Tuesday, August 10, 2010

विष्‍णु खरे हमारी ही बात कर रहे हैं

कॉलेज में एक आल्‍हादित साथी ने प्रसन्‍नमुख बताया कि आज विष्‍णु खरे ने जनसत्‍ता में खूब खरी खरी (खरी खोटी) सुनाई है हिन्‍दी के पाखंडियों को।  मैं तो सहम गया क्‍योंकि जब भी हिन्‍दी के पाखंडियों, हिन्‍दीखोरों, हिन्‍दी के दलालों आदि की बात होती है तो मैं सोचने लगता हूँ कि हम खुद को इस श्रेणी से किस आधार पर अलगा सकते हैं? अखबार पढ़ना कॉलेज से आने के बाद ही हो पाता है, इसलिए अपनी प्रतिक्रिया स्‍थगित रखी अब आकर पढ़ा ... छिनाल प्रकरण के बहाने विष्‍णु खरे हिन्‍दी अकादमिक व साहित्‍ियक जगत में फैले भ्रष्‍टाचार पर जमकर चोट कर रहे हैं, तथा ये केवल कालिया या राय का ही मसला नहीं है... इसमें कई मठाधीशों, ठुल्‍लों व दल्‍लों को पिटते देख मिलने वाला सैडिस्टिक प्‍लेज़र है सो अपनी जगह। किन्‍तु ऐसा नहीं कि हम खुद को इस पिटाई की ज़द से बाहर मान सकें मसलन क्‍या इन पंक्तियों में हमारा ही वर्णन नहीं हो रहा है -

अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही अक्षतयोनापुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से कामायनीन पढ़ा कर कुट्टनीमतं काव्यंपढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।

देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है – वहां यही लोग तो ‘एक्सपर्ट’ बन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं।

खैर इस पर आप पूरी राय बना सकें इसलिए विष्‍णु खरे का यह लेख जनसत्‍ता तथा जगदीश्‍वरजी दोनों से साभार आपके सामने प्रस्‍तुत है...आने वाले कुछ दिन हिन्‍दी की दुनिया में इससे हल्‍ला रहने वाला है। तो पढ़ें -

साहित्य में प्रमाद -विष्णु खरे(1)


हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में बुग्ज-ए-लिल्लाहीजैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।

छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।

उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।

यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने छिनालके इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (पतितके साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।

गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने छिनालशब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है यानी उसे कबूल किया है और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।

इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्सया बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?

इस मामले को विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएंमानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।

प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।

यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।

यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर बा मुहम्मद होशियारजैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।

लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैंवाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।

आप एक्सपर्टबन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।

हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में पुरुष-वेश्याही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही अक्षतयोनापुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से कामायनीन पढ़ा कर कुट्टनीमतं काव्यंपढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।

देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है वहां यही लोग तो एक्सपर्टबन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।

यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। अकविता आंदोलनके बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।

विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (नैक्सस’) के बिना संभव न होता। नया ज्ञानोदयके संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ज्ञानोदयदरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी वल्गरप्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।

मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के धर्मयुगऔर सारिकासे होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।

साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया। (क्रमशः)

Wednesday, July 14, 2010

पेड न्‍यूज ??

जनसत्‍ता के मुख्‍यपृष्‍ठ पर आज एफई बैंकिंग पुरस्‍कारों से जुड़ी ये खबर है-

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दिक्‍कत खबर को पढ़ने से पेश आती है क्‍योंकि खबर ये बताने में असफल रहती है कि पुरस्‍कार आखिर मिला किसे... कुछ और ध्‍यान से पढ़ने से पता लगता है कि खबर केवल पुरस्‍कार आयोजन को प्रोमोट करने के लिए है (क्‍यों न हो एफई यानि फाइनेंशियल एक्‍सप्रेस खुद एक्‍सप्रेस समूह का ही तो प्रकाशन है) असली चेहरा खबर के शेष को पढ़ने से साफ होता है-

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खबर के नीचे समारोह के प्रायोजकों के लोगो ???

वाल सिर्फ इतना कि ये 'खबर' कोई खबर है या केवल प्रोमोशन....

Wednesday, May 05, 2010

हिन्‍दी पुस्‍तकों का एक खजाना...मुफ्त में

शिक्षाविद अरविन्‍द गुप्‍ता ने एक पूरा खजाना अपनी वेबसाइट पर हमारे आपके लिए उपल‍ब्‍ध करवाया है एकबारगी तो विश्‍वास ही नहीं हुआ कि इतनी शानदार हिन्‍दी किताबें नेट पर उपलब्‍ध हैं। खासतौर पर यदि आप शिक्षक हैं या शिक्षा अथवा बच्‍चों में आपकी कोई रुचि है तो इन किताबों को जरूर देखें कम से कम कुछ को अवश्‍य पढ़ें तथा अपने बच्‍चों को पढ़वाऍं। हिन्‍दी की उपलब्‍ध किताबों की सूची मैं लिंक सहित नीचे कापी पेस्‍ट कर रहा हूँ...आप इस पेज को बुकमार्क कर लें तथा इत्‍मीनान से एक एक कर पढें तथा अरविन्‍दजी को धन्‍यवाद दें-

 

Thursday, April 29, 2010

चूर चांदनी से चीयर-गर्ल्‍स - एक यात्रा

साल भर काम करने (या काम करने का अभिनय करने) के बाद छुट्टियॉं शुरू हो गई हैं। कक्षाएं तो एक महीने पहले ही समाप्‍त हो गई थीं इसलिए बीच में कुछ दिन निकालकर पहाड़ों पर एक सप्ताह बिता आए। आज इसी यात्रा को आपसे साझा करने का मन है। इस ब्लॉग पहले भी कई यात्राओं पर पोस्‍ट हैं लेकिन इस बार अलग ये था कि हमें परिवार के साथ न जाकर एक दोस्‍त के साथ इस यात्रा पर गए थे- इसलिए इस या उस तरह के इंतजाम में सर खपाना, सुरक्षा या सुविधा की विशेष चिंता करना आदि का पंगा नहीं था... एक दम जाट मुसाफिर किस्‍म की यात्रा थी इसलिए आनंद गारंटिड था। उत्‍साह इसलिए भी था कि ये दोस्‍त पुराना कॉलेज के समय का साथी है हद दरजे की बेतकल्‍लुफी का संबंध है हम दोनों ड्राइविंग भी कर लेते हैं।

तो यात्रा शुरू हुई 12 अप्रैल की दोपहर के ही लगभग अपनी गाड़ी एविओ युवा में अपना एक एक बैग डाला और चढ़ बैठे राष्‍ट्रीय राजमार्ग संख्‍या एक पर। कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं था बस इतना सोचा था कि चार पॉंच दिन हिमाचल घूमेंगे और इसी क्रम में पता लगा तो 16 अप्रैल को धर्मशाला में होने वाले आईपीएल मैच की टिकट भी इंटरनेट से बुक करवा लीं तेरह सौ पचास रुपए लगे और कम से कम हम लफंडरों की यात्रा का एक मुकाम तो तय हो गया कि चार दिन बाद धर्मशाला पहुँचेंगे। इसी तरह इस दोस्‍त के एक छात्र का बार बार का आग्रह था कि सर यात्रा की शुरूआत उनके यहॉं से की जाए...ये छात्र फिलहाल रेणुका झील वाले इलाके के तहसीलदार हैं। तो तय हुआ कि 12 को रेणुका और 16 को धर्मशाला 17 या 18 को घर वापस बाकी जैसा रास्‍ते में तय हो।

12 को कॉलेज के दिनों की याद और एक दूसरे की टांग खींचते चार बजते न बजते रेणुका जा पहुँचे-

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सिरमौर इलाके की यह रमणीक झील के धार्मिक महत्‍व पर तो हमसे कुछ उम्‍मीद न रखें पर वैसे सुंदर व शांत जगह थी। गेस्‍ट हाउस आरामदेह था तथा खातिरदारी दमदार थी (जब भी ऐसी खातिरदारी होती है बार बार मन करता है कि मेजबान को झकझोर कर कहें कि भई फिर सोच लो ये हम हैं...एंड वी जस्‍ट डोन डिजर्व इट, डू वी ?)  खैर वहीं तय हुआ कि जब यहॉं पहुँचे ही हैं तो क्‍यों न शिमला सिरमौर क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी चूर-चॉंदनी तक की ट्रेकिंग की जाए हमने आइडिए को झट से लपक लिया। आगे की वयवस्‍था भी झट हो गई  अगले दिन सुबह नौराधार के लिए रवाना हुए जहॉं से चूर चॉंदनी (स्‍थानीय लोग इसे चूड़ेश्‍वर महादेव के नाम से जानते हैं) का ट्रेक शुरू होता है। नौराधार के एक छोटे से रिसॉर्ट में हमारे विश्राम तथा लंच की व्‍यवस्‍था थी थोड़े आराम के बाद हम चले- अब तक स्‍प्‍ष्‍ट हो चुका था कि जैसा पहले पता चला था उसके विपरीत ये ट्रेक केवल 4-5 घंटे का नहीं वरन कम से कम नौ दस घंटे का था तथा काफी मुश्किल किस्‍म का था। आगे की कहानी चित्रों से

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अंतिम फ्रेम के इन जूतों ने इस ट्रेक में क्‍या क्‍या नहीं सहा। रात 11 बजे हम ऊपर पहुँचे उस थकान में तो कुछ आनंद लेने की स्थिति में थे नहीं सो मंदिर की सराय में एक बकरी व एक कुत्‍ते वाले कमरे में कुल जमा पंद्रह किराए के कंबलों में थकान व ठंड से लड़ते रहे। सुबह उठकर देखा तो आस पास की बर्फ और हिमालय के शिखरों के दृश्‍य देख मन नाच उठा।  अगले दिन शाम तक वापसी हुई, थके थे पर तय किया कि धर्मशाला की दिशा में प्रस्‍थान किया जाए... नौराधार से राजगढ़-सोलन होते हुए पिंजौर पहुँचे जहॉं जिस गेस्‍ट हाउस में सोने की व्यवस्‍था थी वह बेहद भव्‍य था उसका लॉन देखें-

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खैर आगे धर्मशाला-मैक्‍लॉडगंज और फिर आईपीएल का मैच-

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यह आईपीएल मैच हिमाचल के लिए अब तक का सबसे बड़ा खेल आयोजन था सारा सरकारी अमला इसे सफल बनाने में जुटा था..दसेक हजार की आबादी के शहर में पच्‍चीस हजार की क्षमता का मैदान और पूरा फुल-

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आईपीएल कोई खेल नही पूरा तमाशा भर है। खैर रात 10:30 बजे जब दूसरी पारी के पॉंच ओवर फेंके जा चुके थे हमने लौटने का निर्णय लिया और सारी रात गाड़ी चलाते हुए सुबह नौ बजे वापस घर पहुँचे। तस्‍वीरें कुछ बताती हैं लेकिन यात्रा का असली आनंद उसे भोगने में ही है हमारे लिए ये बरसों बाद खुद में झांकने की यात्रा थी जो एक शानदार याद बन गई है।

Thursday, February 18, 2010

विनीत का जुकाम 2.0

ईमेल को सार्वजनिक न करने को लेकर एक आचार संहिता सी बन गई है पर फेसबुक/आर्कुट/टि्वटर/बज्‍़ज जैसे स्‍पेस कहीं कम निजी हैं तथा उन्‍हें शेयर करने के मामले में अभी एंबीग्‍युटी (अस्‍पष्‍टता)  है इसका लाभ उठाते हुए अपने बज्‍़ज एंकाउंट से विनीत के सर्दी जुकाम का 2.0 संस्‍करण आपके सामने पेश कर रहा हूँ-

मामला सिर्फ इतना है कि विनीत ने 3:55 PM पर बज्‍़ज (पब्लिक)  किया -

 PRO VINEET

3:55 pm vineet kumar - Buzz - Public -
तमाम कोशिशों के बावजूद भी आखिर आ ही गया- सर्दी,खांसी और बुखार की चपेट में।..रियली,बहुत गंदा फील कर रहा हूं।

इस पर जो बज्‍़ज-पंचायत हुई उसे जस का तस पेश कर रहे हैं..अंतिम बज्‍़ज पोस्‍ट किए जाने के  वक्‍त था...उसके बाद के अपडेट इसमें शामिल नहीं हैं- कैसे वेब 2.0 सीधे सादे जुकाम को पहले डीकंटेक्‍स्‍चुअलाइज कर और फिर शरारती तरीके से रीकंटेस्‍चुअलाइज कर बैठता है इसे देखें- जबरिया दिशा देने वाले जो पद हमें‍ दिखे उन्‍हें हमने बोल्‍ड व रंगीन कर दिया है बाकी कोनो छेड़छाड़ नहीं की है-

dilip mandal - सलाह- गर्म पानी से गरारे यानी गार्गलिंग करें, एक गिलास पानी में एक चम्मच के थोड़ा कम नमक डालें- दिन में कम से कम चार बार।

एक बर्तन में पानी उबालें और भाप लें। कंबल ओढ़ कर भाप लेना अच्छा होता है, दिन में तीन बार। जितना हो सके कफ को बाहर निकालें।

खूब फल खाएं खासकर इस मौसम में संतरा। नींद पूरी लें। खूब पानी पीएं। जुकाम के प्रभाव को कम करने के लिए दिन में एक सिट्रिजीन की गोली लें। एक ही।

धूल धुएं से जितना बच सकें, उतना बचें।4:28 pm

ajay brahmatmaj - अपना तो एक ही इलाज है दिन में खौलता गर्म पानी और शाम में वह कोई रंग ले ले तो जुकाम की बला।4:39 pm

ajit anjum - तुम जवानी में बीमार बहुत पड़ने लगो हो . मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रहा है . दिलीप मंडल की सलाह मानकर भी कुछ नहीं होगा ....9:00 pm

Manisha Pandey - अजीत जी ठीक कह रहे हैं। इलाज कुछ और ही है दोस्‍त। देखो कोई रूपसी हो आसपास।9:43 pm

Prashant Priyadarshi - बाप रे.. एक सर्दी पर इत्ता बवाल? सर्दी जुकाम तो हमें भी है, हमें तो कोई सलाह नहीं देता!! :)10:02 pm

मसिजीवी blog - नहीं मनीषा की बात पर कान न देना.... two wrongs dont make a right :)Edit10:10 pm

vineet kumar - मनीषा की दिली तमन्ना है कि मेरे नाक से पानी निकलने के बजाय आंखों से आंसू चूने लग जाए। जो कि मैं उसके कहे पर कभी नहीं होने दूंगा। बाकी अजीतजी ने जो सलाह दी है तो साल छ महीने बाद उन्हीं पर ये जिम्मेदारी डालने जा रहा हूं। दिलीपजी की बतायी बातों को सीरियसली ले रहा हूं और अजयजी के सुझावों का असर इतना अधिक है कि जब भी गरम पानी पीता हूं उनका ख्याल आता है।..10:30 pm

vineet kumar - अनुभव नहीं है इस मामले में सर। आप कह रहे हैं तो मान ले रहा हूं। एकाध बार कोशिश की थी लेकिन इन्टर्नशिप की आपाधापी में मामला गड़बड़ा गया और प्रोड्यूसर ने इतनी शिफ्ट बदली कि कुछ ठोस होने नहीं दिया। एक पोस्ट भी लिखी है।..अब इस बुढ़ापे में क्या कोशिश करुं।..10:38 pm
ajit anjum - विनीत , दिलीप मंडल और अजय जी , मसिजीवी जैसे बुद्धिजीवियों की बातों पर बिल्कुल ध्यान मत देना . ये सब बाबा आदम के जमाने के टोटके बता कर तुम्हारी सेहत ठीक करना चाहते हैं . बीमारी की जड़ पर नहीं जा रहे हैं . तुम मनीषा जी की सलाह पर चलो . तबियत ऐसी हरी होगी कि पुदीन हरा भी बेकार हो जाएगा . इस उम्र में इस किस्म की बीमारी ठीक नहीं . फेसबुक पर भी तुम बुद्धिजीवियो के चक्कर में रहते हो . काम भी उसी तरह का करते हो . सोच -विचार भी बौद्धिक है . इस लबादे से बाहर झांको . बीमारी का दवा कहीं न कहीं जरूर मिलेगी10:50 pm

मसिजीवी- अजीतजी भरमा रहे हैं रहे हैं विनीत सावधान... गरम पानी, रंगीन पेय से चिकित्‍सा या स्‍त्री- पदार्थ दोनों में से कौन सा ज्‍यादा पुराना (बाबा आदम के जमाने के टोटके ..) है खुद ही सोचो :)11:00 pm

vineet kumar - आपलोग जो मेरी बीमारी पर इतनी पंचैती कर रहे हैं। बीमारी की जड़ है कि मेरी जब भी तबीयत खराब होती है..मेस का खाना ताकने का मन नहीं करता और लगभग दिनभर भूखा रह जाता हूं। आपलोग घर-गृहस्थीवाले लोग है। घर का खाना खिलाइए कि देखिए तबीयत कैसी हरी हो जाती है।..11:03 pm

Friday, February 12, 2010

राजेश जोशी की एक कविता

हमारी भाषा

                                 - राजेश जोशी

भाषा में पुकारे जाने से पहले वह एक चिडि़या थी बस

और चिडि़या भी उसे हमारी भाषा ने ही कहा

भाषा ही ने दिया उस पेड़ को एक नाम

पेड़ हमारी भाषा से परे सिर्फ एक पेड़ था

और पेड़ भी हमारी भाषा ने ही कहा उसे

इसी तरह वे असंख्‍य नदियॉं झरने और पहाड़

कोई भी नहीं जानता था शायद

कि हमारी भाषा उन्‍हें किस नाम से पुकारती है

 

उन्‍हें हमारी भाषा से कोई मतलब न था

भाषा हमारी सुविधा थी

हम हर चीज को भाषा में बदल डालने को उतावले थे

जल्‍दी से जल्‍दी हर चीज को भाषा में पुकारे जाने की जिद

हमें उन चीजों से कुछ दूर ले जाती थी

कई बार हम जिन चीजों के नाम जानते थे

उनके आकार हमें पता नहीं थे

हम सोचते थे कि भाषा हर चीज को जान लेने का दरवाजा है

इसी तर्क से कभी कभी कुछ भाषाऍं अपनी सत्‍ता कायम कर लेती थीं

कमजोरों की भाषा कमजोर मानी जाती थी और वह हार जाती थी

भाषाओं के अपने अपने अहँकार थे

 

पता नहीं पेड़ों, पत्‍थरों, पक्षिओं, नदियों, झरनों, हवाओं और जानवरों के पास

अपनी कोई भाषा थी कि नहीं

हम लेकिन लगातार एक भाषा उनमें पढ़ने की कोशिश करते थे

इस तरह हमारे अनुमान उनकी भाषा गढ़ते थे

हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है

हम सोचते थे कि इस भाषा से

हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे 

                                (कविता संग्रह - 'दो पंक्तियों के बीच ' से साभार)

Thursday, February 11, 2010

भड़ास-मोहल्‍ला अब ( मौसेरे) भाई भाई

यह पोस्टिका एक रहस्‍यपूर्ण सूचना बॉंटने भर के लिए है। आप में से कुछ को अवश्‍य ही मोहल्‍ला के विषय में याद होगा ऐसे ही भड़ास के भी। दोनों ही ब्‍लॉग रहे हैं और अब मीडिया समाचार पोर्टल बन गए हैं तथा एक मायने प्रतिस्‍पर्धी भी हैं। दोनों ही के संचालकों में विवादों, बलात्कार की कोशिश के आरोप जैसी कई चरित्रगत समानताएं भी बताई जाती  हैं पर तब भी ये समानधर्मी पूर्व-ब्‍लॉगर विरोधी ही कहे जाते हैं या कम से कम पब्लिक ऐसा ही जानती है।   इसलिए कल जब ब्‍लॉगवाणी पर ये दिखा तो हैरानी हुई-

ScreenHunter_01 Feb. 11 15.58

ये अविनाश भला क्‍यों यशवंत का प्रचार कर करने लगे। जब जिज्ञासावश इस पर क्लिक किया तो ये मोहल्‍ले की ओर महीनों बाद पहली बार जाना हुआ था..देखा तो वाकई भड़ास की पोस्‍ट मोहल्‍ले पर विराजमान थी।

ScreenHunter_01 Feb. 10 20.05

समानधर्मी लोग वाकई एक हो गए हैं या इतने दिनों तक एक पोर्टल  के मालिक लोग किसी प्रतिस्पर्धी की फीड को पोस्‍ट होने से रोकना नहीं सीख पाए :)। वैसे अगर ये तकनीक का अनाड़ीपन न होकर वाकई भड़ास तथा मोहल्‍ले का गठजोड़ है तो  ये गठजोड़ हमें बेहद स्‍वाभाविक जान पड़ता है। क्‍या कहते हैं?  

Tuesday, February 09, 2010

हर घेटो खुद शहर पर एक सवाल है

हिन्‍दी के मानूश हैं पर गणित से मो‍हब्‍बत रही है इतनी कि पहले भी कहीं कह चुके हैं कि गणित की याद उस प्रेमिका की तरह टीस देती है जिससे विवाह न हो पाया हो (कोई ये न माने कि हिन्‍दी से चल रहे गृहस्थिक प्रेम में हमें कोई असंतुष्टि है :) पर पुराने प्रेम की टीस इससे कम थोड़े ही होती है) खैर गणित में जब कोई सवाल अटक जाता था तो बस वो अटक जाता था  और जितना सर भिडा़ओ हल न होकर देता था ..जल्द ही समझ आ गया कि ऐसे में कापी बंद कर घूमने चल देना चाहिए वापस आने तक सवाल का हल या अब तक की कोशिशों की गलती सूझ चुकी होती थी। जब पिछले दिनों तमाम कोशिशों के बावजूद छत्‍तीसगढ़ के ब्‍लॉगर साथियों की खुद से नाराजगी पकड़ में न आई तो हम कापी बंद कर इधर उधर टहलने निकल पड़े। इधर यानि अपने ही ब्‍लॉग पर अपने ही ब्‍लॉग पर दो साल पहले जनवरी 2008 की एक पोस्‍ट और उधर यानि कल मित्र बिल्‍लौरे के ब्‍लॉग पर अनूप के साक्षात्‍कार... इन दोनों पोस्‍टों में ही हमें इस फिनामिना को और बेहतर समझने के सूत्र दिखे।
जब हम ब्‍लॉगस्‍पेस को समझना चाहते हैं तो पब्लिक स्‍पेस की शब्‍दावली में ही समझना होगा। इसलिए अगर किसी शहर में घेटो तैयार हों तो इसके लिए खुद घेटो को या उसके बाशिंदो को दोष देना उनके खड़े होने की प्रक्रिया के प्रति उदासीनता को ही दर्शाता है। दिल्‍ली के ओखला या जाफराबाद में लोग घेटो इसलिए नहीं बसाते कि उन्‍हें असुविधाएं पसंद हैं या तंग गलियों में रहना उन्‍हें अच्‍छा लगता है वरन इसलिए कि बाकी शहर उनके प्रति या तो उदासीन हैं या उनकी उपेक्षा कर रहा है।
'घेटो' के घेटो होने में अपरिचित जगह में अपने जैसों को इकट्ठा कर अपनी असुरक्षाओं से कोप करने का भाव होता है। जो पूरे शहर में डरा डरा सा घूमता है क्‍योंकि वह वहॉं खुद को अजनबी सा पाता है, अल्‍पसंख्‍यक पाता है या शक की निगाह में पाता है वह जैसे ही अपनी बस्‍ती में आता है जो उसने बसाई ही है 'अपने जैसों' की वहॉं वह फैलता है कुछ ज्‍यादा ही फैलता है- गैर आनुपातिक होकर। पहली पीढ़ी के प्रवासी महानगर की सुखद एनानिमिटी के आदी नहीं होते और उससे बचकर भागते हैं और वह छोटी सी बस्ती ही उन्‍हें सुकून देती है जहॉं एनानिमिटी की जगह 'पहचान' की गुजाइश होती है इस तरह महानगर में घेटो बसते हैं- ओखला, तैयार होता है, जाफराबाद, बल्‍लीमारान और मुखर्जीनगर।
ये सही है कि ये प्रवृत्ति मूलत: फिजीकल स्पेस की है तथा इसे वर्च्‍युअल पर सीधे सीधे लागू करने के अपने जोखिम हैं। पर ये घालमेल हम हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत में होता ही रहा है एक बार फिर सही।  अगर छत्‍तीसगढ़ या किसी और क्षेत्र या समूह के ब्‍लॉगर इस पूरे ब्‍लॉगशहर को पूरा अपना न मानकर अपनी बस्‍ती बसाना चाहते हैं तो इसे कानूनी नुक्‍तेनजर से समझने की कोशिश इस एलियनेशन को और बढ़ाएगी ही इसलिए जरूरी है इसे पूरे ब्‍लॉग शहर की असफलता के रूप में देखे जो कुछ साथियों में इस एलियनेशन के पनपने को रोक नहीं पाई।
गणित के उस बेहद उलझे सवाल के साथ सुविधा ये होती थी कि किताब के आखिर में दिए हल से मिलाने पर पता चल जाता था कि हमारा हल ठीक हे कि नहीं। काश ऐसी कोई सुविधा यहॉं भी होती।

Thursday, February 04, 2010

कुछ गलतफहमी कितनी प्रिय होती हैं

न जी इस गलतफहमी का चिट्ठाचर्चा, डोमेन स्‍क्‍वैटिंग या इस किस्म के किसी प्रकरण से कोई लेना देना नहीं, वहॉं की गलतफहमी में प्रिय तत्‍व अभी हमें नहीं मिले हैं मिलते ही सूचित करेंगे। यहॉं की गलतफहमी का संबंध हमारी एक अन्‍य पोस्‍ट से है। जब अमिताभ बच्‍चन ने ब्‍लॉगिंग शुरू की तो उस पर हिन्‍दी ब्लॉगजगत में कुछ चर्चा हुई थी, अफलातून ने ध्‍यान दिलाया था कि इसके पीछे अम्बानी का पैसा है, खैर हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत की इस हलचल को हमने अपनी एक पोस्‍ट में रखा था... हमारा ये अंग्रेजी ब्‍लॉग, हिन्‍दी ब्‍लॉगों के बारे में है। इसे आजकल कम ही अपडेट कर पाता हूँ।  इस ब्‍लॉग का सारा ट्रैफिक सर्च के माध्‍यम से ही आता है तथा टिप्‍पणी शायद ही कभी आती हैं हालांकि विजीटर काउंट खूब होता है। किंतु अगर इस अमिताभ वाली पोस्‍ट पर ध्‍यान दें तो आज तक कमेंट आ रहे हैं अधिकतर कमेंट सीधे अमिताभ बच्‍चन को संबोधित होते हैं, हिन्‍दी भाषी क्षेत्र के अमिताभ के प्रशंसक गगूल पर अमिताभ बच्‍चन पर्सनल ब्‍लॉग सर्च करते हैं तथा जैसे कि आप देख सकते हैं कि अमिताभ के अपने ब्‍लॉग के ठीक नीचे की कड़ी इस पोस्‍ट पर भेज देती है

ScreenHunter_01 Feb. 04 18.45

हालांकि पोस्‍ट में पढ़ने पर किसी तरह की गलतफहमी की गुंजाइश नहीं है पर शायद प्रेम ही नहीं फैन भी अंधा होता है इसलिए इसी पोस्‍ट पर कई लोग अमिताभ के बारे में अपने प्रशंसा भरे उद्गार इस पोस्‍ट पर दे गए हैं। इन्‍हें पढ़ना मजेदार है कोई अमित अंकल कहकर बुलाते है कोई गंगा किनारे से होने के कारण निकटता स्‍थापित करता है।

नमस्कार अमित अंकल,
मेरा नाम रचना है और हम आपसे कहना चाहते हैं की 'निः-शब्द' जैसे पिक्चर को करने के लिए आपने क्यों नहीं हमारे सामाजिक परिवेश के बारे मैं सोचा. आपका क्या कांसेप्ट था प्लस. हमे बताइए.

नमस्कार,
वाराणासी उत्तर प्रदेश से मैं विनोद कुंवर छोरा गंगा किनारेवाला और मेरी पत्नी संगम इलाहाबाद से,हमलोग आपके बहूत बड़े फेन हैं. मैं चाहता हूँ कि आप एक फिल्म वाराणासी में शूट कीजिये ताकि यादगार रहे एक बार जरूर आइये.
आपका.विनोद कुमार "दब्बू"

इस तरह गलतफहमी में पड़ने वालों में पत्रकार बिरादरी के लोग भी हैं :)

रेस्पेक्टेड अमिताभ जी,
आप से अटैच होने का मौका पाकर बेहद ख़ुशी का एहसास हो रहा है.
मैं आशुतोष श्रीवास्तवा, आजमगढ़ (उ.प.) में एक नेशनल इलैक्‍ट्रानिक मीडिया चैनल का जर्नलिस्ट हूँ. आप जब श्री अमर सिंह के साथ उनके घर आजमगढ़ ए थे तो आपको करीब से देखने का मौका मिला था. आज भी आपकी तस्वीरें आँखों के सामने रहती हैं. मैं बचपन से आपकी फिल्म्स देखते आया हूँ. इश्वर आपको स्वस्थ और दीर्घ आयु बनाये ये ही कामना है

सिर्फ प्‍यार ही नहीं लोग उपहार भी भेजने की सूचना देते हैं (काश उपहार के पते को लेकर भी ब्‍लॉग के पते की तरह कोई गलतफहमी होती :)

आज आपका इन्‍टरव्‍यू दैनिक भास्कर में पढ़ा. आज दैनिक भास्कर ने आपके बारे में सब कुछ लिखा है आपके 68वे बी'डे पर. आपके इन्‍टरव्‍यू में आपने कहा था क अगर कोई चैलेंजिंग काम हो तो में आज भी उसको करना चाहूँगा....

...दुनिया आपको एक से एक महंगे गिफ्ट्स देती है, मैं ज्यादा कुछ तो नहीं एक छोटा सा तोहफा आपके जलसा वाले बंगलो पर भेज रहा हूँ. यहाँ से भेजने में कुछ वक़्त लगा भी तो 10 दिनों में पहुच जायेगा. थैंक्‍स फॉर रीडिंग दिस कमेन्ट

हम जानते हैं कि बात हमें नहीं सुपरस्‍टार को कही गई है पर कोई हमारे घर को अमितजी का घर समझकर हमें गले लगा रहा है अफसोस भी है कि जो प्रेम किसी ओर के लिए था वो हम जैसे कुपात्र के कारण अटक गया .. पर ये भी सही है कि झुट्टा ही सही पर प्‍यारा तो लगता ही है।

Sunday, January 17, 2010

चिट्ठाचर्चा साइबर स्‍क्वैटिंग का शिकार : आइए पतन की कुछ और गहराइयॉं नापें

कुछ दिन हुए अनूपजी का फोन आया, चूँकि हम चर्चाकार हैं अत: वे हमसे राय जानना चाहते थे कि क्‍या चिट्ठाचर्चा को खुद के डोमेन पर ले जाना चाहिए। हम इस बात से कतई उत्‍साहित नहीं थे। एक सामूहिक ब्‍लॉग के डोमेन पर जाने की कुछ दिक्‍कतें होती हैं तथा ये उसकी गतिशीलता को प्रभावित करती है ये हम सब चोखेरबाली के अनुभव से जानते हैं। दूसरी दिक्‍कत हमें डोमेन के मालिकाना हक की वजह से भी थी... हाल में कितना भी शोर मचाकर लोगों ने कहा हो 'अनूप की' चिट्ठाचर्चा पर हम पहले कह चुके हैं हमें ऐसा नहीं लगता... हमारी ही है चिट्ठाचर्चा। अस्‍तु हमने सबसे राय लेकर जो तय हो उस पर अपनी अनापत्ति दी संभवत इसे फिलहाल ब्‍लॉगर पर ही रखने का निर्णय लिया गया।

अनूपजी व पाबला साहब (संयोग ही है कि इन पाबला साहब से मेरा कोई विशेष संपर्क नहीं है इसलिए उनकी प्रकृति पर कोई भी टिप्‍पणी कयास ही होगी) के बीच कोई छाया युद्ध चल रहा है इसका आभास कुछ कुछ हमें भी है पर यह सब चिट्ठा संसार में होता ही रहता है कोई अनोखी बात नहीं है। पर इतना तय है कि इस तरह के पंगो की एक मर्यादा रही है। नारद के जितेंद्र को हम कतई पसंद नहीं थे पर पासवर्ड बताने/पाने तक में कोई संकोच नहीं था बाकी लागों के साथ भी ऐसा ही रहा। हिन्‍दी चिट्ठाकारी में अब तक गिरावट केवल भाषिक रही है...एक दूसरे के खिलाफ अपराध करने के रिवाज नए हैं।  खुद अक्षरग्राम मिर्ची सेठ के नाम दर्ज रहा है किसी को नहीं लगा कि इसे हथियाया जाएगा पर चिट्ठाचर्चा पर एक टिप्‍पणी के बाद देखा तो बेहद छि: का अहसास हुआ।

काजल कुमार Kajal Kumar said:

यूं ही घूमते-टहलते मैं एक अन्य साइट
http://chitthacharcha.com पर पहुंचा. पाया कि अमरीका के सर्वर पर भिलाई के किन्हीं गुरप्रीत सिंह सज्जन ने यह नाम बुक कर रखा है. वाह जी बल्ले बल्ले

क्‍या वाकई...

अरे हॉं

WHOIS information for chitthacharcha.com :

[Querying whois.internic.net]
[Redirected to whois.PublicDomainRegistry.com]
[Querying whois.PublicDomainRegistry.com]
[whois.PublicDomainRegistry.com]
Registration Service Provided By: LOOP NAMES
Contact: +091.4229549
Website: http://www.loopnames.com

Domain Name: CHITTHACHARCHA.COM

Registrant:
dillmillgaye.in
Gurupreet Singh (gspabla@gmail.com)
272/A, Risali Sector
Bhilai
Chhattisgarh,490006
IN
Tel. +91.9993908226
Fax. +91.9993908226

Creation Date: 12-Dec-2009
Expiration Date: 12-Dec-2010

Domain servers in listed order:
ns12.netwayweb.net
ns11.netwayweb.net


Administrative Contact:
dillmillgaye.in
Gurupreet Singh (gspabla@gmail.com)
272/A, Risali Sector
Bhilai
Chhattisgarh,490006
IN
Tel. +91.9993908226
Fax. +91.9993908226

ScreenHunter_01 Jan. 17 14.21

 



उल्‍लेखनीय है कि प्रशासक के रूप में दर्ज दिलमिलगए एक व्‍यवसायिक साईट है जिसके संपर्क के लिए नाम के रूप में श्री जीएस पाबला तथा श्री बी एस पाबला नाम दर्ज हैं।  संभवत गुरप्रीत पाबला, पाबला जी के कोई परिजन ही हैं।



अब सवाल ये है कि क्‍या ये साईबर स्‍क्‍वैटिंग है? निश्चित तौर पर है अगर विकी पर साइबर स्‍क्‍वैटिंग की परिभाषा के मूल तत्‍व को देखें तो-




 Cybersquatting (also known as domain squatting), according to the United States federal law known as the Anticybersquatting Consumer Protection Act, is registering, trafficking in, or using a domain name with bad faith intent to profit from the goodwill of a trademark belonging to someone else




साइबर स्‍क्‍वैटिंग अपराध है उस पर कानून कुछ कहता होगा...ये हमारी नहीं कानूनचियों की दिक्‍कत है...अपनी दिक्‍कत बस इतनी है कि लोगों के व्‍यक्तिगत छाया युद्ध यहॉं सामूहिकता के विरूद्ध अपराधों की गर्त में जा पहुँचे हैं। इससे पहले की कोई बॉंग देकर मसीही हासिल करे चेता देना जरूरी है।



1/02/2010: अपडेट  अभी ज्ञात हुआ कि श्री पाबला इस पोस्‍ट से आहत हुए हैं, खेद है। उनकी पोस्‍ट का शीर्षक कोई उत्तर देने की मांग करता है, किंतु हमें कोई सवाल पोस्‍ट में मिला नहीं यूँ भी ऐसा सर गाड़े उत्‍तरपुस्तिकाओं से जूझ रहे हैं कि उत्‍तर शब्‍द से ही थकान हो रही है :) । उन्‍हें शायद तस्‍वीर से आपत्ति थी.. हम उनकी यही तस्‍वीर पता थी इसलिए ये लगाई। पर यदि उन्‍हें आपत्ति है तो हटा देने में क्‍या हर्ज है। हटा दे रहे हैं आशा है अब बेहतर अनुभव कर रहे होंगे। अब तक हुए कष्‍ट के लिए खेद है।