Sunday, July 15, 2007

ब्‍लॉगिंग की सिद्धांत पुराणिका

कानपुर मीट में हुए मिलन का क्षेत्रफल फुरसतिया बता ही चुके हैं और दिल्‍ली के सम्मिलन की चर्चा भी शैलेश ने की, कुछ अन्‍य ने भी की। उस पर अधिक चर्चा की कम से कम अभी तो इच्‍छा नहीं...क्‍यों इसका भी काई जबाव नहीं।


आलोक पुराणिक ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं (ये उनकी खुदकी घोषणा है खुद समझें), बहुत ही अच्‍छा व्‍यंग्‍य लिखते हैं और बहुत ही अच्‍छे आर्थिक चिंतक भी हैं। हमारी ही तरह अध्‍यापक हैं इसलिए जो सोचते हैं उसे छुपा पाने में असमर्थ रहते हैं- एकाध बार पहले भी मिलना हुआ है इस बार भी मिले। एक धराप्रवाह तरीके से कल उन्होनें ब्‍लॉगिंग की सैद्धांतिकी का स्‍पष्‍ट खाका सामने रखा। वैसे साफ बताएं तो इतनी स्‍प्‍ष्‍टता हमें भयभीत करती है, कारण यह कि दुनिया में उतना स्‍पष्‍ट अब कुछ भी नहीं है इसलिए जिस सिद्धांतकार को साफ दिखाई देता है उसे जाहिर है पूरी तरह सही तो नहीं ही दिखाई दे रहा होगा- पर सही गलत को जानें दें- ब्‍लॉगिंग की जो सैद्धांतिकी कल आलोक जी ने ओजस्‍वी तरीके से प्रस्‍तुत की वह हमें इतनी अहम जान पड़ती है कि हम उसके उस रूप को सामने रख रहे हैं जो हमें समझ आया- वैसे 'नथिंग आफिसियल एबाउट इट' - ये उनकी सैद्धांतिकी की हमारी समझ भर है।


शैलेशजी की रिपोर्टिंग से शुरू करें-



आलोक पुराणिक ने ब्लॉगिंग के पीछे छिपे मार्केट का कांसेप्ट रखा। उनके अनुसार दुनिया की हर चीज़ मार्केट का पार्ट है। कोई अपना नाम एनजीवो रख लेता है, कोई अपना नाम ट्रस्ट के रूप में तो कोई व्यवसायिक उपक्रम के रूप में अभिव्यक्त करता है लेकिन सभी का उद्देश्य इस मार्केट से कुछ न कुछ कमाना है। कोई आत्म संतुष्टि कमाता है, कोई धन, कोई ऐश्वर्य तो कोई अटेन्शन। हर कोई कुछ न कुछ इस मार्केट से कमा रहा है। मार्केट है तो एंटी-मार्केट का भी अपना मार्केट है। हर कोई अपने-अपने ब्लॉग की , अपने-अपने एग्रीगेटर की दुकान लगाकर बैठा है।


अब जाहिर है कि ब्लॉगिंग के बाजार होने को आलोकजी की मोलिक उद्भावना तो कहा नहीं जा सकता फिर इसमें खास क्‍या है, खास है बाजार की प्रवृत्तियों का ब्‍लॉगिंग के परिदृश्‍य पर सांगोपांग निरूपण। आलोक जी ने अनुसार जीवन के लगभग किसी भी पक्ष को बातार की शब्‍दावली से समझा जा सकता है बशर्ते हम 'दुकान' शब्‍द से अनावश्‍यक आहत न हों। ये ब्‍लॉगिंग का बाजार भी हम सभी की दुकानों का बाजार है जो दुकानदार अपने ग्राहक समुदाय की सुतुष्टि का माल प्रस्‍तुत कर पाता है वही बचा रह पाता है। और यह भी कि 'जिसकी दुकान उसका विधान' यानि अमित ने थ्रेड बंद क्‍यों किया नारद ने अमुक को क्‍यों हटाया क्‍यों पोस्‍ट देर से दिखी...सब वेबकूफी भरी बातें हैं- अरे भई उनकी दुकान उनकी मर्जी- किसी एकाधिकार में ये अधिक हो पाता है अब कुछ कम क्‍योंकि नए एग्रीगेटर आ गए हैं पर वे भी वही करेंगे उनकी दुकानदारी के लिहाज से जिसे दिखाना होगा वे दिखाएंगे जिसे नहीं वे नहीं दिखाएंगे- और आप भी अगर अपनी दुकान के लिए कहीं दिखना चाहते हैं जो जाहिर है आप धोंसपट्टी सहेंगे वरना नहीं। जै रामजी की। पर आलोकजी फिर इतना हल्‍ला बोल क्‍यों ? अफलातून, मसिजीवी, अविनाश ....क्‍यों चिंहुँकते हैं....इसलिए कि इस चिहुँक की भी मार्केट है। लोगों की इस चिहुँक और हाय हाय में भी रुचि है सिर्फ इसलिए। ब्रांड कंसोलिडेशन के लिए जरूरी है कि हर कोई अपनी दुकान के तेवर को बनाए और अपनी ग्राहकी के फोकस्‍ड समूह को बचाए सखे और जैसे तैसे इसे बढ़ाने की कोशिश करे।


और हॉं अगर किसी को ये गलतफहमी है कि वह किसी 'निस्‍वार्थ सेवा' के चलते कोई काम बाजार में करता है तो वह मूर्ख है..है तो रहे पर ये न समझे कि दूसरे भी मूर्ख हैं और वे इस निस्‍वार्थता के मोह में आपके ग्राहक बने रहेंगे- कल के तह करके रखते आज रख दें- बाजार में बचेगा तो वही जो बाजार के अनुरूप होगा।
और ये अलग बात है कि बाजार की सभी चीजों की अनिवार्यत: मोनेटरी वैल्‍यू नहीं होती। दुकान पर रखा हर सामान बिकाऊ नहीं होता- आपकी निस्‍वार्थ सेवा या तो आतमसंतुष्टि के लिए होती है या इस या उस भावना के लिए पर है आपे ही लिए। साधु नहीं तो घुमाकर पर ये आपका स्‍वार्थ ही है। इसलिए हमने रातें कालीं की या हमने बीस दिन में तैयार कर सामने रख दिया ये सब न गिनाएं देखा तो ये ही जाएगा कि कुल मिलाकर प्रोडक्‍ट या सर्विस कैसी दे रहे हैं। जो ट्रस्‍ट या एन.जी.ओ. वाले घोषणा करते हैं कि लाभ के लिए नहीं है तो लाभ ऐसा नहीं तो वैसा होगा। आल नहीं तो दस साल बाद होगा।


पर घुघुती का क्या करें जिन्‍हें तकलीफ है कि नारद के, परिचर्चा के इस व्‍यवहार से, जो किसी गला काट में शामिल नहीं होना चाहतीं- भई ये तो उनकी परेशानी है जिससे हमें तकलीफ हो सकती है पर इस वजह से बाजार अपना रुख नहीं बदलेगा- मतलब बाजार नाम सत्‍य है- ये अटेंशन, धन, प्रभाव, सम्‍मान भले ही किसी मुद्रा में धंधा करे पर है धंधा ही।


अलोक पुराणिकजी की ब्‍लॉग सैद्धांतिकी के कुछ पक्ष हो सकता है छूट भी गए हों- पर मूल बात इसी के आस पास थी।


अब सवाल ये कि ये तो आलोकजी के विचार हुए आप कितना सहमत हैं- भई हम तो भूपेन के आस पास थे, आलोकजी की सैद्धांतिकी से सहमति है पर पूरी तरह तो हम खुद से भी सहमत नहीं होते (प्रमोदजी से उधारी ली हुईग्‍ अभिव्‍यक्ति) तो आलोकजी से क्‍या खाक होंगे पर ये खूब मजेदार रहा कि समाजवादियों का लोकतंत्र के लिए संघर्ष तक यहॉं एक उत्‍पाद बन गया....जय गूगल...जय ब्‍लॉगर....जय अलोक पुराणिक।



10 comments:

eSwami said...

मंगलू-पग्गलजी
पहली बार आपको किसी और ब्लागर की तारीफ़ करते हुए पढ रहा हूं ..आप अपनी छवि को सुधारने के लिये आलोकजी जैसे अगडम-बगडम का दुरुपयोग क्यों कर रहे हैं?! (मेरा सदुपयोग क्यों नहीं?)

मैथिली गुप्त said...

आलोक पुराणिक जी का मार्केट का कंसेप्ट एकदम समझ आ गया.

मसिजीवी said...

@ईस्‍वामी जी भई ये तारीफ करने का आरोप हम पर न लगाएं वो तो जय जो लिख गए हैं उसे व्‍यंग्‍यकार की जय माना जाए जो जाहिर है व्‍यंजना में ही होगी :)

बाकी सदुपयोग-दुरुपयोग तो आलोकजी का करना ही ठहरा, जब वो शिक्षक संघ का चुनाव लड़ेंगे तो हमारा ध्‍यान रखेंगे, आप ठहरे सात संमदर पार और वो भी गीक- भला साथ क्‍या निबाहो...गे :)

अनूप शुक्ल said...

:)

ALOK PURANIK said...

भईया
मसिजीवीजी
मेरी बात को रखने के लिए धन्यवाद।
एंटी बाजार का अपना बाजार है, और बहुत बड़ा। चकाचक। एंटी बाजार वाले भी मलाई काट रहे हैं, पर इसी बाजार से। एक पूरी लिस्ट है मेरे पास कि किस तरह से एंटी मार्केट के सेमिनारिये दुबई में शापिंग करते हैं, उस पैसे से जो उन्हे बाजार के खिलाफ बोलने के लिए अमेरिका में मिले होते हैं। एंटी मार्केट का बहुत बड़ा मार्केट है, जो इसी मार्केट से होकर जाता है।
जैसे एंटी इस्टेबलिशमेंट का बहुत बड़ा इस्टेबलिशमेंट होता है, ठीक वैसे।
ये रोना और बार-बार रोना कि हाय ब्लागरों हमने तुम्हारे लिए यह किया, तुम्हारे लिए चंदा किया। तुम्हारे लिए रात में जगे, काहे को जगे मत जगो। आप नहीं जगोगे कोई और जगेगा, जिसको गरज होगी।
ये साधु-साधु, लपड़-झपड़ बहुत चिढ़ाती है।
चीजें साफ नहीं होती, पर एक न्यूनतम स्तर पर साफ करनी पड़ती हैं, चाहे बाद में पता चले कि आप जिसे साफ समझ रहे थे कि मामला वैसा था नहीं।
बाजार के बवालों, सवालों से मैं परेशान कम नहीं हूं। पर बाजार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाजार को कोसने के लिए तर्क-तथ्य जुटाने के लिए जिस अखबार,मैगजीन, किताब को लाता हूं, उसके लिए भी बाजार जाना पड़ता है और पैसे देने पड़ते हैं। ये पैसे देने के लिए अपना माल या सेवा बेचने के लिए फिर बाजार जाना पड़ता है।
उस मीटिंग में एक बात आयी थी कि क्या मुनाफे कारपोरेट के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। है बिलकुल है, अमूल दूध ने साबित किया है। बाजार की शर्तों पर, जरा कल्पना करें कि अमूल वाले ये हल्ला मचायें कि हाय हाय हम रात में जागे हमने किसानों को इकट्ठा किया प्लीज हमारा मक्खन महंगा ले लो। बडे़-बड़े मुनाफा विरोधी कारपोरेट विरोधी ये मक्खन नहीं खऱीदेंगे। बाजार में अमूल को कंपीट करना है, किसी भी और कंपनी के साथ, जो कोआपरेटिव नहीं है, जो सिर्फ मुनाफा कमा रही है। आप कोआपरेटिव हैं, ट्रस्ट हैं, जो भी हैं, बाजार में आयें बाजार की शर्तों पर या इत्ती काबलियत लेकर आयें कि बाजार में बुनियादी बदलाव करें, अपनी शर्तों पर। आप क्या हैं, इस बात से कोई मतलब नहीं बाजार को। आप डिलीवर कीजिये, हाय-हाय मत कीजिये। सोशल, नान-प्राफिट मार्केटिंग पूरा शास्त्र है अब। कल को कोई ब्लाग एग्रीगेटर ब्लागर ट्रेफिक लाने के लिए अगर हर ब्लागर को कुछ रुपये दे, तो यह माडल संभव है। ब्लाग एग्रीगेटर भविष्य में विज्ञापन लाने की संभावना रखता है, अभी से निवेश इसलिए करेगा।
पर यहां मैं साफ कर दूं कि सबके पास चाइस है। मेरे पास चाइस है कि बाजार को बिलकुल ध्यान में ना रखूं, बाजार के पास चाइस है कि बाजार आपका बिलकुल ध्यान ना रखे।

Arun Arora said...

वाह जी वाह मसीजीवी जी आज लगा की आप ने चरचा की फ़ोरम ही खोल दी है,हम तो उम्मीद करेगे की अब आप यहा हर हफ़्ते किसी ब्लोगर को पकड कर "ब्लोगिंग विद ....(काफ़ी विद करन)जैसा कुछ शुरु करोगे

शैलेश भारतवासी said...

आप आलोक जी के कांसेप्त से पूरा इत्तेफ़ाक नहीं रख रहे हैं, मतलब बाज़ार के लिए आप १००% परिपक्व नहीं है, वैसे यह आँकड़ा तो कभी सही नहीं होता, फ़िर भी थोड़े वक़्त में आपकी जुबान से भी पुराणिक की बातें निकलेंगी।

eSwami said...

आलोक जी के विचारों पर मेरा लेख -
/hindini.com/eswami/?p=142

Udan Tashtari said...

आलोक भाई तो छा गये. वाह भई मसिजीवी जी, बहुत सही बात को विस्तार दिया है. साधुवाद. :)

Anita kumar said...

हम आलोक जी के विचारों से 100%सहमत हैं।