Thursday, April 24, 2008

हिन्‍दी ब्‍लॉग जनपद 'लैंड लॉक्‍ड' प्रदेश क्‍यों है?

सवाल कुलबुलाने के वजह सीधी थी। आज के 'दि हिंदू' में पढ़ा कि फ्रांस में कई लोग अपने समुद्र के लाइट हाऊसों की बदहाली से क्षुब्‍ध हैं। वहॉं कि जनता इसे अपने राष्‍ट्रवाद से जोड़कर देखना चाहती है। मेरे मन में सहज सा अहसास कुलबुलाया कि राष्‍ट्रवाद की व्‍याधि से तो भले ही वैसा ग्रस्‍त नहीं हूँ पर तब भी अपने देश के एकाध लाइट हाऊस को जानने की तो जिम्‍मेदारी मेरी भी बनती है। झट से हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की याद आई और धत्‍त तेरे की...। ये तो हमारी तरह सारा हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत ही कमोवेश कुंए वाला है समुद्र तो गायब है। साहित्‍य में तो हम जानते ही हैं कि वर्ण्‍य विषय से लेकर बिंब, प्रतीक, उपमानों तक में सागर जीवन हिन्‍दी में बहुत कम आता है। आता भी है तो अज्ञान व भय लेकर। कवियों को सागर अपने विस्‍तार के कारण (मैं जहाज का पंछी...) डराकर लाकर भगवान की गोद में पटक देता है। हमारे यहॉं गुलीवरनुमा वृत्‍तांत नहीं मिलते। पर साहित्‍य की बात कौन कहे...यहॉं तो ब्‍लॉग जनपद भी लैंड लाक्‍्ड नजर आता है।

ये समझना कठिन नहीं है कि हिन्‍दी प्रदेश खुद ही कुंआ (वैसे हम रूपक में नहीं कह रहे हैं पर कूपमंडूकता पढना चाहें तो आपकी मर्जी) जनपद ही है बहुत हुआ तो नदी जनपद मान लें. चोटी, जनेऊ, धोती...बस (ये ही वर्ग रहा जिसने समुद्र पार जाने पर प्रतिबंध लगा रखा था जबकि इस समय दुनिया भर की उजड्ड जातियॉं अपनी अपनी कालोनियॉं स्‍थापित कर रहीं थीं)। इसलिए संजय को यह हिन्‍दी जनपद  चू***पाग्रस्‍त दिखता है तो उनका दोष नहीं। अत अनुभव के स्‍तर पर हिन्‍दी वाले सागर और उससे जुड़े नाव, पाल, जाल, मछली, द्वीप, लाइटहाउस, तट, जलपरी, जैलीफिश, केकड़े... से दूर ही दिखाई देते हैं। हमें नहीं पता सागर कैसा होता है। पर यही तो वजह हुई न जानने की। मुझे एकाध संस्‍मरण याद आता है मसलन मनीष की अंडमान यात्रा में समुद्र आता है। पर दिल मांगे मोर। हमारा सागर अनुभव कोरा है। पर इंतजार में हैं कि हम भी कह सकें कि भारत के अमुक लाइट हाउस का स्‍थापत्‍य अनूठा है। अब कोई बताए तो।

Monday, April 21, 2008

जूते का फीता खरीदना क्‍योंकर पिछड़ना हुआ

हमारे एक सहयोगी हैं, इतिहास पढ़ाते हैं हमें भी पढ़ा गए। आज मिले तो बोले कि भई सारी जिंदगी हवाई चप्‍पल तक को पूरे घिसने तक पहनी, टूट जाए तो बिना शर्म मोची से गंठवा लेते रहे या स्‍ट्रैप बदलकर भी इस्‍तेमाल करते रहे। लेकिन अब कल बच्‍चे के स्‍कूल के जूते के फीते के कोने बिखर जाने की वजह से नए फीते लेने जूते की दुकान पर पहुँचा तो शोरूम के मालिक ने बहुत ही हैरानी से देखा मानो किसी दूसरे ग्रह से आया हूँ और कहा कि नए जूते ही ले लो 145 के ही तो हैं। अजीब बात है चाहिए फीते खरीदूं पूरे जूते ।।

मैंने नही पूछा कि इन अध्‍यापक मित्र ने फीते खरीदे कि जूते, इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। यहॉं मूल बात तो ये है कि बाजार अब कितना दुस्‍साहसी है वह जरूरत, सस्‍ता, सुंदर, टिकाऊ, जैसे शुद्ध बाजार के ही मूल्‍य तक को बाजार से खदेड़े दे रहा है। ये तो चलो जूते व फीते जैसी सस्‍ती चीज थी पर तनिक कार खरीदने ही पहुँच जाइए और पूछिए कि इंजिन खुलने से पहले कितने किलोमीटर चल जाएगी...सेल्‍समैन भी इस सवाल को ऐसे खारिज करते अंदाज में ग्रहण करेगा (...कि पता नहीं कैसे कैसे लोग कार खरीदते हैं अरे लाख किलोमीटर तक ये ही कार रखेगा क्‍या...बदलेगा नहीं)

उपभोक्ता से उपभोक्‍ता न होने की आजादी तो खैर अब छीन ही ली गई है पर खुद बाजार के उपभोकता मूल्‍य भी उपभोकता को तय नहीं करने दिए जा रहे हैं। यदि आप जीवन भर से संजाऐ कमाए मूल्‍यों वाले ग्राहक बने रहना चाहते हैं तो आप पिछड़े करार दे दिए जाते हैं झट से। जरूरत फीते की हो तो भी जूते खरीदो...नहीं तो पिछडा हुआ कहलाओ।

 

क्‍या ये वीडियो दिखाना मेरे प्रशंसक अधिकार के बाहर जाता है ?

आप भी कहेंगे कि मास्‍साब आप तो ऐसे क्रिकेट फैन कभी न दिखे फिर भला इस मैच का वीडियो कैप्‍चर करने की और फिर अपलोड करने की जहमत क्‍योंकर उठाई। मैच सबने टीवी पर देख ही लिया है बीस मिनट हुए मैच खत्‍म हुए, कोई मैच दिखा नहीं रहा, शरद पवार का बोर्ड अकड़ा पड़ा है कि खबरदार अगर किसी पत्रकार ने 3-4 से ज्‍यादा फोटो लिए तो और उन पर भी बोर्ड का हक होगा। बेवसाइट या ब्‍लॉग वालों को तो इतना करने का भी हक नहींदिया अगलों ने।

तो भई हम ये पंगा इसलिए ही ले रहे हैं। समझिए हमारा प्रतिरोध है बोर्ड के इस बॉंह-मरोड़ व्‍यवहार के खिलाफ। हमारे हिसाब से क्रिकेट चाहे वह 20-20 टाईप उजड्ड क्रिकेट ही क्‍यों न हो वह पूरी तरह क्रिकेट प्रेमियों का ही है तो उससे कमाओ जितना चाहे पर ऐसी ऑंख न तरेरो कि हम इस तरफ  देख ही न पाएं।

खैर मैच वानखेडे़ स्‍टेडियम में बंगलौर की रायल चैलेंजर व मुंबई की मुंबई इंडियन के बीच हुआ जिसे बंगलौर ने जीता। ये वीडियो बंगलौर की पारी के मुख्‍य अंश हैं।

 

 

Tuesday, April 15, 2008

हिंदी ब्‍लॉगिंग के मूक बधिर महानुभावों से! आपको मंहगाई क्यों नहीं चुभती

वैसे लगें कितने भी, पर हम इतने बौढ़म हैं नहीं कि  इस बात पर अलबला जाएं कि आप इस बात से क्‍यों परेशान हो उस बात से क्‍यों नहीं। शीर्षक तो केवल अलबलाने की इस विरासत की ओर संकेत भर करने के लिए है। सच्‍चाई यह है कि हर किसी को अपने जूते की कील ही चुभती है और उसे शिद्दत से पता होता है कि क्‍यों चुभ रही है, कहॉं चुभ रही है। उसे कतई उम्‍मीद नहीं होनी चाहिए कि औरों को भी ठीक उसी बात से तकलीफ हो और उतनी ही। तो महँगाई मुझ मास्‍टर को चुभे तो समझ आता है। हर कोई उससे परेशान क्‍यों हो (ये अलग बात है कि हमें सरकार महँगाई भत्‍ता देती है पर हर किसी को तो नहीं)

महँगाई एक बहुत मोटी अवधारणा है जिससे व्‍यक्तिगत तकलीफों का कुछ अंदाजा नहीं लगता। महँगाई बढ़ गई है...सामान्‍य सा कथन। 20 प्रतिशत बढ़ गई है ये भी कोई विशिष्‍ट कथन नहीं है क्‍योंकि ये पचासियों चीजों की महँगाई वृद्धि का औसत भर है। इससे पता नहीं चलता कि चावल दो ही महीने में दोगुने से ज्‍यादा कीमत पर बिक रहा है तथा उसके लिए जिसकी कमाई का तीन-चौथाई चावल खरीदने में जाता हो उसके लिए यह सूचना मौत जैसी बुरी है।

आज के अखबार में न्‍यूयार्क के पॉल कुरुग्‍मन इसे विश्वव्‍‍यापी खाद्य संकट से जोड़ते हुए बताया है कि एशिया व अफ्रीका में भुखमरी है क्‍योंकि अमरीकी नेताओं को को कृ‍षि राज्‍यों में वोट चाहिए। इसके अतिरिक्‍त इस खाद्य संकट का कारण इराक युद्ध, ग्‍लोबल वार्मिंग व कृषि भूमि का सिकुड़ना है। सबसे बुरी बात ये है कि भविष्‍य में इसके कम होने की कोई उम्‍मीद नहीं है। और हॉं अगर किसी को लगता हो कि अनाज में इस भड़की हुई कीमतों से किसानों की आमदी बढेंगी तो अफसोस है कि ऐसा नहीं होगा उलटे किसान की लागत बढ़ रही है।

तो फिलहाल तो हमें ये दर्ज करना जरूरी जान पड़ता है कि हम मानते हैं कि ये महँगाई किसी भी आपदा कि तरह देश और दुनिया की ताकतवर शक्तियों की नीतियों व करतूतों का परिणाम हैं, पूरी तरह कृत्रिम है। मनमोहन और मोंटेक इसकी जबाबदेही से पल्‍ला नहीं झाड़ सकते।