Tuesday, December 16, 2014

साकी पीए तो बने मधुशाला

मन की बात में मोदीजी ने इस बार नशे को अपना निशाना बनाया है, बहुत निरापद सी बात लगती भी है, नशा अंतत: एक व्यसन है तथा इसके कोई लाभ हमारे जाने हैं भी नहीं। हॉंलाकि यह भी अहम है कि हमें इतिहास का ऐसा कोई कोना ज्ञात भी नहीं है जहॉं नशा मौजूद नहीं था, नही ही हम तारीख के ऐसे किसी मोड़ को ही जानते हैं जब आम लोग नशे की बुराइयों से ऐसे अपरिचित हों कि उन्हें किसी शासनाध्यक्ष द्वारा इसकी जानकारी दिए जाने की जरूरत महसूस हो।

लोग अक्सर शराब से बरबाद हुए घरों के दास्ताँ सुनाते हैं इसे पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता किन्तु मुझे लगता है इसकी वजह यह द्रव्य स्वयं में उतना नहीं है जितना शराब पीने की हमारे यहाँ की प्रचलित व्यवस्था है। स्कूल कॉलेज के होस्टलों की बीयर पार्टियों से लेकर गली मोहल्ले के अँधेरे कोनों की देसी दारु बैठकों तक हमारे यहाँ शराब पीना लगभग पूरी तरह एक मर्दाना स्पेस है बल्कि मर्दवाद की नर्सरी है। शराब के घूँटों के साथ चलने वाली बातें लगभग पूरी तरह स्त्री विरोधी तथा मर्दवादी अहम् को ग्लोरिफाई करने वाली होती हैं ... घर पहुंचकर होने वाली चीखपुकार व हिंसा तथा पत्नी पिटाई शराब के नशे के प्रभाव में शायद कम होती और इस कोचिंग ओवर अ ड्रिंक के नशे में ज्यादा होती है। शराब बुराई है तो किसी को नहीं पीना चाहिए किन्तु यदि इस स्वर्ग को पाना कठिन हो तो शराब पीने की संस्था व स्पेस का डी जेण्डरीकरण किया जाना चाहिए। औरत मर्द को साथ पीने दें ये सिर्फ मर्दों के वेवड़ेपन से कम नुकसानदेह रहेगा। शराब को अँधेरे कोनों से निकालिये भले ही घर में आने देना पड़े।

Friday, November 28, 2014

परिवार (शाला) भंग कर दो

आप किसी विचार या सरणी में यकीन रखते हों तो जरूरी नहीं कि  उसकी हर केनन से सहमत ही हों।  मसलन समाज में स्‍त्री अधिकारों का सवाल मुझे अहम लगता है इससे मेरा जुडा़व तथा सहमति भी है। स्‍त्री विमर्श में घरेलू श्रम को उत्‍पादक मानने की एक बेहद लोकप्रिय धारा है। इनका मानना है कि घरेलू स्त्रियॉं (हाउसवाईव्‍स) को काम नहीं करती नहीं माना जाना चाहिए.. फिर इसके पक्ष और अनेक सिद्धांत भी हैं जैसे उनके द्वारा सुबह से शाम तक किए जाने वाले कामों का आर्थिक  मूल्‍य लगाकर ये सिद्ध किया जाता है कि देखिए इस काम को कामकाजी स्त्रियों से तुलना करके देख लें वगैरह वगैरह। इसके ही समानांतर परिवार संस्‍था का महिमामंडन व इसके लिए हाउसवाईव्‍स का त्‍याग वगैरह भी गिनाया जाता है। ये सारे तर्क खारिज किए जा सकने वाले नहीं हैं न ही किसी के घर पर रहकर परिवार का पालन करने की पसंद (च्‍वाइस) या मजबूरी को उसके अपमान या शोषण का आधार बना सकने की कोई वकालत ही कर रहा हूँ। अपने ही परिवार व पास पड़ोस के अनुभवों के आधार इसे भी स्‍वीकार करता हूँ कि हाउसवाइफ होना बिना मेहनत का काम नही है।  किन्‍तु...
और ये किंतु एक बड़ा किंतु है। किंतु ये कि ये घरेलू श्रम अक्‍सर स्‍त्री विरोधी तथा स्‍थापित संस्‍थाओं को मजबूत करने में अधिक इस्‍तेमाल होता है। परिवार और पितृसत्‍ता के जितने भी मानक हैं उनमें से किसी से भी टकराने के लिए जिन औजारों की जरूरत है वे इन स्त्रियों के पास आसानी से उपलब्‍ध नहीं हो पाते। घरेलू स्त्रियॉं 'बाय च्‍वाइस' घरेलू हैं ये भी अधिकतर एक भ्रम ही होता है क्‍योंकि सजग रूप से इन विकल्‍पों पर बराबरी के साथ कभी विचार हमारी परिवार संरचनाओं में संभव ही नहीं होता... शिक्षा, अवसर या आत्‍मविश्‍वास की कमी, पति के पास पहले से रोजगार का होना  और सबसे बड़ा- बच्‍चों का होना अक्‍सर वे बेरिएबल होते हैं जो स्त्रियों को घरेलू बनाते हैं और फिर इनसे जूझते जूझते इन स्त्रियों के साथ ठीक नहीं होता है  जो काफ्का की कहानी मेटामारफोसिस के पात्र के साथ होता है यानि एक तरह का काम करते करते आप खुद ही कायांतरित होकर वेसा ही कुछ बन जाते हैं- काफ्का का पात्र खुद कॉ‍करोच बन जाता है। इसी पर आधारित 'एक चूहे की मौत' में ये और सजीवता से व्‍यक्‍त होता है जब चूहेमारी करते करते ख्‍ूहेमार खुद चूहा बन जाता है। आशय यह है कि हो सकता है कि कुछ सपने पाले युवती को लगे कि बस पति का शुरूआती जिंदगी में साथ देने के लिए अभी घरेलू कामकाज सही पर फिर धीरे धीरे यही जीवन रेगुलेरिटी में आता है तथा यही घरेलू स्‍पेस ही इसका मानसिक स्‍पेस भी बन जाता है और फिर सीमा और पहचान भी। सोच का दायरा फिर वही हो जाता है तथा चूंकि यह स्‍पेस बेहद जेंडर्ड स्‍पेस है अत: उसकी सोच भी न केवल इसी दायरे में बंद होती जाती है बल्कि जाने अनजाने सारी ताकत इसे दृढ़ करने में लगती है।  मेरा परिवार, मेरे बच्‍चे, मेरी रसोई मेरा घर...  यकीनन इनमें भी खबू ताकत व श्रम लगते हैं तथा इन्‍हें अगर भुगतान करके करवाया जाए तो धन भी लगेगा किंतु जब घरेलू स्‍त्री इनमें श्रम व जीवन लगाती है तो यह श्रम परिवार को समतामूलक बनाने में नहीं लग रहा होता, ये इस मायने में उत्‍पादक भी नहीं होता कि अर्जन व व्‍यय की समता ला सके सबसे खतरनाक ये कि यह लगभग सदैव चली आ रही स्‍त्री विरोधी संरचनाओं को पुष्‍ट करने तथा इसे अगली पीढ़ी में स्‍थानांतरित करने में अहम भूमिका अदा करता है। कामकाजी व घरेलू महिलाओं के बीच की कटुता व संघर्ष जो चहुँ ओर सहज दिखाई देती है इसका ही उदाहरण है।  (मॉंओं  के)  लाड़ प्‍यार में पाली गई संतानों का अधिकाधिक डिपेंडेंट होना तथा ज्‍यादा 'पुरुष' या 'स्‍त्री' टाईपबद्ध होना भी इसका ही परिणाम है।

स्‍त्री के घरेलूश्रम की आ‍र्थिक गणना करने से कुछ नहीं होगा या तो इसे मोनेटाइज करना होगा... यानि वाकई काम को आउटसोर्स किया जाए कोई और पेशेवर तरीके से इसे करे तथा इसके भुगतान का जिम्‍मा साथ कमाकर किया जाए, दूसरा तरीका यह है कि यदि घर के ही लोगों में इसका वितरण होना है तो काम को पूरी तरह डीजेंडर्ड किया जाए तथा बराबर बॉंटा जाए ये तभी संभव है जब बाहर के काम को भी इसी तरह बॉंटा जाएगा। आसान भाषा में कहें तो स्‍त्री शोषण की मूल भूमि परिवार की संरचना है तथा स्‍त्री के घरेलू रहते इसे पुनर्संरचित किया ही नहीं जा सकता है। घरेलू स्त्रियॉं इस गैरबराबरी को बनाए रखने के लिए पितृसत्‍ता का सबसे मजबूत औजार हैं।  सबसे अहम है कि घरेलू कामकाम को ग्‍लोरिफाई करने से बचा जाए। स्‍पेस डीजेंडरिंग जिसमें मेंटल स्‍पेस शामिल है की शुरूआत घर की जिम्‍मेदारी (व कब्‍जा) सिर्फ औरतों को न देने से ही हो सकती है। परिवार की स्त्रियों का कामकाजी होना कोई अपने आप में पितृसत्‍ता का घोषणापत्र नहीं है किंतु इसका अभाव पितृसत्‍ता का विजयघोष अवश्‍य है। 

Thursday, October 30, 2014

प्रेम रहे अपनी जगह पर, परिवार किंतु लोचा ही है

इस माह हमने अपने विवाह को बीस साल पूरे हाने के अवसर पर ढेर शुभकामनाएं बटोरीं।  फेसबुक पोस्‍ट यूँ थी - 

बीस बरस हुए आज साथ रहते हुए।। हम कोई आदर्श युगल नहीं हैं, गनीमत है नहीं हैं। ये सीधा सादा कॉलेज रोमांस था जो बहुत थोड़े से ड्रामे के बाद शादी में तब्‍दील हुआ, आज के पैमानों पर कहें तो बोरिंग भी कह सकते हैं। असल कहानी उसके बाद शुरू होती है। मुझ जैसे औघड़ टाईप के साथ रहना निबाह ले जाना खुद मेरे लिए ही मुश्‍िकल होता पर नीलिमा इसे बखूबी कर रही है बीस सालों से। शादी का मसला जब मेरी मॉं के पास पहुँचा तो मुझे कहा गया अभी बच्‍चे हो (कुल जमा साढ़े इक्‍कीस था तब मैं) हम मना थोड़े ही कर रहे हैं जब थोड़ा सेटल हो जाओ कर लेना नीलिमा से ही शादी... हमने कहा कि शादी साथ साथ संघर्ष के लिए करना चाहते हैं, भेाग के लिए नहीं।
शायद ज्‍यादा आदर्शवादी कथन था पर सच है कि पिछले बीस सालों में सबसे आनंद के क्षण, स्‍मृतियों में उकरे हुए क्षण यही संघर्ष के क्षण हैं। एमए/एमफिल/पीएचडी/बेरोजगारी/नौकरी/ब्‍लॉगिंग सब साथ साथ। मेरा सामंती होना कोई ऐसा सीक्रेट नहीं है कि संधान करना पड़े न ही इसे स्‍वीकार कर लेना इसका समाधान है... पर थ्री-इडियट के डायलॉग ''अपने सबसे कमजोर स्‍टूडेंट का साथ मैं कभी नहीं छोड़ता'' की तर्ज पर नीलिमा ने न मेरीे सामंतीयता को नियति मानकर स्‍वीकार किया, न उसके लक्षणों को इंगित करना ही छोड़ा। हमारा प्रेम शायद एक-दूसरे के परिष्‍कार के लिए संघर्ष भर ही है। ढेर शिकायत हैं हमें एक दूसरे से, मुझे लगता है नीलिमा अपनी भाषा, क्षमता, अपेक्षा के साथ कम न्‍याय करती है... वो खिलखिलाकर कहती है हूँ तो तुमसे सुंदर न।।तुम्‍हें लगता है कि मुझे अपने व्‍यवहार में और डेमोक्रेटिक होने की जरूरत है मसलन बाथरूम में वायपर मारने, सामान सही जगह रखने का सलीका सीखने की जरूरत है। अगर मैं बीस साल पहले की तुलना में जरा सा भी बेहतर इंसान हूँ तो इसका पूरा श्रेय नीलिमा को है किंतु अगर वैसा ही ठस हूँ या उससे भी कमतर हो गया हूँ तो ये मेरी अपनी 'योग्‍यता और इनर्शिया' है। हमने साथ साथ संघर्ष में संस्‍थाओं पर सवाल उठाना सीखा है और ये भी कि असल जिंदगी में इन सवालों के उतरने में थोड़ा हेर फेर आगे पीछे होगा ही। धर्म ईश्‍वर नास्तिकता के सवालों तुम कम तल्‍ख हो मैं पैट्रआर्की के सवाल पर हल्‍का व धीमा रह जाता हूँ। यकीन बस इतना कि रास्‍ता हमारा ठीक है सच्‍चा भी शायद। केक, उपहार गहने वाला नाता हमारा है नहीं, हो भी कैसे दोनों की तनख्‍वाह एक ही ज्‍वाइंट एकाउंट में जाती है तुम्‍हारे ही पैसे से तुम्‍हें उपहार देकर काहे बजट खराब करना फिर पसंद भी तुम्‍हारी मुझसे बेहतर है। इसलिए प्‍यार जताना थोड़ा कठिन हो जाता है, पर सुनो मेरे साथ बीस साल रह जाने वाली को बड़ा वाला गैलेन्‍ट्री अवार्ड बनता है, सालगिरह मुबारक साथी।।
 प्रेम की सफाई देनी पड़े ये त्रासद है। पर साफ करना जरूरी है कि विवाह संस्‍था व परिवार संस्‍था के प्रति हमारी अनास्‍था बदस्‍तूर जारी है :)

Friday, October 03, 2014

दोस्‍तों से बाहर ही मिला जाए

बस्‍ती के बच्‍चे मानो साझा ही थे, कम से कम लगता तो ऐसा ही था। इसका मतलब मात्र इतना था कि बच्‍चों को डॉंटने या कभी कभी एकाध धौल जमा देने का हक केवल अपने बच्‍चों तक सीमित नहीं था। ऐसे में बच्‍चों को सम्‍मान से न मिलने, बोलने या उन्‍हें सम्‍मान न देने की जो खांटी भारतीय परंपरा है उसका पूरा सम्‍मान हमारी बस्‍ती में भी था। दो गांवों के बीच बसी ये बस्‍ती दिल्‍ली कर प‍हली खेप की कच्‍ची बस्‍ती थी। अब बच्‍चों के लिए आपस में एक दूसरे के माता-पिता से अपमानित होने की घटनाएं आम थीं पर फिर भी सहज नहीं थीं। यूँ किस बात पर सम्‍मानित और किस पर अपमानित महसूस करना है इसे लेकर हम बहुत स्‍पष्‍ट नहीं थे। ज्‍यादा खेलने, कम पढ़ने आदि को लेकर हुआ अपमान एक वैध कारण से हुआ अपमान था तथा सहज पच जाता था। मेरे लिए सबसे असहज स्थितियॉं वे होती थीं जब मेरे परिवार के लोग अक्‍सर मॉं मेरे दोस्‍तों को डॉंटतीं या ऐसा कुछ कहतीं जो उन्‍हें असहज बनाता। बाद में अक्‍सर मैं मॉं से लड़ता पी उनके लिए ये साधारण बात होती। वे चल्‍ल तू चुप रै... कह के मटिया देती। घटना के बाद मुझे इस दोस्‍त से मिलना असहज लगता तथा बहुत दिनों तक मैं उससे बचता फिरता। अक्‍सर बाद में पता लगता कि उसने इस अपमान को महसूस नहीं किया था या कम से कम वो ऐसा मुझसे कहता। वैसे ऐसी स्थितियों से बचने का सबसे आसान तरीका जो सामूहिक रूप से निकाला गया था वो था... घर की बजाए घर के बाहर गली में मिलना। मसलन आधी छुट्टी में खाने के लिए दोस्‍त के घर के लिएनिकले गली के नुक्‍कड़ पर उसे छोड़ा कि रुको मैं खाना खाकर आता हूँ... वो बेचारा भले ही भूखा हो, इत्‍मीनान से गली के बाहर इंतजार करेगा...बाद में मैं नेकर से हाथ पोंछता आकर मिलूंगा आगे चल देंगे। खैर दोस्‍त के घरवालों से खुद अपमानित होने से बचने तथा उससे भी ज्‍यादा दोस्‍तों को घर के लोगों के हाथों अपमानित होने की आशंका या भय ऐसा मिथकीकृत होकर मन में बैठ गया है कि मैं आजतक दोस्‍तों की अपने ही घर में उपस्थिति को लेकर सहज नहींहो पाया। अरसे तक घर अड्डा बना रहा दोस्‍त सहज भाव से आजे रहे, रुक भी जाते पर मैं लगातार चौकन्‍ना असहज ही बना रहा। इतना कि एक समय तो मेरे दोस्‍तों का घर में ही जुमला ही था, अरे अपना ही घर समझो। मेरा अपना पाठ है कि मेरे इसी भय के चलते नीलिमा भी कभी अपनी ससुराल में जम नहीं पाई.. मुझसे उसे घर में अकेला नहीं छोड़ा जाता था, लगातार आशंका रहती कि कहीं कोई कुछ कह न दे।
खैर ये तो चंद हफ्ते की बात रही फिर सड़क पर आ गए। उसके बाद भी ये भय बना रहा तथा आजतक है। शायद निराधार नहीं है कई प्‍यारे दोस्‍त बेचारे किनारे हो गए क्‍योंकि वे ऐसा अपमान सह नहीं पाए। या हो सकता ये भी केवल मेरे मन ने मान भर लिया हो। पर आज भी मेरे मन के भयों में सबसे भयानक प्रिय लोगों का अपने लोगों द्वारा अपमान का भय है इससे दोनों खो जाते हैं। सोचता हूँ दोस्‍तों से फिर बाहर ही मिला जाए।

Thursday, September 04, 2014

कैसे करें गूगल वाॅइस टाईपिंग से बोलकर हिन्‍दी में टाईपिंग -

मेरी पिछली पोस्ट के बाद कई दोस्तों ने यह आग्रह किया है कि गूगल वॉइस टाइपिंग से फेसबुक पर पोस्ट, ब्लॉग पोस्ट या माइक्रोसॉफ्ट वर्ड मेँ कैसे लिखा जाए इसका खुलासा किया जाए अब आप जानते ही हैं की हम कोई तकनीकी व्यक्ति तो हैं नहीं।  लेकिन हमने इसके लिए एक साधारण सा जुगाड अपनाया है-  तो बिंदु बार बात करते हैं
1. सबसे पहले अपने एंड्रॉयड फोन की सेटिंग्स मेँ जाए आपको लेंगुएज एंड इनपुट ऑप्शन मिलेगा
2;  इसके तहत आगे जाकर भाषा मेँ अब हिंदी की सुविधा मिल गई है आप इसे सेलेक्ट कर लैं ( ध्यान रखेँ हिंदी भाषाओं की सूची मेँ अंग्रेजी क्रम के बाद नीचे देवनागरी मेँ लिखा हुआ है) उसे सेलेक्ट करेँ
3- अब गूगल वॉइस इनपुट की भाषा अंग्रेजी तथा हिंदी दिखाई दे रही है।
4-  अच्छा रहेगा कि आप इससे अंग्रेजी को हटा देँ केवल हिंदी रहने दें, इसे हिंदी इनपुट की दक्षता बेहतर हो जाती हे एेसा मैंने अनुभव किया  है।
5- अब आप या तो फेसबुक ये किस ब्लॉग आदि मेँ टाइपिंग के स्थान पर सीधे वॉयस इनपुट का इस्तेमाल कर सकते हैं मेरे फोन मेँ यह सुविधा स्पेस बार को दबाए रखने पर विकल्‍प के रूप में उपलब्ध हो रही है।

अब बताते हेँ कि फ़ोन से टाइप की गई इस सामग्री को ऑफलाइन एमएस वर्ड या कंप्यूटर पर कैसे ले जाएं जैसे मैंने अपनी फेसबुक पोस्ट मेँ बताया इसका सबसे आसान तरीका है कि फोन पर टाइप की गई सामग्री को आप बजाय फोन मेँ सेव करने की क्लाउड मे सेव करें यह आप गूगल ड्राइव मेँ कर सकते हेँ अथवा ड्रापबाक्‍स लैसी किसी सुविधा मेँ कर सकते हैं। जैसे ही आप फाइल को क्लाउड मे सेव करेंगे यह आपके कंप्यूटर पर भी उपलब्ध हो जाएगी अब आप संपादन का काम अपने लैपटॉप या डेस्कटॉप पर कीजिए। और बताने की जरूरत नहीं कि उसके बाद इस सामग्री का जैसा प्रयोग करना चाहिए वैसा करेँ । तो मुझ अनगढ़  व्यक्ति के लिए यह साधारण सा जुगाड़ बहुत अच्छे से काम कर रहा है।  उम्मीद करता हूँ आपको भी से लाभ हुआ होगा।

इस पूरी पोस्‍ट को भी बोलकर ही लिखा गया है। पहला शब्‍द बोलने से लेकर संपादित कर  पब्लिश करने तक कुल 9 मिनट लगे हैं। अच्‍छा ही है- क्‍यो ?


मेरा फोन Gionee P-3 है तथा Android 4.2.2 है

हिन्‍दी में बोलकर लिखी गई मेरी पोस्‍ट - शुक्रिया गूगल हिन्‍दी वॉइस टाईपिंग

आज एक ब्लॉग पोस्ट लिखने के विषय मेँ सोचा था हैरान करते हुए यह गूगल वॉइस टाइपिंग का सहारा मिल गया है इसलिए मैंने सोचा है क्‍यूँ न इसकी ही सहायता से पूरी ब्लॉग पोस्ट लिखें  कुछ गलती हो तो हो ही जायेंगी पर  संपादित कर लेना फिर भी आसान रहेगा तो दोस्तो यह मेरी पहली ब्लॉग पोस्ट है जो टाइपिंग की बजाए बोलकर लिखी जा रही है हाँ इसके बाद मुझे इसके संपादन कुछ समय लगाना पड़ा है फिर भी मुझे लगता हे कि जुगाड काम आ रहा है इसके लिए लगातार इंटरनेट का उपलब्ध होना तो खैर जरुरी है लेकिन फिर भी आजकल के हिसाब से इसे अच्छा ही कहा जाएगा छोटी बहुत गलतियाँ वर्तनी मेँ ये कर रहा है लेकिन हिंदी टाइपिंग की सुविधा जिन लोगोँ के पास नहीँ है  उनके लिए तो यह वरदान ही कहा जाएगा काफी बोल चुका अब देखता हूँ कि कैसा बन पड़ा है।

पहला विचार: 
मुझे लगता है कि अगर फोन को इस तरह पकड़ कर बोलने की बजाए मेँ हैंड्स फ्री या ब्लू टूथ का इस्तेमाल करुँगा तब गलतियो की गुंजाइश और भी कम हो जाएगी हिंदी स्पीच रिकग्निशन ओर अंग्रेजी स्पीच रिकग्निशन में यह अंतर तो है ही कि हिंदी मेँ हमारी आवाज ओर बोलने का तरीका सबसे सामान्‍य होता है यानि कि अंग्रेजी मेँ जितनी गलती एक स्पीच रिकग्निशन सॉफ्टवेयर करता है उतनी हिंदी वाला सॉफ्टवेयर नहीँ करेगा ये अलग बात हे की किसी ने अब तक एक पूरी तरह निर्दोष सॉफ्टवेयर बनाने की कोशिश ही नहीँ की थी अब गूगल इस सोफ्टवेयर को लेकर आया है तो उम्मीद है अच्छा ही रहेगा अभी देखते हेँ मुझे उम्मीद है कि जल्द से जल्द गूगल को इसका ऑफलाइन संस्करण भी लेकर आना चाहिए असली मजा तो तभी आएगा आपने बोलना शुरु किया ओर एक लेख तैयार इससे बेहतर भला और क्या चाहिए !!

Monday, September 01, 2014

टैग निर्वाह और मेरी पसंदीदा पुस्‍तकें

पुराने साथियों को टैग करने वाला खेल जरूर याद होगा। किसी बात को लेकर टैग करते थे फिर शर्त पूरी करने वाला आगे टैग करने का अधिकार पाता था। जहॉं तक अपनी पढ़ी पुस्‍तकों की सूची पेश करने की बात है ये हम पहले भी कर चुके हैं।  इस बार फेसबुक पर ये दौर लौटा है। इसे बुक बकेट चैलेंज कहा जा रहा है। ''बाल्‍टी भर किताबें'' चुनौती के लपेटे में Vikas Divyakirti तथा Pankaj Dubey ने हमें भी ले लिया है। इन दोनों की चुनौती देती सूचियॉं भी खासी रोचक व विपरीत कोटि की हैं। जहॉं पुराने मित्र विकास बहुपठ छवि के हैं तिस पर मुसीबत ये कि उनकी विशाल मित्र सूची में उनके विद्यार्थी ज्‍यादा जमे हैं अत: उनके सामने छवि निर्वाह का संकट। अत: उनकी सूची भी जाहिर है उनके साहित्‍य, समाजशास्‍त्र, दर्शनशास्‍त्र, राजव्‍यवस्‍था.. सभी विषयों का प्रतिनिधित्‍व करने वाली है इससे विकास की गंभीरता पर्याप्‍त गंभीरता से स्‍थापित होती है। पंकज दूसरे छोर के प्राणी हैं वे अपनी अगंभीरता को बहुत गंभीरता से लेने वाले 'लूजर' हैं इसलिए उनकी सूची में चाचा चौधरी, बिल्‍लू, पिंकी, भोकाल को गिना सकने का साहस व ब्रांड छवि है। अपनी हालत दोनों मोर्चों पर पतली है। खैर मेरी पढ़ी हुई जो पुस्‍तकें मेरी नजर में अहम हैं तथा जिनके पढ़ने से मुझे लगता है मेार सोच बदली है, वे हैं- 



1. Its not you, its biology- Joe Quirk
2- शब्‍द और स्‍मृति - निर्मल वर्मा
3- भाषा संस्‍कृति व राष्‍ट्रीय अस्मिता- न्‍गुगी वा थ्‍योंगो
4- A Brief History of Time - Stephen Hawking
5- संवत्‍सर - अज्ञेय
6- शेखर एक जीवनी - अज्ञेय
7- राग दरबारी- श्रीलाल शुक्‍ल
8- दिवास्‍वप्‍न - गीजूभाई बधेका
9- दिक् व काल: अन्‍तर्अनुशासनीय संदर्भ - डा. वीरेन्‍द्र सिंह
10- स्‍त्री उपेक्षिता - सीमोन द बोवुआ

कई पुस्‍तकें शिकायतें कर रही हैं यायावारी, वामचिंतन, नास्तिकता व इंजीनियरिंग की कुछ और किताबों का भी मुझ पर गहरा प्रभाव है। पर 10 को 10 ही रहने देते हैं।
अब चूंकि परंपरा कहती है कि इस चनौति को आगे पेया किया जाना चाहिए तो अपनी जिज्ञासा के लिए आगे मैं Sujata Tewatia, मित्र Ashok Aazami तथा Laxman Sonu को यह चुनौती आगे पेश करता हूँ कि वे अपनी दस पुस्‍तकों की सूची पेश करें। सामान्‍यत: उन्‍हें ऐसा 24 घंटे में कर देना चाहिए।

Thursday, August 28, 2014

मेरी भाषा मेरा राष्‍ट्र है उसे बस एक देश चाहिए- छीनकर लेना होगा।

हमारा देश औपचारिक रूप से द्वि-राष्‍ट्र सिंद्धांत को खारिज करता है। इस सिद्धांत के पनपने और फिर भारत द्वारा खारिज किए जाने के अपने ऐतिहासिक कारण है। स्‍वाभाविक है कि वह सिद्धांत जिसके कारण देश का विभाजन हुआ उसे सिंद्धांतत: स्‍वीकार करना राष्‍ट्र के लिए कठिन है जबकि पाकिस्‍तान के लिए इस सिद्धांत का स्‍वीकार करना ही स्‍वाभाविक है। एेसे में जब कोई घूरे पर चढ़ा कुक्‍कुट बांग देकर कहे कि भारत में रहने वाला हर भारतीय हिंदू ही है, तो यह पुन: धार्मिक राष्‍ट्रवाद के उभरने की ओर संकेत करता है जो दो-राष्‍ट्र सिद्धांत का मूल आधार है। यानि यह पूर्व धारणा की हिंदू व मुसलमान दो अलग अलग राष्‍ट्रीयताएं है अत: उनके लिए अलग अलग राष्‍ट्र होना चाहिए।
अस्‍तु, हम अपनी नजर उस विभाजन पर डालें जो पाकिस्तान में हुआ उसका सिद्धांत भी एक तरह का दो-राष्‍ट्र सिंद्धांत ही था तथा बंग-मुक्तिवाहिनी की मूल चिंता पाकिस्तान से बंग राष्‍ट्र को अलग करने की थी। याानि भाषा भी एक अलग राष्‍ट्रीयता है तथा वहॉं भी एक अलग राष्‍ट्र होना चाहिए। धर्म की तुलना में आधुनिक समय में भाषिक राष्‍ट्रवाद को अधिक स्‍वीकृति प्राप्‍त हुई है। इसका सबसे स्‍पष्‍ट उदाहरण राज्‍यों के पुनर्गठन का आधार भाषा को बनाया जाना माना जा सकता है। भारत एक राष्‍ट्र के रूप में इस बात को स्‍वीकार करता है कि भारत की विभिन्‍न 'राष्‍ट्रीय' भाषाएं दरअसल उसकी राष्‍ट्रीयताएं है। इनके आधार पर ''राज्‍य'' बनाए गए तथा भारत कहा जाने वाला राष्‍ट्र इन राज्‍यों का ही एक संघ भर है जो गणतंत्रात्‍मक है।  इस बात का विधिक-तकनीकी मतलब मात्र इतना है कि विभिन्‍न भाषिक राष्‍ट्रीयताएं मिलकर एक गणतंत्रात्‍मक ढांचा तैयार करती हैं जो भारत-राष्‍ट्र कहलाता है। ये राष्‍ट्रीयताएं भारत राष्‍ट्र की मातहत संरचनाएं नहीं हैं वरन उसकी स्रोत संरचनाएं है। ये हैं तो भारत है तथा 'किसी भारत' को हक नहीं कि वे इन राष्‍ट्रीयताओं का दमन करे या इन पर राज करे।
अब जरा विचार करें कि ''भारत बनाम इंडिया'' की जो बहस उठाई जाती है वो क्‍या है। मूलत: इस बहस की स्‍थापना है कि भारत के अवसरों, संसाधनों व निर्णयन पर इस तबके का कब्‍जा है जो ''इंडिया'' से व्‍यक्‍त होता है। इसकी पहचान के बाकी मानकों के अतिरिक्‍त सबसे महत्‍वपूर्ण यह है कि ये खुद को अंग्रेजी में व्‍यक्‍त करता है तथा उसके साथ ही अपनी पहचान को देखता है। ये पुन: एक भाषिक राष्‍ट्रीयता ही है। किसी भी प्रकार के निर्णयन में भारतीय राष्‍ट्रीयताओं का दमन कर उनपर एक भिन्‍न राष्‍ट्रीयता का आरोपण उस आपसी समझदारी का  सीधा उल्‍लंघन है जो इन भाषिक राष्‍ट्रीयताओं ने भारत की निर्मिति में अपनाई थी ऐसे में सहज स्‍वाभाविक अपेक्षा होनी चाहिए कि ये भाषिक राष्‍ट्रीयताएं अपने राष्‍ट्र का स्‍वयं निर्माण करें, राष्‍ट्र वे पहले से हैं बस उनके देया पर कब्‍जा किसी और का है उसे आजाद कराने का सवाल है।
भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष करने वाले एक मित्र अक्‍सर ये उदाहरण देते हैं कि हमारा देश लाख अहिंसावादी करार दिया जाए सच्‍चाई ये है कि वह सुनता तभी है जब कोई हथियार उठाए। सिखों का उदाहरण लें हम जीभर उन पर चुटकले गढकर..उनका उपहास करते रहे किंतु जब वे अपने राष्‍ट्र के लिए बंदूके उठाकर खड़े हुए तो कुछ कुर्बानियॉं गईं, आंतकवादी करार दिया गया, दमन कर दिया गया तथापि देश ने नरसंहार भी किया किंतु ये भी सच है कि मुख्‍यधारा में उनके लिए जगह तब ही बन पाई जब वे इस ''अखंडता'' के लालीपॉप से परे देख पाए। भाषिक राष्‍ट्रीयता अभी उस मुकाम पर पहुँची नहीं है लेकिन अंग्रेजियत के हाथो दमन व अपमान अब उस शिखर पर पहुॅच रहा है कि कुछ बलिदान देना पड़ेगा कुछ सजाएं भी दी जानी होंगी। ऐसे हर राष्‍ट्र को खारिज किए जाने की जरूरत है जो उन राष्‍ट्रीयताओं का अपमान करता है जिनसे वह बनता है। यह भी अहम है ये अंग्रेजी को हटाकर हिन्‍दी बैठाने की लड़ाई नहीं हो सकती, जैसे गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज बैठाना आजादी नहीं है। भारतीय भाषिक राष्‍ट्रीयताओं को मिलकर अंग्रेजी-राष्‍ट्रवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। सीसैट/सेना की अफसरशाही/उच्‍च न्‍यायपालिका कई मोर्चे हैं जीत का रास्‍ता एक ही इंकलाब।

Tuesday, August 26, 2014

सरहद ही माने तो काहे की आजादी

कल शचीन्‍द्र आर्य ने शिकायत की थी कि भई फेबु पोस्‍ट को ब्‍लॉग पर ला चेपना गलत बात है।  बात थोड़ा सही भी है अभी भी हिन्‍दी के लोग आनलाइन कोई अपार तो हैं नहीं जो हैं वो उधर भी हैं इधर भी ऐसे में दोनों जगह एक ही सामग्री पाठकश्रम के साथ अन्‍याय है। दूसरे ये भी कि ब्‍लॉगिंग व फेसबुकिंग दोनों की प्रकृति एक ही तो है नहीं। लेकिन दूसरा पक्ष भी है- फेबु पोस्‍ट की उम्र बेहद कम होती है कुछ मिनटों से लेकर एकाध घंटा फिर वह आती जाती या डूबती उतराती रहती है। जबकि ब्‍लॉग तुलनात्‍मक रूप से कहीं दीर्घायु होते हैं। इसलिए वे पेास्‍ट जिनके विषय में अगले को लगे कि इसका अचार बनाया जा सकता है उसे ब्‍लॉग के जार में रखकर धूप लगाने में कोई बुराई भी नहीं है। ब्‍लॉग पर डाली गई पोस्‍ट समझिए फिलहान अभिलेख बनाने के लिए हैं। ये जरूर है कि उधर से इधर चेपते समय उसमें लिंक फोटो तथा लेख में कुछ बदलाव या विस्‍तार की गुंजाइश रहनी चाहिए।
आज मुझे अपने इन्‍बाक्‍स में किसी बलूचिस्‍तान हाउस से बलूचिस्‍तान की आजादी के समर्थन में एक ईमेल प्राप्‍त हुई। मुझे कुछ हैरानी हुई, वो इसलिए कि मैं इस मुद्दे से कतई जुड़ा नहीं रहा हूॅ। व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे लगा कि इसे किसी न किसी तरह भारत में फैलने फैलाने की छूट मिली रही है क्‍योंकि इतना निकट होते हुए भी मुझे कभी कश्‍मीर की आजादी के समर्थन में या उत्‍तरपूर्व के अलगाववादी (चाहें तो आजादी कह लें) आंदोलनों को इतना खुलकर प्रचार करते नहीं देखा। इस पर मेरी फेबु पोस्‍ट:
यदि आपके इन्‍बॉक्‍स में बिना किसी सदस्‍यता, रुचि आदि के अचानक ''बलूचिस्‍तान की आजादी'' के समर्थन में कोई ईमेल आ टपके जो किसी एक्टिविज्‍म से न उपजी हो वरन पीआर परिघटना लगे तो बलूचिस्‍तान या पाकिस्तान पर तो नहीं किंतु अपने आनलाइन एक्टिविज्‍म पर आलोचनात्‍मक नजर की जरूरत तो है। तो भैया बलूचिस्‍तान हाऊस वालो अगर वाकई पाकिस्‍तान में आपके मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, दमन का आप शिकार हैं तो मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं किंतु अगर किन्‍हीं भारतीय ऐजेंसियों के प्रभाव में आप फूल रहे हों तो जान लीजिए कि हम अपने ही देश के बीसियों समुदायों की इच्‍छा व मानवाधिकारों के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं- इरोम शर्मिला आपको बता देंगी हमारे ''राज्‍य'' की हकीकत। व्‍यक्तिगत तौर पर जमीन से उभरे हर सांस्‍कृतिक/अस्मिता संघर्ष को मेरी शुभकामनाएं हैं जो देश कहे जाने वाले आतताई ढांचे से लड़ रहे होते हैं बशर्ते वे ऐसा किसी और देश के बहकावे या भरोसे न कर रहे होते हों। इस लिहाज से सिर्फ बलूचिस्‍तान ही क्‍यों कश्‍मीर, नागालैंड, तिब्‍बत सभी की आजादी के लिए शुभकामनाएं। 


Sunday, August 24, 2014

रूप-क्षय से भय

उम्र के बीतने के साथ एक बड़ी गड़बड़ ये है कि ये अकेले आपकी नहीं बढ़ती और अगर आपने उम्र से बड़ों और छोटों के साथ बराबरी की दोस्ती की दुर्लभ कला नहीं सीखी हुई है तो आप अक्सर उन लोगों के इर्द गिर्द हो जाते हैं जो अापकी ही तरह बढ़ती उम्र के होते हैं। कल की मनीषा की ब्लॉग पोस्ट ने मजबूर किया कि अपने आस पास बढ़ती उम्र से भयाक्रांत चेहरों को याद करूं। पोशाक-पार्लर-प्रसाधन, खुशी या जरूरत के लिए नहीं - डर के कारण। हमने शायद सभी औरतों को ये अहसास करा दिया है कि रूप है तो तुम हो... उन्हें रूप बचाने में लगे रहने दो (सो भी कोई बची रहने वाली चीज़ थोड़े है) - इस तरह  औरतें रूप-क्षय के अपने भय में लड़ने के लिए मॉल दर मॉल पोशाकों के लिए भटकती हैं या फिर पार्लर या शीशे के सामने इस युद्ध के अपने हथियार मांजती हैं... दुनिया उनके ज़ेहन से थोड़ा धुंधला जाती हैा हम पुरुष दुनिया हम अपने लिए बचाए रख सकते हैं।

Thursday, August 21, 2014

राष्‍ट्र को राष्‍ट्र रहने दो...उसे इज़राइल न करो

अमेरिका के मिसोरी प्रांत के फर्ग्‍यूसन इलाके में आजकल कोहराम मचा हुआ है। एक 18 साल के निहत्‍थे अश्‍वेत पर एक पुलिस अधिकारी ने गोली चलाकर उसकी जान ले ली। उसके बाद से वहॉं अशांति की स्थिति है। अपने ही निहत्‍थे असैनिक नागरिकों पर हिंसा को अक्‍सर राष्‍ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद विरोध आदि के सहारे  सही ठहराने के कोशिश होती रही है। किंतु जो लोग अातंकवाद, राष्‍ट्रीय सुरक्षा या ऐसे ही जुमलों का इस्‍तेमाल अति राष्‍ट्रवाद को हवा देने के लिए करते हैं उनसे सावधान होने की जरूरत है। समाज का मिलिटराइजेशन व आंतरिक सुरक्षा के लिए जासूसी व अन्‍य सर्विलांस तकनीकों के विस्‍तार की वकालत इसी तबके की मांग होती है। संक्षेप में कहें तो देश का इजराइलीकरण करने की जिद। अमरीका के जिन अफसरों को इजराइलीकृत होने भेजा गया था उन्‍होंने ही वापस आकर वह हालात पैदा किए हैं जो वहॉं आजकल फर्ग्‍यूसन इलाके में दिख रहे हैं। भारत के इजराइलीकरण के पक्षधर संघी तो कोई सबक लेंगे नहीं किंतु हम प्रतिरोध करने वाले समझें कि हमारा ये विरोध फिलिस्‍तीन के समर्थन का 'अहसान' नहीं खुद भारत को बचाए रखने के जरूरत है।



Tuesday, August 19, 2014

रट मत - खटपट कर- चल अड़

राष्‍ट्रवादी दोस्‍त जिनमें मेरे कई अपने विद्यार्थी शामिल हैं अक्‍सर बेचैन हो जाते हैं जब उन्‍हें प्रतीत होता है की मेरे वक्‍तव्‍यों में 'राष्‍ट्रवाद' के लिए वो सम्‍मान नहीं दिखता जो उन्‍हें लगता है कि राष्‍ट्रवाद/देशभक्ति का स्‍वाभाविक हक है। मेरे लिए बड़े न होने की जिद में अड़े मित्रों से बस इतना कहना है कि राष्‍ट्र के प्रति अंधभक्ति बस उन प्रक्रियाओं की ओर इशारा भर करती है जो विभिन्‍न प्रतीकों से राष्‍ट्रवाद को अप्रश्‍नेय ''हॉली काऊ'' बनाकर पेश करता है। इस पर डाली गई हर सवालिया नजर को अवमानना से देखा जाता है। बावजूद इस तथ्‍य के सबके सामने होने के कि मध्‍ययुग में जितनी हत्‍याएं धर्म की बदौलत हुईं आधुनिक युग (जिसका उत्पाद 'राष्‍ट्र-राज्‍य' है) में इससे कहीं कम समय में राष्‍ट्रवाद ने इससे बहुत ज्‍यादा हत्‍याएं की हैं।
मेरे लिए राष्‍ट्र किसी भी तरह से राज्‍य के साथ हाईफनेट मातहत पद नहीं है। मेरे लिए राष्‍ट्र, जन से निसृत है तथा राज्‍य उसकी मातहत संरचना जैसे ही किसी ''राष्‍ट्रवाद'' का सहारा ले राज्‍य, राष्‍ट्र पर हावी होता है तुरंत ही राष्‍ट्रवाद सबसे बड़ा राष्‍ट्रद्रोह हो जाता है तथा ऐसे राष्‍ट्रराज्‍य की खिलाफत सबसे बड़ी देशभक्ति।
खैर राष्‍ट्रवाद पर हम सबकी राय मिले इसकी संभावना कम ही है। पर आप कम से कम इस बात की सराहना तो करेंगे कि जब से राष्‍ट्रभक्‍त सरकार के पदासीन होने की हवा चली... 'देशभक्‍त' एक व्‍यंजनापूर्ण डर्टी टर्म हो गई है (जैसे अच्‍छे दिन)!  

Monday, August 18, 2014

सरकार बादर ने मानणा त पड़ेगा

खचेढ़ू चाचा नू बताओ कि बालक जीजान से लड़े..लाठी पत्‍थर गाली खाई..भूखे प्‍यासे रहे और क्‍यूँ .. इसलिए कि भाषा जिसमें खाते-पीते-हगते-मूतते हैं उसमें इम्तिहान देने पर ईनाम मिले न मिले पर इसकी सजा नहीं होनी चाहिए। पर न जी... कितेक बेर कही पर जे सरकार बादर नई मान्‍ने तो न ही मान्‍ने।
ढीली अदवायन की चारपाई पर झूलते खचेढ़ू चाचा ने कही कि देख बेट्टा जे एक इम्तिहान, दो नौकरी, पॉंच गॉंव मांगोगे तो न मिलता झोट्टे का मूत... इसलिए बालकन ने कहिए कि दुनिया मांगो... तुम्‍हारी है तुम्‍हें ही मिलणी चाहिए... न दे त दीदे त दीदे मिला के कहो कि देख देणी त तुझे पड़ेगी। आज न त कल।

Sunday, May 04, 2014

एक एम्बेडिड कीबोर्डपीट की साफ्टफीड

बात की शुरूआत हल्‍के-फुल्‍के ढंग से की जाए तो लोगों की रूचि बन जाती है इसलिए मैं अपनी बात एक चुटकले से कर रहा हूँ। ये चुटकला आज अस्‍सी घाट के पास हासिल हुआ... यानि दिखा, लीजिए आप भी देखिए :  



 अब  हँसना बंद कीजिए भई... पोस्‍टर पर विश्‍वास नहीं करते मत करो पर ह्यूमर के नंबर तो बनते हैं अगले के।

खैर हम आजकल बनारस में हैं तथा भले ही हम आम आदमी पार्टी के विधिवत सदस्‍य नहीं हैं किंतु बनारस आए हैं केजरीवाल-मोदी संघर्ष में केजरीवाल को समर्थन देने के लिए। इसलिए इस पोस्‍ट की बातें हमने ऐम्‍बेडिड साफ्ट ब्‍लॉग करार दी हैं जिसे आप डिस्‍क्‍लेमर मान सकते हैं। बनारस पर अपनी राय यह है कि बनारस एक घंटा शहर है,  जो  बजता  नहीं वो बनारसी नहीं। फिर चाहे वो ट्रेफिक हो, लोग या धर्म यहॉं हरकुछ बस बजता है और खूब बजता है। खूब नई चमचमाती इमारत में कोई पुरानी हवेली का अहाता आ बजता है  तो इटालियन स्‍टाइल पित्‍ज़ेरिया में कुल्‍हड़। सबसे ज्‍यादा बजते हैं लोग।

प्रचार आदि के बीच में डेढ़ेक घंटे का अंतराल था हम जा पहुँचे अस्‍सी: 



यहॉं पुरोहिताई, पर्यटन,  ठुल्‍लई सब थे और थी राजनीति :



हम जा जमे एक पित्‍ज़ेरिया में जिसके बारे में हमें पहले हीबता दिया गया था कि अस्‍सी अवलोकन के लिए सबसे सही बाल्‍कनी सीट यही पित्‍ज़ेरिया है


हम  जा बैठे गंगा और माहौल को पीने लगे जाहिर है कुछ आर्डर करना ही था तो हमने इस द्रव को चुना इससे पहले की बनारस में अवतरित हुए  मोदी लठैत हमें घाट पर बीयर पीने के आरोप में दुरस्‍त करने आ धमकें देख लें कि ग्रीन टी भर है साथ में जैम वाली ब्राउन ब्रेड थी मतलब शाम बन गई । सेल्‍फी हम भी ले सकते हैं सरजी: 



अब दिल्‍ली वाले जानते हैं कि प्रदूषण ने किया हो या मोबाइल टावर ने परअब ऐसा कर दिया गया है कि घरेलू चिडि़या हमारे लिए विज्‍युअल एक्‍जॉटिका हो गई है। 



वैसे शाम बन ही नहीं ढल भी गई थी अब चूंकि गंगा अपनी आरती करवाने की तैयारी करने लगी थीं इसलिए हम अपनी नास्तिकता को अक्षत बचाए वहॉं से निकल लिए 



वापसी में हमारी नजर पड़ी की सीडि़यों पर रामदेव सटे पड़े हैं कि मोदी सेल में मुफ्त शिविर लगा अपने नंबर बढ़ाए जाएं