शहर को समझना यूँ ही काफी जटिल काम है, कई लोग इसमें खप गए और खपेंगे, हमारी भला क्या बिसात। इसलिए हम जब शहर पर नजर डालते हैं तो कतई राजी नहीं होते कि शहर को अर्बन प्लानरों की नजर से देखें हम तो ठेठ अपनी नजर डालते हैं। इसलिए जब शिवम ने इमारतों वाले शहर के विषय में लिखा कि आत्महत्या का मसला - सातवें माले से कूद पड़ना- खुदकशी नहीं है ये तो शहर का मिजाज है- किसी शहरी को लग सकता है कि शहर चपटा हो गया है और वह ऊंचाई के आयाम को बिल्कुल भूलकर चलता हुआ आगे जा सकता है। ये शहर से बेतरतीबी के लुप्त हो जाने की फंतासी है।
यह शहर में जंगल खोजना ही नहीं। ये शहर में बावड़ी खोज लेना भी है जो अंधेरे के हिलोरते जल तक ले जाते हैं
शहर में अंधेरा जल बनता है तो केवल बावड़ी की तरह ठहरा हुआ ही नहीं होता वरन बहुधा वह एक लहराता समुद्र भी होता है- प्रकाश-स्तंभों से भरा हुआ।
और काल यहॉं खुद ठहरता है नाप-तौल कर।
5 comments:
अब आप फोटो ब्लागिंग शुरू कर रहे हैं. अच्छी सी फोटो पर संक्षिप्त सी कमेन्टरी, पाठक का काम चटपट खत्म.
प्रभाव तब भी आशाजनक.
सही है.
बढ़िया खोये.
तरतीब की बेतरतीबी ? शहर आखिर शहर ही है ।
मास्साब फोटो अच्छी है कमेंट्री भी अच्छी है,पर स्कूल खुल गये है और ऐसे मे आप इधर उधर घूम रहे है..हमे ऐसे मे देश के भविष्य का ख्याल आ रहा है ऐसे मे बच्चे आप से अगर यही शिक्षा ले बैठे,और बाईक पर सहपाठी/पाठिन को घुमाने निकल पडे तो....फिर आप ही कमिया निकालते हुये कुछ लिख डालेगे..तब...जरा सौचे...:)
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