शे के नीचे की आकृति बन रही है, गिरते गिरते पूरे कन्‍याकुमारी तक पहुँचे तो मजा आए।

ये बाजार भाव केवल शेयरों के ही ऊपर नीचे नहीं होते वरन कुछ ऐसी मदों के भी होते हैं जिनसे हमें बहुत फर्क पड़ता है। मसलन हिन्‍दी को ही लीजिए। कई सालों से बारहवीं पास करके आए बच्‍चें को बीए में प्रवेश देते रहे हैं। वो गर्व या चिंता से अपनी अंकतालिका हमें थमाते हैं और हम उसे परामर्श देते हैं -अरे आपके तो हिन्‍दी इलेक्टिव में 80 हैं- हिन्‍दी आनर्स ले लो अच्‍छा करोगे। वो करेले के सूपपान का सा कड़वा मुँह बनाता है.. न जी न हम तो बीए पास ही लेंगे- हिन्‍दी आनर्स नहीं, संस्‍कृत भी नहीं..अरबी नहीं फारसी नहीं और बांग्‍ला तो कतई नहीं (हमारे यहॉं यही भाषाएं पढ़ाई जाती है पर विश्‍‍वास है कि अन्‍य भारतीय भाषाओं की हालत इनसे बेहतर नहीं ही होगी)। अंगेजी आनर्स मिलेगा नहीं ... साल दर साल यही दोहराया जाता है। भारतीय भाषाओं का बाजार भाव का आरेख  हर बार अरब सागर  से शुरू होता है और कन्‍याकुमारी जाकर रुकता  हे फिर ऊपर नहीं चढ़ता। जब हम विद्यार्थी हुआ करते थे तो विज्ञान इस दुनिया के टिस्‍को व रिलायंस होते थे, अब पता नहीं कि शेयर बाजार में टिस्‍को की हालत कैसी है पर दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में तो बीएससी के ग्राहक गायब हैं। बस बीकाम या बीए अर्थशास्‍त्र ही हैं जो चुम्बक की तरह सारे मलाई खींच ले जाते हैं। हिन्‍दी को छाछ भी मिल जाऐ तो गनीमत। ऐसे में बंगाली-उर्दू- संस्‍कृत को क्‍या मिलता होगा इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। इतना जान लें कि पहली ही कट आफ में लिखकर टांग दिया गया है कि अरेबिक, फारसी व बंगाली में हर व्‍यक्ति के लिए दाखिला खुला है।

वैसे अनुभव ये भी बताता है कि हिन्‍दी ने खुद को बेहतर पोजिशन कर लिया है अब 50 प्रतिशत पर नहीं 60 प्रतिशत पर प्रवेश मिलता है। दरअसल बहुत से विद्यार्थियों खासकर ठीकठाक चेहरे मो‍हरे वाली लड़कियों को लगने लगा है कि टीवी पत्रकार बनने के लिहाज से हि‍न्‍दी ली  जा सकती है (यूँ भी पत्रकारिता में  भूत चुड़ैल, सनसनी आदि ही तो करना है कौन महान योग्‍यता चाहिए ) ऐसे में पूरे साल में दो विद्यार्थी भी ऐसे मिल जाएं जो साहित्‍य पढ़ने के इरादे से बीए में आए हों तो हम निहाल हो जाते हैं।

Tuesday, July 01, 2008

एडसेंस की हिन्‍दी को पूर्ण-विदाई !!

आज ही गूगल एडसेंस की मेल आई है कि वे एडसेंस की रेफरेल योजना ( AdSense Referrals programme ) को विदा करने वाले हैं। उनकी मेल का अनुवाद है-

ऐडसेंस रेफ़रल कार्यक्रम में भाग लेने के लिए धन्यवाद . हम
अगस्‍त के अंतिम सप्‍ताह में ऐडसेंस रेफ़रल कार्यक्रम को समाप्‍त कर रहे हैं . उस समय के बाद , ऐडसेंस कोड विज्ञापन प्रदर्शित करनप बंद कर देगा

ऐसा वे सिर्फ हिन्‍दी के साथ नहीं कर रहे हैं जैसा कि उन्‍होंने एडसेंस के मामले में किया है वरन वे रेफरेल की व्‍यवस्‍था ही खत्‍म कर रहे हैं। किंतु हिन्‍दी के लिए इसका मतलब ये हुआ है कि एडसेंस के कंटेंट आधारित विज्ञापन तो उन्‍हें मिलने पहले ही बंद हो गए थे जो थेड़ी बहुत कमाई संभव थी वह केवल रेफरेल विज्ञापनों से ही थी। अब रेफरेल विज्ञापन भी बंद हो जाएंगे। पेशेवर हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग का सपना अब और दूर खिसक जाएगा। यदि गूगल से परे सोचकर हिन्‍दी के चिट्ठाकार आगे बढ़ना चाहें तब भी राह आसान नहीं क्‍योंकि कोई भी अन्‍य विज्ञापन प्रदाता अभी भी पर्याप्‍त विज्ञापन जुगाड़ने में सफल नहीं हो पा रही है।

लगता है कि ब्‍लॉगिंग के भरोसे नौकरी छोड़ने का सपना पूरा होने से पहले ही हम रिटायर हो चुके होंगे। :))