जाहिर है आपमें से अधिकांश भारत भारद्वाज को नहीं जानते होंगे, पीएच डी वगैरह करने में एक बुरी बात यह भी होती है कि आप ऐसे कई नामों से परिचित हो जाते हैं जिन्हें बिना जाने आपका काम भली भांति चल रहा होता है, बल्कि ज्यादा बेहतर चल रहा होता है- खैर, ये भारत भारद्वाज दिल्ली में पाए जाते हैं गुप्तचर ब्यूरो में काम करते हैं ....जाहिर है इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं कि आपकी रुचि भारत भारद्वाज में हो – मेरी भी नहीं है। ओर हॉं इन्होने ये भी बताया कि हिंदी के नामधारी आलोचक नंदकिशोर नवल इनके बड़े भाई हैं। ये छोटे भाई साहब कभी कभी हंस बगैरह में लिखते हैं और इसी किस्म के कामों से अपने छोटे भाई होने का फर्ज निबाहते हैं।
फिर एक दिन ये बैठे हैं कि अचानक पड़ोस की एक बच्ची अपनी दसवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ लेकर पहुँचती है जिसे उसके मॉं बाप ने इन अंकल के पास कबीर के कुछ पदों का अर्थ जानने के लिए भेजा है- पुस्तक हाथ में लेते ही इन साहब के दिमाग में प्रियंका और उसकी दोस्तों की जूठी की गई खाली बोतले इनके दिमाग में बजने लगती हैं और ये भृतक जासूस अचानक केवल साहित्यविद ही नहीं अचानक शिक्षाविद भी बन जाते हैं और इस पाठ्यपुस्तक की आलोचना/विवेचना का एक उबकाईपूध्र संसार रचते हैं कि उसके अनुभव के लिए आपको इसे देखना ही होगा- देखें कबीर का संशोधित पाठ-भारत भारद्वाज (जनसत्ता 24 जून 2007)
इस सब से मुझे क्या आपत्ति है- है और घनघोर आपत्ति है। तीन साल पहले तक मैं एक सरकारी स्कूल में हिंदी का अध्यापक था यानि इन एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तकों को पढ़ाया करता था और अब पिछले तीन सालों से अपने स्नातक कक्षा के विद्यार्थियों को हिंदी खिक्षण पढ़ा रहा हूँ। इस सबसे पहले दिल्ली से ही प्रशिक्षण पाया और शिक्षा में ही शोध-कार्य के क्षेत्र में ही नौकरी भी की। नेम ड्रापिंग से बचना है पर केवल जानकारी केलिए इतना कि साथ काम करने वालों में ही अन्यों के अतिरिक्त कृष्ण कुमार भी थे जो आजकल एनसीईआरटी के निदेशक हैं जिसने ये पाठ्यपुस्तकें तैयार की हैं। अत: हिंदी व शिक्षा दोनों का मास्टर व विद्यार्थी होने के नाते इतनी समझ तो आ ही गई है कि किसी पाठ्यपुस्तक की विवेचना इतना सतही काम नहीं है कि कोई ऐरा गैरा छोटा भैया विषय सूची देखकर इसे अंजाम दे और आगे बढ़ जाए। समस्या और बढ़ जाती है जब उनकी आपत्तियों पर नजर डालते हैं- आपत्ति है कि अमुक को पाठ्यक्रम में लिया और अमुक को छोड़ दिया (मसलन वीरेन डंगवाल को लिया और अधिक महत्वपूर्ण कवियों को छोड़ दिया) कबीर के अमुक पाठ को लिया अमुक को क्यों नहीं लिया, हिंदी की दसवीं की किताब न हुई कवियों की जनगणना हो गई कि कोई छूट न जाए- बच्चों की जान ले ले- माटी मरे। पूरे प्रकरण में एक भी शिक्षा शास्त्रीय तर्क नहीं। ज्ञान के इतने सारे अनुशासनों में जितनी दुर्गति शिक्षा विषय की हुई है उतनी शायद किसी को नहीं- एक विषय के रूप में शिक्षा को ऐसी वेश्या माना जा सकता है जिसे कोई भी अपने अंक में लपेट लेता है और अपनी घोषित कर देता है।
पिछले साल अपने विद्यार्थियों को लेकर एनसीईआरटी गए और वहॉं ये समढने की कोशिश की कि पाठ्यपुस्तकें कैसे बनाई जाती हैं, किस प्रकार चयन को संतुलित बनाने में कमियोंकी गुजाइश होती है। ये भी कि हिंदी के मामले में निदेशक अपनी रूचि के कारण विशेष ध्यान देते हैं, फिर भी कमियों की संभावना से मना नहीं किया जा सकता पर ये कमियॉं वे तो नहींही होंगी जिनका उल्लेख भारत भारद्वाज ने किया है।
वैसे भारत भारद्वाजजी के इस सद्यजात शिक्षा ज्ञान के ठीक ऊपर इन्हीं कृष्णकुमार ने अपने स्तंभ दृश्यांतर में बॉलीवुड अभिनेताओं के भावबोध की भाषा के हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी हो जाने का विवेचन किया है जो समझ की सूक्ष्मता के कंट्रास्ट को और भी उभारता है।
जिन रचनाओं के पुस्तक में शामिल ने पर उन्हें आपत्ति है उनपर एक नजर डालें-
6 comments:
कुछ लोगों को सिर्फ मीनमेख निकालने की ही आदत है। अब जब मीनमेख ही निकालना है तो फिर तर्क की क्या जरूरत। एक साहब किसी भोज में गए। उन्हें मीनमेख निकालने की काफी आदत थी लेकिन भोज में परोसे गए किसी व्यंजन में कमी नहीं निकाल पाए। परेशान हो गए लेकिन जाते-जाते कह ही गए-दाल बहुत अच्छी बनी थी लेकिन अगर नमक थोड़ा ज्यादा हो जाता तो सब बेकार हो जाता। भारत जी का भी वही हाल है।
जब तक व्यर्थ की आलोचना नहीं करेंगे, कैसे पता चलेगा कि "शिक्षाशास्त्री" हैं।
आप भी न!!
बिना अपनी कलम चलाये कैसे पूछ बनेगी-ज्ञानी कहलाने के लिये यह सब तो करना ही पड़ेगा. ऐसा ही कोई ज्ञानी हमें मिल जाता तो अपने दोहे भी पाठ्य पुस्तक में डलवा देते. अब आप ही कभी मदद कर पाओगे, बस यही उम्मीद है. :)
kis duniyaa me ho kyaa liKate ho,apamnaa nahI to meraa to khayaal rakho,"hosh me aajaa madahosh"itanI mat piyaa kar.
कृष्णकुमार बधाई के पात्र हैं । चर्चा के लिए साधुवाद स्वीकारें ।
"शिक्षा को ऐसी वेश्या माना जा सकता है जिसे कोई भी अपने अंक में लपेट लेता है और अपनी घोषित कर देता है."
बहुत ख़ूब. आपकी इस भयावह बात से अपनी भयानक सहमति जताए हुए एक बात और जोड़ रहा हूँ. "इसे अपने अंक में लपेटने वाला प्रायः नपुंसक होता है, जो अपने पालित मुश्टंडो (पार्टी लें वाले बुद्धिजीवियों ) के ही दम पर लपेटता है और थोड़ी ही देर बाद फिर उनके ही भरोसे छोड़ देता है. और मुष्टंडे तब तक डरूं पीकर कहीँ नाली में पड़ चुके होते हैं.
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