नौकरियॉं करना शुरू की थी 1991 में, उम्र थी 19 वर्ष। डिप्लोमा के आखिरी साल में कैंपस इंटरव्यू में वोल्टास, महाराजा और शायद सीएमसी ने चुना था पर घर पर नहीं बताया क्योकि हिंदी आनर्स में प्रवेश ले लिया था और हिंदी पढ़ना चाहता था, फिर नौकरी करना और पढ़ना साथ साथ जारी रहा है- एक फैक्टरी में बजाज की आयरन के ईसीआर और ह्यूमिडिटी टेस्ट करने के अलावा सारी नौकरियॉं अकादमिक जगत की रही हैं। सरकारी नौकरी तीन बार छोड़ी इसलिए उसी का अनुभव अधिक है, इसलिए पिछले दिनों कारपोरेट दुनिया से जब एक नौकरी का प्रस्तावनुमा आया तो थोड़ा चौंकना पड़ा। वो इसलिए कि एचआर का प्रस्तावक जानना चाहता था कि मेरी सीटीसी अपेक्षा क्या है।...अब ये ससुरा क्या हुआ ?
सीटीसी हमारे लिए तो चाय के मतलब चीज है, इसलिए शानूं जी जाने तो जानें हमें क्या पता सीटीसी? हॉं सीटीस्कैन जरूर पता है पर क्या कोई नौकरी देने से पहले हमारा दिमाग स्कैन करवाएगा क्या ? ऐसे तो सारा पागलपन पकड़ में आ जाएगा। खैर गए गूगल देवता की शरण में तो पता लगा महाशय उस चीज की बात कर रहे हैं जिसे कॉस्ट टू कंपनी कहा जाता है। पर गलतफहमी में न रहिएगा इसका मतलब वेतन नहीं है, वेतन तो इसका छोटा सा हिस्सा है। कहावती रूप में देखें तो आपकी सुविधा के लिए लगाए गए टायलेट पेपर तक की कीमत इसमें जोड़ लेती है कंपनी। वैसे शुद्ध बीए, एमबीए, सीए तक यानि नए नवेले बालकों तक को कंपनियॉं 10-25 लाख तक का सीटीसी देने लगी हैं, भले ही हाथ में महीने के 30-35 हजार ही पकड़ाए (पता नहीं कितना टायलेट पेपर इस्तेमाल करते हैं, प्राइवेट सेक्टर वाले) हम तो फिर भी 17 साल से इधर उधर धक्के खा रहे हैं।
तो हमें बताना है कि अगर हम लगी लगाई इस सरकारी नौकरी (कस्बाई अभिव्यक्ति में कहूँ, और चौपटस्वामी, प्रियंकर नाराज न हों तो, दिल्ली की प्रोफेसरी ) को छोड़कर अगर हम कोई प्राइवेट नौकरी करना चाहें तो कितने रूपे के पड़ेंगे...उस कंपनी को। पर इससे हमारे मन में सवाल कौंधा कि अब कितने के पड़ते हैं भई सरकार को। यानि हम सरकारी मास्टरों का सीटीसी क्या है, भई।
तो पहले तो होता है वेतन, मान लीजिए 25 हजार (हॉं भई उतने पुराने नहीं हैं, मोटी तनख्वाह वाले मास्साब तो वो हैं, वो हैं, यहॉं तक कि वो हैं :)) फिर सरकार पेंशन की गारंटी देकर बाल बच्चों की जिम्मेदारी लेगी, छुट्टियॉं- असल माल तो मास्टरी में ये ही मिलता है, नियमत: कॉलेज में 11 घंटे प्रति सप्ताह लेक्चर लेने होते हैं, पांचेक घंटे ट्यूटोरियल बस। आने जाने पर कोई बंदिश नहीं है। इतनी पढ़ाई भी तब ही हो पाती है जब ग्रीष्मावकाश(पौने चार माह), शरदावकाश(15 दिन), बसंतावकाश(15 दिन), पर्व, चुनाव, परीक्षा, जाम, हड़ताल (कर्मचारी, शिक्षक, विद्यार्थी), मौसम होने दें। तिस पर कैज्यूअल लीव, अर्न लीव, मेडिकल लीव, मेटरनिटि/पैटरनिटि लीव, भी होती हैं। और हॉं सारा चिकित्सा व्यय पूरे परिवार का सरकार की ही जिम्मेदारी है। इसके अलावा पूरी नौकरी में कुल मिलाकर पॉंच साल की स्टडी लीव भी मिलती है जिसमें सरकार पूरा वेतन देती रहती है। नौकरी करते हुए मर मरा गए तो सरकार पूरा बीमा करती है तथा घरवालों को पेंशन देती है। वैसे टायलेट में टायलेट पेपर हमारे यहॉं भी होता है। पर असल बात सुरक्षा की है, आप नौकरी में हैं तो बस हैं। पिछली बार नौकरी छोड़ने की कोशिश की तो दो साल तक इस्तीफे के बाद इंतजार में रहा पर कंबख्त नहीं छूटी, फिर से शुरू की और दो साल करने के बाद फिर से छोड़ी तब जाकर छूटी। तो कोई भला मानस बताए कि कॉस्ट टू कंपनी क्या बैठी। ध्यान रहे कि ये तो सरकार के सबसे दरिद्र तबके मास्टर की सीटीसी बताई है जिसे बंगला, नौकर, अर्दली, सैलून कुछ नहीं मिलता। ध्यान रहे कि छठा वेतन आयोग फिर से वेतन बढ़ाने वाला है और उसका भी मत है कि केवल वेतन न देखें कॉस्ट टू नेशन देखो। अपना अनुमान है कॉस्ट टू कंपनी( बोले तो जनता) हमारी भी खूब है। तो कहो कितने सीटीसी पर जाएं इस नगरी को छोड़कर।