Saturday, June 09, 2012

दर्शक की परीक्षा है शांघाई

 

ये सब फेसबुक पर ही ठेलने का सोचा था क्‍योंकि आजकल विचार भी स्‍टेटस/ट्विटर टाईप छोटे छोटे टुकड़े में आते हैं पर थोड़ी ही देर में लगा दो-चार लाइन में बात नहीं बन रही है तो लाइव राइटर खोल लिया।  साफ डिस्‍क्‍लेमर ये कि हम कोई समीक्षा नहीं लिख रहे सर भारी कर दिया है फिल्‍म ने लिखकर हल्‍का कर रहे हैं। हमारी टिकट शाम 7:50 की थी पर सुबह से ही रवीश के इन स्‍टेटसों ने इतना सुनिश्चित कर दिया था कि हम कोरी स्‍लेट दर्शक नहीं थे।


फ़िलिम नहीं डोकूमेंट्री बना दिया है । अरे यार मूवी देख रहा हूं शंघाई । बेकार है। हाँ सुन मकान मालकिन आ रही है । पैसे तैयार रखना । तेरी बॉडी पर फ़र्क पड़ा ? कूलर बढ़िया है । चिन्ता मत करो । शांघाई के इंटरमिशन में यही सब सुनाई दे रहा है । रिव्यू नहीं है ये ।

(ये जाहिर हे उनकी इंटरवल के समय की आसपास वालों की प्रतिक्रिया थी, अपन सहमत हैं हम एक भरे-पूरे परिवार के साथ फिल्‍म देखने के लिए अभिशप्‍त थे जिसमें दादा/नानी/मामा/पोता/ वगैरह वगैरह 16 लोग थे हमारे आस पास की प्रतिक्रियाएं इससे अलग नहीं थीं, कैसी है का उत्‍तर अच्‍छी या ठीक कहने पर तेज उपहास का केंद्र बनना तय था, बने)

इसी क्रम में रवीश के ही बाकी स्‍टेटस

शांघाई । फिर से उसी सिस्टम और राजनीति के क्रूर चेहरे को देखने के लिए ज़रूर देखें । राजनीति फ़िल्म की तरह ड्रामेबाज़ी नहीं है । शायद वो फ़िल्म भी नहीं जैसी फ़िल्में हम देखने के अभ्यस्त हैं । मराठी में बनी सियासत फ़िल्म की याद आ रही थी । अर्ध सत्य की भी । कुछ फ्रेम लाजवाब हैं । अभय देओल वाकई बेजोड़ कलाकार है । हाशमी में नई संभावनाएं नज़र आ रही है । राजनीति को जस का तस धर दिया है दिबाकर ने ।

तथा ये भी थे:
शांघाई को साधारण फ़िल्म कहूं तो आप नाराज़ हो जायेंगे क्या ? तब से सोच रहा हूं ज़बरन फ्रेम पाठ कर क्या कोई फ़िल्म महान हो सकती है ।

कुल मिलाकर ये कि  अपन अच्‍छी या बुरी फिल्म देखने नहीं गए थे वरन उस बेचैनी से साक्षात्कार करने गए थे जिसने रवीश जैसे नित छवियों में ही गिरे व्‍यक्ति तक को सुबह से शाम तक घेर लिया था और एक मायने में कनफ्यूज भी कर दिया था। हालांकि जल्द ही रवीश ने भी महसूस किया कि अच्छी/बुरी के फ्रेम में इस फिल्‍म का आस्‍वादन नहीं किया जा सकता।  गनीमत रही कि ब्‍लॉग पर रवीश ने फिल्म का जो विश्‍लेषण किया है वह हमसे तब चूक गया था उसे आज पढ़ा है।

इस सब पूर्वोन्‍मुखीकरण के बाद हमने फिल्‍म देखी और सही है बेचैन होकर आए..डीटी में देखी जो खुद ही एक भारत नगर को उजाड़कर बनाया गया है तथा उजड़े इस आईबीपी की चमक में झांक नहीं सकते (सोलह टिकट चार हजार के पड़े थे मेजबान को, जिन्‍हें अंत तक इनके बेकार जाने का अहसास था)... बेचैनी हमें भी उसी फ्रेम से सबसे ज्‍यादा हुई...ट्रक आता है और ध्‍धा..ड़   डा.अली..रामदास हो गए। फिल्‍म एप्रिसिएशन कोर्स में हमारे साथी रहे दोस्‍त जो सह दर्शक भी थे ने बताया कि कैमरा वीक है, ट्रीटमेंट खास नहीं फिल्‍म खुद को ठीक से खोलती नहीं...पूरी फिल्म सस्‍ती कास्‍ट के साथ बनाई गई है... (मतलब चार हजार बेकार गए) :) हम सुनते हुए भी वहीं अटके थे । ...ट्रक आता है और ध्‍धा..ड़   डा.अली..रामदास हो गए 

भीड़ ठेलकर लौट गया वह

मरा पड़ा है रामदास यह

देखो देखो बार-बार कह

लोग निडर उस जगह खड़े रह

लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।

फिल्म अपनी नजर में दर्शक की परीक्षा है। एक टिकट खरीद हर दर्शक हर फिल्‍म को कसौटी पर परखता है ये फिल्‍म पासा पलटती है दर्शक की परीक्षा लेती है... प्रेमचंदी सुखांत नहीं है कोई हीरो नहीं है न कृष्‍णन न कोई ओर...कोई प्रतिशोध में कोई महत्‍वाकांक्षा है... बार बार वही फ्रेम ललकारता है..मरने के लिए तैयार हो

पर मरने का आनंद... हमारे अंदर सुला दिया गया युवक बीच बीच में रुमानियत में भरकर फुसफुसाता है कि ....जो हो आनंद तो उसी में है।