Monday, April 30, 2007

साइबर पथ के होरी......विश्‍वास करें यह लेख सृजन शिल्‍पी पर नहीं है

सृजन ने इधर इंटरनेट और कानून की अपनी समझ व जानकारियों की श्रमसाध्‍य प्रस्‍तुति करना शुरू किया है। अच्‍छा काम है, पर किस नीयत से कर रहे हैं वे जाने...वैसे ही अविनाश हमें संशयजीवी करार दे चुके हैं। उधर सृजन ने नारद प्रकरण में नारद और मोहल्‍ला के द्वारा बार बार कानूनों को तोड़ने का भी हवाला दिया था और उनका यह कहना भी था कि नारद भी इस मामले में दोषी है। भई कानून क्‍या कहते हैं, इस पर हमें कुछ नहीं कहना... सिवाय इसके कि हम नहीं मानते कि वे जो कहते हैं सब ठीक कहते हैं। मुझे पहले साइबर अपराधी की गिरफ्तारी के अवसर पर लिखा अपना लेख याद आया। लेख 29 जून 2000 को जनसत्‍ता में प्रकाशित हुआ था। कटिंग थी पास में लेकिन टाईप दोबारा करना पड़ा...टाईप करने के दौरान ही लगा कि आज शायद तब से भी ज्‍यादा प्रासंगिक है। अब इसके प्रकाशन से किसी ससुरे न्‍यायधीश की बेइज्‍जती होती हो तो हो। लीजिए हाजिर है....और जैसा कि डिस्‍क्‍लेमर का फैशन है कह दें कि होरी होरी हैं इन्‍हें सृजन न माना जाए, वैसे भी लेख 7 साल पुराना है...तब हम सृजन को नहीं जानते थे।

साइबर पथ के होरी
जनसत्‍ता 29.06.‍2000
दिल्‍ली में भारत का पहला साइबर अपराधी पकड़ा गया और फिर दूसरा भी। पहले मामले में एक इंजीनियर ने सेना के अधिकारी के पासवर्ड – जो स्‍वयं उस अधिकारी ने दिया था- का उपयोग करके उसके इंटरनेट समय से लगभग 100 घंटे का उपयोग कर डाला। इतने समय की कीमत इस समय बाजार में लगभग 750 रुपए है और यह चोर बाजार में 400-500 रुपए में मिल जाता है। यह खबर पढ़ते हुए प्रेमचंद के ‘होरी’ की बांसों के सौदे में अपने भाई से पांच रुपए की बेईमानी याद आई। आज होरी का याद आना संयोग भर नहीं है। ‘गोदान’ का होरी भारतीय संवेदना के इतिहास का अहम चरित्र है। वह चूंकि सामंतवाद से पूंजीवाद के संक्रमण का सबसे बड़ा चरित्र रहा है इसलिए अब इस नए संक्रमण में जिसमें हम खड़ें हैं, होरी को याद कर लेना जरूरी जान पड़ता है। इस ‘बेचारे’ चोर इंजीनियर को पहली बार में जमानत भी न मिल पाई ओर 400-500 रुपए की हेरा फेरी में वह 20-25 दिन जेल में रह आया। अभी मुकदता चलेगा, सो अलग। दूसरा मामला साइबर भी था और अपराध भी, शायद इसीलिए अभियुक्‍त को पहली ही पेशी में जमानत मल गई। इस मामले में अभियुक्‍त ने खुद को महिला के रूप में पेश करते हुए दूर विदेश में बैठे लोगों के साथ अश्‍लील वार्तालाप के सत्र में अपनी खुन्‍नस वाली एक भद्र महिला का फोन नंबर कुछ मनचलों को इंटरनेट पर उपलब्‍ध करा दिया और बेचारी महिला के पास बड़ी संख्‍या में आपत्तिजनक फोन आने लगे। यहॉं ज्ञानवान व्‍यवस्‍था को लगा कि मामला छोटी मोटी छेड़छाड़ का है और हल्‍का फुल्‍का केस दर्ज हुआ।

गंभीरता और प्रकृति के गलत आकलन के ये मामले अलग थलग वाकयात नहीं हैं। घटनाओं, मूल्‍यों, अपराधों, व्‍यक्तियों आदि में हाल के समय में कुछ ऐसी जटिलताएं देखने में आईं हैं कि कानून, पुलिस, नैतिकता, तर्क जैसे औजार जो अब तक की व्‍यवस्‍था ने खास तौर पर होरी की मौत के बाद विकसित किए थे, इन जटिलताओं को समझने-सुलझाने में नाकाम रहे हैं हालांकि अधिकतर बौद्धिक कारीगर उन्‍हीं औजारों से इस कोशिश में लगे हैं जरूर। मैच फिक्सिंग, सट्टेबाजी, छिपा कैमरा, फोन टैपिंग, तहलका डॉट कॉम ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं ज‍हां कानून असहाय दिखते हैं, अनैतिकता स्‍वीकार्य जान पड़ती है और नायक खलनायक की आकृतियाँ एक ही चेहरे में गड्डमड्ड जान पड़ती हैं।
सच दरअसल यह है कि इतिहास की अपनी कोई मंजिल नहीं होती। कई बार दिशा और पैटर्न जरूर होते हैं जिन्‍हें पकड़ना ऐतिहासिक समझदारी है। जिस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने पूंजीवाद को जन्‍म दिया था वैसे ही उत्‍तर औद्योगिक परिदृश्‍य ने, जहां निर्माण क्षेत्र नहीं वरन सेवा क्षेत्र उफान पर है, उत्‍तर पूंजीवादी स्थितियाँ पैदा की हैं। इस स्थिति की अपनी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैचारिक विशेषताएं हैं, इसकी अपनी शब्‍दावली है, अपना व्‍याकरण और औजार हैं। पूंजीवाद ने जब सामंतवाद की जगह ली थी तो उसके भी ऐसे ही नए उपकरण थे जिन्‍होंने सामंतवाद के तत्‍संगत उपकरणों की जगह ली थी। सामंतों जमींदारों ने जमीनें बेचकर मिलों, कारखानों, कंपनियों के शंयर खरीदने शुरू कर दिए थे और रियासतों के राजाओं ने कांग्रेस क मेंबरी और लोकसभा का चुनाव लड़ने में अपना भविष्‍य देखा था। आज पुन: वह स्थिति आन पड़ी है जब पूंजीवादी उपकरण सामयिक स्थितियों को समझ पाने, उनकी व्‍याख्‍या करने और उनमें हस्‍तक्षेप कर उन्‍हें नियंत्रित करने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। उत्‍तर पूंजीवादी औजारों जैसे बाजारवाद, उत्‍तर आधुनिकता, फजी लॉजिक, इंटरनेट, साइबर कैफे, नेटीजनशिप आदि ने पूंजीवादी उपकरणों की जगह लेना शुरू कर दिया है।
यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और कहीं कही लगभग पूरी हो चुकी है। भारत में दौर संक्रमण का है। इस स्थिति संक्रमण की है। इस स्थिति ने संकट उन लोगों के लिए के लिए पैदा कर दिया है जो इस बदलाव को देख तो रहे हैं हालांकि देखना नही चाहते। सामंतवाद के सामंत, संक्रमण के बाद पूंजीवाद के पूंजीपति बन जाते हैं और सामंती व्‍यवस्‍था के खेतिहर बिना किसी हील हुज्‍जत के पूंजीवाद के औद्योगिक मजदूर बन जाते हैं। दिक्‍कत उस वर्ग के साथ होती है जो खुद को बदले बिना अगले युग में जाना चाहता है। वर्तमान संक्रमण के बाद की व्‍यवस्‍था में दलित, शोषित, पीडितों को अधिक मानवीय व्‍यवस्‍था मिल जाएगी, ऐसे ख्‍याली पुलाव पकाना व्‍यर्थ है। किंतु उनके अस्तित्‍व पर संकट नहीं है, वे बने रहेंगे- शायद उतने ही दमित, पीडित व शोषित, पर रहेंगे जरूर। सही मानी में सबसे बड़ा संकट हमारी व्‍यवस्‍था के उन सभी मध्‍यवर्गीय विचारवान लोगों पर है जो उत्‍तर पूंजीवादी स्थितियों पर पूंजीवादी मूल्‍यों और व्‍यवस्‍थाओं को लागू करना चाहते हैं।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्‍थानों (आई आई टी) के परिसरों में जहां कंप्‍यूटर समय की चोरी इतनी आम है कि प्रत्‍येक छात्र उसे अपना अधिकार समझता है, इस काम के लिए गिरुतारी और सजा जैसे कदम उठाने वालों लोगों और व्‍यवस्‍थाओं की बुद्धि पर केवल तरस खाया जा रहा होगा। इन परिसरों में गोदान न पढ़ा जाता है न पढ़ाया जाता है। पर यहां के लोग जानते हैं कि पूंजीवाद के होरी चाहे व्‍यक्तियों के रूप में हों या संस्‍थाओं के रूप में, वे ‘आप्टिकल फाइबर सूचना महामार्ग’ के निर्माण में मारे जाएंगे, जैसे कि सामंतवाद का होरी गांव को शहर से जोड़ने वाली सड़क बनाते हुए मरा था।

Friday, April 27, 2007

ब्‍लॉगराइनों की व्‍यथा........नारद पर बजर गिरे

हमारे पुराने घर के पड़ोस में एक मास्‍टराईन रहती थीं, अब थीं तो वह सामान्‍य गृहिणी ही पर चूंकि उनके पति प्राईमरी स्‍कूल मास्‍टर थे इसलिए उन्‍हें मास्‍टराईन की पदवी सहज ही हासिल हो गई। कस्‍बों की तो यह रीत रही ही है और लिंग बदलों के सवाल के जवाब में सालों से लिखा आता आ रहा है कि मोची- माचिन, धोबी-धोबन, डाक्‍टर- डाक्‍टरनी (डाक्‍टराइन) .... इस तर्ज पर ब्‍लॉगर पत्‍नियॉं हुईं ब्‍लॉगराइन। तो मित्रो आज की कथा ब्‍लॉगराइनों की व्‍यथा है। वे ब्‍लॉगराइनें जो खुद तो ब्‍लॉगियाती नहीं है पर चूंकि उनके पति ब्‍लॉगियाते हैं इसलिए भुगतती हैं। नोट पैड ने विवाह के शोषण पर लिखा तो डिस्‍क्‍लेमर लगाया कि उन्‍हें ही दु:खी न मान लिया जाए..और यूँ भी आजकल तो डिस्‍क्‍लेमर ‘इन थिंग’ हो गए हैं। इसलिए साफ बता दें कि ये हमारी या हमारी पत्‍नी की व्‍यथा नहीं है क्‍योंकि हमारी गत तो और बुरी है। एक ही उल्‍लू काफी होता है बरबादे गुलिस्‍तां करने को यहॉं तो सभी ब्‍लॉगर हैं....पर वो फिर कभी। आज तो शुद्ध ब्‍लॉगराइनों पर लिखा जाए।

यूँ तो ब्‍लॉगराइनें भी मनुष्‍य प्रजाति की ही प्राणी होती हैं और यह वृत्ति उन्‍होंने अपनी पसंद से नहीं चुनी होती वे इस दुनिया में धकेल दी गईं होती हैं। उनके पिताओं ने या खुद उन्‍होंने तो अच्‍छे खासे खाते पीते और जिंदा इंसानों को चुना था पर बुरा हो उस आलोक जो ये लिख मारा।



नमस्ते।
क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं?
यदि नहीं, तो यहाँ देखें।

हाँ भैया हम तो देख पा रहे हैं पर क्‍या तुम देख पा रहे थे कि ये लिखकर तुम कितने घरों की बरबादी का सामान लिख रहे हो। मुआ मरद सुबह से शाम तक नौकरी पीट कर आता है और घर में घुसते ही बिना कमीज उतारे, जूते रैक में रखे सीधा कंप्‍यूटर की ओर लपकता है, कंप्‍यूटर ऑन करके बाथरूम में घुसता है ताकि जब तक वापस आए कंप्‍यूटर ऑन हो जाए और फिर गिटर पिटर शुरू।
....हम तो खरीदी हुई लौंडी हो गई हैं अरे इससे तो बाहर कोई चक्‍कर वक्‍कर ही चला लेता कम से कम घर में तो हमारा होता। ओर फिर तब तो तमाम दुनिया की सहानुभूति हमारे साथ होती। अब सारी दुनिया समझती है कि कितना शरीफ आदमी है सर झुकाए मोहल्‍ले भर से गुजरता है किसी की तरफ ऑंख उठाकर देखता तक नहीं- अब कौन बताए कि देखेगा क्‍या खाक चलते चलते तक तो दिमाग नारद पर अटका होता है...मन मस्तिष्‍क ऑनलाइन होता है टिप्‍पणियॉं सोची जा रही होती हैं स्‍माइली लग रही होती हैं...हाय मॉं मेरे ही साथ ऐसा होना था। ओर यह प्रोषित पतिका विरहिणी जार जार रोती है। वह अचानक त्रिलोचन की चम्‍पा बन जाती है-


चम्‍पा काले पीले चिट्ठे नहीं चीन्‍हती...
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:
नारद पर बजर गिरे


इस चिट्ठा प्रेरित विरहावस्‍था का आलम यह है कि पति पर अब धमकियों का असर नहीं होता...मायके चले जाने को वह अवसर की तरह लेता है और लौटने पर उसके चिट्ठे का टैंपलेट बदला हुआ होता है...कई जुगाड़ी लिंक उसने जॉंच लिए होते हैं, उसके गूगलटॉक में कई नए चिट्ठेकार जुड़ गए होते हैं। पत्‍नी मन मसोसका अगली बार मायके न जाने की प्रतिज्ञा करती है। इस विरहावस्‍था में वह विरह की दसो दशाओं से गुजरती है।

अभिलाषा- आज जब ब्‍लॉगर आएगा तो उसे ब्‍लॉग नहीं मैं याद होंगी, या काश आज तीन घंटे बिजली न रहे।
चिन्‍ता- कहीं मुआ रास्‍ते में ही किसी साईबर कैफे में न घुस गया हो।
स्‍मृति- उसे याद आते हैं वे रात दिन....जब कोई कंप्‍यूटर न था, नारद न था...बस मैं थी और तू था।
गुणकथन – वह बहुत संवेदनशील था, प्‍यार करता था मतलब जो कुछ वह प्रोफाइल में लिखता है चिट्ठों में बताता है पहले सच में वह ऐसा था।
उद्वेग – सौतन कंप्‍यूटर के पास रखे होने के कारण ए.सी. की हवा भी लू के समान प्रतीत होती है।
प्रलाप - हाय।। इस नारद को, आलोक को, चिट्ठे को मेरी हाय लगे...नारद पर बजर गिरे
उन्‍माद – आज...आज या तो इस घर में मैं रहूँगी या ये कंप्‍यूटर....(फिर इसका मतलब समझ में आ जाता है कि कंप्‍यूटर का विरहिणी कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी इसलिए शांत हो जाती है)
व्‍याधि – अब क्‍या होगा...इस चिंता में ब्‍लॉगराइन बिस्‍तर पकड़ लेती है- कमबख्‍त ब्‍लॉगर इस पर भी साथी बलॉगर से राय लेकर ही कुछ करने का विचार करता है।
जड़ता – अब ब्‍लॉगर के आने की घंटी बजती है, बलॉगराइन पर कोई असर नहीं होता वह सुख दुख से दूर हो गई है।
मरण- इसका वर्णन निषिद्ध है वरना ये भी संभव है।

तो हे चिट्ठाकारो।। जागो अपने अमर्त्‍य चिट्ठाजीवन में ब्‍लॉगराइन के प्रति इतने निष्‍ठुर न हो जाओ। वैसे है तो ये हमारी धूर्त ब्‍लॉगिंग ही कि ब्‍लॉगिंग के अनाचार को भी एक पोस्‍ट बना दिया जाए पर क्‍या करें आदत से मजबूर हैं।

Wednesday, April 25, 2007

बुर्के में ज्योतिहीन आँखें....और नेत्रहीन का वैष्णोंदेवी दर्शन

कॉलेज का मास्‍टर हूँ और एक मायने में छुट्टियाँ चल रही हैं- एक मायने में इसलिए कि दरअसल चल तो रहे हैं इम्तिहान, पर पढ़ाई नहीं हो रही इसलिए पढ़ाना नहीं है। इसलिए जहाँ विद्यार्थी एक यातना से गुजर रहे हैं वहीं अध्‍यापक कभी कभी जाकर इम्तिहान में ड्यूटी बजाकर आ जाते हैं यानि इनविजीलेशन। आज भी था...चौकीदारी करने गए कोई नकल ना करे...आगे पीछे से न देखे। अक्‍सर लोगों को बहुत चाट काम लगता है..तीन घंटे चुपचाप। कुछ भी बोलो तो फुसफुसाकर...एक रहस्‍यमयी यातनामयी चुप्‍पी। पर ऐसा साथी लोग कहते हैं..मेरी राय फर्क है। मेरी प्रोफाइल पर नजर डालें वर्षों से वहॉं लिखा है कि अकेले चलना मुझे पसंद है और यही तो करना होता है इस चौकीदारी में। तीन घंटे मंद-मंद चलता रहता हूँ और दिमाग मंद-तेज चलता रहता है।

आज भी वही कर रहा था। जिस कॉलेज में हूँ वहाँ काफी विद्यार्थी मुसलमान हैं जिनमें कुछ छात्राएं बुर्के में भी आती हैं, अब इस पर अलग से नजर नहीं जाती, सामान्‍य ही लगता है, गणित, विज्ञान, साहित्‍य पढ़ती बुर्के वाली छात्राएं। रसोई और सौंदर्य पर अपनी राय हम व्‍यक्‍त कर चुके हैं ऐसे में जाहिर है कि वस्‍तुनिष्‍ठ रूप से हमारी राय बुर्के के पक्ष में नहीं है पर सुनीलजी की उस राय से भी सहमत हैं कि हम उनकी आजादी की परिभाषा तय नहीं कर सकते।

खैर...जिस कमरे में चौकीदारी करनी थी वह मुख्‍य प्रवेश के निकट था तभी एक परिचित का हाथ थामे एक छात्रा जिसने बुर्का पहना था लेकिन नकाब नहीं था वह गुजरी। उसके एकाध कदम आगे निकल जाने के बाद ध्‍यान दिया कि वह दरअसल नेत्रहीन थी। मैं हतप्रभ था...नहीं ऐसा नहीं कि नेत्रहीन विद्यार्थियों या बुर्के वाली छात्राओं को पढ़ाना मेरे लिए कोई नई बात है वरन इसलिए कि एक ही छात्रा को इन दो रूपों में देखना मुझे असहज बना रहा था। जो खुद देखने में असमर्थ है...देखना क्‍या है इससे अपरिचित है वह खुद को न दिखने देने के लिए इतना सजग क्‍यों। देखना बुरा भी हो सकता है..देखने से वंचित ये कैसे सोचता होगा। ओर भी बहुत कुछ इस दोहरे वंचन पर सोचा.... पर वह छात्रा क्‍या सोचती होगी यह नहीं पता। ....और भी, ये कि नेत्रहीन के लिए खुद को संभलना ही क्‍या कम था कि बुरका भी लाद लिया। धर्म वगैरह की क्रूरता भी मन में आयी।

फिर याद आया अपना नजदीकी मित्र नरेश। नेत्रहीन है, पढ़ता-पढ़ाता-लिखता है...कम्‍यूनिस्‍ट टाईप है पर आस्तिक है हमारे उलट। नजदीकी है इसलिए बिना आशंका के कह पाते हैं कि यार एक बात बताओ ये वैष्‍णो देवी जाकर क्‍या भाड़ भूंजते हो..क्‍या ‘दर्शन’ करते हो, जिधर मर्जी मुँह करके हाथ जोड़ लो....नेत्रहीन का तो हो गया दर्शन। पर उनका धर्म नाम की सत्‍ता संरचना में विकलांगता के हाशियाकरण की अपनी समझ है...हम भी जोर नहीं देते।

आज लगा कि ये भी बुरका ही तो है।

Tuesday, April 24, 2007

सागर अविनाश से नाराज हैं.....मसिजीवी क्‍या करे

नीलिमा को अपने शोध के विचार बॉंटने थे इसलिए उन्‍होंने घोषणा की, कि चिट्ठाजगत में शॉंति की आहट सुनाई दे रही है पर हमें मालूम है कि उन्‍हें मालूम है कि सब शॉंत नहीं है। वे दिखावा कर रही हैं कि सब शॉंत है और हम दिखावा कर रहे हैं कि हमें भी विश्‍वास है कि सब शाँत है। थोड़े थोड़े संकेत पाने के लिए नीचे के चित्र को देखिए-




ये बोल्‍ड अक्षरों में नारद प्रतिदावा क्‍यों ?



यूँ तो सामान्‍य सा विधिक रिवाज है पर यहॉं कुछ ज्‍यादा मुखर है। वैसे सृजन बेहतर जानें कि इस विधिक दावे की वैधता पर उनका यकीन कितना है पर अपने लिए तो ये संकेत भर है कि सब उतना ठीक नहीं।
ऐसे में अपने दिमाग में खलबली मच जाती है- अपन किसी के अग्निशमन दस्‍ते में नहीं हैं....कुछ को तो लगता होगा कि आग बुझाऊ.... छोड़ो जनाब आग लगाऊ हैं आप। हमें कोई सफाई नहीं देनी पर इतना जरूर लगता है कि इस सारे अविनाश-हिंदूबाजी-हिंदू विरोधी मसले पर अपनी एक निश्चित राय रही और उसके ही मद्देनजर हम वे कहते रहे जो हमने कहा और वह मौन भी जो हमने जहॉं भी धारण किया वह भी हमारा स्‍टैंड ही था। हम समीरजी की तरह अजातशत्रु नहीं हैं न ही हो सकते हैं। यह सब क्‍यों कहना पड़ रहा है- इसलिए कि हमें संकेत दिया गया कि अविनाश के माफीनामे वाली पोस्‍ट और उनपर बैन लगवा पाने में ‘असफलता’ में उन लोगों के नैतिक समर्थन का भी हाथ है जिन्‍होंने बैन विरोधी रवैया अपनाया। अब ये तो स्‍वीकार करना ही होगा कि हाँ हम बैन विरोधी रहे हैं, हैं।
तो बताया गया कि कुछ लोग इस असफलता से बेहद दु:खी हैं और.... जो तटस्‍थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। तो हम अपराधी भले ही हों तटस्‍थ कतई नहीं है। ये भी कहा गया कि नारद छोड़ने का मन कई लोग बना चुके हैं- ये निसंदेह अफसोसजनक है पर देर सवेर ऐसा होना तो है ही। इतने अधिक सोचने समझने लिखने वाले लोग एक साथ रहेंगे तो टकराव होंगे ही और इनकी अभिव्‍यक्ति इसी रूप में होनी तार्किक जान पड़ती है। इस सब के वावजूद.....हमें लगता है न केवल बहिष्‍कार, बैन वरन संन्‍यास, तुम्‍हारी ओर झांकूंगा भी नहीं, टिप्‍पणी नहीं करूंगा, नारद से ही चला जाऊंगा.. ये सब चिट्ठाकारी की परिघटनाएं नहीं होनी चाहिए। और अगर नाराजगी है भी तो ऐसे नाराज होऔ कि कल को फिर दोस्‍ती हो तो शर्मिंदगी न हो।
अब सवाल यह कि इस सारे मसले में मसिजीवी कहाँ हैं। ये जो चिट्ठाजगत के कितने पाकिस्‍तान खड़ा हुए उसमें उनका टोबा टेक सिंह कहाँ है। तो जबाव है कि अदीब को टीस भर मिलतीं हैं....बिन सागर चंद नाहर के चिट्ठाकारी का इतिहास वो नहीं रह जाता है जो उसे होना चाहिए... पर अविनाश को जबरिया धकेल बाहर करने की कोशिश तक से भी चिट्ठाकारी, चिट्ठाकारी नहीं रह जाती। अविनाश बहस चाहते हैं किंतु जिस अंदाज में वे ऐसा कर रहे थे वह आपत्तिजनक था जवाब भी बहुत संयत नहीं थे पर मित्रो चिट्ठाकारी का हनीमून पीरियड खत्‍म हो चुका है इसलिए टकराहट तो होगी ही, हिट्स के लिए होगी, नारद पर नियंत्रण के लिए होगी, गुटों के लिए होगी, अहम के लिए होगी। इसलिए हम किसी को नहीं मना रहे पर बस इतना कह रहे हैं कि जैसे औरंगजेब की ज्‍यादतियॉं एक शंहशाह की हकूमत की तरकीबें थीं न कि इस्‍लाम बनाम हिंदू। उसी तरह यहॉं की लड़ाइयॉं केवल ज्‍यादा जमीन घेरने की कवायद हैं उन्‍हें हिंदू विरोधी-हिंदू समर्थन की तरह न देखो- बाकी लड़ो भरसक लड़ो- पर वापसी का रास्‍ता खुला रखो। बाकी रहा नारद का प्रतिदावा- क्‍या फर्क पड़ता है, अगर नारद सिर्फ ऐग्रीगेटर है तो मोहल्‍ला पर अविनाश ही कौन खुद लिखते हैं वे भी एक प्रतिदावा कापी पेस्‍ट कर चेप देंगे मोहल्‍ले पर- लेखक खुद जिम्‍मेदार हैं हमें कुछ नहीं पता।

Monday, April 23, 2007

सावधान..... दैनिक हिंदुस्‍तान में सुधीश पचौरीजी की नजर हिंदी ब्‍लॉ्गिंग पर

हमें आशंका तो पहले ही थी। दर्ज भी कर चुके थे। और यह देर सवेर होना भी था। हुआ क्‍या....। बड़े समीक्षकों की नजर ब्‍लॉग की दुनिया पर पड़ गई है। कल के दैनिक हिंदुस्‍तान में प्रो. सुधीश पचौरी ने हिंदी के कुछ ब्‍लॉग लेखकों पर नजर डाली है। आप भी एक नजर डाल लें।



वैसे ये भी एक मोहल्‍ला विवाद ही है। पर अविनाश का मोहल्‍ला नहीं, सराए वालो का साईबर मोहल्‍ला जिसमें दिल्‍ली के वंचित वर्ग के बच्‍चों के ब्‍लॉग लिखने की एक परियोजना साईबर मो‍हल्‍ला नाम से चलाई जाती है। जिनमें से कुछ चयनित सामग्री का प्रकाशन पुस्‍तकाकार में किया जा रहा है। जिसकी समीक्षा स्‍वरूप यह लेख लिखा गया है। यूँ यह मुख्‍यधारा चिट्ठाकारी पर आधारित नहीं है पर दिशा इधर ही है। वैसे स्‍वागत किया जाना चाहिए या पता नहीं.....। सावधान ब्‍लॉगर समुदाय....बड़े समीक्षकों की नजर अच्‍छा शकुन ही हो यह जरूरी नहीं।

पूरा लेख इस नीचे की छवि पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।


Saturday, April 21, 2007

तू तक, तू तक, तू तिया....अई जमाल होए

जब कॉलेज में पढ़ते थे तो यह एक लोकप्रिय पंजाबी गीत था..तू तक, तू तक, तू तिया....अई जमाल होए। मुझे नहीं मालूम था आज भी नहीं मालूम कि इसका कोई अर्थ है कि नहीं। मुझे यह जोश में गाई निरर्थक ध्‍वनि ही लगता था। अब क्‍यों याद आई...जमाल से और इस निरर्थकता से।
पहले पूरी पृष्‍ठभूमि संक्षेप में। मनीषा ने नया ज्ञानोदय के फरवरी अंक में एक लेख लिखा इंटरनेट पर हिंदी साहित्‍य, कोई पातालफोड़ लेख नहीं है जैसा हम लोग प्रिंट की पत्रिकाओं में लिखते हें परिचयात्‍मक सा ठीक ठाक लेख है। अगले अंक में इस पर प्रतिक्रिया में श्रीमान हसन जमाल ने जो शेष नाम की पत्रिका चलाते हैं इसकी प्रतिक्रिया में बेहद भड़काउ अंदाज में कुछ कुछ मोहल्‍ले नुमा प्रतिक्रिया लिखी- अर्थ पकड़ना तो आसान नहीं पर कुल मिलाकर यह कि भरे पेट के लोगों की बिन रोटी वालों को केक खाने की सलाह है इंटरनेट पर साहित्‍य की बात। और ये भी कि पूरी नस्‍ल बरबाद कर रहा है कंप्‍यूटर और इंटरनेट....क्‍या क्‍या गिनाएं खुद अनूमान लगा लीजिए।
हम तो विश्‍वविद्यालयी हिंदीबाजों में ऐसे तर्कों से भाल रोज ही फोड़ते हैं। अब अप्रैल के अंक में हसन जमाल साहब की प्रतिक्रिया से असहमति बताते हुए तीन प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुई हैं- एक तो अपने रवि रतलामी जी ने संयत और मैं तो कहूँगा कि कुछ ज्‍यादा ही नरम शब्‍दों में हसन साहब को समझाने की कोशिश की है कि भाई पहले जानो समझो फिर बात कहो। बाकी दो टिप्‍पणियाँ पुणे की दीप्ति गुप्‍ता और दिल्‍ली के नीलाम्‍बुज सिंह की हैं। मुझे ये दोनों मित्र याद नहीं आ रहे पता नहीं चिट्ठाकारी में हैं कि नहीं पर इन्‍होने भी जमकर खबर ली है हसन जमाल साहब की।
मामला खत्‍म होना या समझा जाना चाहिए, पर दिक्‍कत है। और दिक्‍कत यह है कि हम पहले ही कह चुके हैं कि भई हम बड़े बुडबक इंसान हैं। मित्र लोग बिध्‍न संतोषी भी घोषित कर चुके हैं। तो भाई जहॉं लोग मान जाते हैं कि बात खत्‍म हो गई हमें लगता है कि बात तो शुरू हुई है। अब तक चिट्ठाकारी चंद सिरफिरों के खतूत भर थी इसलिए एम एस एम यानि मेन स्‍ट्रीम मीडिया या मुख्‍यधारा मीडिया उदासीन उपेक्षा से काम लेता था पर अब आवरण कथाएं आ रही हैं, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया पर कवरेज हो रहा है, लेख भी छप रहे हैं।
यानि सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों के जड़ दरवाजों पर खटखटाहट अब शुरू हो गई है इसलिए इन दुर्गों के किलेदार हसन जमाल साहब जैसे ही तर्कों के हथियारों से हमला करने वाले हैं। कम से कम दो तर्क तो बार बार आने वाले हैं पहला ये कि इंटरनेट चंद खाते पीते लोगों की चीज है इसका हिंदी मुख्‍यधारा से कोई सरोकार नहीं और दूसरा यह कि यह हिंदी के बहुत छोटे समुदाय की नुमाईंदगी करता है ( यानि से विध्‍न संतोषी लोग हैं) इन्‍हें मत सुनो। ऐसा नहीं जबाव हें नहीं या दिए नहीं जा सकते पर बंधु लोगों संवाद उससे ही हो सकता है जो संवाद में यकीन करता हो। हम तो अपने बीच के अविनाशों से संवाद कायम कर पाने में असफल सिद्ध हुए जो कम से कम हमारी भाषा में तो बात करते हैं- हसन जमाल का क्‍या करेंगे जो तू तक तू तक जैसे निरर्थक तर्कों से अपनी बात कहते व सिद्ध मानते हैं?

Friday, April 20, 2007

चिट्ठाकारी पर एक और लेख- आज दैनिक भास्‍कर में

आज दैनिक भास्‍कर में चिट्ठाकारी पर एक परिचयात्‍मक लेख प्रकाशित हुआ है। एक नजर डालें- कमी बेसी हो तो हमें बताएं






वैसे पूरा लेख निम्‍नवत है-


हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा



हिंदी की चिट्ठाकारिता ने अपने पाँव अब पालने से बाहर निकाल लिए हैं और वह अब सही मायने में अपने पाँवों पर खड़ी है। सूचना तकनीक का सबसे मूर्तिमान रूप इंटरनेट है। और इंटरनेट पर हिंदी की मौजूदगी का सबसे अहम हिस्‍सा है हिंदी ब्‍लॉग जिनके लिए वहॉं चिट्ठे शब्‍द का इस्‍तेमाल होता है। ब्‍लॉग ‘बेवलॉग’ का संक्षिप्‍त रूप है जो एक व्‍यक्तिगत बेवसाईट होती है। ब्‍लॉग करने वाले ब्‍लॉगर कहलाते हैं तथा ब्‍लॉगलेखन ही ब्‍लॉगिंग कहलाता है। हिंदी में इनके लिए क्रमश: चिट्ठाकार व चिट्ठाकारिता शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया जाता है। अंग्रेजी में चिट्ठाकारी की शुरूआत 1997 में डेव वाइनर के ब्‍लॉग ‘स्क्रिप्टिंग न्‍यूज’ से हुई। जबकि हिंदी में चिट्ठाकारी की शुरूआत 2003 में हुई जब आलोक ने अपना चिट्ठा “नौ दो ग्यारह” शुरू किया फिर धीरे धीरे पद्मजा, जितेंद्र, रवि रतलामी, पंकज, अनूप, देवाशीष आदि चिट्ठाकार जुड़ते गए और कारवां बनता गया। आज हिंदी में 500 से अधिक चिट्ठे हैं जिनमें से बहुत से बेहद सक्रिय हैं।

चिट्ठाकारी हिंदी की दुनिया की एक अहम परिघटना है। ये चिट्ठे जो अकसर चिट्ठेकार ने बेहद अनौपचारिक व अनगढ़ता के साथ अपने आस- पास के विषयों पर या देश-दुनिया की घटनाओं पर लिखें होते हैं, वे सार्वजनिक दुनिया में आम भारतीय की राय की नुमाइंदगी करते हैं। इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय का मुसलमानों के अल्‍पसंख्‍यक होने को लेकर हुआ फैसला हो या राहुल गांधी के बयान या कुछ और....इनपर आम देशवासी की राय जानने का एक आसान तरीका है कि नारद ( http://narad.akshargram.com/ ) पर जाएं और देखें कि आम देशवासी जिनमें साईबर कैफे चलाने वाले सागरचंद नाहर हैं, सरकारी अफसर अनूप हैं, अध्‍यापिका घुघुती बासुती हैं, गृहिणियाँ, विद्यार्थी और तमाम काम करने वाले लोग हैं उन्‍होंने अपने चिट्ठों पर इन विषयों पर क्‍या लिखा है। ये सैकड़ों चिट्ठाकार अपने चिट्ठों पर इन विषयों पर अपनी बेबाक राय देते हैं- ये राय किसी संपादक की मेज से नहीं गुजरती, किसी सेंसर बोर्ड की कैंची का शिकार नहीं होती, एकदम खुली बिंदास राय सबके सामने सबके लिए। यही नहीं आप इस राय पर इतनी ही खुली प्रतिक्रिया तुरंत दे सकते हैं। यह राय मशवरे का एकदम लोकतांत्रिक रूप है।
चिट्ठाकारी के इसी खुलेपन के कारण इसे दुनिया भर के सबसे ताकतवर मीडिया रूप के में पहचाना जा रहा है। आज के दिन तक दुनिया में कम से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं (स्रोत – टैक्‍नाराटी) और ये केवल अंग्रेजी में नहीं है वरन जापानी, रूसी, फ्रेंच स्‍पेनिश में ही नहीं वरन फारसी, हिंदी, मलयालम, मराठी, बंगाली आदि दुनिया की बहुत सी भाषाओं मे चिट्ठेकारी हो रही है। दरअसल ये आम गलतफहमी है कि इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी है क्‍योंकि सच्‍चाई तो यह है कि दुनियाभर की चिट्ठासामग्री का केवल 30% ही अंग्रेजी में है। हिंदी चिट्ठाकारी ने देवनागरी लिपि को इस्‍तेमाल करने की शुरुआती दिक्‍कतों की वजह से धीमी गति से अपना सुर शुरू किया था लेकिन अब इसने भी रफ्तार पकड़ ली है।
हिंदी चिट्ठाकारी के इस द्रुत विकास का श्रेय जहाँ कुछ पुराने चिट्ठेकारों को जाता है जिन्‍होनें हिंदी में लिखने ओर पढ़ने की तमाम तकनीकी दिक्‍कतों को दूर करने में बहुत सा समय और ऊर्जा खर्च की। वहीं हिंदी चिट्ठाकारी को अपने पैरों पर खड़ा करने में नारद और अक्षरग्राम ने भी सबसे अहम भूमिका अदा की है। नारद दरअसल एक फीड एग्रीगेटर है जिसका मतलब यह है कि उपलब्‍ध हिंदी चिट्ठों पर जैसे ही कोई नई सामग्री आती है यह उसकी सूचना दर्शा देता है। इच्‍छुक चिट्ठाकार इस चिट्ठे पर जाकर टिप्‍पणियों के माध्‍यम से लेखक का उत्‍साहवर्धन करते हैं, गलतियों के विषय में सुझाव देते हैं। इससे सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इसने हिंदी चिट्ठाकारों का एक जीवंत समुदाय खड़ा किया है जिसके सदस्‍य एक दूसरे का साथ देने के लिए तत्‍पर रहते हैं। नारद के अलावा इंटरनेट पर हिंदी के परवानों ने सर्वज्ञ व परिचर्चा जैसे मंच भी खड़े किए हैं जो हिंदी को इंटरनेट की समर्थ भाषा के रूप में खड़े करने की दिशा में मील का पत्‍थर हैं। सवर्ज्ञ जहाँ एक हिंदी का विकी-एनसाईक्‍लोपीडिया है जो किसी भी विषय पर हिंदी में सामग्री मुहैया कराता है वहीं परिचर्चा हिंदी में वाद- संवाद का एक मंच है।

आज न केवल बहुत से चिट्ठाकार लिख रहे हैं वरन वे लिखने के लिए दुनिया जहान के विषयों को चुन रहे हैं। कनाडा में रह रहे एकाउटेंट समीर व्‍यंग्‍य लिखना पसंद करते हैं तो इटली में बसे डाक्‍टर सुनील दीपक को कला और संस्‍कृति पर कीबोर्ड चलाना भाता है, हैदराबाद के वैज्ञानिक व कवि लाल्‍टू सामाजिक बदलाव की अलख के लिए चिट्ठाकारी करते हैं, मनीषा सरकारी कर्मचारियों के लिए ब्‍लॉग चलाती हैं जिसमें वेतन आयोग से संबंधित समाचार व अफवाहें होती हैं, साहित्यिक व पत्रकारी विषयों पर लिखने वालों की तो खैर एक लंबी कतार है हिंदी चिट्ठाकारी में। एन डी टी वी के पत्रकार अविनाश ने तो मोहल्‍ला नाम से चिट्ठा शुरू ही किया है पत्रकारों और विशेषज्ञों से लिखवाने के लिए। राजेंद्र यादव का तुलसी विरोधी लेख हाल में उन्‍होंनें मोहल्‍ले में छापा है और यदि एक बार राजेंद्रजी को मिली टिप्‍पणियों पर नजर डाल ली जाए तो सहज ही समझ आ जाता है कि चिट्ठाकारिता के बिंदासपन का क्‍या मतलब है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि समाचार, व्‍यंग्‍य, तकनीकी विषय, साहित्‍य, खेल, स्‍त्री हित के विषय आदि सभी क्षेत्रों में लेखन अब हिंदी चिट्ठाकारी में हो रहा है।
जो आजाद खयाली और आजाद तबियत इस चिट्ठाकारी की सबसे अहम खासियत है वही इसे जटिल परिघटना बना देती है। लोगों की आपसी आजादी और अहम अक्‍सर टकराते रहते हैं और नित नए विवाद चिट्ठाकारिता में खड़े होते रहते हैं। हाल की हिंदी चिट्ठाकारी में ऐसे कई विवाद खड़े हुए। हिंदू व मुसलमान पहचान के सवाल पर हुआ तीखा ‘इरफान विवाद’ फिर इंटरनेट पर पहचान के सवाल पर ‘मुखौटा विवाद’ हुआ। ‘मोहल्‍ला विवाद’, ‘बेनाम टिप्‍पणी विवाद’ अन्‍य कुछ विवाद हैं लेकिन ये सब विवाद अपनी जगह हैं और यह बात अपनी जगह कि चिट्ठाकारिता इन विवादों से मजबूत होकर उभरती रही है। यही नहीं चिट्ठाकारी ने अपनी आजाद तबियत के ही हिसाब से अपनी भाषा और मुहावरे भी खुद गड़े हैं- शिक्षित समाज की टकसाली हिंदी को चिट्ठाकारी में आभिजात्‍यपूर्ण मानकर छोड़ दिया जाता है और अखबारी भाषा को भी औपचारिकता से भरा हुआ मानकर उसमें जरूरी वदलाव किए जाते हैं और एक अनौपचारिक भदेस भाषा और अनगढ़ शैली वहॉं पसंद की जाती है जो स्‍माइलियों [:)] से होती है। आम चिट्ठाकारी जुमला यह है कि अखबार पढ़ा जाता है और चिट्ठा बांचा जाता है इसीलिए अखबार में लिखा जाता है जबकि चिट्ठे में पोस्टियाना होता है। तो भाई लोगन आप समझ सकते हैं कि हम जैसे ब्‍लॉगिए को अखबार के लिए लिखने में कितना कष्ट हुआ होगा। अगर सही में हमें बांचना चाहें तो हमारे चिट्ठे पर पधारो सा।

Thursday, April 19, 2007

बन्‍ने के वंदनवार और महाता उन्‍राओ की सूनी ऑंखें


बन्‍ने के वंदनवार


महाता उन्‍राओ की सूनी ऑंखें

ये दो अलग तस्‍वीरें हैं और इनमें यदि आपको आपस में कोई संबंध नहीं दिखाई देता तो दोष आपका नहीं क्‍योंकि अरअसल ये हैं ही अलग अलग समाचारों और सरोकारों से जुड़ी तस्‍वीरें बस हुआ इतना भर है कि आज के हिंदुस्‍तान टाईम्‍स में ये आमने सामने के पेज पर छपीं हैं और कई विसंगतियों को खुद व्‍यक्‍त करतीं हैं। कल नीरज दीवान ने निमंत्रण पत्र छापकर इस शादी नं. 1 की सूचना पोस्‍ट की थी जिसकी सजावट यहाँ हो रही है।

दूसरी ओर वे हैं जो चिंता नं. 1 होनी चाहिए पर है नहीं।

Wednesday, April 18, 2007

हमारे देसी भुट्टे और विकास मीनार से लटकी ग्रीनपीस

ग्रीनपीस की हाल के कुछ महीनों में भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिशें साफ दिखाई दे रही हैं। अभी पिछले ही दिनों में दिल्‍ली की विकास मीनार से लटक लटक कर लोगों ने एक बैनर टॉंगा और ये बैनर टंगाई का अनुष्‍ठान ही बाकायदा प्रेस को बुला बुला कर दिखाया गया। दूसरों देशों में खूब चलता होगा लेकिन इनकी आईडिया का बल्‍ब हमें तो कुछ खास नहीं रूचा। अरें भई हमारे यहॉं डेढ़ सौ की दिहाड़ी पर मजदूर दिन भर इमारतों से लटके रहते हैं कोई ध्‍यान नहीं देता....पर यहॉं ग्रीनपीस का मामला था प्रेस पहँच ही गई।




वैसे सच कहें तो हमें तो मल्‍टी नेशन एन.जी.ओ. जो हैं वे बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों ही की तरह बहुत खतरनाक किस्‍म का कुचक्री गोरखधंधा लगता है।

इसी ग्रीनपीस की कल की एक प्रेस विज्ञप्ति ने थोड़ी आशा भी पैदा की, ये कोई हमारा अंतर्विरोध नहीं है बस इतना है कि अब इस पैंतीस की उम्र में उतने सिनीकल नहीं रह गए हैं। जिनसे सिद्धांतत: असहमति है उसके भी अच्‍छे कर्मों को धतकरम कह कर मटिया नहीं देते हैं। इस प्रेस रिलीज के अनुसार सूचना के अधिकार के मार्फत ग्रीनपीस ने केंद्रीय सूचना आयोग से अपने पक्ष में फैसला हासिल किया है जिसके कारण अब जैव प्रोद्योगिकी विभाग को बायोटैक कंपनियों के शोधों की उन सूचनाओं का खुलासा आम लोगों के सामने करना होगा जिनमें इन कंपनियों के उत्‍पादों के नुकसानदेह प्रभावों को दर्ज किया गया है। जब से हमारी मार्केट के भुट्टे वाले ने केवल अमेरिकन कार्न को हीबेचना शुरू किया है हम तो तभी से पिनके पड़े हैं अब इस खबर ने फिर से बता दिया है कि जेनेटिकली इंजीनियर्ड कार्न बेहद नुकसानदेह है। सावधान....
अंग्रेजी में पूरी प्रेस विज्ञप्ति यहां पढें

Monday, April 16, 2007

अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे -सुजाता तेवतिया

सुजाता का यह लेख आज जनसत्‍ता में आवरण कथा के रूप में छपा और जगदीशजी ने इसकी छवि भी अपलोड की लेकिन मित्रों को इसे पढ़ने में तकलीफ हो रही थी। तारणहार बने रवि रतलामीजी और उन्‍होंने लेख को यूनीकोडित कर भेजा है। प्रकाशित लेख में इस सामग्री के अतिरिक्‍त कुछ बॉक्‍स आइटम भी हैं कितु अभी तो लीजिए पेश है मुख्‍य लेख-


अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे
पूरी एक शताब्दी पीछे चर्चित रहे बालमुकुन्द गुप्त के 'शिवशंभू के चिट्ठे' अब इंटरनेट पर हिन्दी ब्लॉग बन कर धूम मचा रहे हैं। खड़ी बोली गद्य की भाषा का यह आरंभिक स्वरूप जितना रोचक और आत्मीय था, अंतर्जाल पर हिन्दी के चिट्ठे भी वैसे ही रोचक और आत्मीय शैली में अभिव्यक्ति का माध्यम बन गए हैं। अत: इसे हिन्दी की एक नई विधा माना जाए तो अनुचित न होगा। अंतरिक्ष की भांति अनन्त साइबर स्पेस पर ये हिन्दी चिट्ठे हमेशा के लिए दर्ज हो जाने वाली डायरी की तरह हैं।
'वेबलॉग' से 'ब्लॉग' बना और ब्लॉग का हिन्दी शब्द आया 'चिट्ठा' - सर्वप्रथम आलोक जी द्वारा - जो अब लगभग मानक हो चला है। यूँ तो अंग्रेजी चिट्ठाकारी अमेरिका में 1997 से प्रचलित हो चली है लेकिन हिन्दी का यह पहला 'चिट्ठा' 2 मार्च 2003 को प्रकाश में आया। इसे वास्तविक लोकप्रियता हासिल हुई रवि रतलामी के 'अभिव्यक्ति' में छपे लेख से जिसने कई नेट-प्रयोक्ताओं को हिन्दी ब्लॉग बनाने के लिए उकसाया।
कुल जमा 10 वर्ष की ब्लॉग विधा और उसमें भी हिन्दी ब्लॉग की 4 वर्ष की आयु यद्यपि किन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए नाकाफ़ी है तथापि यह मानने में कोई संकोच नहीं कि अंतर्जाल पर हिन्दी का प्रचार करने वाली यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधा है। अंतर्जाल पर हिन्दी में मिलने वाली सामग्री का सबसे बड़ा भाग ये चिट्ठे हैं जो भविष्य में कीबोर्ड लेखन की इस अद्यतन विधा के परिष्कृत और निरंतर परिवर्तित होने का संकेत देती है।
हिन्दी के इन चिट्ठों में ताज़गी है और कोई एक सामान्य विशेषता, गुण या स्वरूप न होने पर भी इनकी अनगढ़ता और बेबाकी सभी चिट्ठों में सामान्यत: मिलती है। इस चिट्ठाजगत में न विषयों का बंघन है न नियमों की कवायद। पूरी तरह से अनौपचारिक यह विधा हर एक ब्लॉगर या चिट्ठाकार को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता देती है। यहाँ लोग जूतों से लेकर रसोई, बाथरूम और खान-पान से लेकर सुभाष चंद्र बोस, वर्ल्ड कप क्रिकेट, आरक्षण तक पर लिख सकते हैं और पाठक इन्हें पढ़ते भी हैं। किसी के लिए चिट्ठाकारी शौक है, किसी के लिए अपने मन की भड़ास निकालने का माध्यम तो किसी के लिए समय नष्ट करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। यद्यपि इन चिट्ठों का व्यावसायिक पक्ष भी है और गूगल इन चिट्ठाकारों को एडसेन्स द्वारा धन कमाने के अवसर भी देता है। पर सामान्यत: इन चिट्ठाकारों में धन कमाने की उतनी चाह नहीं जितनी लिखने और खुद को पढ़वाने की चाह है।
बैठे-ठाले का चिन्तन और शौकिया लेखन इन चिट्ठों के नाम और परिचयात्मक वाक्यों में भी झलकता है जो इन्हें निराला बनाता है - जैसे फ़ुरसतिया, निठल्ला-चिन्तन, नोटपैड, कॉफ़ी हाउस, टैमपास, नुक्ताचीनी, वाद-संवाद, गप-शप, ब्लॉगिया कहीं का, खाली-पीली, ठलुआ, मटरगश्ती, मस्ती की बस्ती।
ब्लॉगिंग का माध्यम न केवल देसी हिन्दी प्रेमियों को आकर्षित कर रहा है वरन् प्रवासी भारतीयों को भी बहुत लुभा रहा है। सबसे रोचक तो है कि हिन्दी चिट्ठों के शुरूआती दौर में सामने आने वाले बहुत से चिट्ठाकार विदेश में रह रहे भारतीय ही हैं जो अनायास ही हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास के साक्षी और निर्माणकर्ता भी हो गए। जितेन्द्र चौधरी, पंकज नरूला, प्रतीक, अनुनाद, रमण कौल इन्हीं आरंभिक बलॉगरों में से हैं।
यहाँ तक कि हिन्दी के तमाम चिट्ठों को संकलित करके एक स्थान पर दिखाने वाली फ़ीड एग्रीगेटर साइट नारद.अक्षरग्राम.कॉम भी इन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। नारद न केवल इन चिट्ठों की रोज़ की आवाजाही पर नज़र रखता है वरन् इन चिट्ठों की चर्चा करता है साथ ही साहित्यिक गतिविधियों, ब्लॉगज़ीन ; ब्लॉग मैगज़ीन व काव्य प्रतियागिताओं का भी संचालन समय-समय पर करता है। नियमितता और लोकप्रियता के आधार पर वह इन चिट्ठों की रेटिंग भी करता है।
चिट्ठाकारी की विधा के सभी पहलू बड़े दिलचस्प है जिसमें 'टिप्पणी' एक रोचक भूमिका निभाती है। जैसा कि बहुत से ब्लॉगर मानते हैं कि हिन्दी चिट्ठा लेखन छपास - छपने की इच्छा-पीड़ा का इलाज है उस दृष्टि से यहाँ छप कर न केवल न छपने के दर्द से मुक्ति मिलती है वरन् पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियाएँ टिप्पणियों के रूप में पाकर लेखक धन्य हो जाते हैं। लेखन की किसी भी विधा और माध्यम में यह स्थिति संभव नहीं है। ये टिप्पणियाँ न केवल लेखक का उत्साहवर्धन करती है वरन् उसे निरन्तर माँजते रहने में भी कारगर साबित होती है। हालाँकि, कभी-कभी मामला 'एक दूसरे की पीठ खुजाने की तरह' टिप्पणी करने और टिप्पणी पाने वाला भी हो जाता है। ब्लॉग में टिप्पणी का महत्व बताते हुए एक जीतू का कथन है - ''टिप्पणी का बहुत महत्व है, ब्लॉग लिखने में, बकौल शुक्ला जी; रामचंद्र नहीं - अनूप शुक्ला ...बिना टिप्पणी का ब्लॉग उजड़ी माँग की तरह होता है। जिसकी जितनी टिप्पणियाँ उसके उतने सुहाग।''
एक सबसे रोचक पहलू इन चिट्ठों की भाषा और शैली है। रचनात्मकता की कई छटाएँ यहाँ देखने को मिलती है। यहाँ भाषा आभिजात्य, शुद्धता और मानक भाषा से आतंकित हुए बिना अपना स्वरूप निर्मित करती है। इस दृष्टि से ये हिन्दी चिट्ठे भाषा की नई भंगिमा लिए है। ये हिन्दी भाषा की नई प्रयोगशाला है। शब्दों की नई टकसाल हैं और टकसाल भी ऐसा जिसमें व्याकरण के नियमों की जकड़बंदी और पांडित्य का माहात्म्य नहीं है। यहाँ भाषा आम हिन्दुस्तानी की मातृभाषा है, बोलचाल की भदेस बोली है। यहाँ अंग्रेजी के हिन्दी पर्याय संस्कृत कोश में ढूँढने के बजाय खुद गढ़े जाते हैं और विद्यमान शब्दावली को इंटरनेट के अनुसार विकसित और परिष्कृत किया जा रहा है। यहाँ बात करते-करते लोग बिहारी, मैथिली, भोजपुरी, पंजाबी के शब्दों और अभिव्यक्तियों पर उतर आते हैं। चिट्ठाकार, चिट्ठाकारिता, चिट्ठा जगत, चिट्ठोन्मुक्त जैसे शब्द तो प्रचलन में है ही साथ ही आधिपत्य की तर्ज पर ब्लॉगपत्य, पोस्ट करने के लिए पोस्टियाना, टिप्पणी देने के लिए टिप्पियाना, टिप्पणी की इच्छा रखना - टिप्पेषणा आदि शब्दों का इस्तेमाल यहाँ बेरोक-टोक होता है। यहाँ कुबेरनाथ राय की पंक्तियाँ 'भाषा बहता नीर...' सही साबित होती लगती है। 'ब्लॉगित' हिन्दी जनों के 'लिंकित' मनों; एक शोध् ब्लॉग का नाम भी यह इंगित करती है कि भाषा निरन्तर प्रवाहमान है।
रोचक तथ्य यह भी है कि हिन्दी चिट्ठा जगत ने न केवल छपास पीड़ित, अनगढ़ लेखकों को आकर्षित किया है वरन् हिन्दी पत्रकारिता व मीडिया जगत से भी कई हस्तियों को लुभाया है। मोहल्ला, कस्बा, मुम्बई ब्लॉग्स ऐसे ही पत्रकारों के ब्लॉग है जो मीडिया लेखन के तयशुदा एजेंडों से मुक्त होकर स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। फ़िर भी, अंतर्जाल के हिन्दी चिट्ठाजगत में यह निरालापन है कि सुगढ़, सुविचारित और अनुभवी लेखन यहाँ स्तुत्य तो हैं लेकिन लोकप्रिय होने की शर्त नहीं है। बल्कि आम बातों के आम ब्लॉग, साधरण बातें, व्यंग्य और बहसें यहाँ अधिक लोकप्रिय हैं।
यद्यपि हिन्दी के जाने-माने ब्लॉग्स अभी लगभग 500 ही हैं जबकि अंग्रेजी के हज़ारों ब्लॉग्स हैं। फ़िर भी नित नए ब्लॉग्स हिन्दी में सामने आ रहे हैं और रोज़ाना नारद पर रजिस्टर हो रहे हैं। अत: आने वाले कुछेक वर्षों में यह चिट्ठा जगत अनंत विस्तार पाएगा, नारद विस्तार पाएगा या नए फ़ीड एग्रीगेटर सामने आएँगे इसमें संदेह नहीं। इस लेख का भी यही उद्देश्य समझा जाए। एकमात्र जो समस्या रह जाती है वह तकनीक का है। हिन्दी के पहले चिट्ठे पर आलोक जी ने भी यही लिखा था 'नमस्ते! क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं। यदि नहीं तो यहाँ पर देंखे।' माने यह कि कीबोर्ड पर हिन्दी लेखन और अन्य तकनीकी जानकारियाँ एक बड़ी बाधा है लोकप्रियता के रास्ते में। नारद, वर्डप्रेस, ब्लॉगस्पाट, गूगल सहित कई अन्य ब्लॉगर इस संबंध में सहायता करते हैं कि 'हिन्दी कैसे लिखें'। फ़िर भी समस्या अभी व्यापक है क्योंकि अंग्रेज़ी में लिखने वालों को यह नहीं पूछना पड़ता कि ''अंग्रेज़ी में कैसे लिखें?'' साथ ही यह भी कि हिन्दी चिट्ठाकारिता की दुनिया अभी काफ़ी सीमित है। हिन्दी चिट्ठा जगत से बाहर बहुत कम ब्लॉगरों की पहुँच है। अधिकांश केवल नारद पर दिख कर और टिप्पणी पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। यदि हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता के ऊँचे प्रतिमान छूने हैं तो अधिक व्यापक होना होगा। चार वर्षीया हिन्दी चिट्ठाकारिता इस बुलंदी को छूने के लिए आरंभिक तैयारी की अवस्था से गुजर रही है।
यद्यपि विषयों की कोई प्रतिबंध या नियमावली यहाँ नहीं है तथापि कई मुद्दों पर विविधता कम ही मिलती है। फ़ैशन, फ़िटनेस, सौन्दर्य, यात्रा, पाक कला, टेकनॉलाजी, खेल से जुड़े ब्लॉग अभी नहीं के बराबर है। लेकिन इस विकासमान विधा का स्वरूप इतना शीघ्र तय नहीं किया जा सकता। निरन्तर विविधतामय लेखन का एकमात्र रास्ता है यह।
हिन्दी चिट्ठाकारिता की विधा का स्वरूप क्या होगा? यह हिन्दी के चिट्ठाकार और आने वाला समय ही तय करेंगे और इससे पहले कि मीडिया, विश्वविद्यालय, साहित्य और आलोचना के बड़े-बड़े विद्वान इसे अपनी सुगढ़ भाषा में कोई रूपाकार देने की कोशिश करें उससे पहले ही यह तय करना होगा कि अनौपचारिक लेखन की यह चिट्ठा विधा अपने स्वरूप के मूल और मुख्य गुण यानी बेबाकी, अनगढ़ता, भदेसपने और फक्कड़पने को बनाए रखे। इसे अन्य माध्यमों से अलगाने वाला मुख्य बिन्दु भी यही है जो इन हिन्दी के चिट्ठों में सूखी मिट्टी पर पड़ी फ़ुहार से उठने वाली सोंधी गंध की सी ताज़गी का एहसास दिलाता है।

Sunday, April 15, 2007

छा....गए हिंदी चिट्ठे - जनसत्‍ता की कवरेज

बहुप्रतीक्षित कवर स्‍टोरी आज आई और छाई। सुबह से कई फोन आ चुके हैं खास तौर पर गैर चिट्ठाकार हिंदी वालों के। यही तो मकसद था।


लेख के यूनीकोड‍ीकरण के प्रयास जारी हैं। तब तक इस धुधली छवि से काम चलाएं। कोई दयानिधान साफ छवि भी अपलोड करे तो अच्‍छा रहेगा हम तो 300 किलो पिक्‍सल के वेबकैम से ले रहे हैं।

Saturday, April 14, 2007

खचेढ़ू चिंतामणि - चिटठावीरता का स्‍थाई भाव : चिट्ठोत्‍साह



अरे चाचा ई...ई का कर रहे हो। हमने खचेढ़ू चाचा को खाट की अदवायन को कसते देखा तो हमारे मुँह से बरबस निकला। हमारी हालत वैसे ही हो गई थी जैसे अवैध दुकान पर सील लगते देख मोटे लाला की होती है। मुसलमान को तरक्‍की करते देख मुलायम की होती है, दलित को तरक्‍की करते देख मायावती की होती है। मतलब हर उस सही काम को देखकर उस व्‍यक्ति की होती है जिसकी दुकानदारी उस गलत की ही वजह से चल रही होती है। अब दो दो पोस्‍ट लिखकर खचेढ़ू चाचा के ढीली अदवायन का ब्रांड सेट किए थे। पहले बताया कि ढीली अदवायन जोर के आईडिया बुलाने का मूल मंत्र है। फिर बताया कि ढीली अदवायन पर रखे कंप्‍यूटर तक में चिट्ठाशास्‍त्र के सूत्र रचने की कूवत आ जाती है। अब ये हमारे चाचा उसी ढीली अदवायन को कसे जा रहे हैं... हमारी तो दुकान बढ़ा दी बैठे बैठे। हमने कहा चाचा ऐसे किसी की रोजी को कसना ठीक नहीं बताओं क्‍या बात है- हम समझा लेंगे परमोद भैया को कि कुत्‍ता गू रहने दें गाय का शुद्ध गोबर ही ठीक है आपके लैपटॉप का सहारा बनने के लिए, और कहो तो दर्जनभर उपले खरीदकर रखवा देता हूँ। वे हँसकर बोले क्‍या बच्‍चे इस गढ़ी मेंडू गॉंव में हम किसी परमोद के परभाव में नहीं आते वो तो हम आज हम उत्‍साह में थे इसलिए सोचा इस ससुरी अदवायन को हाथ लगा दें।
उत्‍साह....उत्‍साह, यही तो है चिंतामणि का अगला निबंध। अब हम भी उत्‍साह में भर गए। हमने कहा अरे अदवायन छोडि़ए लैपटॉप टिकाइए और इस उत्‍साह नाम के मनोविकार का विवेचन कीजिए इस अमर्त्‍य चिट्ठालोक की दुनिया में। यानि हे आचार्य खचेढ़ू चाचा लिखिए अपना अगला निबंध हम आपके साथ हैं। बस खचेढ़ू चाचा शुरू हो गए.. पेश है-

उत्‍साह बोले तो दिन में तीन पोस्‍ट, तेईस टिप्‍पणी (दूसरों के चिट्ठों पर), स्‍टेटकाउंटर 24 X 7 खुला। असल दुनिया में जिसे बिफरना कहते हैं चिट्ठाजगत में उसे ही उत्‍साह कहा जाता है। ओर बिफरा हुआ सांड जब गढ़ी मेंडू के यमुना खादर में हांडता है तो वह गाय ही नहीं भैंस, भैंसे, बैल ओर तो और कभी कभी दूसरे सांड पर ही सवार होने की कोशिश करता देखा गया है। इसी प्रकार उत्‍साह वह (दु)साहसपूर्ण आनन्‍द की उमंग है जिसमें एक चिटृठाकार आंखें ओर अंगुलियों की थकान, बैंडविथ और बिजली के खर्च, बीबी और बच्‍चों की नाराजगी..... कुल जमा दुनिया की हर फिकर से अविचलित रह कर बस चिट्ठाकारी करता है, वह तय मानकर चलता है कि उसकी अगली पोस्‍ट अकेले 1500 हिंट लेकर आएगी। शकुलजी (ये नहीं वो...रामचंदर सकुल) पहले ही बता गए हैं कि वीर जिसका स्‍थाई भाव उत्‍साह है वह केवल युद्ध में ही नहीं तुषार मंडित अभ्रभेदी अगम्‍य पर्वतों की चढ़ाई, ध्रुव प्रदेश या सहारा के रेगिस्‍तान का सफर, क्रूर बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में प्रवेश इत्‍यादि भी वीरता के कर्म हैं। इनमें जिन आनन्‍दपूर्ण तत्‍परता के साथ लोग प्रवृत्‍त हुए हैं वह उत्‍साह ही है।
ध्‍यान से देखें शुक्‍लजी पहले ही बता गए हैं कि चिट्ठाकारी करना अरे वही....... 'क्रूर बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में प्रवेश ' भी इसमें शामिल है। यहाँ जिस आनंदपूर्ण तत्‍परता से गदा भांजते हैं, संहार करते हैं, ब्‍लॉग बैन करवाते हैं, दूसरे को नीचा दिखाते हैं, जहर उगलते हैं यह कमाल की चिट्ठावीरता है और यह तत्‍परता ही चिट्ठोत्‍साह है।

Friday, April 13, 2007

टैक्‍नोराटी हिंदी ब्‍लॉगिंग का कर्बला क्‍यों है

टिप्‍पणी चिंतन के प्रत्‍येक पुरोधा ने बताया कि परस्‍पर पीठ खुजाना है, उधार चुकाना है, एक दूसरे को बढ़ावा देना है। देखा जाए तो भला काम है। पर इसी किस्‍म का एक और काम है जो इसी तरह एक दूसरे की पीठ खुजाना है, उधार चुकाना है और भला काम है पर दिक्‍कत है कि अधिक कसाले काम है और कुछ ज्‍यादा सृजनात्‍मकता की मॉंग करता है और वह है परस्‍पर लिंकन। यानि लिंक देना और लिंक लेना। वैसे विवादों से यह सधता होगा पर फिलहाल हम उस पर बात नहीं कर रहे हैं। हम तो इस सवाल पर मगजमारी कर रहे हैं कि ये टैक्‍नोराटी जो इन लिंकन-प्रतिलिंकन की चाल पर नजर रखता है उससे मूल्‍यांकन करता है वो भला इतना हिंदी विरोधी क्‍यों है। एकाध बिरले को छोड़ दें तो अधिकतर चिट्ठों के परिचय में कोयले से भरी मॉंग की तरह सजा होता है - नॉट इन टॉप 100000।


यानि हिंदी चिट्ठे चोटी के 100000 चिट्ठों में भी शुमार नहीं होते। ऐसा क्‍यों भई... कोई तो बताए।
अब उदाहरण के लिए चिटृठा चर्चा पर विचार करें जो अंतत: एक चिट्ठा ही है। एक बेहद लोकप्रिय चिट्ठा है खूब पढ़ा जाता है और खूब लिखा जाता है। अब तक 340 पोस्‍ट लिखी जा चुकी हैं। यदि टैक्‍नोराटी की ही भाषा में बात करें तो यह बहुत से हिंदी चिट्ठाकारों के ब्‍लॉग रोल में भी है। और लिंक- अब क्‍या कहें यह तो है ही लिंक (आऊटवर्ड) देने के लिए और इनवर्ड लिंक भी मिलते ही हैं। लेकिन यदि टैक्‍नोराटी जाकर झांकें तो मिलता है ये-





अब कोई टेकीज में से हमें बताए कि कैसे इतना लोकप्रिय चिट्ठा चर्चा 4 लिंक दिखा पा रहा है ( वैसे नीचे खुद ही 664 लिंक बताता है) और रैंक 10,38,416 जबकि मुझ जैसे कुनाम ब्‍लॉगर तक का रैंक डेढ़-पौने दो लाख के लपेटे में है। पर इसका मतलब ये नहीं कि टैक्‍नोराटी की जरूरत नहीं है। है और बिल्‍कुल है। हमें चाहिंए कि परस्‍पर रुचि के विषयों पर लिखें और यही नहीं वरन बाहर के लोगों की रुचि के विषयों पर ध्‍यान दें ताकि ये जो टैक्‍नोराटी हिंदी ब्‍लॉगिंग का करबला बना हुआ है वहाँ कुछ सुधार हो। वैसे एक मजेदार पोस्‍ट इस लिहाज से मानसजी क‍ि यह पोस्‍ट है जिसमें उन्‍होंनें हर चिट्ठे को गिना दिया है जिससे शायद सबका टैक्‍नोराटी हित सधता हो (शायद इसलिए कि मेरे लिंको की जो सूची टैक्‍नोराटी पर थी उसमें तो इसका उल्‍लेख पता नही क्‍यों नहीं था) या फिर टेक्‍नोराटी फेवरेट एकसचेंज के इस कार्यक्रम पर विचार करें।

Thursday, April 12, 2007

....क्‍योंकि याद भी एक जगह है और अरसा भी


यह आत्‍मालोचना में किया गया एकालाप है। न विवाद न मस्‍ती।


आदमजात मादा जब जन्‍म देती है तो निस्‍संग नंगे को जो उससे गर्भनाल से जुड़ा होता है, इस दुनिया से पहले जुड़ाव और जिंदा रहने की जरूरत के तहत सबसे पहले काटी जाती है उसकी नाल और फिर पहनाए जाते हैं कपड़े। ये दो क्रियाएं फिर जीवन भर चलती हैं मनुष्‍य नाल के कटने से पहले आदम त्‍वारीख की अब तक की सारी जमा पूंजी याद के रूप में पा चुका होता है और समाज के कपड़े उसे निरंतर ढकने और छिपाने के उद्योग करते रहते हैं। ये कपड़े दूसरों के लिए होना है। सभ्‍यता, शिष्‍टाचार, संस्‍कृति यहॉं तक की खुद भाषा ये कपड़े ही हैं, भाषा हमें ये तो सिखाती ही है कि क्‍या कहना है उससे ज्‍यादा वह यह सिखाने की कोशिश करती है कि कि कैसे कहना है और क्‍या नहीं कहना है। ....तो ब्‍लॉग शुरू तो किया था कि अपनी कहेंगे वो जो कहना तो बहुत चाहते हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं होता इसलिए यहाँ कहेंगे जो सुने उसका भी भला जो न सुने उसका भी भला।


पर हुआ क्‍या ...वही नई दुनिया...नए कपड़े। अंग्रेजी ब्‍लॉगर मित्र से शंका से पूछा था कि ग्‍लानि नहीं होती कि छिपकर देखते हो कि कौन आया कहॉं से आया। अब खुद के ब्‍लॉग पर काउंटर है। हिट्स, टिप्‍पणियाँ और लिंक्‍स सभी तो इस दुनिया में है। लेकिन इन सब के बदस्‍तूर हम हैं क्‍योंकि वह गर्भनाल जो कटने से पहले जो मानव सभ्‍यता का अर्जित विवेक हममें आ समाया है उसे समेट कर उसमें एक बूंद अपनी ओर से जोड़कर अगली जमात को दें थमा। फ़ुरसतिया ने याद दिलाया कि कमलेश्‍वर अपनी उम्र को पूर्वज लेखकों की उम्र में इंक्रीमेंट लगाकर गिना करते थे, कितना सही करते थे।
सवाल यह है कि कमलेश्‍वर क्‍यों 5550 साल के थे और हम अगले तीस साल में हम 5580 साल के कैसे हो जाएंगे (5550 की उम्र कमलेश्‍वर दे गए हैं अगली तीस साल की लेखकीय उम्र आपकी हमारी जोड़ ली गई है :) ) इसका एक ही टूल है और वह है याद या स्‍मृति। यही वह जो गर्भनाल से बहकर हममें आ जमता है और हमें यह दाय दे जाता है कि इसमें एकाध बूंद जोड़कर आगे दे जा सकें। हर आत्‍मालोचन सत्र में कोशिश करता हूँ कि एकाध सेंकेंड उम्र जोड़ पाया इस अदीबी उम्र में कि नहीं और ईमानदार उत्‍तर 'नहीं' ही होता है, कारण और साफ दिखाई दे जाता यदि ब्‍लॉगर में भी Strike out करने की सुविधा होती क्‍योंकि इस वाक्‍य की शुरुआत ही मैं से की गई थी जिसे बाद में सुधारा गया।


खैर बिना मतलब का एकालाप लगा हो तो क्‍या करें ऊपर चेतावनी तो चेपी ही थी।


Wednesday, April 11, 2007

खचेढ़ू चिंतामणि उर्फ भाव या मनोविकार

ढीली अदवायन की खाट में यूँ तो कई दिक्‍कतें हैं, मसलन वो आवाज ज्‍यादा करती है, कम आरामदेह होती है...और भी दिक्‍कतें हैं लेकिन सबसे बड़ी दिक्‍कत ये है कि उस पर लैपटॉप ठीक से सीधा रखना मुश्किल होता है। ससुर फिसलकर इस केंन्‍द्र की ओर आ जाता है जो खचेढ़ू चाचा के पैरों पर आ विराजता है। खैर खचेढ़ू चाचा ने इसका सहज सा इलाज ये निकाला है कि गाय के गोबर के एक उपले का मोटा सा टुकड़ा तोड़ा और उसे लैपटॉप के नीचे खोंस दिया हो गया संतुलन कायम। यूँ ये कोई नई तकनीक ई नहीं है ना ही इसका पेटेंट खचेढ़ू चाचा के पास है, धरा पर जब जब भी असंतुलन व्‍यापा है और संतुलन की हानि हुई किसी सूखे गोबर के टुकड़े ने खुद को आधार बनाया है। कभी इस गोबर के टुकड़े को प्रधानमंत्री बनना पड़ा कभी कोई और लैपटॉप संभालना पड़ा, पर ये खचेढ़ू जुगाड़ बार बार इस्‍तेमाल हुआ है। खैर जब हमने खचेढ़ू चाचा को बताया कि चाचा ऊ प्रमोद भैया गाय के गोबर की जगह कुत्‍ता गू के इस्‍तेमाल की बात कर रहे हैं...खचेढ़ू चाचा ने एक भद्दी सी गाली सारे कम्‍यूनिस्‍टों के नाम उगली और 'तेरे ब्‍लॉग पर बेनाम टिप्‍पणीकार दस्‍त करें' की बददुआ दी।

खैर गोबर अवलंबित लेपटॉप पर खचेढ़ू चाचा ने जो लिखा वह चिट्ठाकारी के आचार्य शुक्‍ल को लिखना चाहिए था पर यहॉं तो एक्‍के शकुलजी हैं जो चमरौंधे में ही सर खपा रहे हैं वैसे कविता क्‍या है कि रचना उन्‍होंने की थी पर फिर शेष चिंतामणि की ओर उन्‍हांनें रूचि न दिखाई। इसलिए आचार्य खचेढ़ू चाचा को यह काम करना पड़ रहा है। काम है 'भाव या मनोविकार' का चिट्ठा संस्‍करण हॉं तो पेश है-

भाव बोले तो रेट। और भाव आजकल आसमान पर हैं। पहले एक रुपए के बीस उपले आते थे अब भाव पॉंच रुपए के दस है। पहले टटपूंजी कविता पर पॉंच टिप्‍पणी मिल जाती थीं, अब बिना कत्‍लोगारत किए कुत्‍ता भी नहीं झांकता। वैसे एक दूसरा भाव भी होता है सुख का दु:ख का। पर वे असल दुनिया में होता है, इस यानि चिट्ठाकारी में कोई सुख का भाव नहीं होता सिर्फ दु:ख होता है और उसके भिन्‍न भिन्‍न संस्‍करण होते हैं। दु:ख में ब्‍लॉगिंग सब करैं सुख में करै न कोय। दु:ख का भाव भी कई कई परेशानियॉं लिए हुए है- हिट न होने का दु:ख, टिप्‍पणी न होने का दुख, दूसरे के यहॉं टिप्‍पणी होने का दुख ये दुख वो दुख। ये चिट्ठालोक तो दुख का ही दूसरा नाम है। हॉं इतना जरूर है कि ये दुख भाव संश्लिष्‍ट होकर नाना रूपों में अभिव्‍यक्‍त होता है। ये क्रोध बन सकता है, अगर आपने जीजान से कुछ लिखा और आपके 'मैं हूँ' भाव को ( ले देकर ये ही तो एक पूंजी है ब्‍लॉगर की) किसी ने तरजीह न दी तो आपकी अंगुलिया फड़क उठती है, मॉनीटर से चिंगारियॉं निकलने लगती हैं, प्रोसेसर से धुंआ आप मैं तुझे डस लूंगा या मिट्टी में मिला दूंगा कि तर्ज पर फुंफकारने लगते हैं। या ये दुख जब बढ़ जाए तो ईर्ष्‍या, घृणा, आदि रूपों में भी व्‍यक्‍त हो सकता है। अत: हम कह सकते हें कि चिट्ठा सुख दुख की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्‍साह, आश्‍चर्य, करुणा, घृणा आदि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है।

Sunday, April 08, 2007

....लोग भूल गए हैं

आज यानि 8 अपैल 2007 को जनसत्‍ता में ओम थानवी का एक संस्‍मरणात्‍मक लेख 'लोग भूल गए हैं' प्रकाशित हुआ है। विश्‍वकप से पहले गयाना देश की उनकी यात्रा के संस्‍मरण हैं, यदि यह अखबार उपलब्‍ध हो तो जरूर पढि़ए। लेख बड़ी तल्‍लीनता से उन्‍नीसवीं सदी में भारत से गए गिरमिटियों की जिंदगी पर नजर डालता है ओर इस बहाने ओम थानवी कुछ इन सवालों को खड़ा करते हैं-


क्‍या मैं उनके बर्ताव में भारतीयता खोज रहा हूँ ? भारतवंशियों को पराई जमीन पर किस चीज ने बांधे रखा ? कोई गयानी या सूरीनामी रहते हुए भी भारतीय हो सकता है ? चंद भारतीय मूल्‍यों का संवाहक। भारतीय मूल्‍य क्‍या हैं ? राष्‍ट्रीयता का जीवन मुल्‍यों से क्‍या संबंध है ? अमेरिका, कनाडा,अफ्रीका, यूरोप में बस गए भारतीय वहॉं के जीवन मुल्‍यों से ज्‍यादा जुड़ाव महसूस करते हैं या भारतीय संस्‍कृति से ?
जाहिर है जिन सवालों को ओम थानवी पूछ रहे हैं वे केवल उन्‍नीसवीं सदी के गिरमिटियों के सवाल नहीं हैं आज के प्रवासियों के भी सवाल हैं- जितेंद्र के, समीर के , सुनील दीपक, राकेश खंडेलवाल, पंकज और उन तमाम भारतीयों के भी जिन्‍होंनें अभी हिंदी चिट्ठाकारी को नहीं अपनाया है। मेरा सलाम इन सब को जो सात समन्‍दर दूर भारत रच रहे हैं।


डर्बन पहुँचे भारतीय मजदूरों का एक जत्‍था

Friday, April 06, 2007

हिंदी चिट्ठाकारी का अगला युग

इधर हिंदी चिट्ठाजगत में कुछ वैसा हो रहा है जैसा कि छायावाद के समय हिंदी साहित्‍य में हुआ, यानि अस्तित्‍व के सवाल से मुक्‍त होकर भविष्‍य के लिए निर्द्वंद्व रचनाधर्मिता शुरू हुई। द्विवेदीयुग वाली यह चिंता कि पता नहीं हिंदी (खड़ी बोली) रहेगी कि नहीं, रहेगी तो क्‍या स्‍वरूप रहेगा। इस तरह के सवाल अक्‍सर द्विवेदी युगीन कर्णधारों को दुखी करते थे पर छायावाद जो इन चिंताओं से तैयार जमीन पर ही खड़ा था पर इनसे अप्रभावित व अकुंठ था। उसने भाषा और संवेदना दोनों ही स्‍तर पर स्‍वतंत्रता का परिचय दिया। अब समकालीन हिंदी चिट्ठाकारिता पर सोचें- वह अपना एक निश्चित रूप ग्रहण करती चल रही है और नए चिट्ठाकार इस आशंका से ग्रस्‍त नहीं है कि कल हम हों न हों..। वे पहली दूसरी पोस्‍ट से ही विवादों में हाथ डालते हैं, जमे अधजमे लोगों पर अकुंठ टिप्‍पणी करते हैं, व्‍यंग्‍य करते हैं, पंगा लेते हैं, सवाल उठाते हैं, सफाई माँगते हैं। अच्‍छे संबंध से उन्‍‍हें गुरेज नहीं पर वे इसके लिए वे अतिरिक्‍त प्रयास करते नहीं दिखाई देते न ही उन्‍हें धमकी या धमकावलियों से कोई खास चिंता नहीं होती भाषा के स्‍तर पर भी वे अकुंठ हैं- जूते, जूतियाते हैं, चूतियापा करते हैं, गदा चलाते हैं, पीठ खुजाने, खुजवाने स्‍तर की दैहिकता भी आ ही गई है। कर्णधार भी अब अपना ऐतिहासिक महत्‍व स्‍वीकारते हुए इतिहास वर्णन की ओर अग्रसर हुए हैं। मतलब साफ है कि यदि संकेतों की ओर ऑंखें मूंदने के स्‍थान पर उन पर विचार किया जाए तो कुछ सवाल दिखाई दे रहे हैं -

1- क्‍या हिदीं चिट्ठाकारिता में युग परिवर्तन का समय आ गया है ?
2- नए युग की नई चुनौतियाँ क्‍या हैं ? पुराने चिट्ठाकारों ओर स्‍थापित संरचनाओं के लिए बदलाव से कौन सी नई चुनौतियाँ हाजिर हुई हैं?
3- और सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल यह है कि क्‍या हम इस नए बदलाव के लिए तैयार हैं- प्रौद्योगिकीय रूप से, भाषिक रूप से और चिट्ठासमाज की दृष्टि से?

ऊपर के पहले सवाल का जबाव इतना कठिन नहीं, बदलाव के चिह्न इतने स्‍पष्‍ट हैं कि
उनकी अवहेलना करना आसान नहीं। मसलन पिछले सप्‍ताह ही मुक्‍तक समारोह को इसलिए
स्‍थगित करना पड़ा कि सामग्री कि इस अधिकता के लिए हमारा नारद तैयार नहीं था, यूँ
भी रोज पचासेक नई पोस्‍ट के लिहाज से पहले पृष्‍ट पर बना रहना एक संघर्ष हो गया है,
जनसंख्‍या तेजी से बढ़ रही है जाहिर है अहं के टकराव भी बढ़ रहे हैं। बदलाव केवल
संख्‍या का ही नहीं है विषय भी बदले हैं, विवादमूलक विषय से परहेज समाप्‍त हुआ है।

अगर पुराने चिट्ठों के पुरालेख खंगाले जाएं तो हमें विवादों को लेकर अलग दृष्टि दिखाई देती है, अब विवाद श्रृंखलाबद्ध होते जा रहे हैं तथा एक ऐसेट की तरह देखे जाते हैं। विवादों को छोड़ भी दें तो भी राजनैतिक या अन्‍य विषयों पर तीखी
चिट्ठाकारी खूब दिख रही है। अभी भी महत्‍व तो व्‍यंग्‍य विधा का खूब बना हुआ है पर इसके विषयों में भी वैविध्‍य आ रहा है। शिल्‍प के स्‍तर पर बदलावों की आहट तो और भी स्‍पष्‍ट है- आडियो, वीडियो का पठ्य से योग बढ़ रहा है जो चिट्ठाकारिता की प्रकृति पर अपनी छाप छोड़ने के लिए आतुर है।

मुक्‍तक समारोह का स्‍थगन वह पहली चुनौती है जो नए युग की चिट्ठाकारिता के सामने आई है। यूँ भी कविता अब चिट्ठाकारिता की अहम विधा नहीं रह गई है। हमारे संसाधनों की सीमितता नारद के सामने हैव्‍स और हैव नॉट्स के सृजित हो जाने की चुनौती पेश कर रही है। पहले रेटिंग की जरूरत नहीं थी पर अब उसके बिना काम नहीं चल पा रहा, शायद अभी लेवल आदि के आधार पर कई सारे (उप)मुखपृष्‍ठ बनाकर इस समस्‍या को कुछ दिन तक सुलझाया जा सकता है यानि कविताओं का नारद, आपबीती का नारद, व्‍यंग्‍य का नारद और समाचार का नारद आदि पर अंतत: नारद को इस विशाल आकार के आगे संपादकीय भूमिका में आना पड़ेगा और यकीन जानिए वही घटना प्रीफेस टू लिरीकल बैलेड्स या पल्‍लव की भूमिका बनेगी या कहें युगांतरकारी होगी।
संपादकीय विवेक के आने का मतलब होगा कुछ पोस्‍टों को अन्‍यों की तुलना में चुनना वैसे मुझे लगता है कि इस स्थिति के लिए अनुमानत: 1000 चिट्ठों की जरूरत होगी लेकिन 1 से 500 में जितना समय लगा है 500 से 1000 में शायद उसका 10% ही लगेगा यानि से आसन्‍न स्थिति है दूरस्‍‍थ नहीं। चुनौतियॉं केवल स्‍थापित संरचनाओं यानि नारद, परिचर्चा आदि के ही सामने नहीं पुराने चिट्ठाकारों के भी सामने हैं- अब हर नए चिट्ठाकार के पास पहुँच उसे शाबासी के लिए पहुँचना संभव नहीं रह पाएगा उलटे संपादकीय विवेक की कैंची (जो कम से कम शुरूआती दिनों में इन पुराने चिट्ठाकारों के हाथ में ही रहने वाली है) से घाव करने पड़ेंगे। दूसरा प्रभाव विवाद शमन भूमिका पर पड़ने वाला है। नए चिट्ठाकार जिन्‍हें विवाद सफलता की सीढ़ी दिखते हैं उन्‍हें सलाहें नागवार गुजरेंगीं और एकाध बार अंगुलियाँ जलाने के बाद वरिष्‍ठ अंगुलिया विवादों के ताप से दूर रहने लगेंगी यूँ भी संपादकीय गमों से कम ही अवकाश होगा इनके पास।

अब सवाल रहा तैयारी का, संभव है अपरिवक्‍व सोच हो मेरी पर मुझे लगता है कि हम उतना तैयार नहीं हैं। तैयारी की अकेली कवायद जो मुझे दिखी वह है नए लोगों को जोड़ने की कोशिश- श्रीश सवर्ज्ञ देख रहें हैं कुछ नए चर्चाकार भी जुड़े हैं पर माफ कीजिए जब ‘ज्ञान’ की आँधी आएगी तो ये प्रयास मोह के तंबू के समान सिद्ध होंगे।
पहली आशंका तो यह है कि चिट्ठाकारी में मात्रात्‍मक विस्‍फोट होगा शनै: शनै: होने वाला बदलाव नहीं होगा। उदाहरण के लिए हिंदी प्रचार के एक छोटे से समूह से मैं जुड़ा हूँ और हमारी पहलकदमी से अगले सत्र में यानि अगस्‍त में दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के रचनात्‍मक लेखन, हिंदी कंप्‍यूटिंग और हिंदी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उनके कॉलेज में ही
कार्यशालाएं लगाकर हिदी ब्‍लॉग बनवाने की योजना है यानि एक-दो सप्‍ताह में 150-200 नए हिंदी ब्‍लॉग।

दूसरी ओर जरा एक अप्रैल वाले मजाक में छिपे खतरे पर विचार करें, उस पोस्‍ट की टिप्‍पणियों में ओर खुद पोस्‍ट में ही निहित है कि हम खतरे को महसूस करते हैं जब कोई साधन संपन्‍न यहाँ कब्‍जे की नीयत से आएगा तो हम अपना लाव लश्‍कर संभालेंगे तब तो लड़ लिए। मुझे लगता है कि हम अपनी नारद की अव्‍यवसायिकता के प्रण में थोड़ी लोच लानी चाहिए और नारद खुद ना सही पर एक मातहत
कंपनी लांच कर संसाधनों को जुटाना शुरू कर सकता है, अंतत: चिट्ठाकारी बाजार में घट रही परिघटना है। ‘सरस्‍वती’ की भूमिका से उसे निकल आना चाहिए और कुछ कुछ ‘हँस’ की भूमिका में आना चाहिए। ये विचार बेहद कच्‍चे और अस्‍वीकार्य हो सकते हैं पर कम से कम इतना तो रेखंकित करते ही हैं कि इन्‍हें खारिज कर इनके स्‍थान पर इनसे बेहतर विचार रखने की जरूरत है।

Monday, April 02, 2007

प्रत्‍यक्षा की रसोई और कालिखजीवी की कुरूपता

पिछले कुछ अरसे में कई हार्ड डिस्‍क क्रैश हुईं, विन्‍डोज बदलीं, रीइंस्‍टाल की, कंप्‍यूटर अपग्रेड किया, ओपेरा व एक्‍सप्‍लोरर के बीच दोलन किया, और इन सब बदलावों के बीच बहुत सा डाटा पाया-खोया पर अगर नहीं बदला तो हमारे बुकमार्क या फेवरेट की सूची के दो नाम एक लाल्‍टू और दूसरा प्रत्‍यक्षा। दोनों का ही लेखन ताजगी भरा है हालांकि खुद मेरी ही तरह यह अनियमित किस्‍म का लेखन है! लाल्‍टू घोषित तौर पर बदलाव का लेखन करते हैं प्रत्‍यक्षा ऐसी किसी घोषणा के पचड़े तक मे नही पड़तीं, एकाध बार उनके अतीतमोह आदि पर हमने टिप्‍पणी की भी है पर कुल मिलाकर ईमानदारी वह चीज है उनकी चिट्ठाकारी की विशेषता है। यह भूमिका इसलिए कि मेरे शायद अतिउत्‍साह के कारण हाल की एक चिट्ठाई हिलोर के चपेटे में वे आ गईं।
यह अति उत्‍साह उपजा दो पोस्‍टों से। एक तो मनीषा ने सुंदरता के कीड़े का विमर्श मोहल्‍ले मे प्रस्‍तुत किया दूसरा नोटपैड ने अपने चिट्ठे पर रसोई की शोषणमंडनकारी संरचना पर विचार प्रस्‍तुत किए। बाद में एक प्रतिक्रियात्‍मक पोस्‍ट निर्मलआनंद पर अभय ने प्रस्‍तुत की। थोड़ा बहुत टिप्‍पणी द्वंद्व दोनों जगह पर हुआ मुझे अपने पक्ष के लिए बाकायदा कालिखजीवी घोषित किया और इस टिप्‍पणी को अभय ने निर्मल आनंदमयता के साथ इस जगह रहने दिया। खैर ये सब आश्‍चर्यजनक नहीं और मेरा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं कि सृजनशिल्‍पी ऐसा कर करा रहे होंगे पर विचार और व्‍यक्तिगत की रेखा को लुप्‍त करने जो जिद उन्‍होंने पाली, विचार के स्‍थान पर व्‍यक्तिगत के संवाद का केंद्र बनने का कारण वही है और यह आचार संहिंताओं से नहीं थमता, अब लीजिए यहाँ तो आचार संहिता के वकील ही ऐसा करने पर उतारू हैं।

अस्‍तु, वास्‍तविक जगत में भी जब भी मैने सुंदरता और रसोई को गैर बराबरी की संरचनाओं के रूप में देखे जाने के पक्ष में कहा है, उसे अतिवादी या उपहास योग्‍य ही माना गया है। विश्‍वविद्यालय में ‘कुरूपता के इतिहास’ का गुमटी-विमर्श पेटेंट मेरे नाम माना जाता है। हमें सदैव दिखाई दिया है कि जैसे जैसे शोषण संश्लिष्‍ट होता जाता है उसका स्‍वरूप सूक्ष्‍म होता जाता है और उसका स्‍थायित्‍व बढ़ता जाता है और
परिणति इस बात में होती है कि शोषण्‍कारी व्‍यवस्‍था इतनी संस्‍थाईकृत हो जाती है कि पीडित इसमें गौरवान्वित महसूस करना आरंभ करता है।

सौदर्य पर विचार करें। मेरी पत्‍नी कॉलेज शिक्षिका बनने से पहले दिल्‍ली एक बहुत प्रतिष्ठित स्‍कूल में शिक्षिका थीं जो एयरफोर्स वाईव्‍स ऐसोसिएशन द्वारा संचालित था और उसके कार्यक्रमों में हैरानी होती थी कि इन अधिकारियों की पत्नियाँ‍ लगभग सदैव इतनी ‘सुंदर’ क्‍यों होती हैं फिर अनुभव ने बताया कि IAS, IPS ही नहीं वरन हर किस्‍म के सामर्थ्‍यवान के पहलू में सुंदर बसता है, मनीषा ने इसकी और व्‍याख्‍या और उदाहरण पेश किए हैं कारण समझने के लिए किसी जहीनता की जरूरत नहीं है, शक्तिशाली चुनने की स्थिति में होता है और वह ‘सुंदर’ को चुनता है इस बात को पुनर्बलित करते हुए कि सौंदर्य स्‍त्रीत्‍व का वह गुण है जो जिसका मूल्‍य काफी ऊंचा है। यह समाजीकरण होते होते समाज का स्‍थाई मूल्‍य बन गया है। इसीलिए सामान्‍यत ऐसे कहा जाता सुनाई देता है कि सुंदर दिखने की इच्‍छा तो स्‍वाभाविक है। अब यूँ तो समाज महिलाओं को सत्‍ता पाने ही कितनी देता है पर जो कुछ उसके हिस्‍से में आता है उसका उनमें वितरण जिन आधारों पर होता है उनमें सबसे प्रमुख है सौंदर्य। जो लोग सौंदर्य के कथित बाहरी और आंतरिक होने की डाक्ट्रिन को प्रतिपादित करते हैं वे इस सत्‍ता संरचना का अतिक्रमण नहीं कर रहे होते वरन उलटे इसे और संश्लिष्‍ट बना रहे होते हैं, और सूक्ष्‍म और स्‍थाई।

दूसरी अपेक्षाकृत अधिक मूर्त संरचना वह है जिसका उल्‍लेख नोटपैड ने किया- यानि रसोई। पर पहले बेनाम शिल्‍पी महोदय समझें और फिर से अपने डाटा पर नजर डालें नोटपैड मेरी पत्‍नी नहीं हैं और न ही उनके अंतरजालीय व्‍यवहार पर मैं नजर गड़ाए रहता हूँ, वे जब स्‍कूली बच्‍ची थीं तब से उनसे इस और इस तरह के अन्‍य विषयों पर चर्चा होती रही है और अब इस विषय पर शोध करने के बाद हमसे कहीं अधिक समझ चुकने के बाद हमें सीधे-टेढ़े रास्‍ते से समझा देती हैं।
अस्‍तु, रसोई कार्य विभाजन का एकदम मूर्त ढांचा है, जिस प्रकार बृहत स्‍तर पर सत्‍ता का वितरण सौदर्य के आधार पर होता रहा है उसी प्रकार एक परिवार में यह सत्‍ता समेटकर रसोई तक सीमित हो जाती है इसीलिए जब एक से अधिक महिलाएं एक घर में हों तो उनका समस्‍त संघर्ष रसोई पर अधिकार को लेकर होता है और जिन परिवारिक मूल्‍यों को कई मित्र इतना पवित्र मानते हैं, उनमें भी रसोई का बंटवारा ही घर का बंटवारा माना जाता है। पहले वर्णित संश्‍लेषण और सूक्ष्‍मीकरण की प्रक्रिया से गुजरकर इसके साथ जोड़े जाते हैं संतुष्टि और गरिमा के मूल्‍य। अभय को इसमें कोई महक, सृजनशीलता...आदि दीखती है तो इसमें उन्‍हें दोष नहीं दिया जा सकता क्‍योंकि इस संरचना में विद्यमान शोषण के स्‍थायित्‍व का स्रोत यही आत्‍मसातीकरण ही तो है। फिर भी प्रत्‍यक्षा को जब यह रचनात्‍मकता की कसौटी दिखाई पड़ता है तो त्रासद तो है ही। इतना कहने के बाद भी व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे प्रत्‍यक्षा के इस तर्क की सराहना करनी पड़ेगी कि एक पुरुष किसी स्‍त्री पसंद को शोषण की किस्‍म बताए यह (मेल शोवेनिज्‍म़) अनुचित है ठीक शायद वैसे ही जैसे सुनील दीपक की एक पोस्‍ट में बुरके को अन्‍यों द्वारा शोषण का प्रतीक बताते हुए उन्‍हें हटाने पर विवश करने को अनुचित मानने का संकेत किया गया था। रसोई हो सकता है आपको शोषण संरचना न लगती हो पर रचनात्‍मकता, गंध, संतुष्टि, गरिमा, स्‍त्रीत्‍व जैसे वायवीय तर्क मत दीजिए । और हाँ- संतोष ने पूरी बनाई, अभय ने सब्‍जी गर्म की या मसिजीवी ने सालन छौंका इनकी वर्णनयोग्‍यता ही यह तय कर देती है ये इस संरचना का अतिक्रमण नहीं, केवल पुष्टिकरण है।