सवाल कुलबुलाने के वजह सीधी थी। आज के 'दि हिंदू' में पढ़ा कि फ्रांस में कई लोग अपने समुद्र के लाइट हाऊसों की बदहाली से क्षुब्ध हैं। वहॉं कि जनता इसे अपने राष्ट्रवाद से जोड़कर देखना चाहती है। मेरे मन में सहज सा अहसास कुलबुलाया कि राष्ट्रवाद की व्याधि से तो भले ही वैसा ग्रस्त नहीं हूँ पर तब भी अपने देश के एकाध लाइट हाऊस को जानने की तो जिम्मेदारी मेरी भी बनती है। झट से हिन्दी ब्लॉगिंग की याद आई और धत्त तेरे की...। ये तो हमारी तरह सारा हिन्दी ब्लॉग जगत ही कमोवेश कुंए वाला है समुद्र तो गायब है। साहित्य में तो हम जानते ही हैं कि वर्ण्य विषय से लेकर बिंब, प्रतीक, उपमानों तक में सागर जीवन हिन्दी में बहुत कम आता है। आता भी है तो अज्ञान व भय लेकर। कवियों को सागर अपने विस्तार के कारण (मैं जहाज का पंछी...) डराकर लाकर भगवान की गोद में पटक देता है। हमारे यहॉं गुलीवरनुमा वृत्तांत नहीं मिलते। पर साहित्य की बात कौन कहे...यहॉं तो ब्लॉग जनपद भी लैंड लाक््ड नजर आता है।
ये समझना कठिन नहीं है कि हिन्दी प्रदेश खुद ही कुंआ (वैसे हम रूपक में नहीं कह रहे हैं पर कूपमंडूकता पढना चाहें तो आपकी मर्जी) जनपद ही है बहुत हुआ तो नदी जनपद मान लें. चोटी, जनेऊ, धोती...बस (ये ही वर्ग रहा जिसने समुद्र पार जाने पर प्रतिबंध लगा रखा था जबकि इस समय दुनिया भर की उजड्ड जातियॉं अपनी अपनी कालोनियॉं स्थापित कर रहीं थीं)। इसलिए संजय को यह हिन्दी जनपद चू***पाग्रस्त दिखता है तो उनका दोष नहीं। अत अनुभव के स्तर पर हिन्दी वाले सागर और उससे जुड़े नाव, पाल, जाल, मछली, द्वीप, लाइटहाउस, तट, जलपरी, जैलीफिश, केकड़े... से दूर ही दिखाई देते हैं। हमें नहीं पता सागर कैसा होता है। पर यही तो वजह हुई न जानने की। मुझे एकाध संस्मरण याद आता है मसलन मनीष की अंडमान यात्रा में समुद्र आता है। पर दिल मांगे मोर। हमारा सागर अनुभव कोरा है। पर इंतजार में हैं कि हम भी कह सकें कि भारत के अमुक लाइट हाउस का स्थापत्य अनूठा है। अब कोई बताए तो।