Tuesday, July 31, 2007

फंतासिया नजर शहर पर

शहर को समझना यूँ ही काफी जटिल काम है, कई लोग इसमें खप गए और खपेंगे, हमारी भला क्या बिसात। इसलिए हम जब शहर पर नजर डालते हैं तो कतई राजी नहीं होते कि शहर को अर्बन प्लानरों की नजर से देखें हम तो ठेठ अपनी नजर डालते हैं। इसलिए जब शिवम ने इमारतों वाले शहर के विषय में लिखा कि आत्‍महत्‍या का मसला - सातवें माले से कूद पड़ना- खुदकशी नहीं है ये तो शहर का मिजाज है- किसी शहरी को लग सकता है कि शहर चपटा हो गया है और वह ऊंचाई के आयाम को बिल्‍कुल भूलकर चलता हुआ आगे जा सकता है। ये शहर से बेतरतीबी के लुप्‍त हो जाने की फंतासी है।


यह शहर में जंगल खोजना ही नहीं। ये शहर में बावड़ी खोज लेना भी है जो अंधेरे के हिलोरते जल तक ले जाते हैं

शहर में अंधेरा जल बनता है तो केवल बावड़ी की तरह ठहरा हुआ ही नहीं होता वरन बहुधा वह एक ल‍हराता समुद्र भी होता है- प्रकाश-स्‍तंभों से भरा हुआ।

और काल यहॉं खुद ठहरता है नाप-तौल कर।


Sunday, July 29, 2007

आइए आज अपने प्‍यारे अंतर्जाल पर ही सवाल उठाएं

अंतर्जाल पर विचार एक तरह से खुद अपने रवैए पर विचार है ये आत्‍मालोचन ही है। आत्‍मालोचन एक ऐसा शुद्धि अनुष्‍ठान है जो हम नियमित करते रहे हैं लेकिन क्‍या करें कमजोर व्‍यकित हैं, एक कमी को पहचान भर पाते हैं, दूर पता नही कर पाते हैं कि नहीं, पर पचास और कमियॉं तब तक अर्जित कर बैठते हैं।

अस्‍तु, पिछले कुछ महीनों में हमारी अंतर्जाल से दोस्‍ती इतनी ज्‍यादा हुई है कि हमें विश्‍वास सा होने लगा है कि ये बात अपने आप में ही इस बात का प्रमाण है कि ये चीज़ यानि इंटरनेट सिर्फ अच्‍छा अच्‍छा नही हो सकता- तो क्‍यों न इसकी कमियों पर विचार किया जाए- और विचार का मतलब सिर्फ इतना नहीं कि भई समय बहुत खाता है- पैसा लगता है वगैरह वरन ये भी कि इअस माध्‍यम की मुलभूत प्रकृति में क्‍या लोचा अपन को दिखाई देता है।

अंतर्जाल में लाख अच्‍छाइयॉं हों पर ऐसा नही कि इसमें केवल हसनजमाली परेशानियॉं ही है और भी होंगी। एक तो हमें साफ साफ दिखाई देती है और वह है कि ये ऐसा माध्‍यम है जो सूचनाओं को भयानक शातिरता से ज्ञान बनाकर पेश करता है, कम से कम मुझे तो साफ ऐसा ही दिखाई देता है। सूचनाएं जिस आलोचनात्‍मक विवेक की भट्टी में पककर ज्ञान का दर्जा हासिल करती हैं वह इंटरनेट के माध्यम में से सिरे से गायब है- और ऐसा नहीं कि ये अनायास हो गया काम भर है, कम से कम हमें तो अब यह मानने का मन करता है कि ऐसा शातिरता से सप्रयोजन किया जा रहा है मसलन जिस तीव्रता से किसी छोटे मोटे विषय पर गूगल से की गई छोटी सी मांग बिजली की फुरती से लाखों सुचनाओं को आप पर फेंकती है, उससे खुद अपने विवेक के खो जाने का भय होता है। ये अनंत सुचनाओं का स्वामी होना या अनंत सुचनाओं तक पहुँच होने का अहसास होना एक छद्म किस्‍म का आत्‍मविश्‍वास प्रयोक्‍ता में भरता है कि हम सब जानते हैं या जान सकते हैं, आभासी दुनिया से वास्‍तविक दुनिया में आ पसरा ये छद्म आत्‍मविश्‍वास भयावह है।

एक अन्य बात जो हमें इस माध्‍यम में परेशान करती है वह है, असमानताओं को बेहद सुविधाजनक तरीके से नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति। आर्थिक व सामाजिक को जाने भी दें तो भी कम से कम डिजीटल डिवाइड जैसी असमानता तो विचार क्षेत्र में होनी ही चाहिए पर शायद है नहीं। अगले युग की पूंजी सूचना है इसका अहसास कर चुके लोग पहला काम ये करना चाहते हैं कि अधिकाधिक सूचना को अपने नाम कर लेना चाहते हैं पर इस क्रम में ऐसे अनेकानेक लोग तैयार हो रहे हैं जिनकी पहुँच आर्थिक, सामाजिक, भाषिक कारणों इन सूचनाओं तक उतनी निर्बाध नहीं है जितनी कुछ अन्‍य की है। ये माध्‍यम सूचना समाज में भी सूचना सर्वहाराओं को तैयार करने में अहम भूमिका अदा कर रहा है और जाने अनजाने हम इस दुष्‍कृत्‍य में हम इसके मोहरे बन रहे हैं।

ऊपर की बाते हैं और भी होंगी (इसी बात को लें कि इस विषय पर इंटरनेट पर अच्‍छे शोधपत्र खोजने की कोशिश के कुछ खास नतीजे नहीं निकले) पर चूंकि विकास यूअर्न नहीं लेता इसलिए रास्‍ता तो इस माध्‍यम कोस्‍वीकार करने से ही निकलेगा- भाषाई रूप से विविध अंतर्जाल इस दिशा में एक सही कदम हो सकता है शायद।

Saturday, July 28, 2007

वही उपन्‍यास- एक बार फिर

हिंदी पढाना इस मायने में मजेदार है कि आप बीकाम, पढ़ाए या बीए या फिर बीए आनर्स, घुमा-फिराकर आपको वही पढ़ाना होता है। एकाध उपन्‍यास, सूर, तुलसी...। अब हम कितना भी खम ठोंककर कहें कि हिंदी का साहित्‍य महान रचनाओं से भरा पड़ा है पर सच्‍चाई बिल्‍कुल अलग है। मसलन उपन्‍यास को लें- हमेशा की तरह सत्र के शुरू में मैं सुनिश्‍िचत करता हूँ कि जो उपन्‍यास पढ़ाने के लिए मिले उसे पढ़ लूं, भले ही पहले कितनी ही बार पढ़ रखा हो। इस बार द्वितीय बर्ष आनर्स में गोदान पढ़ाना है इसलिए आजकल गोदान पढ़ा जा रहा है- पहले कई बार पढ़ा है, हमारे बीए के पाठ्यक्रम में था, एमए के पाठ्यक्रम में था, एमफिल में था, यूपीएससी में था और भी न जाने कहॉं कहॉं है। स्‍वाभाविक सिनिसिज्‍म के साथ पाठ्यक्रम निर्माताओं को कोसते हैं पर जानते हैं कि वे करें भी तो क्‍या। हिंदी में पाठ्यक्रम लायक उपन्‍यास हैं ही कितने ?

मुझे पता है इस कथन को व्‍यक्‍त करने के जोखिम। आप शायद दस बीस या शायद चालीस-पचास रचनाएं सुझाने की जल्‍दी में होंगे पर जरा रुकें- पहले समढ लें कि बीए, बीकॉम पास/आनर्स, बीए आनर्स, एमए आदि में कुल मिलाकर उपन्‍यास वाली कक्षाओं की संख्‍या 12-15 बन जाती है यानि कुल मिलाकर 20-30 उपन्‍यासों की जरूरत पड़ेगी और पाठ्यपुस्‍तक श्रेणी के लिए आप जानते हैं
कि बिल्‍कुल नया, बहुत पुराना, गैर प्रसिद्ध, विवादित, भाषा में एक भी गाली वाला, स्‍त्री, दलित, अल्‍पसंख्‍यकों के प्रति किसी भी दुर्भव के शब्‍दों वाला, बहुत कठिन, बहुत आसान, गैर प्रासंगिक, बहुत पतला, बहुत मोटा उपन्‍यास नहीं लगाया जा सकता :)))) अब बचा क्‍या। हर रचना इस मापदंड पर खरी उतरेगी तो उस पर खोटी। एकाध उपन्‍यास सब तरह से सही मिल भी जाए तो 20-30 कहॉं से मिलें। मिल भी जाएं तो वो पहले ही इस या उस जगह के पाठ्यक्रम में होंगे और पाठ्यक्रम निर्माता बेचारे 'अमौलिक' करार दे दिए जाएंगे।



कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इन मापदंडों की तो फिर भी अवहेलना हो जाए तो कोई बात नहीं पर अर्थव्‍यवस्‍था की नहीं हो सकती- आखिर वह बेस स्‍ट्रकचर है भई- इसलिए उपन्‍यास ऐसे प्रकाशक का होना चाहिए जिसमें कोई दम हो। तो इस सारे प्रकरण का परिणाम ये है कि वही गोदान, आपका बंटी, रंगभूमि आदि आदि।


कितना अच्‍छा हो साल के शुरू में विद्यार्थियों के साथ बैठकर ये तय करने का अख्तियार हमें हो कि हम कौन सा उपन्‍यास पढ़ाएंगे- परीक्षा में उपन्‍यास सामान्‍यत: विद्यार्थी की आलोचना क्षमता की परख हों मसलन- पढें हुए किसी उपन्‍यास के आधार पर समाज व साहित्‍य के संबंध पर अपने विचार व्‍यक्‍त करें- खैर बेकार की खामख्‍‍याली है... पाठ्यक्रम से नहीं आने वाली जो नवीनता लानी है खुद ही शिक्षण पद्धति से ही लानी होगी। ठीक है...फिर पढ़ते हैं वही गोदान... फिर से।



Friday, July 27, 2007

अब सम्‍मान नहीं उमड़ता तो क्‍या करें- मोल लाएं

मास्‍टर हैं और इस प्रजाति के जीव अक्‍सर 'सम्‍मानीय' कैटेगरी में बाई डिफाल्‍ट माने जाते हैं। दसेक साल से बच्‍चों की हर फेयरवेल में गुरू गोविंद दोनों खड़े.... सुनता रहा हूँ। कोई असर नहीं हुआ होगा ये कहना तो कठिन है पर इससे चिढ ज्‍यादा होती है। अभी सुनीलजी ने बताया कि बेचारा डाक्‍टर मेडिकल कॉलेज के जमाने से ही 'सोबर' होने के लिए विवश है। मुझे याद है कि एक दोस्‍त मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेने वाले साल में अपने फेस्टिवल वाले दिन सिर्फ इसलिए खुश था कि टीशर्ट व जींस पहन कर कॉलेज आ सके' - तब इन्‍हें कॉलेज सॉबर ड्रेस में शुमार नहीं करता- हम खुद ही टीचिंग प्रेक्टिस में सॉबर कपड़े पहनकर जाने के लिए अभिशप्‍त थे अपने टीचिंग स्‍कूल में, ये अगल बात है कि लड़कियों की गत और बुरी थी जिन्‍हें साड़ी पहननी पड़ती थी- जिसकी अधिकांश को आदत नहीं थी- कुछ बेचारी बैग में भरकर लाती थीं और एनसीसी की वरदी की तरह कॉलेज से पहनकर निकलती थीं- ये सब क्‍यों था, इसलिए कि शिक्षक एक 'सम्‍मानित' वर्ग है जिसे इस सम्‍मान जैसा व्‍यवहार भी करना चाहिए हु..ह.ह तेल लेने गया सम्‍मान जिसकी वजह से हम अपने पसंदीदा छोल कुलचे जो नई सड़क पर एक खोमचे वाला बेचता है खान में झिझकते हैं क्‍योंकि कॉलेज के अधिकांश विद्यार्थी चांदनी चौक ही रहते हैं- देखेंगे तो उनके सम्‍मान बोध को झटका न लग जाए।

दूसरे पक्ष की हालत और खराब है- आपका मास्‍टर कितना ही लंपट, डाक्‍टर कितना भी ढक्‍कन क्‍यों न हो आप उसका सम्‍मान करो, क्‍यों भई। उससे भी मुश्किल ये कि कैसे करें- सम्‍मान कोई साधुवाद की टिप्पणी तो है नहीं कि कापी कर के रख ली कंट्रोल वी और हो गया सम्‍मान, ऐसा नहीं होता सम्‍मान- वो तो उपजना चाहिए-   अब देखो न अमित को अपनी राष्‍ट्रपति का सम्‍मान करने का झोले भर भर सुझाव देश परदेस सब जगह से दिया गया- यूँ ही अमित से किसी का भी सम्‍मान करने की अपेक्षा ही सिरे से गलत है :) पर उसे छोडों किसी से भी ये कहना कि अमुक का सम्‍मान करना ही पड़ेगा- ये तो नहीं चलेगा। अमित तो सिर्फ कार्टून बना रहे हैं हम साफ साफ बिना स्‍माईली कह रहे हैं कि प्रतिभा ताई के लिए हमारे मन में कोई अतिरिक्‍त सम्‍मान न‍हीं है- हमें एक बार भी नहीं लगा कि व्‍यक्ति से निरपेक्ष हो पद का स्‍वमेव सम्‍मान किया जा सकता है, किया जाना चाहिए। हमारे पिछले स्कूल में एक मास्‍टर थे वे श्रीमान 'ठीठा सर' वे अगर प्रिसीपल रूम बंद भी हो या खुला हो पर प्रिंसीपल न हों तो भी उनकी कुर्सी की ओर देखकर प्रणाम करते थे- तर्क ये कि ये सम्‍मान व्‍यक्ति का नहीं पद का है- छोटी समझदानी के लिए माफी पर ये हम से नहीं होने का-  हमारे विद्यार्थी इसलिए हमारा अतरिक्‍त सम्‍‍मान करें क्‍योंकि हम मास्‍टर हैं ये हमें नहीं पसंद- हमसे कोई अपने देय से अधिक सम्‍मान की अपेक्षा इसलिए रखे क्‍योंकि महामहिम सोनिया गांधी को वे निरापद राष्‍ट्रपति लगती हैं- ये हमसे होने से रहा। 

ऑंचल ढके, मातृवत महिला सहज ही किसी सम्‍मान के लायक हो जाती है- मैट्रोट्रेन में दिखें तो  मैं सहज ही अपनी सीट सहर्ष छोडे जाने के लिए उन्‍हें अनुकूल पात्र समझता हूँ- स्‍त्री होने के नाते का भी सम्‍मान दे सकता हूँ पर भैया बस यहीं तक। जिस देश का राष्‍ट्रपति इस या उस नाते प्राप्‍त सम्‍मान के भरोसे रहे  वह बहुत अभागा देश होगा। पर इतने कुंद भी नहीं है कि अगर प्रतिभा सम्‍मानयोग्‍य करें तो भी नत न हों। पर अभी तो मोल लाकर सम्‍मान अपनी मुद्रा पर नही ही चेप सकते।

 

Wednesday, July 25, 2007

छापे का आदि-इरोटिक साहित्‍य और फ्रेंचेस्‍का


रविकांत व संजय ने यह आयोजन किया था जो बेहद अनौपचारिक से वातारण में हुआ, इतना कि किसी छोटी सी बात पर स्‍थापित इतिहासकार शाहिद अमीन भुनभुना सकें और लोग उनकी इस भुनभुनाहट का ज्‍यादा बुरा न मानें। अवसर था एक छोटा सी वार्ता जिसमें फ्रेंचेस्‍का ऑर्सिनी ने 'प्रिंट व प्‍लेजर' विषय पर बोला और बाद में एक छोटी सी चर्चा हुई। फ्रेंचेस्‍का हिन्‍दी की स्‍थापित विद्वान हैं, दक्षिण एशिया में प्रेम के इतिहास पर अपनी पुस्‍तक के लिए अधिक जानी जाती हैं पर उनका काम हिंदी के इतिहास पर एक अहम काम है जिसे विश्‍वविद्यालयी बिरादरी के हिंदी विभाग सहजता से नजरअंदाज करना पसंद करते हैं। पहले कैंब्रिज में थीं अब हाल में लंदन विश्‍वविद्यालय में पहुँच गई हैं।


'प्रिंट एंड प्‍लेजर' कोई काव्‍यशास्‍त्रीय व्‍याख्‍यान नहीं था, ये 19वीं सदी के उत्‍तरार्ध में शुरूआती हिदी छपाई की सामग्री के अनुशीलन पर आधारित एक शोध था और कई मायने में आंखे खोलने वाला कार्य था। पूरे विवरण की तो यहॉं आवश्‍यकता शायद नहीं पर काम की और कुछ मजेदार बातें बताई जा सकती हैं- फ्रेंचेस्‍का ने मुख्‍यधारा साहित्‍य नहीं वरन उस समय छप रहे लोकप्रिय साहित्‍य मसलन शायरी, किस्‍से, ठुमरी व अन्‍य गायकी आदि पर काम किया है और ये सब के लिए सामग्री उन्‍हें ब्रिटेन की लाइब्रेरियों से प्राप्‍त हुई जहॉं ये सारा ही साहित्‍य 'इंडियन इरोटिक' साहित्‍य श्रेणी के तहत वर्गीकृत किया गया है। मुझे ये बेहद मजेदार बात लगी क्‍योंकि इसमें ऐसा 'कुछ नहीं' था कि इसे कामकला का साहित्‍य माना जा सके।



सबसे जरूरी बात जो मुझे वर्तमान ब्‍लॉगिंग के लिए दूरगामी प्रभाव वाली लगती है वह यह है कि फ्रेंचेस्‍का के शोध का परिणाम यह कहता है कि जब कोई नया माध्‍यम आता है तो वह विद्यमान माध्‍यम के आनंद (प्‍लेजर) को ही गढ़ने की कोशिश करता है। जब छापा आया तो उसने चालू मौखिक परंपरा (खासतौर पर किस्‍सागोई, पारसी थियेटर व नौटंकी) से मिलने वाले आनंद को ही प्रिंट में देने की कोशिश की, उन्‍हें इमीटेट किया। ताकि आरंभ में लोगों को नए माध्‍यम से वहीं प्‍लेजर मिले जो पहले से विद्यमान माघ्‍यमों से मिलता है- भाषा में भी उन्‍होंने हिंदी, उर्दू, ब्रज का तथा लिपि में देवनागरी तथा फारसी लिपि दोनों का मिलाजुला इस्‍तेमाल किया। इसके ब्‍लॉगिंग निहितार्थ देखें तो यह पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है- आरंभिक ब्‍लॉगिंग पहले से विद्यमान मीडिया रूपों यानि प्रिंट व आडियो-विज्‍युअल रूपों के प्‍लेजर को ही मुहैया कराने की कोशिश कर रही है पर जैसे जैसे ये स्‍वतंत्र रूप हासिल करती जाएगी इसका प्‍लेजर अलग होगा। और हॉं छापे के उभार के समय वाचिक साहित्‍य के पुरोधाओं ने छापे के उभार को वैसे ही कोसा था जैसे अनवर जमाल और छापे के दूसरे लोग, वर्तमान हाईपरटेक्‍स्‍ट वालों को पानी पी पी कर कोसते हैं।


Tuesday, July 24, 2007

ब्‍लॉगिंग का चरित्र एंटी-एस्‍टाब्लिशमेंट ही हो सकता है

अविनाश ने एक और चर्चा इलैक्‍ट्रानिक मीडिया और उसकी प्रकृति पर आयोजित की है जो टेलीविजन पर एक आलोचनात्‍मक नजर डालती है। वे मूलत: टीवी के व्‍यक्ति हैं, हम अब अपने को पूरी तरह ब्‍लॉगमीडिया का ही मानने लगे हैं इसलिए स्‍वाभाविक सा लगा कि हम खुद अपने माध्‍यम यानि ब्‍लॉगिंग और उस पर भी हिंदी ब्‍लॉगिंग पर विचार कर यह समझने की कोशिश करें कि इसकी प्रकृति क्‍या है और उससे ही इसकी दिशा के अनुमान की कोशिश की जाए।

हमें ये बात खूब अच्‍छे से महसूस होती है कि इंटरनेट अनिवार्यत व्‍यक्तिगत माध्‍यम है या व्‍यक्ति का व्‍यक्ति से सीधा संवाद है, अगर इसे 'पुरा‍णिक विमर्श' का बाजार माना जाए तब भी यह एक दुकानदार का एक ग्राहक से सीधा संवाद है, भले ही एक ब्‍लॉग को एक ही समय में 10 लोग आनलाईन पढ रहे हों तो भी उनमें से हर किसी के साथ ये ब्‍लॉग का व्‍यक्तिगत संवाद ही है- यही इंडीविज्‍युअलटी ही इस ब्‍लॉग माध्‍यम का यूएसपी है और यही इसे टीवी या अन्‍य माध्‍यमों से अलग बनाती है। ब्‍लॉग लेखक ही नहीं विज्ञापनदाता तक सीधे संभावित ग्राहक तक पहुँचने की गुंजाइश की ही वजह से एक एक विज्ञापन क्लिक के लिए डालरथमा दिया जा सकता है, जरा टीवी के विज्ञापनदाता से प्रति दर्शक 10 रुपए की मांग कीजिए और देखिए कैसा भड़कता है। टीवी खुल्‍लमखुल्‍ला लगा हुआ मजमा है जिसमें बल इस बात पर है कि अपना संदेश खूब तेजी से खूब सारे लोगों पर बौछारा दिया जाए, इनमें से बहुत थोड़े से लोग ही लक्ष्‍य समूह हों तो भी बहुत कुछ लोगों तक तो संदेश पहुँच ही जाएगा वैसे थोड़ा बहुत वर्गीकरण चैनलों की रुचि व उसमें भी समय के वर्गीकरण से किए जाने की कोशिश होती है (मसलन कार्टूनों या समाचार के चैनल या फिर दोपहर के कार्यक्रम ग्रहणियों को केंद्रित कर बनाए जाने से)। ब्‍लॉग मीडिया का नजरिया अलग है ये एक समय में यहॉं पाठक से व्‍यक्तिगत संवाद की उम्‍मीद पर ही संदेश दिया जाता है। पिछली ब्लॉगर बातचीत में भी यही उभरकर सामने आया था कि ब्‍लॉगिंग इसलिए आकर्षित करती है क्‍योंकि ये आपकी इंडिविज्‍युअलिटी के लिए स्‍पेस छोड़ती है, बाकी मीडिया रूपों से कहीं ज्‍यादा।


पर हमारी इंडिविजुएलिटी का कौन सा पक्ष है जो इतना कसमसाता है कि उसे कह डालने के लिए मचलते रहते हैं। और भी पक्ष होंगे पर मुझे लगता है हमारा एंठीएस्‍टेब्लिश्‍मेंटपन शायद एक एक अहम पक्ष है। समाज, सरकार या संबंध आदि में जब हम कुछ ऐसा होते देखते हैं जिसका वहॉं विरोध करने का हमारा बूता या अवसर नहीं होता तो हम उसे कह देने का, व्‍यंग्‍य में , हँसकर, चिढ़कर, रूपांतरित कर या ऐसे ही तो हम कह डालते हैं। यही कारण है कि सही ब्लॉगिंग चाहे वह अंग्रेजी में हो या बंद ईरानी समाज की फारसी में वह मूलत: एंटी एस्टिब्लिश्‍मेंट की ही होती है। प्रो एंस्‍टेब्लिश्‍मेंट ब्‍लॉगिंग, ब्‍लॉगिंग नहीं दलाली है। इसलिए राहत मिलती है जब असीमा का लिखा ब्‍लॉग तक पहुँचता है जो एक विद्रोह है पर मुझे तो उससे भी राहत मिलती है जब अभय पोलिटिकल करेक्‍टनेस के तैयार एस्‍टेब्लिश्‍मेंट के विरुद्ध लिखते हैं- और अपेक्षाओं व यथार्थ के संतुलन के सवाल खड़े करते हैं।


Monday, July 23, 2007

गूगल सर्च:बहुत है थोड़े से काम न चलाएं

यदि आप भी मेरी तरह गूगल का इस्‍तेमाल केवल किसी शब्‍द से जुड़े बेवपते की जानकारी के लिए ही करते रहे हैं तो आप केवल आइसबर्ग की टिप से ही परिचित हैं। दरअसल गूगल की सर्च सुविधा में और बहुत सी सुविधाएं शामिल हैं, कुछ का असल लाभ तो केवल अमरीकियों के ही लिए है पर बाकी हम आप सब के काम की हैं तो लीजिए हमने आपके लिए अनुवाद कर पेश किया गूगल खोज की फीचरों को ताकि आप भी हमारी तरह सिर्फ थोड़े से काम न चला रहे हों जबकि ज्‍यादा उपलब्‍ध है।

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Sunday, July 22, 2007

Alt+Shift की पलटी और ' नितांत निजी' पीड़ा

सामाजिकता की गठरी सर पर लादे लोग माफ करें इस कीबोर्डपीट ने आज जिस विषय पर लिखा उसमें किसी बृहत्‍तर समाज की पीड़ा के संधान की कोई गुंजाइश नहीं है, कतई नहीं। इसमें बक्‍सर या मोतीहारी के बिरसउ या बघीरा की गरीबी पर विचार नहीं है न ही मॉल्स या ग्‍‍लोबलाईजेशन पर। समस्‍या इतनी मेरी अपनी है कि उसमें मेरे आस पास के अपने तक शामिल नहीं। मेरा चिट्ठा है इसलिए अपनी इस नितांत निजी समस्‍या तक को लिख सकता हूँ लिख रहा हूँ। समस्‍या है कि जब मैं लिखता हूँ, टिप्पियाता हूँ या कंप्‍यूटर पर कोई भी काम करता हूँ तो दो भाषाओं के बीच अटपटा सा दोलन करता हूँ। मेरी अंगुलियॉं ये दोलन करती हैं पर अक्‍सर दिमाग ये दोलन नहीं कर पाता और यकीन जानिए उस समय मुझे ये समस्‍या दुनिया से गरीबी मिटाने से भी ज्‍यादा परेशान करती है- क्‍या करें।

थोड़ा विस्‍तार से बताता हूँ। कंप्‍यूटर का कीड़ा अपना कुछ पुराना है बहुत पहले काम कर रहे हैं इसलिए पुराने कीबोर्ड रेमिंगटन की आदत है, आईएमई का इस्‍तेमाल करता हूँ जिसमें ALT + SHIFT से टॉगल किया जाता है यानि ये मारा ALT + SHIFT और आपकी दुनिया बदल गई आप हिंदी से अंग्रेजी हो गए।
मोतीहारी से अचानक ही हम ट्राइफल्‍गर स्‍क्‍वेयर पहुँच जाते हैं या कम से कम गुड़गांव या दिल्‍ली के माल्‍स में तो पहुँच ही जाते हैं दिक्‍कत ये है कि ससुरा अपना हंडला (हंडला बोले तो दिमाग) इतनी तेजी से पलटी खा नहीं पाता और हमारी गत अक्‍सर वो ही हो जाती है जो खेतों में दिशा मैदान करने वाले की अंग्रेजी कमोड के सामने होती है- क्‍या करें-कैसे करें। थोड़ी देर में जुगाड़ कर अभ्‍यस्‍त तो हो जाते हैं पर तब तक गड़बड़ की आशंका तो रहती ही है।

सबसे दिक्‍कत वाली गत तब होती है जब थोड़ी सी देर के लिए ALT + SHIFT करते हैं। ऐसा कई बार मतलब रोजाना 10-20 बार होता है कि लॉगइन करते हैं उंेपरममअप लिखकर, नहीं समझ आया न अरे भई masijeevi को रेमिंगटन में लिखें तो ऐसे ही लिखना होता है। पूरा लिखकर देखते हैं फिर कोफ्त खाते हुए ALT + SHIFT करते हैं और फिर eflthoh लिखकर मुंडी उठाते हैं- धत्‍त तेरे की इस बार ALT + SHIFT के साथ कीबोर्ड बदल गया और लिख वही गए यानि देवनागरी का मसिजीवी पर रोमन में ये कमबख्‍त eflthoh ही होता है। अब अगर आप डूबकर लिख रहे हैं तो आपको बार बार ALT + SHIFT करना होता है और हर बार ऐसी ही भद्द पिटती है।


समस्‍या ये है कि हम त्रिशंकु हैं- हम नहीं जानते कि हम ALT + SHIFT के इस ओर हैं या उस ओर, दिक्‍कत ये भी है कि असल दुनिया में ALT + SHIFT जैसे सीधे सरल समाधान भी नहीं हैं आप कंप्‍यूटर क‍ी गिटपिट में इंटरनेट पर मोतीहारी का घीसू ला सकते हैं पर ALT + SHIFT से मोतीहारी के घीसू के घर कंप्‍यूटर पहुँच नहीं जाएगा। आप दिमाग झटककर झट से मैट्रो वॉक माल के भीतर घुस सकते हैं ऐश्‍वर्य देख व भोग सकते हैं- बेअरबैक व स्‍पैगेटी स्‍ट्रैप निहार सकते हैं और फिर वापस आ झट कक्षा में समता पर लेक्‍चर झाड़ सकते हैं ये आपके लिए ALT + SHIFT जैसा सरल है सहज है पर क्‍या इससे दुनिया भी ALT + SHIFT हो पाती है- दुनिया का सोर्स कोड हमारे पास नहीं, शोषण के प्रोग्राम कर कोई हैक नहीं- इस प्रोग्राम में आप ALT + SHIFT के किस ओर हैं आप बखूबी जानते हैं मानें या नहीं।

Saturday, July 21, 2007

दिल्‍ली शहर के लाईट हाऊस यानि पुस्तकालय

कल काकेश जी ने एक पत्र भेजकर जानना कि हिंदी किताबों के लिए कुछ अड्डे बताएं इस शहर के। हमने किताबों की एकाध दुकान का पता भेजा और वायदा किया कि पुस्‍तकालयों को लेकर एक पोस्‍ट लिखी जाएगी। दिल्‍ली में ऐसी पुस्‍तकालय व वाचनालय परंपरा विद्यमान नहीं है जिस पर गर्व किया जा सके पर फिर भी कम से कम कुछ पुस्‍तकालय हैं जिनका उल्‍लेख आवश्‍यक है। वैसे सबसे महत्‍वपूर्ण पुस्‍तकालय संस्‍थाई पुस्‍तकालय हैं मसलन जवाहरलाल नेहरूविश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के दोनों परिसरों के पुस्‍तकालय तथा स्‍टीफेंस, हिंदू व अन्‍य कॉलेजों के पुस्‍तकालय, केंद्रीय सचिवालय की तुलसी सदन का पुस्‍तकालय पर स्‍पष्‍ट है कि इन पुस्‍तकालयों का चरित्र सीमित पहुँच के पुस्‍तकालय हैं क्‍योंकि आप सहजता से इन तक पहुँचकर संदर्भनहींले सकते, पुस्‍तकें पढ़ने के लिए घर ले जानेकी भी सुविधा बाहरी पाठकों के लिए नहीं है।

अत: सार्वजनिक पुस्‍तकालय ही आम शहरी के लिए सर्वश्रेष्‍ठ विकल्‍प हैं और जाहिर है दिल्‍ली में सार्वजनिक पुस्‍तकालय का मतलब है- दिल्‍ली पब्लि‍क लाइब्रेरी। पुरानी दिल्‍ली रेलवे स्‍टेशन के सामने श्‍‍यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग पर स्थित ये पुस्‍तकालय इस मुख्‍‍य पुस्तकालय के अतिरिक्‍त अलग अलग कॉलोनियों में शाखाएं भी संचालित करता है।
इस पुस्‍तकालय की खास बात यह है कि यहॉं दिल्‍ली के अन्‍य पुस्‍तकालयों के विरीत हिंदी के प्रति एक खास लगाव देखने को मिलता है पर ये भी सच है कि अब ये पुस्‍तकालय खस्‍ताहाल स्थिति में है वैसे ये पूरी तरह निशुल्‍क पुस्‍तकालय है जहॉं दो रूपए में बने कार्ड से आप तीन किताबे तक घर ले जाकर पढ़ सकते हैं। सरकार की घोर उपेक्षा ने इस कभी बेहद संपन्‍न रहे पुस्‍तकालय का लगभग पूरी तरह ही नाश कर दिया है। उल्‍लेखनीय कि नियमत: हर प्रकाशित पुस्‍तक की एक प्रति इस पुस्‍तकालय व कोलकाता के राष्‍ट्रीय पुस्‍तकालय को भेजा जाना कानूनन अनिवार्य है पर पता नहीं इस कानून का कितना पालन होता है। इसी मुख्‍य पुस्‍तकालय के पीछे हरदयाल म्‍यूनिसिपल पुस्‍तकालय भी है हरदयाल पुस्‍तकालय की भी कई शाखाएं शहर में हैं, खासतौर पर दरियागंज व दीनदयाल मार्ग (आई टी ओ) की शाखा का उल्‍लेख किया जा सकता है।

इंटरनेट पर उपलब्‍ध दिल्‍ली के पुस्‍तकालयों के इस मानचित्र से दिल्‍ली के प्रमुख पुस्‍तकालयों का पता चलता है।


अगर आप साहित्‍य के कीड़े है या कला के प्रेमी तो दिल्‍ली के पुस्‍तकालयों की चर्चा बिना साहित्‍य अकादमी के उल्‍लेख के पूरी नहीं हो सकती। रवीन्‍द्र भवन मंडी हाऊस पर स्थित साहित्‍य अकादमी के पुस्‍तकालय में केवल हिंदी या अंग्रेजी ही नहीं वरन सभी भारतीय भाषाओं के साहित्‍य की पुस्‍तकें मिल जाती हैं खास बात यहॉं की वातानुकूलित व सुविधाजनक डिस्‍प्‍ले व वाचनालय सुविधा हैं। यहॉं के पुस्‍तकालय की कैटलागिंग व सूचना प्रबंधन काफी विश्‍वसनीय है। यदि आप नॉन देसी टाईप है तो आपको ब्रिटिश काउंसिल व अमरीकी व रूसी कल्‍चर हाऊस अथवा मैक्‍सम्‍यूलर हाडफस के पुस्‍तकालयों में रूचि हो सकती है ये सभी पुस्‍तकालय कनॉट प्‍लेस के इलाके में हैं। विश्‍वविद्यालय प्रणाली से बाहर दिल्‍ली का सबसे संपन्‍न पुस्‍तकालय तीनमूर्ति स्थित नेहरू मैमोरियल पुस्‍तकालय है जहॉं आप काफी विद्वान लोगों के सानिध्‍य में अध्‍ययन करने का गौरव पा सकते हैं। इसी प्रकार इतिहास के गीकों के अध्‍ययन का आनंद राष्‍ट्रीय अभिलेखागार (नेशनल आर्काइव्‍स) के पुस्‍तकालय में मिल सकता है, पुरातत्‍व विभाग का पुस्‍तकालय भी यहीं है।

तो कुल मिलाकर जहॉं उच्‍च स्‍तर के पुस्‍तकालयों की दिल्‍ली में भरमार हैं वहीं आम रुचि के लोगों के लिए पुस्‍तकालय सुविधाओं में बहुत सुधार की गुंजाइश है।

चित्र CCS की रपट से कीर्ति से साभार


क्लिक फ्राड पर एक नजर

कल सागर जी ने एडसेंस के घपले को सामने रखा मतलब कोई अपनी साईट पर ऐड लगाए और यार दोस्तों व ऐरे-गैरों सबसे गुजारिश कर खुद ही अपना मीटर बढवाए। ये कोई नया या मौलिक तरीका नहीं है पर फिर भी काम करता रहा है या कहें कि गूगल जानते बूझते इसे अक्‍सर चलते रहने देता है जब तक कि वह बेचारा विज्ञापनदाता ही मय सबूत शिकायत न करे कि भई देखें ये नाइंसाफी हो रही है । इंटरनेटी दुनिया में विज्ञापनों में इस तरह के नकली क्लिक यानि वे क्लिक जो वास्‍तविक नहीं हैं- क्लिक-फ्राड के नाम से जाने जाते हैं। नकली क्लिक मैन्‍यूअल व मशीनी दोनों तरीके से किए जा सकते हैं। ये दो उछृदेश्‍यों से हो सकते हैं, एक तो जैसा कि सागरजी के 'मित्र' कर रहे थे यानि कि ब्‍लॉगर या बेवसाईट वाले खुद ही अपनी कमाई बढ़ाने के लिए इन्‍हें क्लिक करें पर अधिक फ्राड उस रूप में होता है जबकि कोई प्रतियोगी कंपनी अपनी विरोधी का भट्टा बैठाने के लिए उसके विज्ञापनों पर बेहिसाब क्लिक करती हैं ताकि विरोणी कंपनी को मोटी रकम गूगल या दूसरी विज्ञापन एंजेंसियों को चुकानी पड़े पर उसका कोई लाभ उन्‍हें न हो।


मजे की बात यह है कि इस फ्राडों तक से गूगल को तो फायदा ही होता है क्‍योंकि पैसा तो दरअसल विज्ञापनदाताओं की जेब से जाता है जिसे विज्ञापन लगाने से पहले ही ले लिया जाता है। दरअसल इन्‍हीं फ्राडों के चलते गूगल अर्थव्‍यवस्‍था पर ही एक संकट सा आ गया है, क्‍योंकि अब विज्ञापनदाता प्रति क्लिक भुगतान करने के स्‍थान पर अब साईनअप या सेल्‍स पर ही भुगतान करने वाले मॉडल को वरीयता देने लगे हैं। मसलन फायफॉक्‍स या गगूल ऐडसेंस (जैसा कि इस साईट पर बाईं ओर लगा विज्ञापन है) इनके भुगतान साईनअप पर ही होते हैं क्लिक पर नहीं। पर जाहिर है कि इनके भुगतान की दर अधिक होती है जो 5$ से लेकर 50 $ तक हो सकती है।



अपनी राय पाईरेसी वाले मामले की ही तरह कुछ कुछ अराजकतावादी है, यानि अगर क्लिक फ्राड पर नजर डाली जाए तो वैसे तो बाजार में खुद ही इसका इलाज निहित है, क्‍योंकि अगर पर्याप्‍त रिटर्न नहीं मिल रहा है तो विज्ञापनदाता क्लिक के लिए खुद ही कम दर की बोली लगाएंगे और फिर क्लिक फ्राड चूंकि लाभदायी नहीं रह जाएगा इसलिए कम हो जाएगा। दूसरी बात ये कि विदेशी मुद्रा दर इस सारे प्रकरण में भारत के पक्ष में है वरना महीने भर में 100-50 डालर की कमाई का क्‍या खाक आकर्षण हो सकता है बाहर। ये तो हमारे ही यहॉं है कि 100 डालर अचानक फूल कर 4500 रूपए बन जाते हैं। किसा बेलदार की  सवा महीने  की कमाई के बराबर,  इसलिए क्‍िलक फ्राड से जहॉं दर नीचें आएंगी वहीं इन नीची दरों की वजह से भारतीय ब्लागरों व गैर अंग्रेजी ब्‍लॉगरों के लिए थोड़ा कम प्रतियोगी माहौल भी बनेगा- इसलिए ये ईमानदार सोच भले ही न हो पर क्लिक फ्राड आवारा पूंजी की आभासी अर्थव्‍यवस्‍था में एक रोबिनहूडी भूमिका अदा करते हैं।


Friday, July 20, 2007

हमने लीक की है हैरी पोटर...बोलो क्‍या करोगे

ऐसा कोई रेलवे स्‍टेशन नहीं होता जिसकी 50000 लीटर वाली टंकी धार धार लीक न हो रही हो ज्ञानदत्‍त पांडेय या लालू यादव कछउ नहीं कर पाते, ऐसा कोई टेंडर हमारे नगर निगम में नहीं खुलता जो खुलने से पहले बाबू ने लीक न कर दिया हो, ऐसी कोई पोस्‍ट नहीं जिसे लिखने के एकदम बाद सुरेश चिपूलकर खुद दनादन लीक न कर देते हों, ऐसा कोई प्रश्‍नपत्र नहीं जिसे खुद मास्‍टर लीक न कर देते हों, ऐसे में जब सारा आंवा लीकित मन हो रहा हो एक लीक पर बबाल मचाना ठीक नहीं। और लीक भी मालूम नहीं कि हुआ है कि नहीं।


पंछाह में एक लिख्‍खाड़ औरत है जे के रोलिंग, लिखती है खूब लिखती है और दनादन नोट कूटती है...डालर कूटती है, पौंड कूटती है , यूरो और येन कूटती है फिर रुपए की क्‍या बिसात है वे भी कूटे जाते हैं। अजमेर शरीफ के सालाना उर्स की तरह भीड़ जुटती है जब हैरी पुत्‍तर पर रोलिंग की किताब आती है। अब फिर से आ रही है- आने दो हमें क्‍या। सूनामी आ गई हमने रोक ली क्‍या अब ये किताब ही क्‍या कर लेगी। तो भई एक बबाल मचा हुआ है कि रोलिंग की इस किताब का क्‍लाईमेक्‍स क्‍या है। इसे एकदम सीक्रेट रखा गया है किसी को नहीं पता, प्रूफरीडर को नहीं, प्रिंटर को नहीं किसी को नहीं। तो भैया सारे इंटरनेट पर शोर है सच्‍चा हे कि झूठ्ठे ही मच रहा है लेकिन हर इंटरनेटिया गला फाड़ कर कह रहा है कि ये रही लीक...हमें पता है कि हैरी मरेगा कि बचेगा। इससे रोलिंग की दुकानदारी खराब हो रही है इसलिए वह दुखी है- उसके प्रकाशक दुखी है। आज के दिन हैरी लीक गूगल पर सबसे ज्‍यादा सर्च किया जा रहा कीबर्ड है।


बस यहीं हमें तकलीफ है अरे भई एक किताब ही है न अगले हफ्ते तक धीरज रख लो पता चल जाएगा। पर वैसे हम अंदरखाते लीक करवाने वालों की साईड में हैं, क्योंकि आज ये लीक करवाएंगे कल पाइरेटिड छापेंगे परसों हमें वह 50 रुपए में मिल पाएगी (वैसे हम तब भी खरीदेंगे कि नहीं पता नहीं अब तक तो बाकी की ही नहीं खरीदीं ) पर उसे जाने भी दें तो भी ये तो हैरानी की बात है कि एक किताब की लीक पर इतनी तकलीफ। हमारे यहॉं तो रवींद्र कालिया ने बुलाकर अपने अगले अंक के गाली विभूषित लेख को लीक किया गाली गलौच आयोजित करवाई इससे दुकानदारी बढ़ी- सच में पछांह में सब उलटा ही चल रहा है। पर इस लीक ने भारतीय लोगों के हाथ में बहुत ताकत दे दी है वे चाहें तो हैरी को मरवा दें चाहें तो बचा लें। आसान है कुछ सटोरिए अब तक लग ही गए होंगे काम पर अगर इस क्‍लाईमेक्‍स से फायदा होगा तो ये वरना वो... मैच फिक्सिंग का जमाना गया अब क्‍लाईमेक्‍स फिक्सिंग का जमाना है।



पर इंटरनेट पर इस लीक का बाजार खुद किताब के बाजार से ज्‍यादा है। अब जब सबसे ज्‍यादा खोजा ही जा रहा है 'हैरी लीक' तो पढ़ा भी जा रहा होगा और इसका मतलब हिट भी मिल रहे होंगे। अब ये हिट किसे नहीं चाहिए तो हमने भी जुगाड़ लगाकर हैरी पॉटर एंड दैथली हालोज हमने लीक करवा ली है और जैसे ही इस पोस्‍ट पर 500वां हिट होगा हम आपको इस उपन्‍यास का अंत आदि सब बता देंगे- जो लोग जानना चाहें वे या तो खुद ही इस पोस्‍ट को 500 बार पढें या 500 लोगों का जुगाड़ करें जो 1-1 बार पढें, सा सब को जाकर बता दें कि हमने ये किताब लीक कर दी है वो आकर हमसे पूछ लेंगे।


Thursday, July 19, 2007

चलो थोड़ा सा स्‍थानीय हो जाएं - स्वर्ण जयंती पार्क

माना ब्लागिंग करते हैं जिसमें समीर भाई साथी हैं इसलिए वे स्‍थानीय लिखें तो समझ आता है, भई उनके स्‍थानीय तक में नियाग्रा रहेगा और 120 मील की 'धीमी' गति से चलती कारें पर हम क्‍या खाकर स्‍थानीय की रट लगा सकते हैं- हमारे तो हाईवे तक पर भैंसा-बोगी से साईड मांगनी पड़ती है जो वह दे या नहीं ये उसकी मर्जी है। पर भई फिर भी हम स्‍थानीय ही लिख्‍खेंगे और जबरिया लिखेंगे- और कोई हाईवे-फाइवे नहीं ठेठ पड़ोस इतना कि छत पर चढ़ जाएं तो सामने दिखे। जी हम आपकी वाकफियत कराएंगे आज दिल्‍ली (जो भारत नाम के देश में हैं- देश में भी क्‍या है उसकी राजधानी है) के ही एक उपशहर रोहिणी में स्थित एक पार्क से- इसका नाम है स्‍वर्ण जयंती पार्क। नाम से अंदाजा लगाना आसान है कि 1947 की स्‍वर्ण जयंती यानि 1997 से इसे सामने आया मानें- कुल जमा एक दशक।




इस पार्क का अल्‍फ्रेड पार्क या जलिया वाला बाग की तरह कोई राष्‍ट्रीय ऐतिहासिक महत्‍व नहीं है
पर हमारे लिए है- ये हमारे इलाके के फेफड़े का काम करता है- हमारे इलाके के प्रेमियों के लिए है जिनके प्रेमालाप, प्रेमाजाप, प्रेमाताप के लिए यह जगह इतनी महत्‍वपूर्ण है कि दूसरे इलाके तक के युगल यहॉं का वीजा लेते नजर आते हैं। इलाके के बच्‍चों के लिए है क्‍योंकि पूरी दिल्‍ली में रोलर स्केटिंग की इतनी विस्‍तृत सतह कहीं नहीं है, डीडीए (दिल्‍ली विकास प्राधिकरण) के लिए जिसके 130 के लगभग कर्मचारी यहॉं कार्यरत हैं यह पार्क डीडीए की बेबसाईट पर खास हरितक्षेत्रों में सबसे ऊपर दर्ज है। तथा आरएसएस के लिए है जिसकी एक से अधिक शाखाएं हमने इसी पार्क में लगती देखी हैं (पार्क इतना बड़ा है कि एक ही जगह लगाने की जिद करने से कुछ ग्राहक लौट जाने का खतरा है) तो मतलब ये कि इस पार्क को खास मानने के पर्याप्‍त कारण हैं और ऐसे कई तबके हैं जिनके लिए यह पार्क भारत की संसद से ज्‍यादा अहम है।




कुल मिलाकर 250 एकड़ से ज्‍यादा क्षेत्र में फैला ये पार्क शहर का एक खुशनुमा चेहरा सामने रखता है।
इस पार्क में एक बड़ा एम्‍यूजमेंट पार्क (एडवेंचर आइलैंड), एक माल (मैट्रो वाक) भी है तथा इसके दो सिरों पर दो मैट्रो स्‍टेशन हैं। पार्क में दो झीलें (जिनमें से एक में नौका सवारी की भी सुविधा है दूसरी में जलपक्षी क्रीड़ा करते हैं। कई बड़े जॉगिंग ट्रेक हैं, बच्‍चों के पार्क हैं, एक छोटा चिडि़याघर भी था पर मेनका गांधी ने बंद करवा दिया, दो वन क्षेत्र हैं, पुष्‍प उद्यान हैं, बच्‍चों के मनोविनोद के स्‍थान हैं। मॉल गनीमत है पार्क से अब सीधे जुड़ा नहीं है जहॉं फूड स्‍ट्रीट में बीसियों रेस्‍तरां व कुछ बार हैं। फव्‍वारे व एक और नौकासवारी की सुविधा सहित झील है तथा शापिंग की ढेर सारी सुविधा है। और हॉं आधुनिक किस्‍म के बीसियों झूले हैं। लेकिन इस एम्‍यूजमेंट पार्क को छोड़े हमारे लिए तो मजे की चीज खुद पार्क है।




पार्क की अंतरिक्ष में 216 मीटर ऊपर से ली गई तस्‍वीर इस तरह दिखती है-


गूगल अर्थ की यह तस्‍वीर काफी पुरानी लगती है क्‍योंकि कई चीजें दिख नहीं रही हैं।


ये तस्‍वीर हमारे कैमरे से है




हमें ये पार्क इसलिए अहम सिखाऊ स्थान लगता है कि किसी भी शहर में अलग अलग तबके किसा सार्वजनिक स्‍पेस को कैसे साझा करते हैं इसकी खास मिसाल है ये पार्क। टाईम व स्‍पेस दोनों में यह बंटवारा अच्‍दे से दिखता है। सुबह मार्निंग वाकर, दोपहर में युवा प्रेमी, शाम को बच्‍चे व विवाहेतर प्रे‍मी व बुजुर्ग इसका मोटा मोटा कालिक वितरण है पर इसमें में स्‍पेस के अनुसार हिसाब बदलता है। झील किनारे युगल पसंद करते हैं इसलिए वे वहॉं होते हैं तथा उन्हें कनखियों से चुंबित देख सकने की चाह वाले अधेड़ भी जमे होते हैं। बच्‍चे झूलों व स्‍केटिंग सुविधाओं के आसपास रहते हैं। मुख्‍य केंद्रीय हरित क्षेत्र पारिवारिक है और पूरे परिवार व धार्मिक सतसंग-भजनादि वहॉं दिखाई देता है। सब को दूसरे वर्ग की उपसिथति का पता है तथा उसके लिए स्‍पेस भी है तथा सहिष्‍णुता भी। सार्वजनिक स्पेस की यह सहिष्‍णुता ही हमें इस शहर की नइ्र बनती पहचान लगती है- और हमें पसंद है।




आज इश्‍क पर लिखा जाए

नहीं बस यही नहीं हो सकता... भला कौन भलामानुष ये मानेगा कि हम तक इश्‍क पर लिखने की जुर्रत कर सकते हैं :)   वैसे कुछ परिचित जिन्‍हें ये भ्रम हो जाता है कि वे हमें जानते हैं कतई मानने को तैयार नहीं कि हम कभी इश्‍‍क पर विचार कर सकते हैं। हम उनकी राय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते, कोई फायदा भी नहीं। पढ़ाने में हमें शुष्‍क विषय पसंद आते हैं- यानि रीतिकाल की जगह साहित्‍येतिहास पढ़ाना पसंद करते हैं- पत्रकारिता, शिक्षण, भाषा विज्ञान जैसे कम रागात्‍मक विषयों को ही चुनते हैं अगर अवसर हो तो। हमें नाचना नही आता... लेकिन पिछले साल जब कॉलेज के बच्‍चों के साथ पिकनिक पर गए तो लगा कि बच्‍चे कुछ कुछ बोर हो रहे हैं तो हमने खुद ही नाचना शुरू किया - बेचारे बच्‍चे... ये नाच बारात में शराबियों के नाच से अच्‍छा कतई नहीं रहा होगा पर इससे हालात इतने मनोरंजक जरूर बन गए कि पिकनिक सज गई और इसके बाद तो सभी थोड़ा बहुत नाचे ही। बच्‍चों के खिलाफ हमने वही रणनीति अपनाई जिसकी घोषणा अफगानिस्‍तान के खिलाफ बुश ने की थी- यानि हैरान करके मारो। 

तो यहॉं भी हम  हैरान करने भर के लिए इश्‍क पर लिखना चाह रहे हैं, होगा यह बारात में शराबियों की ही तरह बे-ताल। पर इतना भी हमारी समझ में आ गया है कि  जो स-ताल प्रेम पर लिखते बोलते रहे हैं वे भी इसे उतना ही समझ पाते होंगे जितना हम...एकाध रत्‍ती कम ज्‍यादा मान लो। तो इश्‍क क्‍या है ? सही जबाव है.... हमें नही पता ... पर फिर भी लगता है कि ये जो भी हे वो तो नहीं ही है जिसे समझा गया है- यूं ही हमारी समझदानी छोटी है इसलिए प्रेम को ज्‍यादा 'समझने' की कोशिश हमने की नहीं। हम तो मेलनी की ही तरह मानते हैं कि यह तो एक रहस्‍य है जिसे रहस्‍य ही बने रहना चाहिए-

 " आई एम डिसाइडिंग छैट दी मिस्‍टरीज आफ दिस यूनीवर्स कैन औनली बी पार्टिसिपेटिड इन, नॉट साल्‍व्‍ड ओर एक्‍सप्‍लेन्‍ड. एंड ओनेस्‍टली ब्‍हाट इफ वन डे यू अंडास्‍टुड ऐवरीथिंग. एज्‍यूमिंग दैट यूअर हैड वुडंट एक्‍सप्‍लोड - हाऊ इंटरेस्टिंग डू यू थिंक लाइफ वुड बी विदाऊट दी मिस्‍टरी आफ इट"  

यानि इश्‍क वह रहस्‍य है जिसे जानने की कोशिश की तो डूबे और अगर बिना जाने डूबे तो सही मायने में तैर पाओगे- कबीर ने भी तो यही कहा न।

Tuesday, July 17, 2007

आइए समझें ग़ीक मन को

ग़ीकपन पर इधर कुछ बातें हुई हैं पर हाल में इसे गीकपन से गीकमन की तरफ मुड़ते देखा और अच्‍छा लगा। दरअसल एक किस्‍म के भोंपूवाद के बीच खब्‍त और जुनून की बात सुनना मोहक हैं। ये हमारी प्रिय प्रजाति है- खब्ती और जुनूनी। ऐसा नहीं कि ये केवल प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में ही पाए जाते हैं, बल्कि सच तो ये है कि दरअसल इनके सही अभयारण्‍य तो विश्‍वविद्यालय ही हैं-

हमने डा. साहा के विषय में लिखा था एक बार- पिछले दिनों जब कॉलेज में प्रवेश शुरू होने वाले थे इसलिए कॉलेज खाली सा था- डा. साहा अपनी धुन में पहॅँचे..साथ में दो बच्‍चे थे, एक सहकर्मी के पुत्र उम्र 8 साल और शायद 10-11. गए कोने की सीट पर जाकर जमे और लगे पढ़ाने एक को भिन्‍न (fractions) दूसरे को भी ऐसा ही कोई आधारभूत सा ही कंसेप्‍ट। धोड़ी ही देर में हमारे एक सहयोगी जो गणित पढ़ाते हैं पर कभी खुद साहा सर के ही विद्यार्थी रहे थे वे भी पहुँच गए और जाकर विद्यार्थी मुद्रा में ही बैठ गए- और पंद्रह मिनट में दो शोध छात्र जो साहा सर के साथ पीएच.डी. कर हे हैं वे भी आकर जम गए। संगीत का रसिक कभी नहीं रहा लेकिन इस विचित्र संगम में और जिस कदर डूबकर ये गणित के नामी विद्वान बच्‍चे को भिन्‍न पढ़ा रह थे ये किसी रहस्‍यमयी जुगलबंदी का ही आभास दे रहा था। उनका इसमें रम जाना वह आत्मिक आनंद है जिसके हम कायल हैं- और जिसका पण्‍यकरण (कोमोडिटिफिकेशन) अभी बाजार के लिए मुश्किल होगा, ये जानते हैं। एक नोन लीनियर गणित कर विद्वान एक साथ शोध गणित, भिन्‍न, ब्‍याज  और रीयल एनालिसिस से जूझ रहा है और इतना रमा हुआ है कि सुध बुध नहीं कि दूसरी कक्षा से लेकर पीएच.डी. तक के छात्र एक साथ इकट्ठे कर इस औपचारिक जगह पर कितना मनोरंजक दृश्‍य उपस्थित हो गया है।

साहित्‍य में काव्‍यानंद की रस अवस्‍था जिस साधारणीकरण के बाद उत्‍पन्‍न मानी गई है वह भी रागात्‍मकता की वह उच्‍चावस्‍था है और हमें केवल कविता, फिल्‍म, रंगमंच, पर ही वह प्राप्‍त नहीं होती रही है वरन हर किसी अटके हुए गणित के सवाल, छोटे मोटे कंप्‍यूटर के जुगाड़ या बच्‍चे के बिगड़े खिलोने की सफल मरम्मत में वही आनंद प्राप्‍त होता रहा है- मैं वही कह रहा हूँ, न कि उस जैसा। ये प्राब्‍लम साल्विंग का आनंद एक मानसिक शगल है एक खब्‍त है एक जुनून है। यही ग़ीक मन है।

जिस व्‍यक्ति ने हमारा परिचय इंटरनेट से कराया वह दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के भौतिकी विभाग का एक शोधछात्र था- पूरा फंडू। विश्‍वविद्यालय में तब नवस्‍थापित इंटरनेट सुविधा का समन्‍वयक था। बाद में उसने पीएच.डी ली एक 70 पेज की पतली सी लेकिन दमदार थीसिस पर। ये दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय केलिए हेरान करने वाली बात थी- आखिर विश्‍वविद्यालय का विधान ही ये मांग करता है कि थीसिस 300 के जगभग पेज कर होनी चाहिए। उसने खोजा..लिख दिया कहा यही है नई बात लगे तो मान लो नहीं छोड़ दो। 

 

इसी दौरान  ग्‍वायर हाल के टीचर्स कोर्ट में  प्रो. सी आर बाबू रहते थे सारी जिंदगी हॉस्‍टल में ही बिता दी क्‍योंकि वहॉं से चुपचाप हवाई चप्‍पल पहने अपनी लैब में जा सकते थे सारी रात तो वहीं कटती रही। जब मान मनौवल कर उन्हें प्रो वाइस चांसलर बनाया गया तो उनकी सबसे बड़ी दिक्‍कत थी कि बंगले में रहना जरूरी हो गया और उनके पास कोई सामान ही न था जिसे वे बंग्‍ले में ले जसकर रख सकें। लैब और उद्यान ही उनकी जिंदगी हैं आज तक। 

इनमें से कोई भूखा नंगा नहीं था कि ये लगे कि भई बिना कारण मुफलिसी को ग्‍लैमराइज किया जा रहा है पर दरअसल ये थोड़ा थोड़ा कला कला केलिए जैसा मामला है। कलाकार कलाकृति बनाता है उसे बेच भी देता है पर कला और उस बिक्री से भिन्‍न भी कहीं कुछ हो रहा होता है- ये भिन्‍न वह आनंद है जो उसके उस प्रसन्‍न चित्‍त मूर्ख का आनंद है जो कलाकार,  कारीगर, वैज्ञानिक, रचनाकार,प्रोग्रामर सबके भीतर कहीं बैठा हो ता है। पर एक बात....इनके पास दर्प का अवकाश नहीं..मेरे पास ये है..ये विकसित कर लिया इस दर्प में डूबकर कीचड़ लपेटने के स्‍थान पर उस आनंद में डुबकी क्‍यों न लगाई जाए जो एक और कोड को लिखने से मिल सकती है। और हॉं ये कोड, मूर्ति, फ्रेक्‍टल किसी उत्‍थान, सेवा के लिए नहीं होते ये किसी अन्‍य के लिए नही होते ये बस खुद के लिए होते हैं।

Monday, July 16, 2007

अंतस के अबू ग़रैब को उजागर करता हार्मलेस फन

आज 16 जुलाई है, इसे हमारी इस पोस्‍ट के साथ जोड़कर पढ़ें- यानि चार (महीने...लगभग) की चांदनी और फिर...। आज दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय का शैक्षिक सत्र शुरू हुआ....उसी धूम धड़ाके के साथ..और राहत की सांस लीजिए। हमारी छुट्टियॉं खत्‍म हो गई हैं :)।


शिवम विज अब जम गए चिट्ठाकार हैं पर हमारी उनसे भेंट व संपर्क उनके एक ऐसे जनून के कारण रहा है जो उनके कॉलेज के शुरुआती दिनों से उपजा होगा। वे रैगिंग के विरोध में अपने आनलाइन व ऑफलाइन अभियान के लिए जाने जाते रहे हैं। रैगिंग एक ऐसी समस्‍या रही है जिसके प्रति लोगों को गंभीर बना पाना बेहद मुश्किल है- हर सत्र के आरंभ में इस पर एकाध फीचर किस्‍म के लेख दिखते हैं और बस। रैगिंग आप जानते ही हैं वह परिचय है जिसमें सीनियर विद्यार्थी जूनियर विद्यार्थियों का नए कॉलेज में शुरूआती दिनों में रैग यानि कचरा करते हैं। दिक्‍कत ये है कि एक साल उन्‍हें इससे गुजारा जाता है तो अगले साल से दो से तीन साल तक वे सीनियर हो जाते हैं और इसका 'बदला' अगले सालों में लेते हैं। ये हिंसा और अभद्रता का संस्‍थाईकरण है जो नियमित तौर पर दोहराया जाता है। ऐसे नेरेटिव्‍स की एक लंबी शृंखला है जो बताती है कि देशभर में कैसे बॉय से मैन बनाने की ये क्रूर संस्था जगह जगह जारी है। हैरानी की बात यह है कि मेडिकल कॉलेज व आई आई टी जैसे संस्‍थान जिन्‍हें आदर्श स्थापनाएं माना जाना चाहिए इस मामले में अधिक क्रूर उदाहरण पेश करते रहे हैं।




दिक्‍कत तब खड़ी होती है जब इसे 'हार्मलैस फन' मानकर इसे हलके लिया जाता है। यह रवैया समाज में हिंसा के संस्थाईकृत होने तथा अपने युवा वर्ग की मानसिक सेहत के प्रति लापरवाह होने को दर्शाता है। क्‍योंकि दरअसल रैगिंग केवल एक घटना भर नहीं होती वरन युवा के अवचेतन में पैबस्‍त हो जाने वाली एक ऐसी परिघटना है जो उसके व्‍यवहार को दूर तक प्रभावित करती है। एक नेरेटिव में एक प्रतिभागी ने बताया कि वह हिंसा का विरोध करते रहने वाला व्‍यकित्‍ा रहा था और एक जूनियर को रैगिंग से बचाने के लिए आगे आया फिर- नहीं.....नहीं जस्‍ट इंट्रो..आदि आदि के दर्शक से उसने शुरू किया और अंतत: उसने खुद ही उस जूनियर की सबसे ज्‍यादा रैगिंग की। दरअसल हममें ऊपरी सभ्‍य त्वचा के थोड़ा ही नीचे एक सैडिस्टिक इंसान बसता है जो 'हार्मलैस फन', दंगों, और 'अबू गरैब' में समान रूप से व्‍यक्‍त होता है। इसलिए इस आधार पर रैगिंग का समर्थन कभी न करें कि ये हल्‍का सा मजाक है- ये मजाक नहीं है कम से कम उसके लिए तो नहीं जो कोई भी काम जबरिया कर रहा है चाहे वह मन न होने पर हँसने का ही कोई 'हार्मलैस' काम हो। ये भी न कहें कि रैगिंग केवल तभी बुरी है जब उसमें 'शारीरिक' पक्ष जुड़े यानि पिटाई या यौन तत्‍व आए क्‍योंकि ये जान लीजिए कि रैगिंग गैर-शारीरिक कभी नहीं होती भले ही हाथ उठे या नहीं- कोई भी केवल भय से ही अनैच्छिक काम कर सकता है और भय है तो हो गया फिजीकल।


लेकिन सबसे खतरनाक तो है जब हम अपने मन में अपने बीते


जीवन के किसी रैगिंग करने के प्रकरण को पुन: हार्मलेस फन की तरह याद किए रहते हैं- बिना किसी आवश्‍यक अपराध बोध के- क्‍योंकि ऐसी स्‍मृतियों को हममें होना हम पर सैडिस्टिक शैतान की विजय का अट्टहास है जो मौका लगते ही हमें दंगाई बना सकता है।


Sunday, July 15, 2007

ब्‍लॉगिंग की सिद्धांत पुराणिका

कानपुर मीट में हुए मिलन का क्षेत्रफल फुरसतिया बता ही चुके हैं और दिल्‍ली के सम्मिलन की चर्चा भी शैलेश ने की, कुछ अन्‍य ने भी की। उस पर अधिक चर्चा की कम से कम अभी तो इच्‍छा नहीं...क्‍यों इसका भी काई जबाव नहीं।


आलोक पुराणिक ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं (ये उनकी खुदकी घोषणा है खुद समझें), बहुत ही अच्‍छा व्‍यंग्‍य लिखते हैं और बहुत ही अच्‍छे आर्थिक चिंतक भी हैं। हमारी ही तरह अध्‍यापक हैं इसलिए जो सोचते हैं उसे छुपा पाने में असमर्थ रहते हैं- एकाध बार पहले भी मिलना हुआ है इस बार भी मिले। एक धराप्रवाह तरीके से कल उन्होनें ब्‍लॉगिंग की सैद्धांतिकी का स्‍पष्‍ट खाका सामने रखा। वैसे साफ बताएं तो इतनी स्‍प्‍ष्‍टता हमें भयभीत करती है, कारण यह कि दुनिया में उतना स्‍पष्‍ट अब कुछ भी नहीं है इसलिए जिस सिद्धांतकार को साफ दिखाई देता है उसे जाहिर है पूरी तरह सही तो नहीं ही दिखाई दे रहा होगा- पर सही गलत को जानें दें- ब्‍लॉगिंग की जो सैद्धांतिकी कल आलोक जी ने ओजस्‍वी तरीके से प्रस्‍तुत की वह हमें इतनी अहम जान पड़ती है कि हम उसके उस रूप को सामने रख रहे हैं जो हमें समझ आया- वैसे 'नथिंग आफिसियल एबाउट इट' - ये उनकी सैद्धांतिकी की हमारी समझ भर है।


शैलेशजी की रिपोर्टिंग से शुरू करें-



आलोक पुराणिक ने ब्लॉगिंग के पीछे छिपे मार्केट का कांसेप्ट रखा। उनके अनुसार दुनिया की हर चीज़ मार्केट का पार्ट है। कोई अपना नाम एनजीवो रख लेता है, कोई अपना नाम ट्रस्ट के रूप में तो कोई व्यवसायिक उपक्रम के रूप में अभिव्यक्त करता है लेकिन सभी का उद्देश्य इस मार्केट से कुछ न कुछ कमाना है। कोई आत्म संतुष्टि कमाता है, कोई धन, कोई ऐश्वर्य तो कोई अटेन्शन। हर कोई कुछ न कुछ इस मार्केट से कमा रहा है। मार्केट है तो एंटी-मार्केट का भी अपना मार्केट है। हर कोई अपने-अपने ब्लॉग की , अपने-अपने एग्रीगेटर की दुकान लगाकर बैठा है।


अब जाहिर है कि ब्लॉगिंग के बाजार होने को आलोकजी की मोलिक उद्भावना तो कहा नहीं जा सकता फिर इसमें खास क्‍या है, खास है बाजार की प्रवृत्तियों का ब्‍लॉगिंग के परिदृश्‍य पर सांगोपांग निरूपण। आलोक जी ने अनुसार जीवन के लगभग किसी भी पक्ष को बातार की शब्‍दावली से समझा जा सकता है बशर्ते हम 'दुकान' शब्‍द से अनावश्‍यक आहत न हों। ये ब्‍लॉगिंग का बाजार भी हम सभी की दुकानों का बाजार है जो दुकानदार अपने ग्राहक समुदाय की सुतुष्टि का माल प्रस्‍तुत कर पाता है वही बचा रह पाता है। और यह भी कि 'जिसकी दुकान उसका विधान' यानि अमित ने थ्रेड बंद क्‍यों किया नारद ने अमुक को क्‍यों हटाया क्‍यों पोस्‍ट देर से दिखी...सब वेबकूफी भरी बातें हैं- अरे भई उनकी दुकान उनकी मर्जी- किसी एकाधिकार में ये अधिक हो पाता है अब कुछ कम क्‍योंकि नए एग्रीगेटर आ गए हैं पर वे भी वही करेंगे उनकी दुकानदारी के लिहाज से जिसे दिखाना होगा वे दिखाएंगे जिसे नहीं वे नहीं दिखाएंगे- और आप भी अगर अपनी दुकान के लिए कहीं दिखना चाहते हैं जो जाहिर है आप धोंसपट्टी सहेंगे वरना नहीं। जै रामजी की। पर आलोकजी फिर इतना हल्‍ला बोल क्‍यों ? अफलातून, मसिजीवी, अविनाश ....क्‍यों चिंहुँकते हैं....इसलिए कि इस चिहुँक की भी मार्केट है। लोगों की इस चिहुँक और हाय हाय में भी रुचि है सिर्फ इसलिए। ब्रांड कंसोलिडेशन के लिए जरूरी है कि हर कोई अपनी दुकान के तेवर को बनाए और अपनी ग्राहकी के फोकस्‍ड समूह को बचाए सखे और जैसे तैसे इसे बढ़ाने की कोशिश करे।


और हॉं अगर किसी को ये गलतफहमी है कि वह किसी 'निस्‍वार्थ सेवा' के चलते कोई काम बाजार में करता है तो वह मूर्ख है..है तो रहे पर ये न समझे कि दूसरे भी मूर्ख हैं और वे इस निस्‍वार्थता के मोह में आपके ग्राहक बने रहेंगे- कल के तह करके रखते आज रख दें- बाजार में बचेगा तो वही जो बाजार के अनुरूप होगा।
और ये अलग बात है कि बाजार की सभी चीजों की अनिवार्यत: मोनेटरी वैल्‍यू नहीं होती। दुकान पर रखा हर सामान बिकाऊ नहीं होता- आपकी निस्‍वार्थ सेवा या तो आतमसंतुष्टि के लिए होती है या इस या उस भावना के लिए पर है आपे ही लिए। साधु नहीं तो घुमाकर पर ये आपका स्‍वार्थ ही है। इसलिए हमने रातें कालीं की या हमने बीस दिन में तैयार कर सामने रख दिया ये सब न गिनाएं देखा तो ये ही जाएगा कि कुल मिलाकर प्रोडक्‍ट या सर्विस कैसी दे रहे हैं। जो ट्रस्‍ट या एन.जी.ओ. वाले घोषणा करते हैं कि लाभ के लिए नहीं है तो लाभ ऐसा नहीं तो वैसा होगा। आल नहीं तो दस साल बाद होगा।


पर घुघुती का क्या करें जिन्‍हें तकलीफ है कि नारद के, परिचर्चा के इस व्‍यवहार से, जो किसी गला काट में शामिल नहीं होना चाहतीं- भई ये तो उनकी परेशानी है जिससे हमें तकलीफ हो सकती है पर इस वजह से बाजार अपना रुख नहीं बदलेगा- मतलब बाजार नाम सत्‍य है- ये अटेंशन, धन, प्रभाव, सम्‍मान भले ही किसी मुद्रा में धंधा करे पर है धंधा ही।


अलोक पुराणिकजी की ब्‍लॉग सैद्धांतिकी के कुछ पक्ष हो सकता है छूट भी गए हों- पर मूल बात इसी के आस पास थी।


अब सवाल ये कि ये तो आलोकजी के विचार हुए आप कितना सहमत हैं- भई हम तो भूपेन के आस पास थे, आलोकजी की सैद्धांतिकी से सहमति है पर पूरी तरह तो हम खुद से भी सहमत नहीं होते (प्रमोदजी से उधारी ली हुईग्‍ अभिव्‍यक्ति) तो आलोकजी से क्‍या खाक होंगे पर ये खूब मजेदार रहा कि समाजवादियों का लोकतंत्र के लिए संघर्ष तक यहॉं एक उत्‍पाद बन गया....जय गूगल...जय ब्‍लॉगर....जय अलोक पुराणिक।



न्‍यूयार्क से एक रोचक रपट, बरास्‍ता रिपुदमन पचौरी

हमारे मित्र व कवि एवं चिट्ठाकार रिपुदमन आजकल न्‍यूयार्क में हैं, सम्‍मेलन पर नजर रखने के लिए। आग्रह पर उन्‍होंने यह रपट भेजी है- आनंद लें-

आठवे विश्व हिन्दी सम्मेलन के दूसरे दिन का प्रारंभ दो बहुत ही रोचक विषयों के समानांतर सत्रों से हुआ। "विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्य)" तथा "हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका" । कुछ लोग दोनों सत्रों को सुनने के लिए एक सभागार से दूसरे में भागते नज़र आए। प्रथम सत्र की अध्यक्षता डा. इंदिरा गोस्वामी ने करी। वहीं दूसरी ओर "हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका" के सत्र में डा. अशोक चक्रधर अध्यक्ष एवं बालेन्दु शर्मा दधीचि नें संचालक की भूमिका निभाई।

इधर पिछले कुछ समय से प्रवासी लोग बड़ा साहित्य साहित्य करने लगे हैं, वहीं देखा जाए तो विदेशों में होने वाले साहित्य सृजन को हमारे आलोचक साहित्य मानने से इंकार करते आए हैं। साहित्य तो वही है जो कि काफी टेबल पर चुस्कियाँ लेते हुए तथा संस्कृति को गरियाते हुए लिखा जाए। एक और बात है हमारे यहाँ कि साहित्यिक मानसिकता में, जब तक कोई व्यक्ति या तो बहुत ग़रीबी में जीवन यापन न कर रहा हो अथवा बहुत अमीर न हो उससे साहित्य की अपेक्षा करना मुश्किल होता है। मध्य वर्ग तथा विदेशों में बसे प्रवासी इस परिधि के बाहर आते हैं अतः वे लिख तो सकते हैं पर उसे साहित्य कहना सही नहीं होगा।

पिछले एक दशक में अमरीका, इंगलैन्ड आदि देशो में हिन्दी साहित्य में सृजन का विस्फोट हुआ है। कविता, कहानी, उपन्यास, लेख, रेडियो नाटक सभी विधाओं में प्रवासी साहित्य की रचना हुई है। इसी काल में यहां न्यू यार्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन एवं अन्य हिन्दी सम्मेलन भी आयोजित किये गये हैं। एक लम्बे अर्से से अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति की बहुत सी शाख़ायें अमरीका में रचनात्मक कार्य करने में जुटी हैं। हिन्दी को अमरीकी विश्वविद्यालयों में अतिरिक्त विषय के रूप में पढा़या जाये इस दिशा में भी बहुत से प्रयास किये गये हैं। परंतु इन सब बातों से यह तो तय नहीं हो जाता कि प्रवासीजन लिख भी सकते हैं। विषय गर्मा गर्म था तथा सत्र में चटपटी बहस हुई। कई बार तो झगड़े तक की नौबत आ गई पर अंततः मार पीट नहीं हो सकी।

"हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका"  सत्र और भी रोचक रहा। इसमें हिंदी के टाईप राईटर बनाए जाने पर खूब विचार विनिमय हुआ। यह अलग बात है कि वहाँ उपस्थित कोई भी इस बात से अवगत नहीं था कि हिंदी के अनेक प्रकार के की बोर्ड बाजार में बिक रहे हैं। चक्रधर जूनियर नें मानकी करण की बात करी तो वहीं चक्रधर सीनियर नें इसका अनुमोदन किया। इसमें यह बात भी सामने आई कि सन २०१० तक हिन्दी अंग्रज़ी को पीछे छोड़ देगी। किस मामले में यह घटना घटेगी अभी यह शोध का विषय है। इसी सत्र में अमिताभ बच्चन द्वारा फ्री में हिन्दी कीबोर्ड के प्रयोग का विज्ञापन करने का तथ्य उजागर हुआ तथा यह भी पता चला कि अंग्रेज़ी शीघ्र हिंदी की चाकरी शुरू करने वाली है। सत्र के अंत में हुई बहसबाजी नें पूरे वातावरण को संसद भवनात्मक कर दिया।

"हिन्दी फ़िल्मों का हिन्दी के पचार प्रासार योगदान" का सत्र भोजन के बाद शुरु हुआ। इसके सबसे रोमांचक सत्र होने की संभावना थी परंतु ऐसा हो न सका। सत्र की अधय्क्षता हिन्दी फ़िल्मों के जानेमाने लेखक, निर्देशक श्री गुलज़ार ने करी। इस सत्र में शुरुआत से ही हंगामा होता रहा। प्रथम तो संचालक मोहोदय की अनुपस्थिति से एक श्रोता अति व्यथित हो गए व उन्होंने रौद्र रूप धारण कर घोषणा कर डाली की अगर गलती से संचालक महोदय दिखाई भी दिये तो उन्हे मंच पर चढ़ने न दिया जाए।
सत्र में फ़िल्मी जगत से आये प्रतिनिधियों का आभाव रहा, सो फ़िल्मी जगत का प्रतिनिधित्व गुलज़ार ने अकेले ही किया। पंकज उधास भी अपनी ग़लतफहमी के साथ बालीवुड को हिन्दी चलचित्र जगत बनाते नज़र आए। सत्र में मंच पर बैठे सुधिजनो ने अपने जो "सो काल्ड"  शोध पत्र पढे़, वे अधिकतर अशुद्ध हिन्दी में ही पढे़, जिससे पता चल सके कि हिन्दी की स्थिति अतयंत ही दयनिय है और अब सिर्फ़ हिन्दी फ़िल्में ही हिन्दी का उद्धार कर सकती हैं। एक वक्ता के गुलज़ार को गुलजार के नाम से पुकारे जाने पर दर्शकों में बैठी गुलज़ार की एक प्रमिका बिदक गईं। उनका कहना था कि गुलज़ार को गुलजार कहना ठीक नहीं! वे तो एक लेजेन्ड हैं। हां भाई माना की वे एक लेजेन्ड हैं किन्तु "चाचा" को "चाचा" ना कहें तो क्या भतीजा कहें!!! रही बात नुक्ते की तो हर कोई नुक्ताचीनी करने में दक्ष नहीं होता है। 'श' को 'स' तथा 'ज़' को 'ज' करना हमारी परंपरा में मिठास का प्रतीक है।
जिस समय एक ओर फिल्मों की बात चल रही थी तो वही दूसरी ओर "हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान-विज्ञान" सत्र अपनी पूरी गति से भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर था।

दूसरे दिन के रहस्यमयी भोजन नें भी अनेक संभागियों को चकित किया। लन्च में कढ़ी मीठी रही तो वहीं डिनर में लोग जिस चीज़ को रसमलाई अथवा रबड़ी समझ कर अंत तक थाली में बचाए रहे वह नमकीन निकली। इसी प्रकार दिन के सभी कार्यक्रम रहस्यमयी तथा नया स्वाद समेटे हुए रहे।

दिन की समाप्ति पर उस्ताद शुजात हुसैन खान नें ऐसा जबरदस्त सितार बजाया कि सोने वालों की नींद भाग गई तथा माईक की बेवफाई के बावजूद श्रोताओं की मोहब्बत तालियों की गड़गड़ाहट में गूँजती रही। सितार वादन के बाद हुए भरतनाट्यम के कार्यक्रम नें सभी को दुबारा सुला दिया। छिटपुट तनातनी और मनमुटाव के मध्य सम्मेलन का दूसरा दिन अपने उत्कर्ष पर पहुँच कर पूर्ण हो गया।

Saturday, July 14, 2007

हिंदी ब्‍लॉगिंग का साधुवाद युग अब बीत गया

 

दिल्‍ली में ब्‍लॉगरवार्ता हुई, जमकर हुई। उसकी रपट अभी बनी नहीं है क्‍योंकि अभी उसे जज्‍़ब ही कर रहे हैं- पच जाएगा तो देखेंगे कि रपट बनती है कि नहीं। शामिल लोगों को लिंक देने का दायित्‍व बनता है सो हमने अंग्रेजी में दे ही दिया है। वैसे इसे हमारी वार्ता रपट न माना जाए

एक अच्‍छी बात कि जो बातचीत हुई उसके गंभीर हिस्‍से में एग्रीगेटरों पर तो बात हुई ही पर उससे आगे की भी बात हुई। काफी देर तक तब गंभीरता की प्रतिमूर्ति बने सृजन हिंदी के चिट्ठापाठक बढ़ाने की जिद पाले हुए थे तो कई बातें सामने आईं।

एक बात साफ तौर पर यह दिखी कि कोई भी एग्रीगेटरों के भरोसे नहीं रहना चाहता सब सर्च इंजनों की ओर ताक रहे थे। राजेश ने बताया कि शकीरा इसका इलाज है। अपनी अल्‍पज्ञता छिपा सकता हूँ पर सच कहूँ, मुझे नहीं पता कि शकीरा है कौन :(   पर संदर्भ से कह सकते हैं कि कोई सुंदरी उंदरी होंगी- राजेश ने बताया कि शकीरा की तस्‍वीर वाली उनकी पोस्‍ट पर लोग बेतहाशा पहुँचे- इसलिए हमें ऐसा लिखना चाहिए कि कुछ खोजते लोग भटक कर इधर भी आ जाएं। मैटा टैग व भ्रमित करते टैग देने पर भी बात हुई, जब न रुका गया तो शायद अविनाश ने कहा कि भई बहला कर क्‍यों लाते हो- सर्च इंजिन समझदार बनते जा रहे हैं इसलिए उसको किनारा करने से अच्‍छा है कि जैन्‍यूअनली कंटेंट उपलब्ध कराया जाए और फिर आई असली बात.... और वह ये कि भाषा, विवाद, इस उस के डर से जो लिखने में कोताही करेगा उसके कंटेट की किसी को दरकार नहीं। फिर पंचलाइन आई कि हिंदी ब्‍लॉगिंग का साधुवाद युग अब बीत गया। समीरजी तो हो गए बेरोजगार :)

 

Friday, July 13, 2007

दिल्‍ली में बेतकल्‍लुफी के कुछ अड्डे

जब हम कानपुर गए तो हमने अपनी शिकायत ब्‍लॉग पर दर्ज की कि समय की कमी कहो या जो कुछ पर हमें शहर के वो अड्डे नहीं मिल पाए जिनमें हमारी खास रुचि रही है। ये अड्डे किसी भी शहर को उसका असली मिजाज दे पाते हैं और शहरवासियों को उनकी स्मृतियॉं। स्‍मृति भी दरअसल एक टाईम-स्‍पेस प्रकार्य (फंक्शन) ही है इसलिए जब कोई स्‍पेस उससे जुड़ जाता है तो वह शब्‍दों में व्‍यक्‍त हो पाने की अहर्ता प्राप्‍त करती है। हम हिंदी चिट्ठाकारों में उस छोटे से क्‍लब से जो अपने साथ कोई कस्‍बाई, ग्रामीण, आंचलिक अतीत नहीं समेटे हैं अत: हमारी गोद में कोई अमराई यादों की प्रत्‍यक्षाई पोटली नहीं बंधी है पर फिर भी न तो इसका कोई अफसोस महसूस होता है न ही भाषाई या अनुभव के मामले में वंचित होने का ऐसा गहरा अभास ही हमें होता है। मेरे या मुझ जैसे एक ठेठ दिल्‍लीवाले के पास अनामदास, प्रियंकर, प्रमोद से शायद एक बड़ी थैली भर कम शब्‍द होंगे पर उनका दोष मेरा शहराती अनुभव नहीं वरन कमजोर अवलोकन रहा होगा। वरना इस शहर की फिज़ा में शब्‍द बोलियॉं तो कम न थीं न ही हम किसी एमबीए की गर्दनतोड़ तैयारी में जुटे की ध्‍यान न दे सके...पर कुल मिलाकर बात ये कि इस शहर दिल्‍ली में केवल डेंगू के मच्छर ही अपने पनपने के लिए टायर और प्‍लास्टिक के डब्‍बे नहीं ढूंढ लेते है वरन भाषा, यारबाशी, निठल्‍लई, मुबाहिसे के लार्वा पनपने की गुजाईश भी इस शहर में है और जम के हैं- हर किस्‍म के हैं। प्रेस क्लब, मंडी हाउस, आई आई सी किस्‍म के पूरी तरह संस्‍थाई अड्डे तो खैर हैं ही पर शहर तो बसता है इसके बाशिंदों के हाथों जमे नुक्‍कड़ वाले अड्डों में।

इन्‍हीं टूरिस्‍ट गाइडों में दर्ज न होने वाले कितने ही अड्डों पर हमने टनों वकत बिताया है। भड़ास निकाली हैं और अपने ही 'दूर की सोची' टाईप विचारों पर खुद ही मुग्‍ध हुए हैं। हैरान हुए हैं कि कमाल है दिल्‍ली की लड़केयॉं अगर इन अड्डों से नदारद हैं तो वे भला क्‍या खाक जिंदगी जी रही है। अपने जनसत्‍ताई लेखों के पहले ड्राफ्ट का सस्‍वर पाठ करते हुए दोस्‍तों को सुना सुनाया है।

 



संस्‍थाई अड्डे की बात करें तो मोहन सिंह प्‍लेस के काफी हाऊस को लें- दिल्‍ली में एक फक्‍कड़ खुशनुमा शाम बिताने के लिए ये शानदार जगह है। रिवोली के पीछे स्थित मोहन सिंह प्‍लेस अपनी अंधियारी दुकानों के लिए जाना जाता है जहॉं आप एक सस्‍ती जींस सिलवा सकते हैं- अपनी पसंद से। इसी इमारत की चौथी मंजिल के टेरेस पर हैं- इंडियन कॉफी हाऊस। शाम को यहॉं बरसों से बैठकबाजी होती रही है। अकसर गर्म बहसों में काफी ठंडी होने के नजारे यहॉं दिखते रहे हैं। कभी आइए...

 

आलोकजी लीजिए चिट्ठाकार विरह खत्‍म हुआ

अमित आजकल कार्टून पर हाथ साफ कर रहे हैं । कार्टून और व्‍यंग्‍य की विधा की खास बात यह है कि यूँ तो आप लिख या बना रहे होते हैं पर हाथ के हाथ, हिसाब भी बराबर कर सकते हैं। ये पूरा सृजन ही होता है एक स्‍माईली, बेचारा पिटने वाला बुरा नहीं मान सकता। कार्टूनिस्‍ट से बुरा मानने वाला बुरा माना जाता है। अब पिछले दिनों अमित ने ये कार्टून बनाया।


blogging addiction


अब जो बेचारे लल्‍लू के पापा सच में पोस्‍ट डालते ही तडफने लगते हैं कि एग्रीगेटर पर दिखे तुरंत दिखे वे तो जाहिर है बुरा महसूस कर रहे होंगे, अरुण होते तो छट मेल भेज देते। इसी व्‍याधि से दु:खी एक अन्‍य प्राणी ने ब्‍लॉगवाणी के सौहर पर ही पुकार लगा दी ये हैं चिट्ठाकारी के सुपरस्‍टार इन वेटिंग आलोक पुराणिकजी- ये भी व्‍यंग्‍यकार हैं वही ‘जूता इन स्‍माइली’ विधा के रचनाकार। इन्‍होंने ब्‍लॉगवाणी के विमोचन पर अपनी राय रखी-




रंग संयोजन बहुत धांसू है। फास्ट खुलता है। बस एक चीज का ध्यान रखियेगा कि ब्लागर का विरह टाइम कम होना चाहिए। दरअसल ब्लागर चाहता तो यूं है कि उसके दिमाग में जब पोस्ट छपती है, तब ही ब्लाग एग्रीगेटरों पर आ जाये। पर चलिए इतनी छूट वह देने को तैयार होता है, ब्लाग पर पोस्ट डालने के बाद पांच-सात मिनट में पोस्ट आ जाये, ब्लागर-विरह समय कम होगा, तो ठीक होगा। ब्लागरों की दुनिया में आपका स्वागत है। शुभकामनाएं।


तो भैया पता नहीं मैथिलीजी ने ये कैसे किया है- बताएंगे तो भी अपने को समझ में नहीं आएगा- देबाशीष दादा और अमित समझ सकते हैं इसलिए समझें, पर ब्लॉगवाणी ने ये कर दिखाया है।





जी ब्‍लॉगवाणी ने एक टैग बनाया है जिसे अपने ब्‍लॉग पर चेप लीजिए और पोस्टियाते ही इस टैग्‍ा पर जो खुद आपके ब्‍लॉग पर है, क्लिक कीजिए और ...जादू.. आपकी पोस्‍ट एग्रीगेटर पर सबसे ऊपर विराजमान दिखेगा। वो घंटों का इंतजार वो षडयंत्र का आरोप लगाने की सुविधा सब खत्‍म हो गई। अब बेचारे अरुण पंगेबाज क्‍या करेंगे- किसे कहेंगे कि हमसे भेद भाव होता है। पर एक दिक्‍कत है हमने देखा कि पोस्‍ट करने के बाद टैग को क्लिक करने में भी 5-7 सेंकेंड लग जाते हैं- उतना विरह तो झेलना ही पड़ेगा चिट्ठाकारों को।

हमने इस टैग को अपने ब्‍लॉग पर चेप लिया है, अब इसमें कोई स्‍पाईवेयर (देबू दादा ने कुछ बताया तो था अपनी पोस्ट में पर हमें पता नहीं कि क्‍या होता है..) हो तो हो , हमारे बारे में ऐसा क्‍या है जो लोग हमसे पूछें तो हम नहीं बताएंगे। हमारा टैग यहॉं है और पोस्‍ट तैयार है। आप भी आ जाएं मैदान में।

Thursday, July 12, 2007

विश्‍व हिंदी सम्मेलन से क्‍या उम्‍मीद रखें


विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन समय समय पर होने वाले एक बहुत बड़ा अनुष्‍ठान है। इस बार ये न्‍यूयार्क में बस कल ही शुरू होने ही वाला है। हमने एक पिछली पोस्‍ट में समर्थ चिट्ठाकारों से आग्रह किया था कि यथासंभव अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं। बाकी हिंदी प्रेमियों की ही तरह हम भी इस तरह के आयोजनों को लेकर थोड़े बहुत असमंजस में तो होते ही हैं लेकिन जैसा पहले कहा था कि अब वह उम्र नहीं रही कि सिनीकल होकर कहें कि देश भर के हिंदी माफिया, सरकारी खर्च पर इकट्ठे होकर पहुँच रहे हैं, नेता, पत्रकार, प्रोफेसर, आलोचक, ....। भले ही इसका अधिकांश सच हो फिर भी अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर हिंदी का इतना बड़ा उत्‍सव है तो स्‍वागतयोग्‍य ही।


सम्‍मेलन की अधिकारिक बेवसाईट यहॉं है। तथा सम्‍मेलन का कार्यक्रम भी वहीं है। कम से कम कुछ चिट्ठाकार तो वहॉं हैं ही। चकल्‍ल‍स वाले अशोक चक्रधर तो मुख्‍य कर्ता धर्ता हैं ही। अनुगूंज के रिपुदमन भी रहेंगे ऐसा उन्‍होंने बताया। अशोकजी वहॉं सम्‍मेलन समाचार निकालने वाले हैं जिसके लिए एक टीम बाकायदा वहॉं जिससे हमें उम्‍मीद है कि सम्‍मेलन की कार्यवाही की रपट निरंतर मिलती रहेगी। हमें मिलेगी तो हम ब्‍लॉग पर डालेंगे।


अब रह गया ये सवाल कि वहॉं हिंदी चिट्ठाकारी पर बात होगी कि नहीं और अगर होगी तो उसकी दिशा क्‍या होगी। इस प्रकार के बड़े सम्‍मेलनों में हर पक्ष को अपनी बात पर ध्‍यान आकर्षित के लिए बहुत लॉबिंग करनी पड़ती है- तो चिटृठाकार मित्र अगर खुद वहॉं पहुँच रहे हैं तो भी वरना जो पहुँच रहे हैं उन तक आवाज पहुँचाई जाए कि चिट्ठाकारी को इस मंच का समर्थन मिल सके।