Saturday, June 30, 2007

ये दिल्‍ली वाली मीट की बात..... पहरुए सावधान रहना।

दिल्‍ली की आगामी ब्‍लॉगर मीट को बड़ी वाली मीट, अंतर्राष्‍ट्रीय हिदी चिट्ठाकार सम्‍मेलन आदि कहा जा सकता है और कहा जा रहा है। इसे जब अनूपजी ने ‘महा पंचायत’ करार दिया तो संजयजी ने झट सलाह दी कि भई ऐसा न कहें- मिल बैठने के लिए जा रहे हैं कोई पंचैटी नहीं हो रही है- जो भी हो सिर्फ संज्ञा का मामला है वरना है तो ये अलग किस्‍म की भेंट। इधर उधर छाना, लगा कि भई इस भेंटने में कई मजेदार अंडर करेंट भी बह रही हैं इसलिए हम फिलहाल ऐतिहासिक भर कहे देते हैं पहले से ही। किसी ब्‍लॉगर मीट का कोई ऐजेंडा नहीं हो सकता – न तो व्‍यक्‍त न हिडन। पर फिर भी हम वाकई कल्‍पना करने से अपने को रोक नहीं पा रहे हैं कि जब अविनाश संजयजी से मिलेंगे और गर्मजोशी से हाथ मिलाने की फोटोऑप औपचारिकता पूरी करेंगे तब उनके मन में क्‍या चल रहा होगा- उससे भी ज्‍यादा मजेदार यह कि जब जीतू भाई इस मीट में होगे तो गैर-नारदीय चिट्ठाकारों से कहने के लिए उनके पास क्‍या होगा...सच बहुत मजा आने वाला है और सरवणा भवन के लजीज व्‍यंजनों के बीच ही कुछ ऐतिहासिक क्षण भी परोसे जाने वाले हैं इस 'मीट' में – ये मीट की बात पहरुए सावधान रहना। (सरवणा भवन शुद्ध शाकाहारी व्‍यंजन परोसता है)


ये क्‍यों एक खास मीट है-

पहला कारण तो है नंबर- शीयर नंबर। जितने चिट्ठाकारों के इस मीट में शामिल होने की संभावना है उसके आधे भी हिंदी की किसी चिट्ठाकार मीट में अब तक शामिल नहीं हुए हैं। दुबई से जीतू आ रहे हैं, अमदाबाद से संजय तो यमुनानगर से श्रीश। कलकत्‍ता से प्रियंकरजी के आने की भी संभावना जताई जा रही है। दिल्‍ली तो खैर राजधानी ठहरी इसलिए सर्वश्री अविनाश, सृजन, रवीश, प्रत्‍यक्षा, अरुण, अमित, सुजाता, जगदीश, आलोक, मैथिली, भूपेन, काकेश, इष्‍टदेव आदि के भी शामिल होने में ज्‍यादा संदेह नहीं होना चाहिए- सब मिलाकर एक बड़ी संख्‍या बनती है। गैर नारदीय चिट्ठाकार यशवंत, सचिन आदि भी रहेंगे शायद खुद राहुल भी हों। तो भई गनीमत है कि रामलीला मैदान बुक नहीं करना पड़ा वरना आसार वैसे ही थे। हमें अब भी शक है कि 7 फीट की मेजेनिन छत वाले कॉफी डे में इतने चिट्ठाकार समाएंगे कैसे- अब जो कन्‍फर्म नहीं कर रहें हैं उन्‍हें वापस तो लौटा तो देंगे नहीं- ये कोई नारद तो है नहीं कि रजिस्‍ट्रेशन क्‍यों नहीं कराया- ये तो दिल्‍ली की मीट है और दिल्‍ली का दिल बड़ा है इसलिए बुला बुला कर लोग लाए जाएंगे। खैर डीटीसी में यात्रा करते करते जरा खिसकना यार की आदत है इसलिए ‘दिल में जगह होनी चाहिए’ जुमले के सहारे काम चल जाएगा।

बड़ी संख्‍या से ही जुड़ा मामला जो बेहद रोचक है वो यह है कि लफड़ों वाले बहुत से लोग शामिल होंगे- अविनाश तो खैर हैं ही (वैसे उनका कन्‍फर्मेशन भी दिखा नहीं , पर रहेंगे ही – रहना पड़ेगा) सो अविनाश-संजय मामला होगा। यदि भड़ासी होंगे तो ये देखना रह जाएगा कि भाषा पर होने वाली बात कहॉं तक जाएगी।भड़ासी मित्रों के आने की संभावना का पता चलते ही संजयजी ने प्रसन्‍न होकर पूछा 'उनके इरादे क्‍या हैं' :)। एक और बात इस मीट में अमित, जीतू जैसे कुछ विजार्ड्स को छोड़ दें तो भाषा वाले लोग ज्‍यादा रहेंगे यानि गीक नहीं- इंसान। तो बातों की दिशा -भाषा, शैली, समाज पर ही रहेगी। शायद टेंपलेट वगैरह पर भी हो चर्चा। पर ज्‍यादातर तो हमारी समझ में आ सकने वाले स्‍टफ पर ही होगी।

उसके बाद आएंगी इस मीट की रपटें- अगर 15 रपट आएंगी तो भई क्‍या लिखेंगे लोग। एक भला तो खैर यह होगा कि हर प्रतिभागी को 15 लिंक सीधे मिल जाएंगे और ये बड़ी बात है। खासकर नए चिट्ठेकार एक साथ इतने लिंक पाकर रैंक में कई पायदान ऊपर पहुँचेंगे जो हिंदी की चिट्ठाकारी के लिए अच्‍छा है। इसलिए जो लोग असमंजस में हैं कि आएं कि नहीं वे और न सही इस मुद्रा के लिए ही आने का मन बना लें कि टेक्‍नाराटी मैया (और अब चिट्ठाजगत.इन) के दरबार में आपकी पूछ बहुत बढ़ जाएगी। खैर तो रपट जो आएंगी और फिर उन पर प्रति-रपटें उनकी भी हमें खूब प्रतीक्षा है।
इसलिए सिर्फ दिल्‍ली के ही नहीं आगरा (क्‍या प्रतीक दो सो किमी टिकट 70 रूपए, आ जाओ यार), कानपुर और यहॉं वहॉं के सभी हिंदी चिट्ठाकार चले आएं हम प्रतीक्षा में हैं। अपना कन्‍फर्मेशन तुरंत भेजें। और हॉं पिछली बार की तरह अपने खाने का बिल किसी एक के मथ्‍थे मत मढ़ देना- अपना अपना खर्चा खुद उठाना।

Friday, June 29, 2007

सुनौलीधार से गूगल स्‍टोरी तक : लौंडपन पर स्‍फुट विचार

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

हम पर कोई कलमची होने का आरोप लगाए तो लगा ले पर कानूनची हमें कोई कतई नहीं कहेगा और हम इस पदवी से वंचित होने पर एकदम चकाचक महसूस करते हैं। इसलिए खूब पतली छननी से छानने पर भी हमें इस बात का अफसोस अपने मन में नहीं मिला कि ‘बेचारे’ बिल गेट्स की कंपनी के सॉफ्टवेयर के पाईरेटेड संस्‍करण बरतते रहे हैं। इसी तरह आईएनए के फुटपाथ पर जब ‘दी गूगल स्‍टोरी’ पॉंच कम तीन सौ की जगह 100 की मिल रही थी और बिना दिक् किए 50 में हमें मिल गई तो हमने झट ले ली, और इस पर भी हमें कोई अपराध बोध नहीं हुआ- हमें पता है कि किताब पाईरेटेड ही है। हमने किताब समेटी और झोले के हवाले की- इस झोले में हम ‘मैट्रोटाईम’ रीडिंग के लिए कुछ हल्‍की किताबें रखते हैं।

झोले में जाकर इस किताब को जिस किताब का पड़ोसी बनने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ वह झोले में इसलिए थी कि प्रमोद बाबू ने अविनाश को लिखा कि ‘....ये लौंडपन है’ किस संदर्भ में कहा, सही कहा कि झूठ कहा इसे गोली मारो पर ये ‘लौंडपन’ शब्‍द जेहन में अटक गया। घनघोर दिल्‍ली वाले हैं और इस बात पर अफसोस नहीं गर्व करते रहें हैं- यहॉं लौंडेबाजी शब्‍द का इस्‍तेमाल तो होता सुना है पर लौंडपन का नहीं पर फिर भी ये लगा कि इस शब्‍द को किसी किताब में पढ़ा है- खूब मगजमारी से धुंधला सा याद आया कि हो न हो जोशी ज्‍यू ने इस्‍तेमाल किया है।
फिर किताबों में इधर उधर खोजकर हाथ लगी ट टा प्रोफेसर – शब्‍द इसी में था मिल गया। तसल्‍ली हुई वैसे ही जैसे पीठ में खुजली होने पर जैसे-तैसे खुजा लिए जाने से होती है। पर किताब हाथ में आ गई तो फिर से पढ़ डालने का मन हुआ- कुल जमा 92 पेज की पतली सी किताब है- झोले के हवाले की- मैट्रोटाईम रीडिंग।

दिल्‍ली पक्‍का महानगर अभी बन ही रहा है, मैट्रो इसका एक अच्‍छा प्रतीक है। मैट्रो की यात्रा में विद्यार्थी कभी कभी अपने नोट्स निकालकर रियाज करते दीखते हैं, महिलाएं कभी कभी पत्रिकाएं पढ़ती हैं या कभी कभी अंग्रेजी या इक्‍का दुक्‍का हिंदी की किताबे-उपन्‍यास पढ़ते भी दिखाई दे जाते हैं। अपने सहयात्री की किताब में झांकने की भयंकर प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। ....तो हम पिछली तीन मैट्रो यात्रा में मनोहर श्‍याम जोशी जी के साथ सुनौलीधार में षष्‍ठी बल्‍लभ के साथ या कहो कलावती येन के साथ थे आज कॉलेज के रास्‍ते में प्रतापनगर के आस पास इस उपन्‍यास को निबटाकर सहज भाव से इसे रखा और उतने ही सहज भाव से अगली किताब निकाली ‘दी गूगल स्‍टोरी’ पहले 5-6 पेज पढ़े होंगे कि अपने स्‍टेशन केलिए उठना पढ़ा और तब नजर पढ़ी कि जिन्‍होंने मुझे हिंदी के उस उपन्‍यास से इस बेस्‍टसेलर की ओर संक्रमण करते देखा था उनमें से कम से कम तीन लोग वे वाकई बेहद अटपटा महसूस कर रहे थे। मुझे उन्‍हें उसी परेशान हालत में छोड़ उतर जाना पड़ा- ये मैट्रो है न भई।

Tuesday, June 26, 2007

कौन है ये धुरविरोधी

जब धुरविरोधी ने हटने की घोषणा की तो रा च मिश्राजी ने घूम घूमकर लोगों को मेल-ऊलकर भी ये जताया कि भई ब्‍लॉग डिलीट नहीं हुआ है- हो जाए तो कहना-

जब डिलीट कै दिहिन तब बतावै आय अहा, तब तक देख्या नाही का कि मसिजीवी सेव करत रहें जौन कुछ इन्टरनेट से मिलै के असार रहा।



तो भई तकनीक वकनीक तो अपन पहले ही कह चुके हैं कि मंगलू-पग्‍गल हैं, क्‍या कहें हमारे लिए तो जो शब्‍द सार्वजनिक स्‍पेस से बाहर धकेल दिया गया वह हत्‍या/आत्‍महत्‍या कहा जाएगा। आज देखा तो दिखा कि ब्‍लॉग डिलीट कर दिया गया है। क्‍या कहें...किंतु कुछ बातें और ये धुरविरोधी के खिलाफ हैं, ये नहीं कि आप बहुत भावुक हो गए...वगैरह वगैरह। अरे शब्‍दों के मजदूर और विरोधजीवी भावनाओं में नहीं खेलेंगे तो क्‍या कोड/प्रोग्राम जीवी खेलेंगे पर बंधु इन पोस्‍टों व टिप्‍पणियों पर हमारा भी कुछ हक था। हमने कुछ पोस्‍ट मय टिप्‍पणियॉं सेव की थीं पर सबको फिर से पोस्‍ट करना आता नहीं- एक एक कर कुछ पोस्‍टों को पोस्‍ट करेंगे। ये एक नया ब्‍लॉग बनाकर किया जा रहा है- इसे चोरी मानते हो तो हम कहेंगे कि जिसका माल है वो आकर वापस ले जाए हमें खुशी ही होगी। नए ब्‍लॉग को नारद पर नहीं डाला जा रहा है।

कौन है ये धुरविरोधी आप सब की पढ़ी हुई ही पोस्‍ट है...नारद की सबसे लोकप्रिय पोस्‍ट है( मान गए कवि को क्‍यों नहीं माना जा रहा ये आप, हम, समीरजी सब जानते हैं) तो क्लिक करें-

कौन है ये धुरविरोधी

Monday, June 25, 2007

एक छोटे भाई की 'शिक्षाशास्‍त्रीय' दिक्‍कतें

जाहिर है आपमें से अधिकांश भारत भारद्वाज को नहीं जानते होंगे, पीएच डी वगैरह करने में एक बुरी बात यह भी होती है कि आप ऐसे कई नामों से परिचित हो जाते हैं जिन्‍हें बिना जाने आपका काम भली भांति चल रहा होता है, बल्कि ज्‍यादा बेहतर चल रहा होता है- खैर, ये भारत भारद्वाज दिल्‍ली में पाए जाते हैं गुप्‍तचर ब्‍यूरो में काम करते हैं ....जाहिर है इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं कि आपकी रुचि भारत भारद्वाज में हो – मेरी भी नहीं है। ओर हॉं इन्‍होने ये भी बताया कि हिंदी के नामधारी आलोचक नंदकिशोर नवल इनके बड़े भाई हैं। ये छोटे भाई साहब कभी कभी हंस बगैरह में लिखते हैं और इसी किस्‍म के कामों से अपने छोटे भाई होने का फर्ज निबाहते हैं।

फिर एक दिन ये बैठे हैं कि अचानक पड़ोस की एक बच्‍ची अपनी दसवीं कक्षा की पाठ्यपुस्‍तक ‘स्‍पर्श’ लेकर पहुँचती है जिसे उसके मॉं बाप ने इन अंकल के पास कबीर के कुछ पदों का अर्थ जानने के लिए भेजा है- पुस्‍तक हाथ में लेते ही इन साहब के दिमाग में प्रियंका और उसकी दोस्‍तों की जूठी की गई खाली बोतले इनके दिमाग में बजने लगती हैं और ये भृतक जासूस अचानक केवल साहित्‍यविद ही नहीं अचानक शिक्षाविद भी बन जाते हैं और इस पाठ्यपुस्‍तक की आलोचना/विवेचना का एक उबकाईपूध्र संसार रचते हैं कि उसके अनुभव के लिए आपको इसे देखना ही होगा- देखें कबीर का संशोधित पाठ-भारत भारद्वाज (जनसत्‍ता 24 जून 2007)

इस सब से मुझे क्‍या आपत्ति है- है और घनघोर आपत्ति है। तीन साल पहले तक मैं एक सरकारी स्‍कूल में हिंदी का अध्‍यापक था यानि इन एनसीईआरटी पाठ्यपुस्‍तकों को पढ़ाया करता था और अब पिछले तीन सालों से अपने स्‍नातक कक्षा के विद्यार्थियों को हिंदी खिक्षण पढ़ा रहा हूँ। इस सबसे पहले दिल्‍ली से ही प्रशिक्षण पाया और शिक्षा में ही शोध-कार्य के क्षेत्र में ही नौकरी भी की। नेम ड्रापिंग से बचना है पर केवल जानकारी केलिए इतना कि साथ काम करने वालों में ही अन्‍यों के अतिरिक्‍त कृष्‍ण कुमार भी थे जो आजकल एनसीईआरटी के निदेशक हैं जिसने ये पाठ्यपुस्‍तकें तैयार की हैं। अत: हिंदी व शिक्षा दोनों का मास्‍टर व विद्यार्थी होने के नाते इतनी समझ तो आ ही गई है कि किसी पाठ्यपुस्‍तक की विवेचना इतना सतही काम नहीं है कि कोई ऐरा गैरा छोटा भैया विषय सूची देखकर इसे अंजाम दे और आगे बढ़ जाए। समस्‍या और बढ़ जाती है जब उनकी आपत्तियों पर नजर डालते हैं- आपत्ति है कि अमुक को पाठ्यक्रम में लिया और अमुक को छोड़ दिया (मसलन वीरेन डंगवाल को लिया और अधिक महत्‍वपूर्ण कवियों को छोड़ दिया) कबीर के अमुक पाठ को लिया अमुक को क्‍यों नहीं लिया, हिंदी की दसवीं की किताब न हुई कवियों की जनगणना हो गई कि कोई छूट न जाए- बच्‍चों की जान ले ले- माटी मरे। पूरे प्रकरण में एक भी शिक्षा शास्त्रीय तर्क नहीं। ज्ञान के इतने सारे अनुशासनों में जितनी दुर्गति शिक्षा विषय की हुई है उतनी शायद किसी को नहीं- एक विषय के रूप में शिक्षा को ऐसी वेश्‍या माना जा सकता है जिसे कोई भी अपने अंक में लपेट लेता है और अपनी घोषित कर देता है।
पिछले साल अपने विद्यार्थियों को लेकर एनसीईआरटी गए और वहॉं ये समढने की कोशिश की कि पाठ्यपुस्‍तकें कैसे बनाई जाती हैं, किस प्रकार चयन को संतुलित बनाने में कमियोंकी गुजाइश होती है। ये भी कि हिंदी के मामले में निदेशक अपनी रूचि के कारण विशेष ध्‍यान देते हैं, फिर भी कमियों की संभावना से मना नहीं किया जा सकता पर ये कमियॉं वे तो नहींही होंगी जिनका उल्‍लेख भारत भारद्वाज ने किया है।
वैसे भारत भारद्वाजजी के इस सद्यजात शिक्षा ज्ञान के ठीक ऊपर इन्‍हीं कृष्‍णकुमार ने अपने स्‍तंभ दृश्‍यांतर में बॉलीवुड अभिनेताओं के भावबोध की भाषा के हिंदी के स्‍थान पर अंग्रेजी हो जाने का विवेचन किया है जो समझ की सूक्ष्‍मता के कंट्रास्‍ट को और भी उभारता है।

जिन रचनाओं के पुस्‍तक में शामिल ने पर उन्‍हें आपत्ति है उनपर एक नजर डालें-



गोलचा के फुटपाथ पर संडे के संडे

आज का जनसत्‍ता पढ़ा क्‍या- अगर नहीं तो आपसे अनुरोध है कि रहने ही दें अगर पढ़ा तो आप जान गए होंगे कि हम तिलमिलाए हुए हैं, और इस कदर तिलमिलाए हैं कि बिना संजयजी द्वारा दी गई किसी सफाई के ही हमें बोध हो गया है कि उन्‍हें अविनाश....वगैरह से क्‍या दिक्‍कत रही होगी- मामला कट्टरता या धर्म का नहीं 'जगह' का है भई। अशोक वाजपेई (अगर आप जानते हैं कि वे कौन हैं तो आप जानते ही हैं नहीं जानते तो ये सिर्फ उनका दुर्भाग्‍य है आपका नहीं- उन्‍हें जाने बिना जिंदगी खूब चल सकती है) हॉं तो अशोक वाजपेई ने आज दिल्‍ली को बेशऊर लोगों का शहर कहा है। अपने स्‍तंभ ‘कभी कभार’ में अभद्र राजधानी शीर्षक से लिखते हुए उन्‍होंने यातायात में उनकी गाड़ी की बगल में अपना दुपहिया लगा देने के लिए, क्‍लबों में शराब ठीक से न पीने, पीकर तेज बोलने वगैरह वगैरह को राजधानी के अभद्र होने का प्रमाण माना है- अब अगर राहुल या भड़ासी तरीके से जबाव दें तब तो उनका आरोप सिद्ध माना जाएगा इसलिए दूसरे तरीके से कहा जाएगा। पर हॉं, चूंकि संजय/पंकज जी के मामले भी यही होता रहा कि इस-उस की करतूत के लिए पूरे गुजरात को लांछित किया गया इसलिए किसी ऐसे शख्‍स के लिए जो अपनी पहचान को अपने स्‍थान से जोड़ता हो ये नागवार गुजरा होगा।

हम इस शहर दिल्‍ली जिससे कभी सुनील व कभी लाल्‍टू शिकायत करते हैं, अपनी पहचान से पूरी तरह जुड़ी मानते हैं- बार बार इस बात को कह भी चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेई ने जो कहा उसपर कुछ न कहना हमें गवारा नहीं।


जी ये शहर दिल्‍ली क्‍लबों में पीने वालों की तहजीब जल्‍दी नहीं सीख पा रहा शायद, आपकी कारों पर भी इसका रवैया उतना जायज नहीं पर क्‍या करें हमें ये किसी शहर की तहजीब जॉंचने के सही पैमाने नहीं लगते। मेरा शहर वह है जो मैं हूँ- ये बदबूदार है तो इसकी बदबू में हमारी बदबू शामिल है बल्कि उसी से ये बदबूदार हुआ है। आज फिर दरियागंज गया था- रविवार दर रविवार जा रहा हूँ- अठारह साल हुए, ऐसा नहीं कि नागा नहीं होती पर फिर भी हूँ नियमित ही। वही फुटपाथ पर जीआरई, जीमैट, के बीच कहीं दबे हुए टैगोर। यहीं से खरीदकर बीएल थरेजा की इलैक्ट्रिकल टेक्‍नॉलॉजी खरीदी थी वरना 1988 में डेढ़ सौ की किताब खरीदना तीसरे दर्जे के टेक्निशियन पिता के लिए मुश्किल होता। वहीं से सप्‍ताह दर सप्‍ताह ऐसी
सैकड़ों किताबें खरीदीं कि इन अशोक वाजपेईयों के डी-ई स्‍कूल में सिगरेट फूंकते बेटे बेटियॉं कम से कम नेमड्रापिंग से तो न डरा सकें और मौका मिलने पर कभी कभी हम भी इस शगल को पूरा कर सकें। मुल्‍कराज आनंद के कामसूत्र को 40 रुपए खरीदा यहॉं से और भी अच्‍छी बुरी न जाने कितनी किताबें, सीडी और स्‍टेश्‍नरी। इस शहर से इसलिए शिकायत न हुई कि इसमें मेरे लिए स्‍पेस था, है- अशोक वाजपेई को बदबू आती है तो आया करे।
अगर एक ये रविवार बाजार ही होता तो भी मेरे इस शहर में रहते रहने का पर्याप्‍त कारण था, अपने मामले में तो और सैकड़ों कारण हैं, और कई सारे तो हमें खुद ही नहीं पता। बस इतना पता है कि हैं। खैर जो इस बाजार से परिचित नहीं- ये एक किस्‍म का कबाड़ी बाजार ही है पर किताबों का। 250 के लगभग पटरी दुकानदार अलग अलग स्रोतों से किताबें जुटाते हैं- दुकानों से , कबाडियों से, नीलामी से और भी न जाने कहॉं कहॉं से और रविवार को गोलचा वाली पटरी पर आ बैठते हैं
नेताजी सुभाष मार्ग पर और फिर मुड़कर आसफ अली मार्ग पर डिलाइट तक। ढेरों ढेर किताबें, अब हिंदी की कम होती हैं पर मिलने वाले दिन मिल ही जाती हैं- लौटते समय छ: रूपए का ब्रेड पकौड़ा, कभी कभी एकाध गेम की सीडी बच्‍चे के लिए और मैट्रो पर सवार होकर घर (पहले इन अशोक वाजपेइयों की आंख का नासूर बनते हुए बस से जाते थे अब मैट्रो का खच्र सह सकते हैं) ! इसलिए जब प्रत्‍यक्षा या सुनील कहते हैं कि किताबें नहीं मिलती इस शहर में, तो सुखद नहीं लगता- शायद सच हो। किताबों का जितना बजट हम सोचते हैं उतने की खपत तो हो ही जाती है। और रही अभद्रता जो वाजपेई को दिखती है वह इस शहर में हो भी तो यहॉं की तहजीब नहीं है- यहॉं की तहजीब तो है जगह बनाना- एकोमोडेट करना, ट्रेफिक को भी, नव धनाढ्यों को भी, स्‍नॉब्‍स को भी और छोटे मोटे सपने वाले इस-उस को भी। हमारी तहजीब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में खोजोगे तो वही मिलेगा जो मिलता है तुम्‍हें- वरना आओ मिलते हो अगले रविवार गोलचा से चार कदम दिल्‍ली गेट की तरफ- कहो तो इंतजार करूं।

Saturday, June 23, 2007

हम मंगलू, हम पग्‍गल...तुम स्‍वामी, कृपा करो भर्ता


शब्‍द अपने साथ बहुत कुछ लिए बहते हैं- आस्‍था, विश्‍वास, पूर्वाग्रह और चिंताएं। जब बच्‍चों के साथ बैठकर हैरी पॉटर का हिंदी संस्‍करण देखा था तो एक शब्‍द टकराया था-मंगलू ये किसी घरेलू नोकर का नाम नहीं था, दरअसल ये किसी का नाम नहीं था- ये व्‍यकितवाचक नहीं जातिवाचक संज्ञा थी- ये आपका मेरा सबका नाम था- ये सर्वनाम था। फिल्‍म में उन सब लोगों के लिए जो पॉटर, हरमाईनी .... वगैरह वगैरह की तरह जादू की शक्तियों से वंचित थे यानि आम आदमी- वे ही इन जादूगरों के लिए मंगलू थे- कुछ जादूगरों के लिए ये ‘बेचारे मंगलू’ थे तो बाकी के लिए थे ‘कमबख्‍त’ मंगलू पर थे वे मंगलू ही। सेंट सटीफेंस वाले रामजस और सत्‍यवती वालों को मंगलू समझते हैं- फर्ग्‍यूसन कॉलेज वाले वाडिया कॉलेज वालों को। अंग्रेजी आनर्स वाली हिंदी/संस्‍कृत वालियों को बहनजी या कहें कि मंगलू समझती हैं। ऐसा ही होता है...नहीं?

अब जरा इस पोस्‍ट को देखें- यहॉं मुझे एक शब्‍द दिखा पग्‍गल वैसे तो शब्‍दकोशीय अर्थ में तो ये कुत्‍ते की एक प्रजाति हुई पर यहॉं अर्थ {puggles (That’s people with no programming blood in them)} ...उई...वा। तो हम मंगलू ही नहीं पग्‍गल भी कहे जाएंगे। अब ये कोडिंग/प्रोग्रांमिग वाले लोग बड़े दुखी है कि भई ये पग्‍गलों की दुनिया इन आईटी वालों की दुनिया को सही से न समझते हैं न उसका कुछ शऊर ही इनमें है- अब इस बात को ही लें कि वे इन गीक लोगों का कैसा बेहूदा चित्रण अपनी फिल्‍मों में करते हैं- उदाहरण दक्षिण भारतीय फिल्‍मों से हैं पर आप उन्‍हें बाकायदा क्रिश जैसी फिल्‍मों पर भी लागू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए विंडोज98 या नोटपैड, मीडिया प्‍लेयर दिखाकर ऐसा बताते हैं कि हीरो बड़ा तोप प्रोग्रामर है....वगैरह वगैरह।

तो भैया हम बेशऊर गैर गीक लोगों को जरा अपनी हद में रहना सीख लेना चाहिए क्‍योंकि जैसा कि वहॉं गीकोसेपियंस प्रजाति की प्रिया ने बताया (हमारे यहॉं अमित ऐसी कोशिश कर चुके हैं हम पग्‍गल ही इस बात को समझने में आनाकानी कर रहे हैं) कि गीक शैल इनहैरिट द अर्थ एंड दे आर फर्स्‍ट इन लाईन फार द थ्रोन।

Friday, June 22, 2007

हमारा बि‍ब और उनकी भड़ास....शुक्रिया पेजफ्लेक्‍स

पेजफ्लेक्‍स क्‍या है इसे अभी समझने की कोशिश ही कर रहा हूँ। तकनीकज्ञों की दुनिया मे कलमची समझकर उपहास का पात्र हूँ और हिंदी के लोग कीबोर्ड की गिटर-पिटर करने वाला समझतें हैं, इस दो दुनियाओं से परिचय ने अन्‍य चीजों को समझने के मेरे तरीके पर भी प्रभाव डाला है। मसलन इस पेजफ्लेक्‍स को लें रवि रतलामी के चिट्ठे पर इसे देखा तो रोचक चीज लगी। खोजबीन की तो पता लगा एक किस्‍म का मनचाहा होमपेज बनाने की सेवा ही तो है जो शायद पहले गूगल या याहूवाले भी दे चुके हैं। पर इस्‍तेमाल देखा तो उस सब से ज्‍यादा काम की चीज लगी क्‍योंकि ये पर्सनल व पब्लिक में शफलिंग की गुंजाइश देती है आप अपने फ्लेक्‍स को प्रकाशित कर सकते हैं या शेयर कर सकते हैं। रविजी ने अपने चिट्ठे पर अपने अपने टंबलर के एग्रीगेशन को प्रकाशित किया है और बाईं ओर देखें हमने इस पेजफ्लेक्‍स के ब्‍लॉग को अपनी स्‍क्रेपबुक बनाकर यहॉं चेप दिया है जिसपर आप चाहें तो कमेंट भी कर सकते हैं पिक्‍चर इन पिक्‍चर (पिप) की तर्ज पर ये हुआ ब्‍लॉग इन ब्‍लॉग (बिब)। इसके अलावा एक पेज हमने ऐसा बनाया है जिसमें हिंदी के तीन एग्रीगेटर यानि जितेंद्रजी का नारद, प्रतीक का हिंदी ब्‍लॉगरवि रतलामी का टंबलर स्‍क्रेप। हमने इन तीनों से मिलाकर जो पेज बनाया वो यहॉं है। जो कुछ कुछ इस तरह दिखता है।




अब ये कोई तकनीकी कारीगरी नहीं है लेकिन इस छोटी सी एप्लिकेशन से कई बातें दिखाई देती हैं- मसलन भड़ास को लीजिए – ये भी एक किस्‍म का मोहल्‍ला ही है इसके लिंक रवि के टंबलर पर दिखते हैं ये मस्‍त लेखन है लेकिन नारदीय शुचिता से मुक्‍त (पता नही इसे तारीफ कहें की कमी- फिलहाल बिना मूल्‍य आकलन, ‘वैल्‍यू जजमेंट’ के समझा जाए) है। इस पर रियाज भी हैं ओर अभिषेक भी पहुँच जाते हैं कभी कभी और यशवंत आदि आदि हैं। नारद पर वे चलती फिरती नजर रखते हैं कुछ कुछ फक्‍कड लेखन, पर बांधता है- बेपरवाह है इसलिए कुछ कुछ सच्‍ची ब्‍लॉगिंग जैसा प्रभाव देता है पर भाषा के मामले में सब की ऐसी तैसी करने वाला लेखन है। आज जो मांधाता साहब ने वो सेक्‍स ट्वाय के बहाने से तैं-पैं की है उसके लिए वह किसी बहाने का मोहताज नहीं।....तो इस भड़ास तक हम पहुँच पाते हैं इस नए औजार से। और खुद के पर्सनल व पब्लिक पक्ष के बीच के स्‍क्रेप को पहुँचा देते हैं आप तक। और अगर आप हमारे उस त्रिदेवी पेज पर जाएं तो आप अगल बगल में टिके इन फीडों से देख सकते हैं कि कुछ कितना है जो जो हिंदी ही है और आसपास ही है। हालांकि जैसा मैंने स्‍क्रेप किया कि इसका सैद्धांतिक ढांचा अभी समझने की कोशिश ही कर रहा हूँ।

हैरी पुत्‍तर और जादू की छड़ी

हा हा हा...ये भी मजेदार रहा।

क्‍या ये........तो लीजिए इसे देखें।


Thursday, June 21, 2007

इस चिट्ठे का गूगल-खोज विश्‍लेषण

अंग्रेजी ब्‍लॉगिंग में ये देखा जाता है‍ कि ब्‍लॉग उन शब्‍दों की सूची भी कभी कभी प्रकाशित करते हैं जिन शब्‍दों को खोजते हुए उनके पाठक उस ब्‍लॉग तक पहुँचे थे हिंदी में ऐसा कम होता रहा है क्‍योंकि हिंदी के चिट्ठाकार पाठक नारद या फीडरीडरों से अधिक ब्‍लॉगों तक पहुँचते रहे हैं। पर अब कुछ बदलाव आया है एक बड़ा कारण भोमियो भी रहा है जिसकी वजह से रोमन में खोजे गए कीवर्ड भी हिंदी चिट्ठों तक पहुँचा रहे हैं।
केवल सूचना के लिए नीचे उन शब्‍दों की खोजों के घटते क्रम में सूची है जिनसे पाठक इस ब्‍लॉग तक पहुँचे हैं-

megha patekar
hindi poem on parishram
मसिजीवी
स्त्री
वैज्ञानिक
मसूरी यात्रा व
उर्दू में है
caste hindu
gujarate maje
hindi poems vivaah
megha patekar
हिंद

अब देश इन गॉंवों को अफोर्ड नहीं कर सकता

अतानु डे के लेख का लुब्‍बा लुआब यह है कि भई ऐ गॉंव गॉंव की कॉंव कॉंव बहुत हो गई। ऑंखे खोलो अब देश इन गॉंवों को अफोर्ड नहीं कर सकता, वैसे भी गॉंवों की बात करता कौन है- लंडन में पढे और शहरों में बसे मोहन दास गांधी जबकि दलितों की दशा से वाकिफ अम्‍बेडकर इनके विरोधी हैं। इसलिए गॉंवों की आर्थिक व सामाजिक समस्‍याओं का समाधान तेज शहरीकरण में हैं- बाकी सब शहर में खा पी रहे लोगों का नॉस्‍ताल्जिया है उसकी कीमत अदा करने में देश असमर्थ है। अतानु का आकलन है कि 2030 तक के भारत को 600000 समस्‍याग्रस्‍त गॉंवों में बसने की अपेक्षा 600 विकसित महानगरों या 6000 नगरों में बसने की व्‍यवस्‍था को स्‍वीकार करना चाहिए- दुनिया भर की विकसित अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने यही किया है।

वैसे तो हाय मेरा गॉंव...वो पनघट...वो पनिहारिन...वो रहट...वो रहट्टे...वो कुम्‍‍हार..वो नाईन आदि आदि की पुकार करने वाले हिंदी में अंग्रेजी से ज्‍यादा है इसलिए इस कमअक्‍ल(?) अतानु को (मुँहतोड़) जबाव हमारे अभय भैया ज्‍यादा बेहतरी से दे पाएंगे पर फिर भी श्री ने ये जबाव देने की कोशिश की है। हम तो सारी जिंदगी ‘अहा ग्राम्‍य जीवन भी कैसा भला है....’ टाईप चीजें पढ़ाकर बड़े किए गए हैं पर सच कहें तो हमें अतानु की बात में भी दम दिखाई देता है।

Monday, June 18, 2007

ई-स्‍वामी जी मेरी एक और फिकर का जिकर सुनें

चलें अब आगे देखें...होनी को कौन टाल सकता है। :(

चिट्ठाजगत में मारकाट है और जैसा प्रत्‍यक्षा ने कहा कि टुमारो भी कुछ खास बेटर प्रतीत नही हो रहा। पर समय तो आगे की ही ओर चलेगा...इसलिए आगे की ओर ही देखें। पहले बार बार कहा जा रहा था कि मेल भेजकर दिखाओ अब आशंका हो रही है कि लोग मेल भेज भेजकर न कहने लगे कि हमें हटाओ....तब क्‍या होगा...उस पर ही विचार करने का इरादा है।

मिश्राजी ने पोस्‍ट लिखकर समझाया बाते पहले से पता थीं- ये भी कि ये ऐसे कही भी जाएंगी, उस पर भी आएंगे फिर कभी, पर फिलहाल उस बात को लें जो सबसे जरूरी है और ये कही अनामदासजी के चिट्ठे पर ई-स्‍वामी ने, मेरी आज की पोस्‍ट की प्रेरणा वहीं से है। खुद को वे कोडिंग-प्रोग्रामिंग से कमाने खाने वाला कहते हैं और इशारा करते हैं कि तकनीकी मामला हो तो हम निपट लें पर ये तर्क-कुतर्क-विरोध-प्रतिरोध-राजनीति-भावना-भाषा के पचड़े निपटाने में दूसरों को पहल करनी चाहिए। अच्‍छा लगा ई स्‍वामीजी कि आपने यह कहा। तकनीकी-गैर तकनीकी के घालमेल ने इस मामले का संभालने के कई अवसर गंवाने पर विवश किया ऐसा मुझे लगता है। पर चूंकि पीछे नही आगे देखना है इसलिए उस सब को याद नहीं करूंगा, कुछ और याद करूंगा। दो महीने हुए एक पोस्‍ट लिखी थी जिसपर संजयजी व ई-स्‍वामी ने (काम मत कर/काम की फिकर कर/फिकर का जिकर कर) जैसी राय दी थी, उस पोस्‍ट में कहा था-

.... संपादकीय विवेक की कैंची (जो कम से कम शुरूआती दिनों में इन पुराने चिट्ठाकारों के हाथ में ही रहने वाली है) से घाव करने पड़ेंगे। दूसरा प्रभाव विवाद शमन भूमिका पर पड़ने वाला है। नए चिट्ठाकार जिन्‍हें विवाद सफलता की सीढ़ी दिखते हैं उन्‍हें सलाहें नागवार गुजरेंगीं और एकाध बार अंगुलियाँ जलाने के बाद वरिष्‍ठ अंगुलिया विवादों के ताप से दूर रहने लगेंगी यूँ भी संपादकीय गमों से कम ही अवकाश होगा इनके पास।

कल्‍पना कुछ बाद के लिए की थी लेकिन जल्‍दी हो गया और कतई खुश नही हूँ कि मेरी आशंका (या फिकर का जिकर) सही साबित हुआ।

कारण कुछ कुछ ई स्‍वामी पहचान रहे हैं अब चुनौतियॉं जितनी तकनीकी हैं उससे अधिक गैर तकनीकी, भाषा, या संपादकीय विवेक की हैं- मसलन कल की चुनौती है (शायद आज ही की है) कि उन चिट्ठों का भी एग्रीगेशन किया जाए जिनकी कोई रूचि नहीं है कि नारद में वे रहें कि हटा दिए जाएं, या जो ईमेल भेज चुके हैं- अपनी तो स्‍पष्‍ट राय है कि नारद को पंजीकरण की आवश्‍यकता पर पुनर्विचार करना चाहिए- यानि नारद खुद उन चिट्ठों का भी एग्रीगेशन शुरू करे जिन्‍होंने कोई आवेदन नहीं दिया है। ऐसा क्‍यों- इसलिए कि अगर वैचारिक असहमति, व्‍यावसायिक कारण, जानकारी के अभाव, आलस्‍य, जिद, राजनीति या कोई अन्‍य कारण से किसी चिट्ठाकार को यह लगता है कि उसे नारद की जरूरत नहीं है तो इससे स्‍वमेव यह सिद्ध नहीं होता कि नारद या हिंदी चिट्ठाकारी को भी उस चिट्ठे की जरूरत नही है। हो सकता है कि इस बेरूखी के बाद भी फीड लिए जाने से चिट्ठाकार को नागवार गुजरे पर इस पक्ष को साफ समझ लिया जाए कि सार्वजनिक चिट्ठे की फीड किसी की बपौती नहीं हैं- खुद चिट्ठाकार की भी नहीं। चिट्ठे पर क्‍या लिखा जाए यह तो चिट्ठाकार ही तय करेगा लेकिन यदि चिट्ठा सार्वजनिक है (यानि यदि वह पासवर्ड सुरक्षा के साथ केवल परिजनों व मित्रों के लिए नहीं लिखा गया है) तो उसे कौन पढ़े इसे तय करने का अधिकार चिट्ठाकार को नहीं है। चिट्ठापाठक होने के नाते हर सार्वजनिक फीड पर सर्वजन का अधिकार है। इससे एग्रीगेटर इनक्‍लूसिव बनेगा। यदि सुनो नारद पर कुछ मेल आ गई हैं तो उन पर तैश में आकर स्‍वीकृति देने से पहले जिम्‍मेदार लोग कृपया फॉर बेटर टुमारो उन्‍हें झट तथास्‍तु न कर दें तकनीकी मजबूरी हो तो अलग बात है पर संभव हो तो कोडिंग/प्रोग्रमिंग वाले उस तकनीकी मजबूरी को भी सुलट लें :)

Saturday, June 16, 2007

पंडितजी, ऐसे नारद की कल्‍पना त्रासद है

श्रीश ने, रविजी ने और अनूपजी ने भी अपनी बातें इस राहुल मुद्दे पर रखी हैं। रविजी की पोस्‍ट पर टिप्‍पणी में अपनी बात कह दी थी पर फिर अनूपजी और श्रीश को भी पढ़ा- आज पोस्‍ट लिख चुका था और एक दिन में दो पोस्‍ट मेरे आलस्‍य धर्म के विरुद्ध है किंतु टिप्‍पणी में बात सिमट नहीं रही है। अत: इनपर मेरी प्रतिक्रिया इस प्रकार है-
श्रीश द्वारा अपना मत लिखने पर अविनाश की टिप्‍पणी है कि ये बकवास है, मुझे ऐसा नहीं लगता- मुझे इस मुद्दे पर आप लोगों से संवाद की उतनी ही जरूरत लगती है जितनी राहुल, संजय या अविनाश से।

तकनीकी तौर पर आपकी बातें सही हैं- एक तो यह कि आपको हटाए गए ब्‍लॉग की सामग्री आपत्तिजनक लगी (मुझे भी लगी), दूसरा यह कि नारद को यह अधिकार है कि वह किसे ऐग्रीगेट करेगा किसे नहीं- इन दोनों सहमतियों के बावजूद हम लगातार इस कार्रवाई पर पुनर्विचार का अनुरोध कर रहे हैं नारद से, आपसे, संजय से और सबसे...क्‍यों

इसलिए नहीं कि हम सभी आतंकवादी, नक्‍सलवादी, नस्‍लवादी, नस्‍ल, गैंग वगैरह हैं वरन ठीक इसके विपरीत कारणों से।

पहले तो वजह वही जो आपने (श्रीश ने) कही नारद सिर्फ एक एग्रीगेटर नहीं है वह व्‍यवसाय नहीं है...वह प्रतीक अधिक है तकनीकी चीज बाद में है इसलिए इस प्रतीक में हर मत की साझीदारी जरूरी है- मेरी भी और मुझसे विरोधी की भी इसीलिए मेरे लिए ऐसे नारद की कल्‍पना त्रासद है जिसमें राहुल को हटा दिया जाए, सागर खुद हट जाएं, धुरविरोधी, नसीर, इरफान, मसिजीवी, अफलातून, अविनाश आदि को उकसाया जाए कि वे खुद हटने की मेल भेजें और जैसा आपने कहा कि बहुत से इसलिए चुप हो जाएं कि उन्‍हें डर है कि वे अपने मन की बात कहेंगे तो लोग उनपर टूट पड़ेंगे। और फिर इन विवश चुप्पियों की व्‍याख्‍या समर्थन के रूप में की जाएगी।
यानि यदि आप भी मेरी तरह नारद को एक प्रतीक मानते हैं जिसमें इतना परिश्रम और स्‍वप्‍नों का निवेश हुआ है तो जरूरी है कि आप इसे सेग्रीगेशन का औजार बनने से आहत महसूस करें।

दूसरी बात इससे ज्‍यादा जरूरी है जैसा श्रीश ने कहा -
‘इन चिट्ठाकारों के इस प्रकार के लेखन का एक अन्य उद्देश्य है - अपनी विचारधारा का प्रचार।इन चिट्ठाकारों में से बहुसंख्यक वामपंथी/माओवादी/नक्सली विचारधारा के हैं। अब वामपंथ तक तो सही है लेकिन नक्सली आदि खतरनाक विचारधारा का ये लोग खुलेआम समर्थन करते हैं। अब सभ्य तरीके से अपनी विचारधारा के बारे में लिखने की बजाय ये इसके लिए हिंसक किस्म के लेखन का सहारा ले रहे हैं। जो इनसे सहमत होता है ठीक वरना उसके खिलाफ ये मोर्चा खोल देते हैं‘
मुझे ये धारणाएं घातक प्रतीत होती हैं। अभी हाल में किसी ने संघ के पदाधिकारी का गुणगान करती पोस्‍ट लिखी थी, ओक की ‘इतिहास दृष्टि’ वाली पोस्‍ट भी आई- आने दो वैसे ही – ‘आज नक्सली आए हैं कल उल्फा, बोडो और काश्मीरी आतंकवादी भी नारद पर आ धमकेंगे, वे भी 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' की बात करेंगे, तुम्‍हें भय होगा श्रीश, इस दिन का मुझे तो इंतजार है- अगर इतने भिन्‍न मत रखने वाले और इतने अतिवादी मत रखने वाले हिंदी में, चिट्ठाकारी में, नारद में, संवाद में आस्‍था रखने लगेंगे तो फिर और क्‍या चाहिए। मुझे नहीं पता कि इन सबके विषय में आप कितना जानते व पढ़तें हैं पर मैं तो इनके विषय में और जानना चाहूँगा। और फिर हम सब जानते हैं कि राज्‍य इन सभी संस्‍थाओं की तुलना में अधिक क्रूर, अनैतिक व अतिवादी है- पर हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानदत्‍त, अनूप आदि उसी सरकार के ही अधिकारी है अनूप तो इसी आतताई राज्‍य के गोला बारूद बनाते हैं जो किन किन के खिलाफ इस्‍तेमाल होता है उसपर उनका कोई वश नहीं। पर क्‍या इससे वे सरकार की तमाम ज्‍यादतियों में शामिल हो गए। इसलिए इस आधार पर समर्थन विरोध करना अनुचित है कि कार्रवाई किसके खिलाफ हुई है, वह संघी है कि नक्‍सली। मैं, आप या देश ही से दूर बैठे संचालक कैसे इसकी चौकीदारी करेंगे और क्‍यों करेंगे और जब करने लगेंगे तो क्‍यों उनका विरोध नहीं किया जाना चाहिए।

किया जाना चाहिए इसीलिए किया जा रहा है। और हॉं नारद संचालक मंडल के सदस्‍यों ने इतना परिश्रम किया है इसे खड़ा किया है कम से कम वे उस खीजे बच्‍चे की तरह व्‍यवहार न ही करें जो अपने बनाए घरोंदे पर पैर मारकर तोड़ देजा है और नाचता है कि मेरा था तोड़ दिया...तुझे क्‍या। लोग अपने चिट्ठों पर क्‍या लिख रहे हैं जाने दें किंतु नारद की औपचारिक पोस्‍टों तक में कहा-
’इतनी बड़ी पोस्ट लिखने से अच्छा है, दो लाइनों मे sunonarad at gmail dot com पर लिख भेजें कि हमारा फलां फलां ब्लॉग नारद से हटा दिया जाए। विश्वास कीजिए, आपका भी समय बचेगा, पाठकों का भी और हमारा भी। ‘
आपने इसके समर्थन में बड़ी पोस्‍ट लिखी, अनूपजी ने पोस्‍ट लिखी है और अगर मैं कहूँ कि लंबी पोस्‍ट है तो मुझसा बौढ़म और कौन होगा- अरे फुरसतिया ने लिखी है लंबी ही होगी :) मैं भी लिख रहा हूँ, औरों ने भी लिखी पर अब जरा कल्‍पना करें कि अनूप या आप या जितेंद्र से नारद की ओर से कहा जाए कि अविनाश का लिखा पसंद नहीं तो इतनी लंबी पोस्‍ट न बघारें चुपचाप एक मेल सुनो नारद पर भेज दें और हट जाएं। मुझे मालूम है कि एक फूहड़ कल्‍पना है कि भई ‘मालिक’ लोगों से कोई ऐसा कैसे कह सकता है- पर इसका मतलब ये भी है कि अविनाश, राहुल को इसलिए कहा गया क्‍योंकि वे ‘मालिकों’ को पसंद नहीं थे। अनूपजी पर जो भलमनसाहत का ‘आरोप’ लगाया गया है उसे सच सिद्ध करते हुए उन्‍होंने माना कि भई जितेंद्र पेड़ आदमी हैं उन्‍हें प्रवक्‍ताई नहीं आती है इसलिए उसपर ध्‍यान न दें, तो क्षमा करें या तो पेड़ को बगीचे में खड़ा करें (यूँ भी आपके अहाते में इसकी खूब गुंजाईश है :)) और प्रवक्‍ताई खुद संभालें या किसी गैर-पेड़ को दे दें, लेकिन यदि भाषा का मसला इतना मामूली है कि खुद नारद में तो इसे पेड़ों को दे दिया जाता है लेकिन दूसरों की भाषा पर फरमान जारी होते हैं तो शायद बहुत ठीक न‍हीं।
खैर ऊपर अंत के हिस्‍से की कुछ बातें आवेश में लिखी गई हैं इसलिए वर्तनी और शिष्‍टाचार की उसमें भूलें हैं। क्षमा।

कवि नागार्जुन और गुलाबी चूडि़यॉं- वीडियो में

बा‍बा नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता है ‘गुलाबी चूडियाँ’। घर में सामान इधर उधर करते सी आई ई टी की एक सीडी दिखी याद आया कि इसमें नागार्जुन खुद इस कविता को कक्षा दस के विद्यार्थियों (सी बी एस ई के पाठ्क्रम में यह कविता थी) को समझाते हुए फिल्‍माए गए हैं। कॉंट छॉंट कर उस हिस्‍से को आपके लिए पेश करने लायक तैयार करना मुझ जैसे के लिए आसान नहीं था पर खैर पेश है- गुलाबी चूडियॉं



Wednesday, June 13, 2007

आपको न माने ताके बाप को न मानिए

कचरा पेटी प्रकरण पर बहस अभी थमी नहीं है। नामवर ने पंत के साहित्‍य को कूड़ा करार दिया तो मौके का फायदा उठाकर तुलसी के साहित्‍य में कूड़ा संधान भी कर दिया गया। फिर किसी (मूर्ख??) जज ने मुकदमा शुरू कर दिया। इस पर मामला आलोचकीय विवेक से आगे जाकर अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का बना दिया गया। नए हस्‍तक्षेप राजकिशोर व अशोक वाजपेयी के रहे हैं। याद रह कि राजकिशोर ने कहा था कि वे खुद इस प्रकरण में जेल जाने के लिए आतुर हैं और उन्‍होने क्रम से कई सारी चीजों में कूड़ा खोज निकाला था-

‘इसलिए मैं पंत को कूड़ा लिखने का दोषी नहीं मानता। कुरूप को कुरूप स्‍त्री को सज-संवर कर निकलने का हक़ है, मूर्ख से मूर्ख व्‍यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, अदालत में जाने का भी। यही जीवन का लोकतंत्र है, जिसमें कुत्ते भौंकते रहते हैं, कोयल कू कू करती रहती है, गाय रंभाती है और घोड़े हिनहिनाते रहते हैं। इसी नाते, मेरा भी यह अधिकार है कि मैं कौए की वाणी की प्रशंसा न करूं, कुत्तों के कुछ समय तक नि:शब्‍द रहने की कामना करूं और अपने कमरे में ऐसे रसायन फैलाऊं कि मच्‍छड़ कहीं और जाकर भनभनाएं।...’

जवाब में इधर जनसत्‍ता में अशोक वाजपेयी ने नामवर से अपना हिसाब बराबर करने के लिए इस प्रकरण पर अपने विचार दिए हैं और जाहिर है राजकिशोर को भी लपेटे में लिया है। मुद्दे के जवाब के जवाब के जवाब ...में आज राजकिशोर ने फिर जवाब दिया है और कचरा विमर्श पर कचरे की व्‍यक्तिनिष्‍ठता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है...जनसत्‍ता आपकी पहुँच में हो तो जरूर पढें। हमें जो पंक्ति पसंद आई वह है ये रीतिकालीन पंक्ति...’आपको न माने ताके बाप को न मानिए’





आप कहेंगे कि भई यह तो हिदी की सामान्‍य सी कीचड़बाजी है उसे यहॉं क्‍यों फैलाया जा रहा है...उत्‍तर है- राजकिशोर ने कचरा प्रसंग में ब्‍लॉगजगत को लपेटा है और इसे कचराप्रधान ऐसे लेखन का ढेर कहा है जो है तो कचरा, पर लेखक को मूल्‍यवान जान पड़ता है। आपकी सुविधा के लिए प्रासंगिक अंश को यहॉं अविकल प्रस्‍तुत किया जा रहा है-

दरअसल साधारण से साधारण रचनाकार भी जो लिखता है, उसमें कुछ ऐसा होता है जिसे मूल्‍यवान कहा जा सकता है। अगर हर व्‍यक्ति का मूल्‍य है तो उसके हर उत्‍पादन का भी कुछ न कुछ मूल्‍य है। दुख की बात यह कि इसी आधार पर आज का ब्‍लॉग वर्ल्‍ड विकसित हो रहा है। मुफ्त का इंटरनेट, मुफ्त का वेबिस्‍तान, ब्‍लॉग पर ब्‍लॉग छांटते जाओ मेरे नंदनों या मेरी नंदनियों। तुम्‍हारी अभिव्‍यकित हो रही है, दुनिया का जो भी हो। वैसे इसमें भी क्‍या शक है कि मर जाने के बाद बड़े से बड़े लेखक का भी काम कचराघर में डाल दिया जाता है, क्‍योंकि इतनी जगह कहॉं है दिले दागदार में।
(कुछ और कचरा, राजकिशोर, जनसत्‍ता 13/06/2007)

Friday, June 08, 2007

हिंदू स्‍त्री का जीवन - High Caste Hindu Women


हिंदी के पढ़ाक चिट्ठाकार हँसें तो हँसें पर सच है कि पंडिता रमाबाई की पुस्‍तक The High Caste Hindu Women मैंने अब तक नहीं पढ़ी थी, वाबजूद इसके कि वर्षों से इसके बारे में सुन रखा था और पढ़ने की चाह भी थी पर और बहुत सी चाहों की तरह बस लंबित ही थी। फिर इसका हिंदी अनुवाद हाथ लगा जो संवाद प्रकाशन से आया है। शीर्षक है-‘हिंदू स्‍त्री का जीवन’ । परसों इसे पढ़ना शुरू किया और आज ही खत्‍म किया है। मेरी सिफारिश मानें तो ये पुस्‍तक एक मस्‍ट रीड श्रेणी की पुस्‍तक है।
पंडिता रमाबाई (1858-1922) का जन्‍म एक ब्रा‍ह्मण परिवार में हुआ और तमाम बिडंबनाओं और कष्‍टों को सहते हुए उन्‍होंने उच्‍च जाति की स्त्रियों विशेषकर विधवाओं की दशा सुधारने के लिए आधुनिक दृष्टि से कार्य किया। ‘हिंदू स्‍त्री का जीवन’ तत्‍कालीन अमरीकी व ब्रिटिश जनता का ध्‍यान भारतीय स्त्रियों की दशा की ओर आकर्षित कर संसाधन जुटाने के इरादे से लिखी गई थी। हैरानी की बात है कि उत्‍तर भारतीय पाठ्यपुस्‍तकों में राष्‍ट्रनायकों की जीवनियों में आमतौर पर पंडिता रमाबाई को स्‍थान नहीं दिया जाता है जबकि वे शुरूआती शिक्षित भारतीय महिलाओं में से एक थीं जिन्‍होंने स्‍त्री सशक्तिकरण के भारतीय संस्‍करण को खड़ा करने में अहम योगदान दिया। यहॉं तक कि संस्‍कृत की पाठृयपुस्‍तकें भी इस संस्‍कृत विदुषी के स्‍थान पर इंदिरा गांधी या झांसी की रानी से ही काम चला लेना चाहते हैं। कारण ये रहा है कि संस्‍कृत के शास्‍त्री लोग इस प्रथम महिला 'शास्‍त्री' से इसलिए नाराज रहे हैं कि इन्‍होंने बाद में ईसाई धर्म स्‍वीकार कर लिया था और ब्राह्मण होते हुए भी एक बंगाली कायस्‍थ से कोर्ट मैरिज करने का निर्णय लिया था- एक सहयोगी ने बताया कि इस साल NCERT की एक मीटिंग में पंडित लोगों ने ये आशंका जाहिर की कि जीवनी में इन ‘तथ्‍यों’ की वजह से बालमन पर ‘बुरा प्रभाव’ पड़ सकता है।

हिंदू स्‍त्री का जीवन का अंग्रेजी संस्‍करण 1886 में प्रकाशित हुआ। पंडिता रमाबाई की इस पुस्‍तक ने जहॉं अपने समय में विवादों और चर्चा को जन्‍म दिया वहीं इसने भारतीय स्‍त्री जीवन में बदलाव की शुरूआत की। पुस्‍तक में आठ अध्‍याय हैं जिनमें लेखिका उच्‍च जाति की भारतीय स्त्रियों के बचपन, वैवाहिक जीवन, वैवाहिक अधिकार, वैधव्‍य आदि का तार्किक विश्‍लेषण करती है और जनसंख्‍या आंकड़े (1881 की जनगणना के) आदि का उपयोग कर अपने मत को रूथापित करती हैं।

मनुस्‍मृति की इतनी तीखी आलोचना के लिए उस युग में एक स्‍त्री को बहुत साहस जुटाना पड़ा होगा। वे कुछ उदाहरण पेश करती हैं-


कोई भी बल द्वारा स्‍त्री की रक्षा नहीं कर सकता, किंतु इन उपायों से स्‍त्री की रक्षा की जा सकती है: स्‍त्री को धन के संग्रह, व्‍यय, वस्‍तु और पदार्थ की शुद्धि, पति तथा अग्नि की सेवा, घर तथा बर्तन आदि की सफाई में नियुक्‍त करें। ( मनु IX, 10-11)

पति के किसी बुरी आदत से ग्रस्‍त होने या शराबी होने या रोगी होने की वजह से पत्‍नी अपने पति के प्रति श्रद्धा नहीं रखती है तो वह पति उससे गहने व अन्‍य आवश्‍यक सामग्री लेकर उसे त्‍याग दे ( मनु IX, 77-78)

संतानहीन स्‍त्री की आठवें वर्ष में, मृत संतान वाली स्‍त्री की दसवें वर्ष में, कन्‍या को ही जन्‍म देने वाली स्‍त्री की ग्‍यारहवें वर्ष में और अप्रियवादिनी की तत्‍काल उपेक्षा कर उसके जीवित रहने पर भी पति दूसरा विवाह कर ले ( मनु IX, 80-81)

पति के दूसरा विवाह करने पर जो स्‍त्री कुपित होकर घर से निकल जाए या निकलना चाहे उसे पति कैद कर ले। ( मनु IX, 83)

स्त्रियों की दशा सुधारने के पंडिता रमाबाई के सुझाव कुछ कुछ हिंदू नन व मिशनरियों की स्‍थापना जैसे प्रस्‍तावित हैं जिन पर बहस व असहमति की गुंजाइश है किंतु अपने समय में रमाबाई का चिंतन निश्‍चय ही आंखे खोलने वाला रहा होगा।

Thursday, June 07, 2007

पहाड़ सुन्‍दर बन पड़ा है...साधुवाद

जब हमने ब्‍लॉगराइनों की व्‍यथा लिखी थी तब कहा था कि इसे हमारा अनुभव न माना जाए क्‍योंकि हम तो उस गुलिस्‍तां के वासी हैं जहॉं हर शाख पर...। यहॉं तो खाते-पीते, उठते-बैठते बस यही चिट्ठाकारी ही रहती है...नाक में दम है (पर किसके, सभी तो इसमें शामिल हैं) केवल बानगी के लिए बताया जाए कि पिछले दिनों धनोल्‍टी घूमने गए थे, पिछली पोस्‍ट में तस्‍वीर भी चेपी थीं वहॉं की। तो जनाब उस भ्रमण में मैं कीबोर्डपीट, नीलिमा, सुजाता, हमारा बेटा, बेटी थे और भी दो लोग थे पर वे इंसान थे यानि सुजाता के पतिदेव व पुत्रदेव। वरना हम सब तो ब्‍लॉगर हैं। वैसे बच्‍चे अपने ही में व्‍यस्‍त थे। ऐसे में एक पहाड़ भ्रमण कितना चिट्ठामयी हो सकता है बिना लैपटॉप-साईबर कैफे-आनलाईन हुए इसका अनुमान भी आपके लिए कठिन होगा। कुछ बानगी प्रस्‍तुत हैं -



धनोल्‍टी से एकाध किलोमीटर आगे (सुरकंडा देवी की ओर) चलते हुए एक मनोरम हरा भरा पहाड़ प्रस्‍तुत हुआ- ठंडे ‘समीर’ के झोंके के प्रभाव से सुजाता के मुँह से सहसा निकला – पहाड़ सुंदर बन पड़ा है....साधुवाद
जाहिर है कि ब्‍लॉगरों से भरी इस किराए की क्‍वालिस में जोरदार ठहाका लगा और एक आफलाइन टिप्‍पणवर्षा शुरू हुई। ....बेचारा ड्राईवर।

नीलिमा व सुजाता ने टिप्‍पणियों की बेंतबाजी शुरू कर दी हम बीच बीच में शामिल होते थे।

(1)

सुजाता: पहाड़ सुंदर बन पड़ा है....साधुवाद
नीलिमा: वाह वाह वाह
मसिजीवी: पहाड़ सुंदर है किंतु ऐसे ही पहाड़ पर मैंने दो वर्ष पर पूर्व टिप्‍पणी की थी यहॉं देखें।
नीलिमा: (कॉपी-पेस्‍ट) विशेष रूप से ये मोड़ पसंद आया...जारी रहें।

(2)
घोड़े वाले ने 3 किमी की दूरी (तपोवन) के लिए 400 रुपए की मांग की जो जाहिर है हमें ज्‍यादा लगे।
सुजाता – यह तो घोड़े के मद में चूर है- कहॉं है मेरी गदा।
रास्‍ता ट्रेकिंग से तय करने का निर्णय लिया पर बाद में नीलिमा को लगा इस पहाड में चढ़ाई ‘फुरसतिया की पोस्‍ट’ की तरह खत्‍म होने का नाम नहीं ले रही थी।

(3)
शनिवार को कम से कम बीस बार सुजाता ने चिंता जाहिर की, पता नहीं देवाशीष ने चर्चा की भी होगी कि नहीं। हमने रविवार को पच्‍चीस बार विश्‍वास जाहिर किया कि आज तो चर्चा नहीं ही हुई। इन सभी पैंतालीस बार हमने सबने गर्दन झटकी कि और लो वो इसे कहते हैं कि हमारा सशक्तिकरण हो रहा है।

इतना सब तो इस भ्रमण में चिट्ठामयी था और आप कह रहे हैं कि हम ब्‍लॉगर मीट में नही थे।

Wednesday, June 06, 2007

इस बार धनोल्‍टी

दिल्‍ली की ब्‍लॉगर मीट में नहीं पहुँच सके क्‍योंकि हम 3-4 दिन के लिए मसूरी के निकट ध‍नोल्‍टी में थे। दिल्‍ली की गर्मी और दिल्‍ली-मसूरी की भीड़भाड़ से दूर ये एक शांत व खूबसूरत जगह है। एक स्‍लाइड-शो वहॉं की तस्‍वीरें का-