आप किसी विचार या सरणी में यकीन रखते हों तो जरूरी नहीं कि उसकी हर केनन से सहमत ही हों। मसलन समाज में स्त्री अधिकारों का सवाल मुझे अहम लगता है इससे मेरा जुडा़व तथा सहमति भी है। स्त्री विमर्श में घरेलू श्रम को उत्पादक मानने की एक बेहद लोकप्रिय धारा है। इनका मानना है कि घरेलू स्त्रियॉं (हाउसवाईव्स) को काम नहीं करती नहीं माना जाना चाहिए.. फिर इसके पक्ष और अनेक सिद्धांत भी हैं जैसे उनके द्वारा सुबह से शाम तक किए जाने वाले कामों का आर्थिक मूल्य लगाकर ये सिद्ध किया जाता है कि देखिए इस काम को कामकाजी स्त्रियों से तुलना करके देख लें वगैरह वगैरह। इसके ही समानांतर परिवार संस्था का महिमामंडन व इसके लिए हाउसवाईव्स का त्याग वगैरह भी गिनाया जाता है। ये सारे तर्क खारिज किए जा सकने वाले नहीं हैं न ही किसी के घर पर रहकर परिवार का पालन करने की पसंद (च्वाइस) या मजबूरी को उसके अपमान या शोषण का आधार बना सकने की कोई वकालत ही कर रहा हूँ। अपने ही परिवार व पास पड़ोस के अनुभवों के आधार इसे भी स्वीकार करता हूँ कि हाउसवाइफ होना बिना मेहनत का काम नही है। किन्तु...
और ये किंतु एक बड़ा किंतु है। किंतु ये कि ये घरेलू श्रम अक्सर स्त्री विरोधी तथा स्थापित संस्थाओं को मजबूत करने में अधिक इस्तेमाल होता है। परिवार और पितृसत्ता के जितने भी मानक हैं उनमें से किसी से भी टकराने के लिए जिन औजारों की जरूरत है वे इन स्त्रियों के पास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते। घरेलू स्त्रियॉं 'बाय च्वाइस' घरेलू हैं ये भी अधिकतर एक भ्रम ही होता है क्योंकि सजग रूप से इन विकल्पों पर बराबरी के साथ कभी विचार हमारी परिवार संरचनाओं में संभव ही नहीं होता... शिक्षा, अवसर या आत्मविश्वास की कमी, पति के पास पहले से रोजगार का होना और सबसे बड़ा- बच्चों का होना अक्सर वे बेरिएबल होते हैं जो स्त्रियों को घरेलू बनाते हैं और फिर इनसे जूझते जूझते इन स्त्रियों के साथ ठीक नहीं होता है जो काफ्का की कहानी मेटामारफोसिस के पात्र के साथ होता है यानि एक तरह का काम करते करते आप खुद ही कायांतरित होकर वेसा ही कुछ बन जाते हैं- काफ्का का पात्र खुद कॉकरोच बन जाता है। इसी पर आधारित 'एक चूहे की मौत' में ये और सजीवता से व्यक्त होता है जब चूहेमारी करते करते ख्ूहेमार खुद चूहा बन जाता है। आशय यह है कि हो सकता है कि कुछ सपने पाले युवती को लगे कि बस पति का शुरूआती जिंदगी में साथ देने के लिए अभी घरेलू कामकाज सही पर फिर धीरे धीरे यही जीवन रेगुलेरिटी में आता है तथा यही घरेलू स्पेस ही इसका मानसिक स्पेस भी बन जाता है और फिर सीमा और पहचान भी। सोच का दायरा फिर वही हो जाता है तथा चूंकि यह स्पेस बेहद जेंडर्ड स्पेस है अत: उसकी सोच भी न केवल इसी दायरे में बंद होती जाती है बल्कि जाने अनजाने सारी ताकत इसे दृढ़ करने में लगती है। मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी रसोई मेरा घर... यकीनन इनमें भी खबू ताकत व श्रम लगते हैं तथा इन्हें अगर भुगतान करके करवाया जाए तो धन भी लगेगा किंतु जब घरेलू स्त्री इनमें श्रम व जीवन लगाती है तो यह श्रम परिवार को समतामूलक बनाने में नहीं लग रहा होता, ये इस मायने में उत्पादक भी नहीं होता कि अर्जन व व्यय की समता ला सके सबसे खतरनाक ये कि यह लगभग सदैव चली आ रही स्त्री विरोधी संरचनाओं को पुष्ट करने तथा इसे अगली पीढ़ी में स्थानांतरित करने में अहम भूमिका अदा करता है। कामकाजी व घरेलू महिलाओं के बीच की कटुता व संघर्ष जो चहुँ ओर सहज दिखाई देती है इसका ही उदाहरण है। (मॉंओं के) लाड़ प्यार में पाली गई संतानों का अधिकाधिक डिपेंडेंट होना तथा ज्यादा 'पुरुष' या 'स्त्री' टाईपबद्ध होना भी इसका ही परिणाम है।
स्त्री के घरेलूश्रम की आर्थिक गणना करने से कुछ नहीं होगा या तो इसे मोनेटाइज करना होगा... यानि वाकई काम को आउटसोर्स किया जाए कोई और पेशेवर तरीके से इसे करे तथा इसके भुगतान का जिम्मा साथ कमाकर किया जाए, दूसरा तरीका यह है कि यदि घर के ही लोगों में इसका वितरण होना है तो काम को पूरी तरह डीजेंडर्ड किया जाए तथा बराबर बॉंटा जाए ये तभी संभव है जब बाहर के काम को भी इसी तरह बॉंटा जाएगा। आसान भाषा में कहें तो स्त्री शोषण की मूल भूमि परिवार की संरचना है तथा स्त्री के घरेलू रहते इसे पुनर्संरचित किया ही नहीं जा सकता है। घरेलू स्त्रियॉं इस गैरबराबरी को बनाए रखने के लिए पितृसत्ता का सबसे मजबूत औजार हैं। सबसे अहम है कि घरेलू कामकाम को ग्लोरिफाई करने से बचा जाए। स्पेस डीजेंडरिंग जिसमें मेंटल स्पेस शामिल है की शुरूआत घर की जिम्मेदारी (व कब्जा) सिर्फ औरतों को न देने से ही हो सकती है। परिवार की स्त्रियों का कामकाजी होना कोई अपने आप में पितृसत्ता का घोषणापत्र नहीं है किंतु इसका अभाव पितृसत्ता का विजयघोष अवश्य है।
और ये किंतु एक बड़ा किंतु है। किंतु ये कि ये घरेलू श्रम अक्सर स्त्री विरोधी तथा स्थापित संस्थाओं को मजबूत करने में अधिक इस्तेमाल होता है। परिवार और पितृसत्ता के जितने भी मानक हैं उनमें से किसी से भी टकराने के लिए जिन औजारों की जरूरत है वे इन स्त्रियों के पास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते। घरेलू स्त्रियॉं 'बाय च्वाइस' घरेलू हैं ये भी अधिकतर एक भ्रम ही होता है क्योंकि सजग रूप से इन विकल्पों पर बराबरी के साथ कभी विचार हमारी परिवार संरचनाओं में संभव ही नहीं होता... शिक्षा, अवसर या आत्मविश्वास की कमी, पति के पास पहले से रोजगार का होना और सबसे बड़ा- बच्चों का होना अक्सर वे बेरिएबल होते हैं जो स्त्रियों को घरेलू बनाते हैं और फिर इनसे जूझते जूझते इन स्त्रियों के साथ ठीक नहीं होता है जो काफ्का की कहानी मेटामारफोसिस के पात्र के साथ होता है यानि एक तरह का काम करते करते आप खुद ही कायांतरित होकर वेसा ही कुछ बन जाते हैं- काफ्का का पात्र खुद कॉकरोच बन जाता है। इसी पर आधारित 'एक चूहे की मौत' में ये और सजीवता से व्यक्त होता है जब चूहेमारी करते करते ख्ूहेमार खुद चूहा बन जाता है। आशय यह है कि हो सकता है कि कुछ सपने पाले युवती को लगे कि बस पति का शुरूआती जिंदगी में साथ देने के लिए अभी घरेलू कामकाज सही पर फिर धीरे धीरे यही जीवन रेगुलेरिटी में आता है तथा यही घरेलू स्पेस ही इसका मानसिक स्पेस भी बन जाता है और फिर सीमा और पहचान भी। सोच का दायरा फिर वही हो जाता है तथा चूंकि यह स्पेस बेहद जेंडर्ड स्पेस है अत: उसकी सोच भी न केवल इसी दायरे में बंद होती जाती है बल्कि जाने अनजाने सारी ताकत इसे दृढ़ करने में लगती है। मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी रसोई मेरा घर... यकीनन इनमें भी खबू ताकत व श्रम लगते हैं तथा इन्हें अगर भुगतान करके करवाया जाए तो धन भी लगेगा किंतु जब घरेलू स्त्री इनमें श्रम व जीवन लगाती है तो यह श्रम परिवार को समतामूलक बनाने में नहीं लग रहा होता, ये इस मायने में उत्पादक भी नहीं होता कि अर्जन व व्यय की समता ला सके सबसे खतरनाक ये कि यह लगभग सदैव चली आ रही स्त्री विरोधी संरचनाओं को पुष्ट करने तथा इसे अगली पीढ़ी में स्थानांतरित करने में अहम भूमिका अदा करता है। कामकाजी व घरेलू महिलाओं के बीच की कटुता व संघर्ष जो चहुँ ओर सहज दिखाई देती है इसका ही उदाहरण है। (मॉंओं के) लाड़ प्यार में पाली गई संतानों का अधिकाधिक डिपेंडेंट होना तथा ज्यादा 'पुरुष' या 'स्त्री' टाईपबद्ध होना भी इसका ही परिणाम है।
स्त्री के घरेलूश्रम की आर्थिक गणना करने से कुछ नहीं होगा या तो इसे मोनेटाइज करना होगा... यानि वाकई काम को आउटसोर्स किया जाए कोई और पेशेवर तरीके से इसे करे तथा इसके भुगतान का जिम्मा साथ कमाकर किया जाए, दूसरा तरीका यह है कि यदि घर के ही लोगों में इसका वितरण होना है तो काम को पूरी तरह डीजेंडर्ड किया जाए तथा बराबर बॉंटा जाए ये तभी संभव है जब बाहर के काम को भी इसी तरह बॉंटा जाएगा। आसान भाषा में कहें तो स्त्री शोषण की मूल भूमि परिवार की संरचना है तथा स्त्री के घरेलू रहते इसे पुनर्संरचित किया ही नहीं जा सकता है। घरेलू स्त्रियॉं इस गैरबराबरी को बनाए रखने के लिए पितृसत्ता का सबसे मजबूत औजार हैं। सबसे अहम है कि घरेलू कामकाम को ग्लोरिफाई करने से बचा जाए। स्पेस डीजेंडरिंग जिसमें मेंटल स्पेस शामिल है की शुरूआत घर की जिम्मेदारी (व कब्जा) सिर्फ औरतों को न देने से ही हो सकती है। परिवार की स्त्रियों का कामकाजी होना कोई अपने आप में पितृसत्ता का घोषणापत्र नहीं है किंतु इसका अभाव पितृसत्ता का विजयघोष अवश्य है।
1 comment:
प्रिय मसिजीवी,
आपकी बात से सहमत हूँ पर पता नहीं, विश्लेषण की प्रणाली में पता नहीं ऐसा क्या था कि कुछ अड़चन सी लग रही है। यह तर्क तोड़ने की बात तो कर रहा है पर तर्क की प्रणाली भी टूटी टूटी लगती है. जाति तोड़ दो, भाषावाद तोड़ दो, वंशवाद तोड़ दो, क्षेत्रवाद तोड़ दो और न जाने कितने ही ऐसे तोड़ने के संदेसे पिछले सौ सालों से मानते आये हैं और मनवाते भी आये हैं पर इतना कुछ टूटने के बाद भी नए का कोई दर्शन नहीं हो रहा. अब उसको युग कहने की अति नहीं करूंगा पर कुछ तो ऐसा है जो फिर से बुना जाना चाहिए और जैसे ही उसका नाम लेते हैं तो जर्जर ताकतें उस पर काबिज़ होकर फिर से जवान हो जाती हैं. इसी संकट काल में जब हम अकाल में दूब ढूंढते हैं और वहां आप कह देंगे कि यह भी तोड़ दो, तो दूब को देखने का तर्क कौन निर्मित करेगा? अदृश्य की साधना की कामना आप से कर रहा हूँ, माफ़ कर दीजियेगा. पर सच कोई जोड़ने जैसी चीज़ होती है, टूट तो भाई चुके हैं, और जो थोडा बचा होगा तो वो भी टूट ही जायेगा!
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