Sunday, December 25, 2005

इतिहास सो रहा है गहरी नींद


इतिहास सो रहा है गहरी नींद < />Originally uploaded by masijeevi.




शहर का इतिहास सो रहा है
गहरी नींद
और हम मशगूल हैं तिजारत में उसके सपनों की

मुक्तिबोध से उधारी


मुक्तिबोध से उधारी
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रात के दो हैं,
दूर दूर जंगल में सियारों का हो-हो
पास-पास आती हुई घहराती गूंजती
किसी रेलगाड़ी के पहियों की आवाज
किसी अनपेक्षित असंभव घटना का भयानक संदेह

Saturday, December 17, 2005

मृत्‍युमत्‍त सपने


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आज का समाचार है कि दिल्‍ली में कम से कम 500 लोग हर साल जानबूझकर जेल इसलिए चले जाते हैं ताकि सर्दीभर उन्‍हें एक कम्‍बल नसीब हो सके। जाहिर है और बहुत से लोग बाहर रह जाते हैं।

उनके सपने
रेहन होते हैं
शहर की ऋतुओं के हाथ
वे
ठिठुरते हैं, कंपकंपाते हैं
सिकुड़ते हैं, फैलते हैं
तड़पते हैं
मर जाते हैं

लाल्‍टू ने कहा
हाँ मसिजीवी, ठंड से भी, गर्मी से भी, ऐसे मरते हैं लोग मेरे देश में, कहीं भगदड़ में, कहीं आग में जलकर, कभी दंगों में, कभी कभी त्सुनामी ...

Thursday, December 15, 2005

हिन्‍दी हाईपर टेक्‍स्‍ट की प्रकृति

विश्‍वविद्यालय के शिक्षकों के एक पुनश्‍चर्या कार्यक्रम में आलेख के लिए नीलिमा ने विषय सोचा है 'हिन्‍दी हाईपर टेक्‍स्‍ट की प्रकृति ' मैने सोचा कि देखें कि नेट पर क्‍या उपलब्‍ध है। नतीजा ठन ठन गोपाल। तो चिट्ठेकार बिरादरी के पंचो आप ही तय करो कि न जाने किस किस पर विचार हो रहा है पर माध्‍यम की ही अवहेलना। तो भैया कुछ सामग्री हो तो सुझाव दें। अपन गारंटी देते हैं कि आलेख तैयार होते ही झट ब्‍लाग में चस्‍पा करने के लिए मांग लेंगे।

Friday, December 09, 2005

पथराती कामना

मेरा विश्‍वास तुमसे मुठ्ठी भर कम है
कि सारी दुनिया सूरज सोच सकेगी
पर यकीन मानो मैं इस खयाल से भयभीत नहीं हूँ
मेरी चिंता फर्क है
और वह यह है मेरे दोस्‍त
कि इसकी राह देखती तुम्‍हारी ऑंखें
कहीं पथरा न जाए
चिर आसन्‍न प्रसवा पृथ्‍वी डरती है
पथराई ऑंखों के सपनों से।



मेरी उपर्युक्‍त पंक्तियॉं लाल्‍टू की नीचे लिखी कविताओं के लिए हैं-

सारी दुनिया सूरज सोच सके

हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं

सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज

रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है

नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात

पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं

ऐेसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर

कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे

मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी

बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।

Tuesday, December 06, 2005