हिंदी पढाना इस मायने में मजेदार है कि आप बीकाम, पढ़ाए या बीए या फिर बीए आनर्स, घुमा-फिराकर आपको वही पढ़ाना होता है। एकाध उपन्यास, सूर, तुलसी...। अब हम कितना भी खम ठोंककर कहें कि हिंदी का साहित्य महान रचनाओं से भरा पड़ा है पर सच्चाई बिल्कुल अलग है। मसलन उपन्यास को लें- हमेशा की तरह सत्र के शुरू में मैं सुनिश्िचत करता हूँ कि जो उपन्यास पढ़ाने के लिए मिले उसे पढ़ लूं, भले ही पहले कितनी ही बार पढ़ रखा हो। इस बार द्वितीय बर्ष आनर्स में गोदान पढ़ाना है इसलिए आजकल गोदान पढ़ा जा रहा है- पहले कई बार पढ़ा है, हमारे बीए के पाठ्यक्रम में था, एमए के पाठ्यक्रम में था, एमफिल में था, यूपीएससी में था और भी न जाने कहॉं कहॉं है। स्वाभाविक सिनिसिज्म के साथ पाठ्यक्रम निर्माताओं को कोसते हैं पर जानते हैं कि वे करें भी तो क्या। हिंदी में पाठ्यक्रम लायक उपन्यास हैं ही कितने ?
मुझे पता है इस कथन को व्यक्त करने के जोखिम। आप शायद दस बीस या शायद चालीस-पचास रचनाएं सुझाने की जल्दी में होंगे पर जरा रुकें- पहले समढ लें कि बीए, बीकॉम पास/आनर्स, बीए आनर्स, एमए आदि में कुल मिलाकर उपन्यास वाली कक्षाओं की संख्या 12-15 बन जाती है यानि कुल मिलाकर 20-30 उपन्यासों की जरूरत पड़ेगी और पाठ्यपुस्तक श्रेणी के लिए आप जानते हैं
कि बिल्कुल नया, बहुत पुराना, गैर प्रसिद्ध, विवादित, भाषा में एक भी गाली वाला, स्त्री, दलित, अल्पसंख्यकों के प्रति किसी भी दुर्भव के शब्दों वाला, बहुत कठिन, बहुत आसान, गैर प्रासंगिक, बहुत पतला, बहुत मोटा उपन्यास नहीं लगाया जा सकता :)))) अब बचा क्या। हर रचना इस मापदंड पर खरी उतरेगी तो उस पर खोटी। एकाध उपन्यास सब तरह से सही मिल भी जाए तो 20-30 कहॉं से मिलें। मिल भी जाएं तो वो पहले ही इस या उस जगह के पाठ्यक्रम में होंगे और पाठ्यक्रम निर्माता बेचारे 'अमौलिक' करार दे दिए जाएंगे।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मापदंडों की तो फिर भी अवहेलना हो जाए तो कोई बात नहीं पर अर्थव्यवस्था की नहीं हो सकती- आखिर वह बेस स्ट्रकचर है भई- इसलिए उपन्यास ऐसे प्रकाशक का होना चाहिए जिसमें कोई दम हो। तो इस सारे प्रकरण का परिणाम ये है कि वही गोदान, आपका बंटी, रंगभूमि आदि आदि।
कितना अच्छा हो साल के शुरू में विद्यार्थियों के साथ बैठकर ये तय करने का अख्तियार हमें हो कि हम कौन सा उपन्यास पढ़ाएंगे- परीक्षा में उपन्यास सामान्यत: विद्यार्थी की आलोचना क्षमता की परख हों मसलन- पढें हुए किसी उपन्यास के आधार पर समाज व साहित्य के संबंध पर अपने विचार व्यक्त करें- खैर बेकार की खामख्याली है... पाठ्यक्रम से नहीं आने वाली जो नवीनता लानी है खुद ही शिक्षण पद्धति से ही लानी होगी। ठीक है...फिर पढ़ते हैं वही गोदान... फिर से।
5 comments:
देखिये सरकार आपका कितना ख्याल रखती है ,अगर हर बार नये उपन्यास दे दे तो आपको पढ कर जाना होगा.हर बार नये नोट्स बनाने होगे.हर बार नये लेखक को पढ कर उसकी कला मृ्म को जानना फिर बच्चो को बताना कितना कठिन काम है ,और अब जो बच्चा क्लास मे अच्छा हो उसके नोट अगले साल बच्चो को पढाकर काम चल जाता है, ये ठीक है कि आपके पास बहुत वक्त है और आप नये की तैयारी कर लेगे लेकिन बाकी मास्टर साहब आप की तरह फ्री कहा है..काहे उनके लिये आप समस्या पैदा करने की कोशिश कर रहे हौ..कोई और रचनात्मक कार्य कीजीये कालेज के शिक्षक संघ मे भाग लीजीये.चाहे तो हमारा लेख पढ कर प्रेरणा ले लीजीये इस पर कोई चार्ज हम नही करते है
ठीक है फिर, बहुत शुभकामनायें. पढ़िये और पढ़ाईये वही गोदान -साल दर साल. शायद कभी फेर बदल हो. विचार अच्छे हैं मगर शिक्षा प्रणाली के प्रति कितने लोग सजग हैं, जो जहमत उठायेंगे?
मास्टर साहब, ये रोना बेकार का है। जितने भी धांसू अध्यापक रहे हैं वे कोर्स का पढ़ाने के बहाने दुनिया भर का ज्ञान ठेलते रहे अपने शिष्यों में।:)
ऐसे विवश से क्यूं दिख रहें है गुरुवर!
आखिर हम भी तो पाठ्यक्र्म से हट कर ही पढ़ रहे हैं ना :) जैसा आप चाहते हैं बिलकुल वैसे ही ! इसमें व्यवस्था क्या करेगी, आप बस विद्यार्थी चुन लें, और अपना मन पसंद ही पढ़ायें।
jis tarah se aapne hindi ki katu aalochna kar di isse pata chalta hai ki aap hindi se kitna darte hai
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