साल भर काम करने (या काम करने का अभिनय करने) के बाद छुट्टियॉं शुरू हो गई हैं। कक्षाएं तो एक महीने पहले ही समाप्त हो गई थीं इसलिए बीच में कुछ दिन निकालकर पहाड़ों पर एक सप्ताह बिता आए। आज इसी यात्रा को आपसे साझा करने का मन है। इस ब्लॉग पहले भी कई यात्राओं पर पोस्ट हैं लेकिन इस बार अलग ये था कि हमें परिवार के साथ न जाकर एक दोस्त के साथ इस यात्रा पर गए थे- इसलिए इस या उस तरह के इंतजाम में सर खपाना, सुरक्षा या सुविधा की विशेष चिंता करना आदि का पंगा नहीं था... एक दम जाट मुसाफिर किस्म की यात्रा थी इसलिए आनंद गारंटिड था। उत्साह इसलिए भी था कि ये दोस्त पुराना कॉलेज के समय का साथी है हद दरजे की बेतकल्लुफी का संबंध है हम दोनों ड्राइविंग भी कर लेते हैं।
तो यात्रा शुरू हुई 12 अप्रैल की दोपहर के ही लगभग अपनी गाड़ी एविओ युवा में अपना एक एक बैग डाला और चढ़ बैठे राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या एक पर। कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं था बस इतना सोचा था कि चार पॉंच दिन हिमाचल घूमेंगे और इसी क्रम में पता लगा तो 16 अप्रैल को धर्मशाला में होने वाले आईपीएल मैच की टिकट भी इंटरनेट से बुक करवा लीं तेरह सौ पचास रुपए लगे और कम से कम हम लफंडरों की यात्रा का एक मुकाम तो तय हो गया कि चार दिन बाद धर्मशाला पहुँचेंगे। इसी तरह इस दोस्त के एक छात्र का बार बार का आग्रह था कि सर यात्रा की शुरूआत उनके यहॉं से की जाए...ये छात्र फिलहाल रेणुका झील वाले इलाके के तहसीलदार हैं। तो तय हुआ कि 12 को रेणुका और 16 को धर्मशाला 17 या 18 को घर वापस बाकी जैसा रास्ते में तय हो।
12 को कॉलेज के दिनों की याद और एक दूसरे की टांग खींचते चार बजते न बजते रेणुका जा पहुँचे-
सिरमौर इलाके की यह रमणीक झील के धार्मिक महत्व पर तो हमसे कुछ उम्मीद न रखें पर वैसे सुंदर व शांत जगह थी। गेस्ट हाउस आरामदेह था तथा खातिरदारी दमदार थी (जब भी ऐसी खातिरदारी होती है बार बार मन करता है कि मेजबान को झकझोर कर कहें कि भई फिर सोच लो ये हम हैं...एंड वी जस्ट डोन डिजर्व इट, डू वी ?) खैर वहीं तय हुआ कि जब यहॉं पहुँचे ही हैं तो क्यों न शिमला सिरमौर क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी चूर-चॉंदनी तक की ट्रेकिंग की जाए हमने आइडिए को झट से लपक लिया। आगे की वयवस्था भी झट हो गई अगले दिन सुबह नौराधार के लिए रवाना हुए जहॉं से चूर चॉंदनी (स्थानीय लोग इसे चूड़ेश्वर महादेव के नाम से जानते हैं) का ट्रेक शुरू होता है। नौराधार के एक छोटे से रिसॉर्ट में हमारे विश्राम तथा लंच की व्यवस्था थी थोड़े आराम के बाद हम चले- अब तक स्प्ष्ट हो चुका था कि जैसा पहले पता चला था उसके विपरीत ये ट्रेक केवल 4-5 घंटे का नहीं वरन कम से कम नौ दस घंटे का था तथा काफी मुश्किल किस्म का था। आगे की कहानी चित्रों से
अंतिम फ्रेम के इन जूतों ने इस ट्रेक में क्या क्या नहीं सहा। रात 11 बजे हम ऊपर पहुँचे उस थकान में तो कुछ आनंद लेने की स्थिति में थे नहीं सो मंदिर की सराय में एक बकरी व एक कुत्ते वाले कमरे में कुल जमा पंद्रह किराए के कंबलों में थकान व ठंड से लड़ते रहे। सुबह उठकर देखा तो आस पास की बर्फ और हिमालय के शिखरों के दृश्य देख मन नाच उठा। अगले दिन शाम तक वापसी हुई, थके थे पर तय किया कि धर्मशाला की दिशा में प्रस्थान किया जाए... नौराधार से राजगढ़-सोलन होते हुए पिंजौर पहुँचे जहॉं जिस गेस्ट हाउस में सोने की व्यवस्था थी वह बेहद भव्य था उसका लॉन देखें-
खैर आगे धर्मशाला-मैक्लॉडगंज और फिर आईपीएल का मैच-
यह आईपीएल मैच हिमाचल के लिए अब तक का सबसे बड़ा खेल आयोजन था सारा सरकारी अमला इसे सफल बनाने में जुटा था..दसेक हजार की आबादी के शहर में पच्चीस हजार की क्षमता का मैदान और पूरा फुल-
आईपीएल कोई खेल नही पूरा तमाशा भर है। खैर रात 10:30 बजे जब दूसरी पारी के पॉंच ओवर फेंके जा चुके थे हमने लौटने का निर्णय लिया और सारी रात गाड़ी चलाते हुए सुबह नौ बजे वापस घर पहुँचे। तस्वीरें कुछ बताती हैं लेकिन यात्रा का असली आनंद उसे भोगने में ही है हमारे लिए ये बरसों बाद खुद में झांकने की यात्रा थी जो एक शानदार याद बन गई है।
13 comments:
तो चार दिन चीयर्स ही चीयर्स किया आपने
मगर हम इतनी छोटी सी पोस्ट से चीयर नही हुए। अब विस्तार से वृतांत जरूर बताईयेगा। और पूरे रोड प्लान भी बताईयेगा, पिछली बार की तरह।
इतनी सारी फोटुएं देखने के बाद अभी भी कम लग रही हैं।
तस्वीरों के लिये हार्दिक धन्यवाद
प्रणाम स्वीकार करें
बड़ी शानदार यात्रा रही होगी..तस्वीरें बता रही हैं.
ए ल्लो, चीयर गर्ल्स का फ़ोटू इतनी दूर से और जूते का फ़ोटू इतना क्लोज-अप? क्या बताना चाहते हैं मास्साब हमें… :) :) बाकी के फ़ोटो शानदार हैं…
सुरेश जी... क्या करें सारी व्यवस्था ही अन्यायी है... मैच में केमरा ले नहीं जाने दिया...केवल फोन कैमरे से तस्वीर ली ज़ूम कर नहीं पाए... जूते तो अपने थे चाहे जितना क्लोज अप लें :)
खूब हमें बैठे बिठाये सैर करा दी आपने। आप जैसे यात्राजीवी प्राणियों को देखकर हमारा भी मन घूमने को करता है पर वह जोश क्षणिक ही होता है, आलस्य परमो धर्म का सिद्धांत आड़े आ जाता है।
पोस्ट तो पोस्ट कमेण्ट भी दमदार हैं.सच मे दिल करता हैं निकल पडे सफ़र पर मगर यंहा तो चारो ओर आग है,बर्फ़ और हरियाली तो दो महीने तक सपना है.बस्तर भर बस है करीब,देखते हैं,दोस्तों के साथ तो मज़ा ही कुछ और होता है.
बहुत अच्छी पोस्ट।
wah! kya kya anubhav le liye aapne,
baantne ke liye shukriya...
suresh chuplunkar jee ne ekdam sahi bat kahi hai unse sehmat ;)
मसिजीवी जी,
आपसे कुछ बातें पूछनी हैं।
ये तो मुझे भी पता चला है कि चूड चांदनी जाने में रात को ऊपर ही रुकने में भलाई है। कभी गया नहीं हूं। आप विस्तार से ये बताइये कि वहां ऊपर रुकने वालों को क्या सुविधायें उपलब्ध हैं। आपने कम्बल का जिक्र किया था, क्या आप नीचे से ही ले गये थे, या ऊपर ही मिला था।
ऊपर कोई मन्दिर भी है क्या, वहां लगभग कितने लोगों के रुकने की जगह है?
आप कम से कम बुधवार या गुरूवार को वहां पहुंचे होंगे, ये बताइये कि आपके अलावा और कितने लोग या दल आपको मिले थे? क्योंकि मेरे अकेले जाने के चान्स हैं, इसलिये मैं रविवार को जाऊंगा। रविवार को और दिनों के मुकाबले ज्यादा हलचल होती है।
बाकी आपकी पोस्ट अच्छी लगी।
अगर आप चूड चांदनी और चीयर गर्ल्स को अलग अलग कर देते तो और ज्यादा मजा आता।
कृपया मुझे मेल से सूचित करें:
neerajjaatji@gmail.com
धन्यवाद।
@ नीरज
बात सिर्फ भलाई की नहीं है चूड चॉंदनी से हम मैदानी लोगों का उसी दिन वापस आने की नही सोचना चाहिए ये बिना वजह बहुत ही कठिन हो जाएगा। साधा लेकिन कठिन रास्ता 14 किमी है पर थोड़ा आसान वाले से जाने पर 3-4 किमी बढ़ जाता है, एकदिन में एक ही तरफ किया जाना चाहिए। ऊपर चूढेश्वर महादेव मंदि है जिसकी तस्वीर मैंने ब्लॉग पर दी है... हम तो नास्ितक बिरादरी के लोग हैं पर भकत लोगों की इस मंदिर पर खूब आस्था है। ऊपर एक फारेस्ट रेस्ट हाउस है हमारी बुकिंग भी उसी में थी पर रात साढ़े 11 बजे उसके चौकीदार का खोजने में हमारा सहायक विफल रहा इसलिए हम मंदिर की व्यवस्था के भरोसे रहे, उनकी एक सराए तथा कुछ ढाबे ऊपर हैं जहॉं कुछ पैसे देकर रहा जा सकता है। मंदिर समिति 3 रुपए कंबल के हिसाब से कंबल दे देती है। ऊपर शौचालय की व्यवस्था नहीं है, खुले प्राकृतिक तरीके से निबटना होता है...उम्मीद है आपको दिक्कत नहीं होगी। दूसरी दिक्कत नहाने में हो सकती है पर कौन बाबली बूछ ऊपर इतनी ठंड में बर्फ जैसे पानी से नहाने के चक्कर में पड़ेगा...हम तो नहीं पड़े।
रही बात चीयर गर्ल्स की तो चूंकि हमारी एक ही यात्रा की दो शेड्स थीं इसलिए एक साथ दिए पर अलग शायद बेहतर रहता :))
"तस्वीरें कुछ बताती हैं लेकिन यात्रा का असली आनंद उसे भोगने में ही है" अरे कहाँ सर... कल्पना में जो मजा है वो वास्तविकता में कहाँ :) कल्पना आइडियल होती है भोग लिया गया रियल.
चश्मेवाली खोपड़ी और जूते की तस्वीर देख कर हमें इलाहाबाद वाला अण्ड विमर्श और अंडछवियां याद आ गईं:)
गरमी में तरावट ला दी इस चित्रमय पोस्ट नें। खुदा आपको ये फुरसत हर साल मिलती रहे। रश्क होता है आपसे....
फ़ेसबुक पर आपकी अपडेट्स से आपके ऎशो का अन्दाजा हो रहा था :) यहा विस्तार से पढकर जल भी लिये .. जय हो!
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