Monday, December 31, 2007

रैलियों की राजधानी

राजधानियों को कई लाभ मिलते हैं जो उनके हैं ही तो कुछ और 'लाभ' उन्‍हें घलुए में मिलते हैं। दिल्‍ली सदियों से राजधानी है जिसमें पिछले छ: दशक स्‍वतंत्र लोकतांत्रिक देश की राजधानी के रूप में रहे हैं। उससे पहले भी स्‍वतंत्रता आंदोलन के दिनों में भी यह लोकतांत्रिक संघर्षों की जगह तो थी ही। इसलिए दिल्‍ली सहज ही रैलियों की राजधानी भी है। बोट क्‍लब, रामलीला मैदान, लालकिला मैदान इन जगहों ने न जाने कितना इतिहास बनता बिगड़ता देखा है। कल की दिल्‍ली की रामसेतु रैली में इसने हमारे घर के सामने वाले मैदान (स्वर्ण जयंती पार्क) को भी जोड़ दिया। वैसे रैली पार्क में नहीं थी पार्क के सामने सैकड़ों एकड़ की खुली जगह में हुई थी। इस रैली का मुद्दा रामसेतु था जिसपर बेपनाह पोस्‍टें लिखी जा चुकी हैं हमें कुछ और नहीं कहना। पर रैली और दिल्‍ली पर कुछ कहना बाकी है।

दिल्‍ली की रैलियों पर चर्चा होते न होते कम से कम दो रैलियों की बात खास तौर पर होती दिखती है- एक है रामलीला मैदान की जयप्रकाश नारायण की रैली जिससे आतंकित होकर अंतत: आपातकाल की घोषणा की गई। दूसरी है, बोट क्‍लब पर राममंदिर रैली जिसे आरएसएस और बाकी संघ परिवार ने आयोजित किया था यह व्‍‍यापक (या कहें भयानक) जनसमर्थन के लिए जानी गई 10 से 20 लाख के बीच की अलग अलग संख्‍याएं (शामिल लोगों की) सामने रखी गईं हैं। DSCN1245 जेपी की रैली का अपन को खास पता नहीं, बहुत छोटे रहे होंगे, पर संघी रैली में शहर की हवा याद है। मोहल्‍लों में बनती पूरी-सब्जी की थैलियॉं और ताल मंजीरे वाली प्रभात फेरियॉं भी याद हैं। धर्म वाकई दीवाना बना देने की कूवत रखता है। इस बोट क्‍लब रैली का शहरी सोच पर ये प्रभाव पड़ा कि बोट क्‍लब पर रैलियॉं बंद कर दी गईं।

अब रैलियों की चर्चा जनांदोलन के रूप में कम होती है, तकलीफों के लिए अधिक होती है। रैली से यहॉं ट्रैफिक जाम हुआ, यहॉं दस की जगह चालीस मिनट लगे। काम काज नहीं हुआ। रैली में लोग बिना टिकट आए। अब ये 'बिहारी' आ तो गए हैं मुफ्त में अब आधे तो यही बस जाएंगे दिल्‍ली में आदि आदि।  व्‍यक्तिगत तौर पर रैलियों को इस रूप में देखा जाना (और दिखाया जाना-   कम से कम अंग्रेजी अखबार तो हर रैली की रपट ट्रेफिक-जाम पर ही केन्द्रित रखते हैं) मुझे नहीं रुचता। रैलियॉं शहर को कुछ कष्‍ट देती हैं, राजनीति को हवा देती हैं पर वे शहर का शहर भी बनाती हैं। हमें रामसेतु के मुदृदे से चिढ़ है, हमारी नजर में तो ये राजनीति की दुनिया का ट्राल है पर फिर भी हमें रैलियॉं लोकतंत्र का उत्‍सव लगती हैं, पाकिसतान जैसे असफल लोकतंत्र खूब समझ सकते हैं कि विरोध को इतना खुलकर अभिव्‍यक्त कर सकना कितनी बड़ी नेमत है।

Sunday, December 30, 2007

संडे दिन ही है चिरकुटई का

कुछ ब्‍लॉगर मित्र संडे की ब्‍लॉगिंग को संडे चिरकुटई कहकर करते हैं, कुछ समूची ब्‍लॉगिंग को चिरकुटई घोषित कर चुके हैं। अब प्रमोदजी से तो कोई पंगा लेने से रहा...जब वे कहते हैं कि वे महान हैं तो हम मान लेते हैं कि वे हैं और अब वे कह रहे हैं कि वे चिरकुट हैं तो हम होते कौन हैं कहने वाले  कि वे नहीं हैं- वे महान हैं, वे चिरकुट हैं और जब जक कि वे और खोजें कि वे इसके अलावा क्‍या क्‍या हैं हम माने लेते हैं कि वे महान चिरकुट हैं।

लेकिन बाकी लोग जो वीकडेज़ पर तो नहीं होते पर संडे को उन्हें लगता है कि वे चिरकुट हो गए हैं उनसे हमारी पूरी सहमति है। संडे दिन ही है कम्‍बख्‍त चिरकुटई का। अगर आप पतनशील हैं‍  यानि ताजिंदगी अविनाश टाईप हमेशा पोलिटिकली करेक्‍ट होने का बोझा नहीं ढोना चाहते कभी कभी वो भी र‍हना चाहते हैं जो आप हैं तो जाहिर है कि आप अचानक संडे के दिन महान स्‍त्री संवेदनशीलता नहीं ओढ़ लेना चाहेंगे। आप अपना दिन रसोई में मसाला भूनते नहीं बिताना चाहेंगे। आप चाहेंगे कि आप शनिवार रात से ही संडे शुरू मानें और देर रात तक जागें, संडे खूब देर तक सोएं। रगड़कर अपनी मोटरसाइकल साफ करें या गोल्फ के डंडे को मखमल के रूमाल से रगड़ें। परांठे का नाश्‍ता करें जिसपर मक्‍खन तैरता फिरे। कंप्‍यूटर के कीबोर्ड पर अलसाई अंगुलिया चलाएं, पोर्न देखें या गेम खेलें। नाश्‍ता खत्‍म होते न होते लंच का समय हो चुका हो पर बिना तंग किए कोई इंतजार करे कि कब आपका लंच का मन है और जब आप अंगड़ाते हुए डाइनिंग टेबल तक पहुँचें ठीक तब ही आपका मनपसंद खाना परोस दिया जाएं.....

सूची और लंबी है पर लुब्‍बो लुआब बस इतना है कि संडे को आप लोकतंत्र और संवेदनशीलता को छुट्टी  पर भेज देना चाहते हैं और सामंतवाद और मर्दवाद की छांव में पसरना चाहते हैं।chirkut आप इनमें से कुछ कुछ कर पाने में सफल भी हो जाते हैं मसलन आप लकी हैं तो आपको परांठे का नाश्‍ता मिल जाता है वगैरह वगैरह पर जरा इन कामों पर फिर नजर डालें इनसे ज्‍यादा चिरकुटई और क्‍या होगी।  बोनस में आपको कई और काम करने ही होंगे जैसे आपको नाई की दुकान की तरफ ठेल दिया जाएगा साथ में संलग्नक की तरह एक बच्‍चा कि जरा इसे भी हेअरकट दिलवा दीजिए। कबाड़ी बुलवा लिया जाएगा और आप अपने तमाम लीवर व सिंपल मशीन के ज्ञान से जानते हैं कि इसका फुल्‍क्रम सेंटर में नहीं है तो क्‍या...आप सहजता से मूर्ख बनना स्‍वीकार कर लेते हैं। चिरकुट हैं और क्‍या। सत्रह किलो अखबार छ: रुपए से कितने हुए साब..आप हिसाब लगाते हैं सत्रह छिका एक सौ दो ...पर बोलते नहीं चिढ़े हुए हैं देगा  तो फिर भी एक सो दो ही न। आप उसके जाने का इंतजार करते हैं ताकि फिर से अपने संडे में पहुँच सकें। संडे ससुर एक ही है, चौबीस ही घंटे का और उससे आपकी उम्‍मीदें बहुत हैं...कारपेंटर का काम, बिजली का भी, इसका उसका, बच्‍चे को एलसीएम सिखाने का और छुट्टी मनाने का भी। फिर से इन कामों पर नजर डालो जरा...सब एक से बढ़कर एक चिरकुटई काम।

और कुछ नहीं तो खीजकर कंप्‍यूटर आन करो और गिना दो दूसरे चिरकुट ब्‍लॉगरों को कि संडे के दिन आपने क्‍या क्‍या चिरकुटई की। संडे दिन ही है चिरकुटई का....।

Saturday, December 29, 2007

अब तालाबंद मोहल्‍ला भी काहे का मोहल्‍ला हुआ....क्‍यों अविनाश

सराए में राकेश ने हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग पर कार्यशाला का आयोजन किया था। रविकांत थे, सराए की शोधकर्त्री होने के नाते नीलिमा थीं। विनीत भी थे और चोटी के ब्‍लॉगर अविनाश थे। बंधुआ घाघ होने के नाते हम भी पहुँचे थे। सराए कॉपीलेफ्ट, ओपन सोर्स की अहम जगह है इसलिए बात सहज ही कापीराइट वगैरह पर पहुँच गई। रविकांत का कहना था जिससे हमारी पूरी सहमति है कि जिन्‍हें लगता है कि उनका लिखा सिर्फ 'उनका' रहे उन्‍हें केवल अपनी डायरी में लिखना चाहिए, इंटरनेट उनकी जगह नहीं है ब्‍लॉगिंग तो बिलकुल नहीं। यहॉं कितना भी हल्‍ला कर लो टेक्‍स्‍ट इस या उस वजह से इधर उधर जाएगा ही, जाना भी चाहिए। अचानक अविनाश ने मानो धमाका किया, कहा कि उन्‍होंने अपने चिट्ठे को नकल से बचाने का इंतजाम कर लिया है। अविनाश तकनीक के मामले में हमारी तरह पग्‍गल तो नहीं हैं पर ग़ीक भी नहीं हैं इसलिए हम जानते थे कि कापीस्‍केप वगैरह (यानि आप राइट क्लिक कर कापी या सेलेक्‍ट करने की कोशिश करें तो कोई स्क्रिप्‍ट आपको रोक लेती है) किया होगा- जो उन्हें तो चिढ़ा देता हे जो समीक्षा, प्रसार वगैरह के लिए आपको बढ़ावा देना चाहते हैं पर जो वाकई चोरी करके कंटेट इस्‍तेमाल करना चाहते हैं उन्‍हें नहीं रोक सकता। (दरअसल कंटेट अगर इंटरनेट पर है उसे फैलने से कतई नहीं रोका जा सकता)

केवल बताने भर के लिए मोहल्ला से कापी पेस्‍ट हाजिर है-

लेकिन फिल्म तो अच्छी तब बनती जब ईशान अच्छा पेंटर भी नहीं बनता या कुछ भी अच्छा नहीं कर पाता तो भी लोग उसे समझते और प्यार देते। हर बच्चा कुछ न कुछ बहुत अच्छा करे ये उम्मीद नहीं करना चाहिए। ये जरूरी तो नहीं है कि वो कुछ बढ़िया करे ही। कोई भी बच्चा एवरेज हो सकता है, एवरेज से नीचे भी हो सकता है। लेकिन इस वजह से कोई उसे प्यार न दे ये तो गलत है।

(हमने कुछ नहीं किया ये ताला ओपेरा पर खुद ही नहीं चलता)

 

हिन्‍द युग्‍म के मामले में काफी बहस से यही तय हुआ था कि कापीराईट समर्थकों के लिहाज से भी कंटेट पर ये ताला बेकार है। no copyright पर हिन्‍द युग्‍म के मामले में ये फिर भी थोड़ा समझ में आने वाली बात थी कि वे नए आगे आने की कोशिश करते कवियों की जगह है और कविता पर रचनात्मक मालिकाना दावे को बहुत अच्‍छा न भी कहें तो भी ये समझ में तो आता ही है।

पर मोहल्‍ला तो बंधुवर है ही मोहल्‍ला। मेरा तेरा इसका उसका मो‍हल्‍ला। क्‍या ये सिर्फ उनका है जो इसमें रहते हैं कि उनका भी है जो इससे गुजरते भर हैं। चॉंदनी चौक में कटरा, कूचा, मोहल्‍ला, बाजार ये सब अलग अलग किस्‍म की बसावटें मानी जाती हैं। कूचे में जरूर इस बात का प्रावधान होता है कि बाहर ही एक दरवाजा है जिस पर ताला चाहें तो लगा सकते हैं पर उस पर भी ताला लगाते नहीं हैं। आप तो माहल्‍ला ही तालाबंद किए दे रहे हैं।  अरे मित्र जो चोरी कर आपका कंटेंट ले जा रहे हैं वे ले तो मोहल्‍ला ही रहे हैं न। जहॉं ले जाकर उसे टिकाएंगे वो ही खुद मोहल्‍ला हो जाएगा जो दरअसल 'आपका' ही होगा। वैसे ये भी मजेदार हे कि हिन्‍द युग्म और मोहल्‍ला दोनों ही सामुदायिक ब्‍लॉग हैं जिन्‍हें सामग्री के प्रचार (भले नाम हटाकर) से कम गुरेज होना चाहिए क्‍योंकि इन ब्‍लागों पर भी मुख्‍य मॉडरेटर की सामग्री कम होकर अन्‍य साथियों की अधिक होती है।

खैर अपनी तो राय यह है कि भाई लोग, जो मोहल्‍ला तालाबंद है वह भी क्‍या मोहल्‍ला हुआ। 

Friday, December 28, 2007

लीजिए स्‍वागत करें हिन्‍दी के कच्‍चे रास्ते पर पहली व्‍‍हाइट केन खट खट का

हमने अपने मित्र की हिन्‍दी यूनिकोड से टेक्‍टाइल जद्दोजहद की चर्चा की थी। और लीजिए म्‍यूजिकेडिमिक वाले  कच्‍चे रास्‍ते की पहली खट खट हो गई है ब्‍लॉगजगत के दरवाजे पर। कच्‍चे रास्‍ते के राही हमारी तरह हिंदीबाज नहीं हैं, शैक्षिक जगत के व्‍यक्ति हैं विषय है इतिहास। ग्रामोफोन इंडस्‍ट्री के इतिहास पर शोधलीन हैं। शास्‍त्रीय संगीत की अच्‍छी समझ है। उनका वायदा है कि इन सभी विषयों पर वे अपनी अंगुलियॉं चलाते रहेंगे। techdisability

के ये ब्‍लॉगर हिन्‍दी के संभवत पहले दृष्टिहीन ब्‍लॉगर हैं, इस लिहाज से तकनीकी पचड़े रहेंगे पर समय बीतते न बीतते ये पचड़े कम ही होंगे, इसलिए दिल खोलकर स्वागत करें इस खट खट का।

जमीन के नीचे से केबलचोरी के हुनर का निजीकरण

कम्यूनिस्‍ट नहीं हैं, इस विचारधारा का घणा विरोध किया है इतना कि कई बार तो लोग सिर्फ इस विरोध की बुनियाद पर मानते रहे हैं कि जरूर 'संघी' ही होउंगा। वो भी नहीं हूँ। ये अकेला अंतर्विरोध नहीं है व्‍यक्तित्‍व में अपने और भी ढेरों हैं। दरअसल इस लिहाज से देखा जाए तो सिर्फ ब्‍लागिंग ही एकमात्र जगह हे ज‍हॉं हमारी निभ रही है वरना हर खांचा एक या दूसरी किस‍म की कैडरबद्धता की मांग करता है। ब्‍लॉगिंग में इसलिए चल जाता है कि यहॉं कोई आपसे अंतर्विरोधों से मुक्‍त होने की शर्त नहीं रखता। जिसे अतर्विरोधों से मुक्‍त लोग मिलें वह उनके साथ मिलकर एक अंतर्विरोधों से मुक्‍त दुनिया बसा ले। हमारी सच्‍चाई ये है कि कम्‍यूनिज्‍म का विरोध करते थे पर प्राइवेट की जगह डीटीसी में बैठना पसंद करते थे, पैसा जाए तो सरकारी क्षेत्र में जाए। अब तक लगातार एमटीएनएल का ही फोन लेते रहे हैं जबकि लोग खूब भरमाते रहे हैं कि सरकारी कंपनी है दो धेले की सर्विस नहीं है, लाइनमैन बिना टाई के है वगैरह। एयरटेल की लाइने लैंडलाइन के लिए बिछाई गईं पर हम नहीं माने।

पिछले दिनों एक गड़बड़ हुई, बीस तारीख की बात है, रात को पोस्‍ट  लिखी की सुबह पब्लिश की जाएगी...सुबह देखा तो हो नहीं रही थी। गौर किया तो पाया कि फोन 'डैड' है। 'मौत की घंटी' होती है यहॉं 'घंटी की मौत' हो गई। खैर दो बातों का आसरा था, एक तो ये कि अब जिंदगी फोन पर उतनी नहीं टिकी नहीं होती मतलब लैंडलाइन पर। दोनों वयस्क सदस्यों यानि हम और वे, के पास अपना अपना मोबाइल हैं तो चल जाएगा काम - शाम तक तो ठीक हो ही जाना चाहिए (इधर एमटीएनएल की सेवा काफी सुधरी है, फाल्‍ट रिपेयर के मामले में तो जरूर ही...ऐसा हमें लगने लगा था) सो मोबाइल से शिकायत दर्ज कराई, शिकायत संख्‍या लिखी और इंतजार करने लगे। मिनट बीते, घंटे बीते होते होते दिन बीत गया। अगले दिन भी कोई घंटी नहीं बजी, इंटरनेट नहीं...अब दिक्‍कत होने लगी। तो निकले कि दरियाफ्त्‍ा करें कि पचड़ा क्‍या हे भई। अभी सोसाइटी के गेट पर ही थे कि गार्ड से समाचार मिला कि पूरे सेक्‍टर के फोन बंद हैं- केबल चोरी हो गई है। 

मुझे दो चोरियॉं बहुत ही हैरान करती रही है और ये दिल्‍ली के सरकारी तंत्र की मोस्‍ट अमेजिंग कटैगरी की चोरी हैं- एक तो है अस्‍पताल से 'एक्स-रे' चोरी होना दूसरा है जमीन के नीचे से टेलीफोन के केबल चोरी होना।STREET1 क्या बात है...चोर भी कमाल के- मरीज रपट का इंतजार कर रहा है और साहब उसका एक्सरे ही ले उड़े क्‍यों... बताते हैं कि रासायनिक क्रिया से उस फिल्‍म से कुछ काम की धातुण्‍ निकलती हैं। और दूसरा रहा कि और भी मजेदार जमीन को खोदकर केबल को काटकर चोरी करने वाला चोर। कंबख्‍त को पता है कि कहॉं खोदने से सीवर का पाइप नहीं केबल निकलेगी और इतनी देर तक एन सड़क पर अगले खुदाई करेंगे तार निकालेंगे ये भी सिर्फ उससे निकलने वाले तांबे औ रांगे जैसे पदार्थों के लिए। बड़े जुगाड़ु और मेहनती चोर हैं भई।  

यह समझने के लिए आपको कोई शरलॉक होम्‍स होना जरूरी नहीं हे कि ये दोनों ही चोरियॉं कर्मचारियों की मिली भगत से ही हो पाती हैं। इनसे चोर का फायदा तो बहुत कम ही होता है पर सरकार और आम व्‍यक्ति (मरीज या फोन उपभोक्‍ता की असुविधा के रूप में)  का नुक्‍सान बहुत अधिक होता है।

हम रोजाना कई कई बार पता कर रहे थे हर बार बताया गया कि दिन रात काम जारी है, 3-4 दिन लगेंगे। सिफी के परचे घर घर पहुँचने लगे थे, कि उनका इंटरनेट कनेक्शन लो, अंतत: हम खुद उस खुदी साईट पर पहुँचे कि भैया बताओ इरादा क्‍या है। 7-8 मजदूर कड़कड़ाती ठंड में लगे हुए थे, लाइनमैन व सुपरवाइजर भी थे मैंने लाइनमैन से पूछा तो उसने बिना लाब लपेट के बताया जी ये प्राइवेट कंपनी (एयरटेल) आ गई है उसकी ही कारस्‍तानी है। ठेकेदार को खरीद लिया है कि हमारे केबल काटे ताकि लोगों को गुस्‍सा आए वे फोन कपनी बदल लें। 'साब ये कंपनियॉं बरबाद करने पर उतारू हैं' वैसे इस नए बदलते केबल से निकल स्‍क्रेप को ये मजदूर वहीं एक कबाड़ी को बेच रहे थे।

उफ्फ अंतर्विरोध पीछा नहीं छोड़ते, घोषणा ये कि बाजार में प्रतियोगिता होती है जो खुद ही उपभोक्‍ता को लाभ देती है पर बाजार में कोई नैतिकता नहीं...। निजी क्षेत्र लाभ के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के विकारों को हथिया लेता है। हममें से राष्‍ट्रवाद का कीड़ा पूरी तरह से निकलने को तैयार नहीं इसलिए परेशानी सहकर भी सार्वजनिक क्षेत्र से सद्भाव मिटता नहीं। क्‍या करें...कया बनें कुछ्छे नहीं बूझता। और हॉं हम एक आरटीआई जरूरै फाइल करेंगे (एमटीएनएल सरकारी है वहीं इस तरह सूचना मांगी जा सकती है प्राइवेट में नहीं)

Thursday, December 27, 2007

विवाहित ब्‍लॉगर की ये बेतार आजादी

ब्‍लॉगराईन होना गज़ब की त्रासदी है, पति है पर नहीं है क्‍योंकि ब्‍लॉगर है। आधुनिक यशोधरा हैं बेचारी। पर वो कहानी तो हो चुकी।ये भी कहा था हमने कि अगर ब्‍लॉगराइन खुद ब्‍लॉगर हो तो करेला नीम चढ़ जाता है। कई तकलीफें हैं इस जोड़े को। कुछ को गिना देते हैं-

  1. आपको ब्‍लॉगिंग की खुड़क ठीक तब ही उठती है जबकि आपके पति/पत्‍नी का का कब्जा कंप्‍यूटर पर होता है।
  2. जब आप साम दाम दंड भेद से कंप्‍यूटर हथियाते हैं तब तक इस राजनीति के दांव पेंच में LAPTOP पोस्‍ट का मूल आइडिया ही भूल चुके होते हैं
  3. आप अपनी पत्‍नी/पति के बंधुआ और सनातन साधुवादी टिप्‍पणीकार होते हैं जबकि आपको लगता है कि वह आपकी/आपका सनातन आलोचक है।
  4. साथ रहते रहते पति पत्‍नी एक जैसे हो जाते हैं इसलिए आपको पता ही नहीं लगता कि जिस आइडिया को दुनिया-जहॉं का सबसे मौलिक पोस्‍ट आइडिया माने बैठे होते हैं, ठीक उसी समय 'उनके' दिमाग में भी ठीक वही विचार खदबदा रहा होता है।
  5. आप अपने 'उन' को कभी नहीं कह सकते कि आप कंप्‍यूटर पर 'काम' कर रहे हैं क्‍योंकि 'उन्‍हें' खूब पता है कि ब्लॉगर ब्लॉगिगं करता है काम नहीं।
  6. आप अपने अच्‍छे पोस्‍ट-आइडिया को पंगेबाज से भले ही फोन पर डिस्‍कस कर लें पर पत्‍नी के सामने मुँह न खोलें- अगर उन्‍हें पसंद आ गया तो वे कहेंगी, इस पर तो मैं लिखूंगी '....तब तक तुम जरा राजमॉं में तड़का लगा दो' पोस्‍ट छिनी राजमा पकाना पड़ा सो अलग।
  7. पत्नी के के अच्‍छे पोस्‍ट आइडिया कतई नहीं सुन सकते भले ही अनूप से  अन्‍य विषयों पर चर्चा कर लें, क्‍योंकि आपने अच्‍छी राय दी तो आदेश मिलेगा की जरा टाईप कर दीजिए, ड्राफ्ट वहॉं रखा है मैं तब तक राजमॉं उबाल लूँ (उबलते तो वे अपने आप हैं, इतना तो हम जैसे एलीमेंट्री पाकशास्‍त्री तक जानते हैं), बुरी राय देकर आप अपने राजमॉं-चावल के डिनर को खतरे में डालना नहीं चाहते।

ये तो कुछ गिनाई हैं तथा वो गिनाई हैं जिन्‍हें गिनाने से 'कम' नुकसान (मैटरीमोनी में 'नुकसान न हो'  होता ही नहीं) समाधान कुछ खास सूझा नहीं। पर एकठो लप्‍पू टप्‍पू (बधाई उधाई न दें वह पहिले ही ले चुके हैं) ले आए हैं और एमटीएनएल के इंटरनेट को वाईफाई करवा लिया है ताकि एक तो घर में कुल कंप्‍यूटर दो हो गए हैं तथा दूसरा हम घर के किसी भी कोने में छिपकर ब्‍लॉगिंग कर सकें। देखते हैं इस बेतार आजादी से कितना फर्क पड़ता है।

Thursday, December 20, 2007

नंदीग्राम के कामरेड का बयान - पवन की एक कविता

ये कविता इस सप्‍ताह के रविवारीय जनसत्‍ता में प्रकाशित हुई है- छापे में अभी भी 'कैडर के लोगों' का जमावड़ा है इसलिए इस कविता का छपना हमें अच्‍छा लगा। सामान्‍यत: हम पर कविताई में लिप्‍त होने का आरोप नहीं लग पाता है (एकाध पर बहके हैं, पर लती नहीं ही हैं) इसलिए कविता का ब्‍लॉगपक्ष बता दें कि कैडरबद्ध पत्रकारिता के चलते कविता जनसत्‍ता के संपादकीय कार्यालय से अयोध्‍‍या से बाबरी की तरह 'गायब' हो गई और बाकायदा थानवीजी के हस्तक्षेप के बाद ही रोशनी में आ पाई-

पेश है कविता

नंदीग्राम के कामरेड का बयान

                                                                      - पवन

 

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Wednesday, December 19, 2007

अबे जंगली इंडियन तेरा गूस तो पक गया

 

 

लीजिए एक कार्टून देखें

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जी हमें बिलकुल मालूम है कि अमरीका में जब कहते हैं इंडियन, तो उसका मतलब भारतीय नहीं होता। पर उसके बावजूद हमें इस कार्टून में बहुत कुछ चिढ़ाने वाला लगता है। आप क्‍या कहते हैं ?

यूँ तो एक सीधे सीधे संस्‍कृति के तत्‍वों का मामला है,  कि भैया वहॉं यानि अमरीका में अपने समाज के एक तबके को लेकर जो दरअसल अमरीका का असल मालिक तबका है, यानि मूल अमरीकी लोग उन्‍हें लेकर वे क्‍या सोचा जाता है। केवल एक मुहावरे की वक्रता (गूस इज़ कुक्‍ड, का मतलब मुहावरे के रूप में होता है कि बज गया बैंड तुम्‍हारा) से हास्‍य के लिए पूरे समुदाय का मजाक...ये ठीक कैसे हो सकता है।

पर हमें मिर्च क्‍यों लगीं- सीधी वजह है कि ये कार्टून किसी बदतमीज बुश के अमरीका में नहीं छपा है। ये बाकायदा हमारे देश में स्‍टेट्समैन के दिल्‍ली संस्‍करण में कल छपा है, दरअसल पूरे देश में छपा है। सवाल सीधा है कि क्‍या हमारे अपने देश में भी 'इंडियन' का मतलब मैं मूल अमरीकी लगाऊं, क्‍या स्‍टेट्समैन का संपादक ये चाहता है, क्‍यों। जब इस देश की संस्‍कृति की निर्मिति में इस कार्टून की व्‍यंजना ही समाप्‍त हो जाती है तो इसे इस रूप में छापकर ये एहसास करवाने की क्‍या जरूरत है कि हमारे देश के नाम से वहॉं जंगलीपन व्‍यंजित होता है। जब ये कठपुतली संपादक वहॉं के अपने आकाओं से कोई सामग्री पाते हैं तो उसे छापने से पहले वो बिल्‍कुल उस पर विचार नहीं करते। ध्‍यान रहे कि मूल अमरीकी संदर्भ में लेने पर भी ये कार्टून उस संप्रदाय के लिए बाकायदा नस्‍लवादी कहा जाएगा।

Monday, December 17, 2007

जरूरतमंद तक सबसे बाद में क्‍यों पहुँचती है तकनीक

तकनीक को जो लोग मूल्‍यों से निरपेक्ष समझते हैं वे शायद उसे पूरी तरह नहीं समझते। विज्ञान का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विज्ञान जगत भी उतनी ही किस्‍म राजनीतियों से दो चार होता है जितना कि मानविकी के क्षेत्र। मूल्‍यों का संघर्ष तकनीक के अखाड़े में भी वेसे ही होता है जैसा कि दूसरे हर क्षेत्र में। इसलिए जब ऐस्‍क्लेटर्स पर झपट कर सवार होते जवान लोगों के लिए तकनीक 'बराबरी' का ही मामला है जबकि जिन अक्षम या उम्रदराज लोगों को इस तकनीक की जरूरत है जिनके लिए तकनीक इनेबलिंग हो सकती है वे या तो टेक्‍नोफोबिया के कारण (आखिर इस तरह की चीजें उन्होंने कभी देखी नहीं...अज्ञात से भय इतना अस्वाभाविक भी नहीं)

परसों  की शाम अपने एक मित्र के साथ था, हम पिछले कम से कम 16-17 साल से कंप्‍यूटर वाले हैं (पहले कंप्‍यूटर की हार्डडिस्क 20 एमबी की थी, जी साहब मैं रैम नहीं हार्ड डिस्‍क की बात कर रहा हूँ)  इसलिए यदा कदा इन दोस्त को साफ्टवेयर या पेरीफेरल आदि में कोई मदद हो पाती है तो करता रहा हूँ । हिन्‍दी के वक्ता रहे हैं तथा संगीत पर अच्‍छा अधिकार है- राग, सुर सब समझते हैं तथा  संगीत कार्यक्रमों की समीक्षा आदि भी करते हैं। इसलिए हमें लालच रहा है कि किसी तरह घसीटकर अगर इन्‍हें हिंदी ब्‍लॉगिंग में लाया जा सके तो सच मजा आ जाए क्‍योंकि इतनी जानकारी के साथ संगीत को समर्पित कोई हिन्‍दी ब्‍लॉग अभी नहीं है, मतलब शास्‍त्रीय की समझ के साथ। पर हर बार तकनीक ही आड़े आती रही है। जो तकनीक हम दौड़ते कूदते लागों को और भी ज्‍यादा इनेबलिंग बनाती है वही डिसेबलिंग जान पड़ती है अगर हम डिसेबल्‍स की बात कर रहे हों।

accessibility-directory दरअसल हमारे ये मित्र दृष्टिहीन हैं। और मजा देखिए कि समझा जाता है कि कंप्‍यूटर तकनीक दृष्टि‍हीनों के लिए रामबाण है। जो पढ़ना है उसे स्‍कैन करो और ओसीआर से वह टेक्‍स्‍ट में बदल जाएगा और फिर जाज़ जैसे किसी स्‍क्रीनरीडर से उसे सुनो। यानि ये समस्‍या ही खतम हो गई कि आपको कोई इंसानी  रीडर चाहिए जो आपको पढ पढकर सुनाए, या सिर्फ वही पढें जो ब्रेल में  उपलब्‍ध हो। अब तो जो चाहो वह स्‍कैनर पर रखो और रीयल टाईम में पढो। पर इतनी संभावनाएं होते हुए भी सच बहुत ही गड़बड़ है- जाज़ अगर असली खरीदा जाए तो बहुत मंहगा है और आम पाठक की शक्ति से परे है। केवल पाईरेटेड का ही सहारा है वह भी 5-7 हजार में मिल पाता है। पर असल दिक्‍कत ये है कि आप इससे केवल अंग्रेजी ही पढ़ सकते हैं, हिन्‍दी की सुविधा आमतौर पर नहीं है। स्‍कैन व ओसीआर तो नहीं ही है। लेकिन पता चला कि यूनीकोड से हिन्‍दी रीडर जाज़ में चल सकता है अगर ईस्‍पीक नाम का वॉइस इंजन डाल में डाला जाए तो। परसों की शाम इसी में लगाई। पहले उनके लैपटॉप में ट्रांसलिटरेशन कीबोर्ड में आईएमई डाला इस तरह उनका कंप्‍यूटर हिंदी क्षमता वाला बना। अब इस्‍पीक से  हिंदी पढ़ने लायक बनवाया। अब वे खुद टाईप कर उसे पढ़ सकते हैं। जाहिर है ब्‍लॉगिंग की पहली शर्त तो बस इतनी ही है।

उनकी पहली पोस्‍ट अभी नहीं आई है वे बिना सहायता के या न्‍यूनतम सहायता से इसे तैयार करना चाहते हैं। मुझे लगा यही सही है। पर फिर भी मुझे अफसोस होता है कि चूंकि तकनीक के विकास को हम पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ देते हैं इसलिए वह उन तक सबसे बाद में पहुँचती है जहॉं उसकी जरूरत सबसे ज्‍यादा होती है।

Sunday, December 16, 2007

गनीमत है गया बिग बेन

bigben

मूलछवि आभार - विपुल

शहर के बीचों बीच बैठे हैं, बोले तो कनॉट प्‍लेस का सेंट्रल पार्क। आए तो देखने कि कैसे वो भद्दा घंटाघर बिग बैंग (बेन) शहर के बीचों बीच टांग दिया है। आए तो सुखद अनुभूति हुई कि बिग बेन हटा दिया गया है। 

ओस भरी शाम है सर्द पर खुशनुमा। बच्‍चे किलक रहे हैं। नए लैपटाप के साथ जाहिर है मन ललच रहा हे कि पहली आऊटडोर पोस्‍ट ठेल दी जाए।   तो इस सूचना के बहाने कि हमारे शहर दिल्‍ली पर लंदन के मेयर को खुश करने के लिए औपनिवेशिक मानसिकता का जो प्रतीक थोपा गया था उसे अब शहर के माथे से हटा दिया गया है। हम अपनी पहली पहली बेतार पोस्‍ट आपको समर्पित करते हैं- जुगाड़ के यंत्र हैं-  कम्‍पैक सी-700  (सबसे सस्‍ता, जाहिर है)  और इंटरनेट कनेक्‍शन है इंडिकॉम का (मंगनी का)

Friday, December 07, 2007

स्‍वागत करें, ब्‍लॉगिंग अब पत्रकारिता पाठ्यक्रम का हिस्‍सा होने जा रही है

मूलत: जो शीर्षक सोचा था इस पोस्‍ट का वह था, सावधान ब्‍लॉगिंग अब पाठ्यक्रम का हिस्‍सा होने जा रही है। कुछ कुछ सुधीशजी वाली पोस्‍ट की तरह। पर फिर खुद को सुधार लिया। माना विश्‍वविद्यालय चिरकुटई के महामिलन स्‍थल होते हैं पर कब तक हर चीज से सावधान, हैरान परेशान होते रहेंगे। आने दो ससुरे पाठ्यक्रम को भी देखें हमारा क्‍या बिगाड़ लेता है। बहुत होगा तो ये कि इतिहास में चार नाम पढ़ाने लगेगा, अमुक ने शुरू किया, अमुक चिट्ठाकारी का शुक्‍ल है अमुक द्विवेद्वी। अमुक युग अमुक वाद। थोड़ी मठाधीशी आ पैठेगी..निपट लेंगे।

हॉं तो मूल समाचार ये कि गढ़वाल के किसी विश्‍वविद्यालय में जिसकी न ईसी(कार्यकारी परिषद) है न एसी (अकादमिक परिषद) ने अपने एकवर्षीय पत्रकारिता पाठ्यक्रम में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को भी जगह दी है। खबर की पुलकित च खिलकित घोषणा राकेश ने हाल में की। हम जब उन आशंका के द्वीपों को निपटा चुके जो विश्‍वविद्यालयी जिंदगी को पिछले बीस सालों से देखने के बाद उग आए हैं, तो बहुत ही शरारती विचार आने शुरू हुए।

कल्पना करें कि स्‍लाइडशो में जितेंद्रजी व महावीर प्रसादCap and Gown 2 द्विवेदी का चेहरा गड्डमड्ड होते हुए कोई डाक्‍साब हिन्‍दी चिट्ठाकारी के नारद युग की तुलना सरस्‍वती से कर रहा है। भगवा चिट्ठे, लाल चिट्ठे पर टिप्‍पणी पूछी जा रही हैं। वाह वाह।  बाहर चैंपियन च कुजिओं के ऊपर ही ब्‍लॉगवाणी बनी है। प्रेक्टिकल परीक्षा में परीक्षक बनने व बनवाने का धंधा चल रहा है। ब्‍लॉगरोल माफिया सक्रिय है। आचार्य ब्‍लॉगर का झोला (लैपटॉप) थामने के लिए पीछे पीछे शोधार्थियों की सेना चल रही है....आनंदम परम-आनंदम।

Wednesday, December 05, 2007

इंटरनेट पर अभिव्‍यक्ति की आजादी का मिथ

बहुत से इंटरनेट प्रयोक्‍ताओं की ही तरह मुझे भी सरकार द्वारा इंटरनेट माध्‍यम को नियंत्रित करने की हर कोशिश आला दरजे का घटियापन लगती है। आज एक कार्यशाला में अपने परचे में चीमा ने बातें रखी जिनमें से कुछ तो पहले से ज्ञात थीं बाकि की दिशा पता थी पर एक साथ सुनकर फिर से बुरा लगा।

पहली बात तो ये कि इंटरनेट पर नियंत्रण के लिए सरकार ने कई ढांचे तैयार कर रखे हैं। यं सभी वैधानिक नहीं हैं, कई तो बाकायदा संविधान विरोधी प्रतीत होते हैं। मसलन जनप्रतिनिधियों ने साईबर कैफे में लॉग रजिस्टर रखने के प्रावधान को नकार दिया था, पर अक्‍सर पुलिस आईटी एकट के स्‍थान पर सीपीसी का सहारा लेकर पूरे देश में इस रजिस्टर को आवश्‍यक बनाए हुए है।

पर असल खेल तो सरकार वहॉं चलाती है जहॉं का पता ही नहीं चलता, इसलिए भी कि एक लोकतंत्र के रूप में अपनी अभिव्‍यक्ति का आजादी का सम्मान करना हम खुद नहीं जानते। यदि उन शर्तों पर नजर डाली जाए जिसके तहत सरकार आईएसपी यानि इंटरनेट सेवा प्रदाता को लाईसेंस देती है तो हमें पता चलेगा कि दरअसल सरकार की नीयत समस्‍त इंटरनेट संचार, उसके प्रवाह, पर नजर रखने, रोक लगाने की है, जिसे कोई भी स्‍वस्‍थ लोकतंत्र कतई स्‍वीकार नहीं करेगा, इसलिए भी कि संसद का कानून कार्यपालिका को इसकी इजाजत नहीं देता पर कार्यपालिका जैसा कि सभी जानते हैं, अधिकार हस्‍तगत करने के जुगाड़ कर ही लेती है।

internet

सबसे भयानक जुगाड़ है CERT-in अपने नाम आदि से लगता है कि वायरस, स्पैम, हैक वगैरह के आपातकालीन जोखिमों के लिए बनी कोई विशेषज्ञ संस्‍था होगी, कागजी तौर पर है भी। पर चर्चा से पता चला कि विज्ञान मंत्रालय के कम और गृह मंत्रालय के ज्यादा लोग दिखते हैं यहॉं (मतलब आईबी, इंटैलिजेंस आदि) और भले ही विधायिका ने कोई अनुमति दी हो या नहीं (दरअसल इसके पास कोई विधाई मुहर नहीं है यह एक प्रशासनिक नोटिफिकेशन से बनी एंजेंसी है) पर ये गुपचुप देश भर की इंटरनेट गतिविधियों पर जासूसी नजर रखते हैं। सबसे भयानक बात यह है कि किसी भी गुप्‍तचर कर्म की तरह ये लोग पारदर्शिता और जबाबदेही दोनों से मुक्‍त हैं। (तो जब हम अपने ब्‍लॉग पर ये लिख रहे हैं तो अगर किसी सरकारी बाबू या पुलिसिए को नागवार गुजरा तो वह किसी कानून की चिंता किए बिना मेरे घर आ धमक सकता है) ऐसा अक्‍सर या तो आतंकवाद विरोधी या अश्‍लीलता विरोधी कानून का सहारा लेकर किया जाता है, पर प्रमाणस्‍वरूप जो भी प्रस्‍तुत किया जाता है वह इंटरसेप्‍शन से हासिल किया गया होता, जो खुद गैरकानूनी होता है।

ऊपर के तथ्‍यों का अंदेशा तो इस 'लोकतंत्र' में हमें होता है पर जानना फिर भी त्रासद है कि हम पर नजर रखी जा रही है। पर उससे भी त्रासद यह है कि अधिकांश के लिए ये बेकार का मुद्दा है, तर्क ये कि हमारे पास छिपाने के लिए क्‍या है, पर सच यह है कि जो लोकतंत्र अपनी स्‍वतंत्रता का सम्मान करना नहीं सीखता, उसके लिए त्‍याग करना नहीं सीखता वह बचा नहीं रह पाता।