Sunday, July 15, 2007

न्‍यूयार्क से एक रोचक रपट, बरास्‍ता रिपुदमन पचौरी

हमारे मित्र व कवि एवं चिट्ठाकार रिपुदमन आजकल न्‍यूयार्क में हैं, सम्‍मेलन पर नजर रखने के लिए। आग्रह पर उन्‍होंने यह रपट भेजी है- आनंद लें-

आठवे विश्व हिन्दी सम्मेलन के दूसरे दिन का प्रारंभ दो बहुत ही रोचक विषयों के समानांतर सत्रों से हुआ। "विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्य)" तथा "हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका" । कुछ लोग दोनों सत्रों को सुनने के लिए एक सभागार से दूसरे में भागते नज़र आए। प्रथम सत्र की अध्यक्षता डा. इंदिरा गोस्वामी ने करी। वहीं दूसरी ओर "हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका" के सत्र में डा. अशोक चक्रधर अध्यक्ष एवं बालेन्दु शर्मा दधीचि नें संचालक की भूमिका निभाई।

इधर पिछले कुछ समय से प्रवासी लोग बड़ा साहित्य साहित्य करने लगे हैं, वहीं देखा जाए तो विदेशों में होने वाले साहित्य सृजन को हमारे आलोचक साहित्य मानने से इंकार करते आए हैं। साहित्य तो वही है जो कि काफी टेबल पर चुस्कियाँ लेते हुए तथा संस्कृति को गरियाते हुए लिखा जाए। एक और बात है हमारे यहाँ कि साहित्यिक मानसिकता में, जब तक कोई व्यक्ति या तो बहुत ग़रीबी में जीवन यापन न कर रहा हो अथवा बहुत अमीर न हो उससे साहित्य की अपेक्षा करना मुश्किल होता है। मध्य वर्ग तथा विदेशों में बसे प्रवासी इस परिधि के बाहर आते हैं अतः वे लिख तो सकते हैं पर उसे साहित्य कहना सही नहीं होगा।

पिछले एक दशक में अमरीका, इंगलैन्ड आदि देशो में हिन्दी साहित्य में सृजन का विस्फोट हुआ है। कविता, कहानी, उपन्यास, लेख, रेडियो नाटक सभी विधाओं में प्रवासी साहित्य की रचना हुई है। इसी काल में यहां न्यू यार्क में विश्व हिन्दी सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन एवं अन्य हिन्दी सम्मेलन भी आयोजित किये गये हैं। एक लम्बे अर्से से अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति की बहुत सी शाख़ायें अमरीका में रचनात्मक कार्य करने में जुटी हैं। हिन्दी को अमरीकी विश्वविद्यालयों में अतिरिक्त विषय के रूप में पढा़या जाये इस दिशा में भी बहुत से प्रयास किये गये हैं। परंतु इन सब बातों से यह तो तय नहीं हो जाता कि प्रवासीजन लिख भी सकते हैं। विषय गर्मा गर्म था तथा सत्र में चटपटी बहस हुई। कई बार तो झगड़े तक की नौबत आ गई पर अंततः मार पीट नहीं हो सकी।

"हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका"  सत्र और भी रोचक रहा। इसमें हिंदी के टाईप राईटर बनाए जाने पर खूब विचार विनिमय हुआ। यह अलग बात है कि वहाँ उपस्थित कोई भी इस बात से अवगत नहीं था कि हिंदी के अनेक प्रकार के की बोर्ड बाजार में बिक रहे हैं। चक्रधर जूनियर नें मानकी करण की बात करी तो वहीं चक्रधर सीनियर नें इसका अनुमोदन किया। इसमें यह बात भी सामने आई कि सन २०१० तक हिन्दी अंग्रज़ी को पीछे छोड़ देगी। किस मामले में यह घटना घटेगी अभी यह शोध का विषय है। इसी सत्र में अमिताभ बच्चन द्वारा फ्री में हिन्दी कीबोर्ड के प्रयोग का विज्ञापन करने का तथ्य उजागर हुआ तथा यह भी पता चला कि अंग्रेज़ी शीघ्र हिंदी की चाकरी शुरू करने वाली है। सत्र के अंत में हुई बहसबाजी नें पूरे वातावरण को संसद भवनात्मक कर दिया।

"हिन्दी फ़िल्मों का हिन्दी के पचार प्रासार योगदान" का सत्र भोजन के बाद शुरु हुआ। इसके सबसे रोमांचक सत्र होने की संभावना थी परंतु ऐसा हो न सका। सत्र की अधय्क्षता हिन्दी फ़िल्मों के जानेमाने लेखक, निर्देशक श्री गुलज़ार ने करी। इस सत्र में शुरुआत से ही हंगामा होता रहा। प्रथम तो संचालक मोहोदय की अनुपस्थिति से एक श्रोता अति व्यथित हो गए व उन्होंने रौद्र रूप धारण कर घोषणा कर डाली की अगर गलती से संचालक महोदय दिखाई भी दिये तो उन्हे मंच पर चढ़ने न दिया जाए।
सत्र में फ़िल्मी जगत से आये प्रतिनिधियों का आभाव रहा, सो फ़िल्मी जगत का प्रतिनिधित्व गुलज़ार ने अकेले ही किया। पंकज उधास भी अपनी ग़लतफहमी के साथ बालीवुड को हिन्दी चलचित्र जगत बनाते नज़र आए। सत्र में मंच पर बैठे सुधिजनो ने अपने जो "सो काल्ड"  शोध पत्र पढे़, वे अधिकतर अशुद्ध हिन्दी में ही पढे़, जिससे पता चल सके कि हिन्दी की स्थिति अतयंत ही दयनिय है और अब सिर्फ़ हिन्दी फ़िल्में ही हिन्दी का उद्धार कर सकती हैं। एक वक्ता के गुलज़ार को गुलजार के नाम से पुकारे जाने पर दर्शकों में बैठी गुलज़ार की एक प्रमिका बिदक गईं। उनका कहना था कि गुलज़ार को गुलजार कहना ठीक नहीं! वे तो एक लेजेन्ड हैं। हां भाई माना की वे एक लेजेन्ड हैं किन्तु "चाचा" को "चाचा" ना कहें तो क्या भतीजा कहें!!! रही बात नुक्ते की तो हर कोई नुक्ताचीनी करने में दक्ष नहीं होता है। 'श' को 'स' तथा 'ज़' को 'ज' करना हमारी परंपरा में मिठास का प्रतीक है।
जिस समय एक ओर फिल्मों की बात चल रही थी तो वही दूसरी ओर "हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान-विज्ञान" सत्र अपनी पूरी गति से भगवत प्राप्ति की ओर अग्रसर था।

दूसरे दिन के रहस्यमयी भोजन नें भी अनेक संभागियों को चकित किया। लन्च में कढ़ी मीठी रही तो वहीं डिनर में लोग जिस चीज़ को रसमलाई अथवा रबड़ी समझ कर अंत तक थाली में बचाए रहे वह नमकीन निकली। इसी प्रकार दिन के सभी कार्यक्रम रहस्यमयी तथा नया स्वाद समेटे हुए रहे।

दिन की समाप्ति पर उस्ताद शुजात हुसैन खान नें ऐसा जबरदस्त सितार बजाया कि सोने वालों की नींद भाग गई तथा माईक की बेवफाई के बावजूद श्रोताओं की मोहब्बत तालियों की गड़गड़ाहट में गूँजती रही। सितार वादन के बाद हुए भरतनाट्यम के कार्यक्रम नें सभी को दुबारा सुला दिया। छिटपुट तनातनी और मनमुटाव के मध्य सम्मेलन का दूसरा दिन अपने उत्कर्ष पर पहुँच कर पूर्ण हो गया।

5 comments:

Sanjeet Tripathi said...

वाह हिन्दी, आह सम्मेलन!!

Neelima said...

अर्थात हिंदी प्रेमियों को इस सम्मेलन से जो 'उम्मीदें' थी वे सब पूरी हो रही हैं :) वाकई वाह हिंदी आह सम्मेलन!

ePandit said...

साहित्य तो वही है जो कि काफी टेबल पर चुस्कियाँ लेते हुए तथा संस्कृति को गरियाते हुए लिखा जाए।

हा हा, खूब सही कहा।

"हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका" सत्र और भी रोचक रहा। इसमें हिंदी के टाईप राईटर बनाए जाने पर खूब विचार विनिमय हुआ। यह अलग बात है कि वहाँ उपस्थित कोई भी इस बात से अवगत नहीं था कि हिंदी के अनेक प्रकार के की बोर्ड बाजार में बिक रहे हैं। चक्रधर जूनियर नें मानकी करण की बात करी तो वहीं चक्रधर सीनियर नें इसका अनुमोदन किया। इसमें यह बात भी सामने आई कि सन २०१० तक हिन्दी अंग्रज़ी को पीछे छोड़ देगी। किस मामले में यह घटना घटेगी अभी यह शोध का विषय है। इसी सत्र में अमिताभ बच्चन द्वारा फ्री में हिन्दी कीबोर्ड के प्रयोग का विज्ञापन करने का तथ्य उजागर हुआ तथा यह भी पता चला कि अंग्रेज़ी शीघ्र हिंदी की चाकरी शुरू करने वाली है। सत्र के अंत में हुई बहसबाजी नें पूरे वातावरण को संसद भवनात्मक कर दिया।

काश वो किसी हिन्दी चिट्ठाकार को वक्ता बनाते इस विषय पर तो वह उनसे कहीं बेहतर बता पाता। जहाँ तक बात है हिन्दी के टाइपराइटर की तो वह मैकेनिकल में सिर्फ रेमिंगटन का ही बन सकता है।

बाजार में हिन्दी के कौन से कीबोर्ड बिक रहे हैं?

अगर बात कंप्यूटर के लिए हिन्दी के फिजिकल कीबोर्ड बनाने की हो रही थी (अवश्य ही उन लोगों को इनपुट मैथड एडीटरों का पता न रहा होगा) तो भाई इससे क्या फायदा होगा। ट्रांसलिट्रेशन (जिसका फिजिकल कीबोर्ड इंग्लिश का ही होगा) को छोड़कर रेमिंगटन और इनस्क्रिप्ट दोनों ही टच टाइपिंग हेतु बने हैं। इनसे अंकित कुँजियों वाला कीबोर्ड बनाने से कोई खास फायदा होने से रहा।

सुजाता said...

badhiyaa report !masijeevi va ripudaman ko dhanyavad !

Udan Tashtari said...

आपका और रिपुदमन का इस रिपोर्ट के प्रस्तुतिकरण के लिये आभार और साधुवाद.