Wednesday, February 25, 2009

सारी छपास एक तरफ मेरे टिप्‍पणीकार एक तरफ

लवली हैरान हो रही हैं कि पत्रकार-साहित्‍यकार बिरादरी भला हम ब्‍लॉगरों को क्‍या मानती है। लवली की चिंता एकदम जायज है लेकिन लवलीजी ऐसी तानकाशियों को जाने दें। ब्‍लॉगिंग शब्‍द के जनतांत्रीकरण से शक्ति पाती है। कल मेल बाक्‍स में अपनी कुछ पोस्‍टों पर बालासुब्रह्मण्‍यम साहब की कुछ टिप्‍पणियॉं देखने को मिली...ये सभी नई पोस्‍टें नहीं थीं न ही सभी टिप्‍पणियॉं लेखन की तारीफ ही थीं पर यदि आप इन टिप्‍पणियों को देखें तो सहज समझ आता है कि क्‍यों आपका लिखा पत्रकारीय लेखन से ज्‍यादा दीर्घायु है..इसलिए नहीं कि ये उससे अच्‍छा है या किसी अन्‍य कोटि में 'ग्रेंड' की कोटि का है वरन इसलिए कि ये अजर है तथा इसलिए कि औसत है और औसतपन का ही उत्‍सव है।

इन अपेक्षाकृत लंबी टिप्प‍णियों में से पहली  दूसरी प्रति- बेबात का बैकअप पर थी -

मसिजीवी जी आप मुझे क्षमा करेंगे। आज सर्फिंग करते-करते आपके ब्लोग पर आ धमका, इतना अच्छा लगा कि एक के बाद एक पोस्ट पढ़ता गया और उन पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करता गया, अपने आपको रोक न सका। अब उन्हें अप्रूव करना विप्रूव करना आपके हाथ!
अब विषय पर आते हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी की। आपने उन किताबों को अनपढ़े ही अलमारी में ठूंस दिया, पर पढ़ लेते तो यह टिप्पणी आपको और भी मजेदार लगती। शायद आपने ये किताबें पहले जरूर पढ़ी होंगी।
बात यह है कि ये किताबें हिंदी में प्लेगियरिज्म के सबसे उम्दा मिसालें हैं। यकीन नहीं होता? हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महिमा-मंडित, बीएचयू के वाइस चैंसलर कैसे प्लैगियरिस्ट हो सकते हैं? सब कुछ बताता हूं, फिर आप मानेंगे। और उन्होंने नकल की भी है, तो किसी ऐरे-गैरे-नत्थू गैरे की नहीं, बल्कि अपने ही पूर्वज सुप्रसिद्ध आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तकों की।
अभी हाल में मैं पढ़ रहा था आचार्य शुल्क की एक ऐंथोलजी, जिसके संपादक हैं डा. रामविलास शर्मा। अपनी लंबी संपादकीय टिप्पणी में डा.शर्मा ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है। और अपनी बात की पुष्टि में इतने सारे उद्धरण दिए हैं कि उनकी इस स्थापना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पुस्तक का नाम हैं - लोक जागरण और हिंदी साहित्य, प्रकाशक वाणी प्रकाशन। यदि पूरी भूमिका पढ़ने का समय न हो, तो "इतिहास लेखन की मौलिकता" वाला अनुभाग अवश्य पढ़ें।
मैंने रामविलासजी का पिछली टिप्पणी में भी जिक्र किया है। मैं उनका कायल हो गया हूं। उनकी एक-दो किताबें पुस्तकालय से लाकर पढ़ी थीं। इतना प्रभावित हुआ कि अच्छी-खासी निधि खर्च करके (लगभग पांच-छह हजार)उनकी सारी किताबें दिल्ली जाकर खरीद लाया। अब उन्हें एक-एक करके पढ़ रहा हूं। आपको भी सलाह दूंगा कि समय निकालकर उन्हें पढ़ें (और किताबों से अलमारी की शोभा बढ़ाने की अपनी आदत से बाज आएं :-))
आपने अंबेडकर की बात की है इस पोस्ट में। मैं डा. रामविलास शर्मा की एक किताब की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा जिसमें उन्होंने अंबेडकर की विचारधारा की समीक्षा की है। यदि आप अंबेडकर की संपूर्ण वाङमय को न पढ़ सकें, तो भी इस किताब को अवश्य पढ़ें। इसमें अंबेडकर के अलावा गांधी जी और लोहिया की विचारधाराओं की भी समीक्षा है। हमारे वर्तमान मूल्यहीनतावाले समय के लिए यह किताब अत्यंत प्रासंगिक है। हमारे युवा, और हम भी, गांधी जी को लेकर काफी असमंजस में रहते हैं, हम उनके बारे में और उनके विचारों के बारे में कोई राय नहीं बना पते। डा. शर्मा की यह किताब गांधी जी के विचारों को ठीक तरह से समझाने में कमाल करती है।
पुस्तक का नाम है - गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतयी इतिहास की समस्याएं; लेखक - डा. रामविलास शर्मा, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
अपने ब्लोग में साहित्य की इसी तरह चर्चा करते रहें, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

एक अन्‍य टिप्‍पणी मार्क्‍स - पराजित शत्रु के लिए खिन्‍न मन  पर है

मार्क्सवाद के दुनिया के सबसे बड़े व्याख्याता अपनी भाषा हिंदी के डा. रामविलास शर्मा हैं। भले ही विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में मार्क्सवाद का कद छोटा कर दिया गया हो, डा. रामविलास जी पुस्तकें धड़ल्ले से बिक रही हैं। उनकी लगभग सभी पुस्तकें (मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध: थलेस से मार्क्स तक, आदि... डा. शर्मा ने अपने सुदीर्घ जीवनकाल में 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं हीं, और मार्क्स के दास कैपिटा (पूंजी) का अनुवाद भी हिंदी में किया है), वाणी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से उपलब्ध हैं, और सभी पुस्तकों के रीप्रिंट पर रीप्रिंट निकलते जा रहे है, क्या यह इस ओर सूचित करता है कि मार्क्सवाद अब अजायबघर का सामान बन गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के कुल क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से पर माओवादियों की तूती बोलती है, जिनके भाई-बंद अब नेपाल में भी कमान संभाले हुए हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय मार्क्स से आंख मूंद लें, तो क्या फर्क पड़ता है। आपने शुतुर्मुर्ग के बारे में तो सुना ही होगा कि खतरे के वक्त वह क्या करता है। ये विश्वविद्यालय भारतीय समाज के शुतुर्मुग ही हैं।

एक अन्‍य पोस्‍ट है Alt+Shift की पलटी और ' नितांत निजी' पीड़ा (कैसी अजब बात है कि मुझे अपनी लिखी पोस्‍टें कम ही पसंद आती हैं, सुनील, समीर, अशोक पांडे या अनूप को पढ़ते हुए यूँ भी खुद को पसंद कर पाना आसान नहीं, पर ये एक ऐसी पोस्‍ट है जो मुझे विशेष ब्‍लॉगिंया पोस्‍ट लगती है...पर अफसोस इसे कम ही पढ़ा या पसंद किया गया :-( )

जब आप ओल्ट + शिफ्ट से टोगल करते हैं, तो यह पता लगाना कि आप ट्रफाल्गर स्क्वेयर (अंग्रेजी) में हैं या लखनऊ के चौक (हिंदी) में बहुत आसान है। कंप्यूटर स्क्रीन के ठेठ नीचे की नीली पट्टी (जिसे टाक्स बार कहा जाता है, और जिसमें स्टार्ट आदि बटन होते हैं) को देखिए। उसमें भाषा प्रतीक दिखाई देगा, HI हिंदी के लिए, और EN अंग्रेजी के लिए। हर बार जब आप आल्ट-शिफ्ट करें यह प्रतीक बदलेगा। बिल्लू बाबू (बिल गेट्स) ने हर चीज का इंतजाम किया है, आप चिंता क्यों करते हैं इतना!!

आखिर में एक और पोस्‍ट क्‍या भारतीय कम्‍यूनिस्‍ट चीनी हितों के लिए काम कर रहे हैं 

नहीं ऐसी बात तो नहीं लगती, साम्यवादी दल के नेता उतने ही देश भक्त हैं जितने कि हमारे राहुल गांधी, आडवाणी, वाजपेयी, मनमोहन, आदि। साम्यवादी अलग चश्मे से दुनिया को देखते हैं। उनके लिए आम आदमी का हित पहले आता है, चाहे वह मजदूर हो, किसान हो, महिला हो, बेरोजगार हो, इत्यादि। परमाणु करार का इनसे कोई संबंध नहीं है। उसका संबंध है अमरीका के बड़े-बड़े महाजन (पढ़ें बैंक), अस्त्र-निर्माता, और भारत में उनके सहयोगी (यहां के धन्नासेठ, विदेशी कंपनियों के दलाल, इत्यादि)। इनके लिए यह करार आवश्यक है। अब अमरीका पूंजीवाद के उस स्तर पर पहुच गया है जहां उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत उसके पास इकट्ठा हो गई अकूत पूंजी पर प्राप्त ब्याज और मुनाफा है, एक दूसरा जरिया अस्त्रों की बिक्री है। भारत में भारी पूंजी लगाने से पहले वह सुनिश्चित करना चाहता है कि वह पूंजी यहां सुरक्षित रहेगी। इसीलिए वह यह करार चाहता है। इस करार के बिना वह भारत को अस्त्र भी नहीं बेच सकता, जो उसकी आमदनी का मुख्य जरिया है।

साम्यवादी दल और परमाणु करार के अन्य विरोधी नहीं चाहते कि उपर्युक्त अमरीकी उद्देश्यों को पूरा करने में अपने देश के हितों को ताक पर रखकर हम बिना सोचे कूद पड़ें।

हमारी प्राथमिकता परमाणु करार करके अमरीका की पूंजी को यहां खुली छूट देना या अमरीका से महंगे-महंगे अस्त्र खरीदना न होकर, गरीबी, निरक्षरता, कुस्वास्थ्य, महिलाओं और बच्चों का उत्पीड़न आदि को दूर करना है। साम्यवादी दल हमेशा से यही कहता आ रहा है कि हमें इस ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, यही तो यूपीए सरकार के कोमन मिनिमम प्रोग्राम में भी कहा गया है। पर मनमोहन देशी-विदेशी धन्ना-सेठों और अस्त्र-व्यापारियों की ओर झुकते जा रहे हैं, जो हमारे देश के हित में नहीं लगता। भूलना नहीं चाहिए कि वे लंबे समय तक विश्व बैंक के सलाहकार रह चुके हैं और उनकी विचारधारा अमरीका-परस्त है।

फिलहाल में इन टिप्‍पणियों के कथ्‍य पर टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ, टिप्‍पणी में बहुपठता, वैचारिक झुकाव दिख रहा है। पर सबसे अहम ये बात सोचें कि सुब्रह्मण्‍यम साहब ने कितनी देर लगाकर मेरी इन पोस्‍टों को पढ़ा होगा इन पर ये टिप्‍पणियॉं की होंगी...शायद कुछ और पोस्‍ट भी देखी हों जिन्‍हें उन्‍होंने नजरअंदाज करने लायक समझा हो...कुल मिलाकर कहना ये कि पाठक ने इतना समय मुझे दिया अपनी अमूल्‍य राय भी दी...अनजान शख्‍स जिनकी प्रोफाइल तक सार्वजनिक नहीं है।

ब्‍लॉग शुरू होने से पहले ही मेरी एक किताब प्रकाशित है जिसके छ: साल में तीन संस्करण आ चुके हैं, पुस्‍तक की समीक्षा भी प्रकाशित हुई थीं, पुस्‍तक पर एक राष्‍ट्रीय कहा जाना वाला पुरस्‍कार मिला था जिसमें बीस हजार रुपए हमें नकद प्राप्‍त हुए थे, हमें हर साल एक छोटी सी राशि रायल्‍टी के नाम पर भी मिलती है.... पर इतने सालों में आज तक एक बंदा नहीं टकराया जिससे बात करते हुए या तारीफ सुनते हुए लगे कि अगले ने किताब पढ़ी है...और उसकी टिप्‍पणी का कोई मतलब है मुझे पूरा विश्‍वास है कि रायल्‍टी सिर्फ लाइब्रेरी खरीद की वजह से मिलती है...समीक्षा मुफ्त की किताब मिलने के एवज में मिली तथा पुरस्‍कार इसलिए कि पुस्‍तक के विषय पर किताबें तब लिखी ही नहीं जा रही थीं..या अंधों में काणा राजा वाली बात रही होगी।

अब आप ही बताएं कि मैं क्‍यों अपने ब्लॉगर होने को छापे का लेखक होने से ज्‍यादा अहम न मानूं। अगर एक सुब्रह्मण्‍यम साहब ही अकेली वजह होते तो भी मैं ब्‍लॉगर होना ही चुनता।

Friday, February 20, 2009

बेटर, बेहतर, बेहतरतम... उर्फ बेहतर की तरतमता

कल दीवान पर एक थ्रेड यानि चर्चा सूत्र देखने को मिला। बात काम की लगी तो इच्छा हुई की आप से भी बॉंटा जाए, शायद अजीतजी की नजर इस पर जाए तो वे इसपर और प्रकाश डालें।

एक सदस्‍य विक्रम ने सवाल पूछा-

'बेहतर': क्या यह शब्द सच में हिन्दी या उर्दू से निकल आया हैं?
मैं इस लिए पूछ रहा हूँ की किसी एक दोस्त ने फरमाया है कि अंग्रेज़ी शब्द 'better' के 'etymology' हिन्दी 'बेहतर' से आया हैं, कि कई ज़माने पहले अंग्रेज़ी भाषा में सिर्फ़ 'good' 'gooder' और 'goodest' होता था|

जबाव देते हुए रविकांत ने कहा-

बेहतर लफ़्ज़ वस्तुत: फ़ारसी का है, और मज़े की बात यह है कि मद्दाह साहब के उर्दू-हिन्दी कोश में
नहीं है, लेकि मैक्ग्रेगर के हिन्दी अंग्रेज़ी कोश में है. वैसे हिन्दी-उर्दू दोनों में धड़ल्ले से चलता है।
वैसे इसी का सुपरलेटिव रूप बेहतरीन है! जैसे की बद और बदतर भी होता है, और बदतरीन भी।
तर, और तम प्रत्यय के प्रसंग में याद आया कि एक शब्द हमलोग इस्तेमाल करते हैँ: तरतमता - जो
अमूमन अंग्रेज़ी शब्द - हायरार्की - का अनुवाद है। इसको अगर तोड़ें तो तर इसी फ़ारसी+संस्कृत
परंपरा से लिया गया है, जैसे वृहत्तर में, और तम तो संस्कृत से है ही दोनों में ता लगाकर विशेषण
बना लिया. कहते हैं न सुंदर - सुंदरतर - सुंदरतम. तरतमता इस लिहाज़ से श्रेणीबद्धता/पदानुक्रम
आदि जैसे चालू अलफ़ाज़ से मुझे बेहतर लगता है कि यह ज़बान पर आसानी से चढ़ता है, और इस
ख़याल को समझाने में बहुत सहूलियत देता है. बस इसी तरह अन्वय कर दीजिए और बात साफ़!

मुझे इस क्रम में ये तरतमता एक बेहतरीन प्रयोग लगा। इसलिए भी कि यह शब्‍द अर्थ की अपनी तहें खुद में समेटे है। अब तक मैं हायरार्की के लिए पदसोपान शब्‍द का प्रयोग करता रहा हूँ। पदसोपान हो या पदानुक्रम दोनों में अर्थ संकुचित प्रतीत होता है जो नौकरशाही की तरतमता को तो पकड़ता है लेकिन बाकी दुनिया जहान की तरतमता उसके हाथ से फिसल जाती हैं। तो अगली बार परिवार, ब्‍लॉगजगत, दफ्तर, भाषा, खेल, या कहीं भी हायरार्की दिखे तो उसे कह सकते हैं  तरतमता।

 

पुनश्‍च : यदि कुछ मित्र हिन्‍दी डाक सूची  दीवान से अनभिज्ञ हैं तो मेरी सिफारिश है कि वे दीवान की सदस्यता लेने पर विचार करें। इस मुफ्त डाकसूची पर दुनिया जहान की बातों विशेषकर मीडिया को लेकर बेहतर चर्चा होती हैं, अगर आप लोग भी शामिल होंगे तो चर्चा बेहतरीन हो जाएगी। :)

Thursday, February 19, 2009

ओसामा की खोज गणितीय फार्मूलों से

जब गणित के बारे में कोई बात होती है तो हम एक टीस के साथ उसे पढ़ते हैं गणित के साथ हमारा रिश्‍ता एक ऐसी प्रेमिका का सा हे जिससे विवाह न हो पाया हो। (गणित से विवाह करने वाले जानें कि कि पत्नी के रूप में गणित वाकई पत्‍नी जैसा ही दु:खी करता है या नहीं...)

इस बार हमें यह टीस इसलिए उठी कि कुछ अमरीकी भूगोलविदों ने गणितीय पद्धति से यह खोज की है कि ओसामा बिन लादेन कहॉं छिपा हुआ है। शुद्ध गणितीय फार्मूले और इनसे अफगानिस्‍तान/पाकिस्तान सीमा के शहर पानाचिनार को पहचाना गया जहॉं ओसामा छिपा है उसपर भी शहर के कुल जमा तीन मकान भी पहचान लिए गए हैं जिनमें से किसी एक में वह छिपा है। लीजिए हम आपके लिए ओसामा के ठिकाने की तस्‍वीर दिए देते हैं-

ScreenHunter_02 Feb. 18 22.42 

आप आसपास के इलाके की भी तफरीह करना चाहें तो विकीमैपिया पर इन निर्देशांकों पर जाएं और उन गलियों का दीदार करें जहॉं ओसामा टहलता है।

पूरी तकनीक का विवेचन तो कोई भूगोलविद या गणितज्ञ ही कर पाएगा पर गूगल से जो कुछ हमें समझ आया कि यह तकनीक मूलत: लुप्‍तप्राय जानवरों को खोजने के लिए प्रयोग में लाई जाती है तथा इसका मूल सिद्धांत यह है कि जानवर के देखे जाने के समाचारों से जो पैटर्न बनता है उसका गणितीय रूपांकन किया जा सकता है तथा इसके आधार पर यह गण‍ना करना संभव है कि यह जानवर अब कहॉं मिलेगा। 

काश कोई फार्मूला ये भी गणना कर सके कि और लुप्‍तप्राय चीजें अब कहॉं मिलेंगी मसलन ईमानदारी, मित्रता, निष्‍ठा, सत्‍य....।

Wednesday, February 18, 2009

आहती जीवों की बन आई है

एक समाचार होले से आया और चुपचाप निकल गया, ब्‍लॉगजगत ने नोटिस तो लिया पर बस ...।  समाचार का संबंध स्‍टेट्समैन के संपादकों की गिरफ्तारी से है। कोलकाता के इस अखबार के संपादकों रवीन्‍द्र कुमार तथा आनन्‍द सिन्‍हा को इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उन्‍होंने इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक लेख को अपने अखबार में पुनर्प्रकाशित किया था। जोहन हरी ने अपने लेख 'व्हाई शुड आई रिस्‍पेक्‍ट दीज आप्रेसिव रिलीजंस' में सवाल उठाया है कि हाल के वर्षों में धार्मिक आस्‍थाओं का सम्‍मान करने के नाम पर धार्मिक कठमुल्‍लई पर सवाल उठाने के हक से महरूम करने की साजिश की जा रही है। एक भले लोकतांत्रिक समाज में हर किसी को अपने धर्म में आस्‍था रखने (या न रखने) की आजादी होनी चाहिए। इन समाजों को धार्मिक व्‍यवहारों की आलोचना की भी आजादी होनी चाहिए लेकिन अक्‍सर धार्मिक आस्‍थाओं को चोट न पहुँचाने के नाम पर हम ऊत-बाबली बात बिना आलोचना परीक्षण के फलती रहती है।

हरी की मूल आपत्ति है कि भले ही हर इंसान सम्‍मान का हकदार है पर हर विचार का सम्‍मान करने पर विवश करना गैर लोकतांत्रिक है वे सवाल उठाते हैं कि

All people deserve respect, but not all ideas do. I don't respect the idea that a man was born of a virgin, walked on water and rose from the dead. I don't respect the idea that we should follow a "Prophet" who at the age of 53 had sex with a nine-year old girl, and ordered the murder of whole villages of Jews because they wouldn't follow him.

I don't respect the idea that the West Bank was handed to Jews by God and the Palestinians should be bombed or bullied into surrendering it. I don't respect the idea that we may have lived before as goats, and could live again as woodlice

(प्रत्‍येक इंसान सम्‍मान का हकदार हे लेकिन हर विचार नहीं। मेरे लिए इस विचार का सम्‍मान करना संभव नहीं कि एक कुंवारी ने आदमी को जन्‍म दिया, कोई पानी पर चला तथा मौत के बाद फिर जिंदा हो गया। मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि हम किसी ऐसे पैगंबर का अनुगमन करें जो 53 साल की उम्र में किसी नौ साल की बच्‍ची से संभोगरत हुआ हो तथा जिसने पूरे के पूरे यहूदी गांव को इसलिए कत्‍ल करने का हुक्‍म दिया हो क्‍योंकि वे उसके भक्‍त बनने को राजी नहीं थे।

मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि वेस्‍ट बैंक भगवान ने यहूदियों को सौंपा है तथा फिलीस्‍तीनियों पर बमबारी कर उन्‍हें समर्पण करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। मैं इस बात का सममान करने पर राजी नहीं कि हम किसी जन्‍म में बकरी रहे होंगे तथा अगले जन्‍म में घुन बन सकते हैं। )

सेकुलरवाद का अतिवादी अर्थ लेने वाले भारत में इन मूर्खतापूर्ण आस्‍थाओं पर सवाल उठाना और कठिन है। जो लेख इंग्‍लैंड में छपा और अब भी मजे से उपलब्‍ध है उसे केवल पुनर्प्रस्‍ततु करने की सजा के रूप में इन्‍हें गिरफ्तारी सहनी पड़ी। हमेशा की तरह हमारा मानना है कि यदि आस्‍था या ठेस पहुँचाने से बचने की कोशिश में हम धर्म को आलोचना से परे कर देंगे तो स्‍वात घाटी की स्थितियॉं चॉंदनीचौक पर आ पसरेंगी। 

मजे की बात ये है कि धर्म का सहारा लेकर आप कितनी भी फूहड़ घोषणाएं करें आप पर सवाल नहीं उठाए जाएंगे नही तो स्‍यापा करेंगे कि हाय हाय हमारी आस्‍थाएं आहत हो गई हैं। फिर आप ग्रहों और नजर टोटकों की 'वैज्ञानिक' व्‍याख्‍याएं करें या खांसी चुकाम के लिए ग्रहो, रत्नों, देवों को जिम्‍मेदार ठहराएं... झट स्‍वीकार कर लिया जाएगा... कोई सवाल नहीं।

Monday, February 16, 2009

दूसरी प्रति- बेबात का बैकअप

 

कल रविवार था यानि दरियागंज पुस्‍तक बाजार का दिन। एक दुकान पर चंद किताबें दिखीं बहुत परिचित लगीं... सबका एकमुश्‍त दाम पूछा,  मांग हुई सौ रुपए हमने पिचहत्‍तर कहा, वो बिना हील हुज्‍ज‍त के मान गया। हमने दाम चुकाकर झोले के हवाले कर दीं।  पिचहत्‍तर रुपए में पाए हजारी प्रसाद कृत कबीर, द्विवेदीजी जी का ही हिन्‍दी साहित्‍य का उद्भव और विकास,  लंबी कविताओं पर परमांनद श्रीवास्‍तव, रामस्‍वरूप चतुर्वेदी का हिं‍दी साहित्‍य और संवेदना का विकास - चार किताबें। घर आकर खोली भी नहीं अलमारी के हवाले।

हर हिन्‍दीवाले के लिए ये चारों किताबें बेहद आधारभूत किताबें हैं,एमए का हर विद्यार्थी पढ़ता ही है, हमने भी देखी थीं। दरअसल ये सभी किताबें फिर से खरीदी गई हैं। किसी किताब की दूसरी प्रति खरीदना हमारे साथ कई बार हुआ है। हिन्‍दी की किताबें बहुत मंहगी नहीं होती किंतु जब भी एकबार खरीदी गई किताब को दोबारा या तिबारा खरीदना खुद को ही अजीब लगता है। अक्‍सर किताब इसलिए फिर से खरीदनी पड़ती है कि किसी विद्यार्थी या मित्र के पास गई किताब लौटती नहीं और ऐसा भी होता है कि हम खुद ही भूल गए होते हैं कि किताब है किसके पास। तिसपर किताबों का हमारा संग्रह हमारा धुर निजी नहीं है वरन पत्‍नी के साथ साझा है और उनका भी विषय यही, यानि किताब के कहीं और होने की वजह भी दोगुना हुईं। इसका मतलब यह नहीं कि केवल लापता किताबें ही दो बार खरीदी जाती हैं कई बार जैसे आज की ये किताबें सिर्फ इस वजह से फिर खरीद लीं कि बेहद सस्‍ती लगीं जब कि संदर्भ के लिए बार बार इस्‍तेमाल होने वाली किताबें हैं एकाध प्रति फालतू पड़ी रहेगी... कोई छात्र मांगेगा तो तकलीफ नहीं होगी कि चलो एक और प्रति है।

गनीमत है कि हम खुद से एकरूपता (कंसीस्‍टेंसी) की मांग नहीं करते नहीं तो भला एक ही किताब की कई प्रतियॉं भला, कोई भली बात है। जिंदगी का कोई बैकअप नहीं होता,  सपनों, दोस्‍तों, परिजनों का कोई बेकअप नहीं रखा जाता और न जाने कितनी चीजें, बल्कि कहो जीवन की अधिकांश हरकतें बिना बेकअप की हैं।

Friday, February 13, 2009

कुतर्क की संरचना - चड्डी तो बस बहाना है

यदि आपको भी चड्डी-चड्डी पढते ब्‍लॉगिया थकान होने लगी है तो मुझे अपना साथी समझें, और अथक किस्म के प्राणी फिर से समझ लें कि इस पोस्‍ट में भले ही चड्डी प्रकरण का इस्‍तेमाल किया गया हो लेकिन ये इस मुद्दे का इस्‍तेमाल भर है। चड्डी मसला ऐसा एकमात्र मसला नहीं है, आरंभ, उत्‍साह, विवाद तथा थकान, हर ब्‍लॉग मुद्दा इन चरणों से गुजरता है। कोई नहीं जीतता... हार भी भला कोई क्‍योंकर मानेगा। लेकिन इस वाद विवाद में जो भी इस्‍तेमाल होता है उसे हर पक्ष 'तर्क' का नाम देता है, मानों तर्क कोई रमी का जोकर है कि जो भी वाक्‍य कहा जाए उसे तर्क करार दिया जाए। किस बात को तर्क माना जाए किसे तर्क न माना जाए इस बात का भी एक तर्क ह‍ोता है।

मसलन चड्डी प्रकरण के सबसे ज्‍यादा यूज्‍ड (या अब्‍यूज्‍ड) तर्क को लें। सुरेशजी ने कहा...

क्या रत्ना जी को यह मालूम है कि गोवा में स्कारलेट नाम की एक लड़की के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या की गई थी और उसमें गोवा के एक मंत्री का बेटा भी शामिल है, और वे वहाँ कितनी बार गई हैं?

क्या निशा जी को केरल की वामपंथी सरकार द्वारा भरसक दबाये जाने के बावजूद उजागर हो चुके “सिस्टर अभया बलात्कार-हत्याकांड” के बारे में कुछ पता है?

इंटरव्यू लेने वाले पत्रकार को दिल्ली की ही एक एमबीए लड़की के बलात्कार के केस की कितनी जानकारी है?

न न थके ब्‍लॉगर डरें नहीं मैं तो केवल उद्धरण की संरचना पर बात कर हा हूँ... ये कथन संरचना सैकड़ो, शायद हजारों बार इस्‍तेमाल होती है.. तुम अमुक के बारे में बात करते हो..अमुक अमुक अमुक के बारे में नहीं करते इसलिए बात गलत है। अजीब कथन है... यह किसी भी कुतर्क की मूल संरचना है। विद्यमान कार्य कारण की उपेक्षा कर असंबंधित के संवेग, भावना या रिटोरिक को तर्क की तरह पेश करना। अमित ने जब उपरोक्‍त सवालों के जबाब दिए तो इसी संरचना का इस्‍तेमाल किया (कुतर्क का उत्‍तर तर्क से नहीं दिया जा सकता... कुतर्क तर्क को नहीं कुतर्क को ही सुनता है) अमित ने कहा-

चलिए कुछ जवाब आप भी दे दीजिये .......

१) जब गोवा में स्कारलेट नाम की एक लड़की के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या की गई थी और उसमें गोवा के एक मंत्री का बेटा भी शामिल है, तब आपने उसके बारे में क्यूँ नही लिखा |

2) केरल की वामपंथी सरकार द्वारा भरसक दबाये जाने के बावजूद उजागर हो चुके “सिस्टर अभया बलात्कार-हत्याकांड” के बारे में आपने क्यूँ नही लिखा ?

3) एक एमबीए लड़की के बलात्कार के केस के बारे में आपने क्यूँ नही लिखा ?

4) जिन उलेमाओं ने सह-शिक्षा को गैर-इस्लामी बताया है के बारे में आपने क्यूँ नही लिखा ?

ScreenHunter_01 Feb. 13 16.49 

लॉजिकल फैलेसी की अपनी संरचना है और आवश्‍यक नहीं कि ये केवल वही लोग इसका इस्‍तेमाल करें जो तर्क व्‍यवस्‍था की सैद्धातिंक समझ से अनभिज्ञ हैं कई बार पेशेवर तर्क प्रयोक्‍ता भी इस्‍तेमाल करते हैं ये अलग बात है कि वे ऐसा अनजाने नहीं करते इसलिए बेहद शातिर अंदाज में करते हैं। मसलन शास्‍त्रीजी की पोस्‍ट देखें 

इसका मतलब है कि  सुरेश जैसे देश-प्रेमी पुरुषों का विरोध करना चाहिये लेकिन जो स्त्रीचिट्ठा डंके की चोट पर कह रहा है कि वह चालू या छिछोरी स्त्रियों का चिट्ठा है उसका अनुमोदन होना चाहिये

जब तर्क अपनी वैधता के लिए इस बात पर आश्रित हो कि 'तर्क'  देने वाला कौन है, तब तर्क प्रथम दृष्‍टया अवैध होता है, या कम से कम इस आधार पर तो वैध नहीं ही होता कि कि देखो तर्क अमुक ने दिया है गलत कैसे हो सकता है। (इस बाइनरी में भी देशभक्‍त बनाम छिछोरी की शर्त) अब पाठक की दिक्‍कत ये कि उसे खुद की 'राष्‍ट्रभक्ति' की स्‍थापना के लिए 'राष्‍ट्रभक्‍त' का ही साथ देना होगा।

भाषा का शिक्षक हूँ और वाद विवाद की संरचना में रूचि है इसलिए तर्क ही नहीं कुतर्क भी मुग्‍ध करते हैं कि देखो किस पैंतरे से फट्टा फेंका है।  इससे ये न समझ लिया जाए कि हमारा अपना कोई पक्ष नहीं है, हमारा साफ मानना है कि मुतालिक और इस किस्‍म की तमाम सेनाएं देश के अस्तित्‍व मात्र के लिए भयानक खतरा हैं जिनका हर कदम पर दमभर विरोध होना चाहिए। जिन्‍हें एक तरीके का विरोध पसंद नहीं वे दूसरे तरीके से कर लें लेकिन अपनी ऊर्जा विरोध का विरोध करने की बजाए इन मुतालिकों के विरोध में लगाएं, तथा वे जो खुद इसी सेनाई मानसिकता से हैं वे भी सामने आकर अपनी बात रखें इस उस चड्डी के बहाने छिपकर वार न करें।

Monday, February 09, 2009

हिन्‍दी का ब्लॉग-फेमिनिज्‍म जनाना डिब्‍बा सोच से ग्रस्‍त तो नहीं है

मैं हमेशा से मानता रहा हूँ कि दिल्‍ली जैसे महानगरों में रहने का बड़ा लाभ यह है कि आप पूर्ण गुमनामता का आंनद ले सकते हैं। आप बड़ी तोप हों या छोटी बंदूक बस खुद की नजर में ही होते हैं महानगर भर के लिए आप बस एक चेहरा होते हैं। इसी तरह से आप किसी फन्‍ने खॉं को न जानते हों तो छोटे शहर या गॉंव में आपका काम नहीं चलता...महानगर में आप मजे में जिंदगी काट सकते हैं। तो खैर भले ही हम जानते थे कि मधु किश्‍वर ये हैं...वो हैं पर होंगी। ऐसी पचासों जगह होंगी जहॉं वे हमारे सामने आई होंगी...हमारी बला से।

किंतु इस चोखेरबाली कार्यक्रम में नजरअंदाज करने की सुविधा नहीं थी वे मंच पर थीं और मंच पर बैठे बाकी लोगों से पहले ही परिचय था इसलिए ऐलिमिनेशन के नियम से ही सही इन्‍हें भी पहचाना गया। इनका वक्‍तव्‍य भले ही खूब पॉलिमिकल था, दम भर। और हर पॉलिमिक्‍स की ही तरह आपके पास विकल्‍प नहीं थे... यू लव इट ओर यू हेट इट बट यू कैननॉट इग्‍नोर इट।  चोखेरबालियॉं अपनी रपट दे ही रही हैं बाकी भी देंगी पर हम अपनी बाहरी समझ बता रहे हैं।

मधु ने कहा कि वे ब्‍लॉग नहीं जानतीं चोखेरबाली को नहीं पहचानतीं पर उन्‍हें डर है कि यहॉं का विमर्श कहीं जनाना डब्‍बा न हो। औरत औरत की कहे, औरत की सुने बाकी सब डब्‍बे के बाहर रहें। इससे काम नहीं चलेगा। उन्होंने ये भी कहा कि पश्चिम की बात जाने दें लेकिन हिंदुस्‍तान में स्‍त्री के सवाल पर कोई लड़ाई औरत को अकेले नहीं लड़नी पड़ी मर्द सदा उनके साथ रहे राजा राम मोहन राय से लेकर मानुषी कार्यक्रमों में दरी बिछाने वाले मर्दों तक। मधु बार बार दो संकटों से आगाह करती रहीं... 'जनाना डिब्‍बा सोच' तथा 'विक्टिमहुड की भाषा'

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मतलब ये कि बाहरी समझ वालों के लिए हिन्‍दी ब्लॉग फेमिनिज्‍म के सामने जनाना डब्‍बा बन जाने का संकट है। व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे ये आशंका बहुत दमदार भले ही नहीं जान पड़ती पर तब भी एक आशंका तो है ही। उम्‍मीद है ब्‍लॉग के स्‍त्री प्रश्‍न खुद को वृहत्‍तर संदर्भों से भी जोड़ेंगे-  उदारीकरण, मंदी, तेजी, नाटो, पोटा ये सब स्‍त्री प्रश्‍न भी हैं ये समझा जाना चाहिए।