चलें अब आगे देखें...होनी को कौन टाल सकता है। :(
चिट्ठाजगत में मारकाट है और जैसा प्रत्यक्षा ने कहा कि टुमारो भी कुछ खास बेटर प्रतीत नही हो रहा। पर समय तो आगे की ही ओर चलेगा...इसलिए आगे की ओर ही देखें। पहले बार बार कहा जा रहा था कि मेल भेजकर दिखाओ अब आशंका हो रही है कि लोग मेल भेज भेजकर न कहने लगे कि हमें हटाओ....तब क्या होगा...उस पर ही विचार करने का इरादा है।
मिश्राजी ने पोस्ट लिखकर समझाया बाते पहले से पता थीं- ये भी कि ये ऐसे कही भी जाएंगी, उस पर भी आएंगे फिर कभी, पर फिलहाल उस बात को लें जो सबसे जरूरी है और ये कही अनामदासजी के चिट्ठे पर ई-स्वामी ने, मेरी आज की पोस्ट की प्रेरणा वहीं से है। खुद को वे कोडिंग-प्रोग्रामिंग से कमाने खाने वाला कहते हैं और इशारा करते हैं कि तकनीकी मामला हो तो हम निपट लें पर ये तर्क-कुतर्क-विरोध-प्रतिरोध-राजनीति-भावना-भाषा के पचड़े निपटाने में दूसरों को पहल करनी चाहिए। अच्छा लगा ई स्वामीजी कि आपने यह कहा। तकनीकी-गैर तकनीकी के घालमेल ने इस मामले का संभालने के कई अवसर गंवाने पर विवश किया ऐसा मुझे लगता है। पर चूंकि पीछे नही आगे देखना है इसलिए उस सब को याद नहीं करूंगा, कुछ और याद करूंगा। दो महीने हुए एक पोस्ट लिखी थी जिसपर संजयजी व ई-स्वामी ने (काम मत कर/काम की फिकर कर/फिकर का जिकर कर) जैसी राय दी थी, उस पोस्ट में कहा था-
.... संपादकीय विवेक की कैंची (जो कम से कम शुरूआती दिनों में इन पुराने चिट्ठाकारों के हाथ में ही रहने वाली है) से घाव करने पड़ेंगे। दूसरा प्रभाव विवाद शमन भूमिका पर पड़ने वाला है। नए चिट्ठाकार जिन्हें विवाद सफलता की सीढ़ी दिखते हैं उन्हें सलाहें नागवार गुजरेंगीं और एकाध बार अंगुलियाँ जलाने के बाद वरिष्ठ अंगुलिया विवादों के ताप से दूर रहने लगेंगी यूँ भी संपादकीय गमों से कम ही अवकाश होगा इनके पास।
कल्पना कुछ बाद के लिए की थी लेकिन जल्दी हो गया और कतई खुश नही हूँ कि मेरी आशंका (या फिकर का जिकर) सही साबित हुआ।
कारण कुछ कुछ ई स्वामी पहचान रहे हैं अब चुनौतियॉं जितनी तकनीकी हैं उससे अधिक गैर तकनीकी, भाषा, या संपादकीय विवेक की हैं- मसलन कल की चुनौती है (शायद आज ही की है) कि उन चिट्ठों का भी एग्रीगेशन किया जाए जिनकी कोई रूचि नहीं है कि नारद में वे रहें कि हटा दिए जाएं, या जो ईमेल भेज चुके हैं- अपनी तो स्पष्ट राय है कि नारद को पंजीकरण की आवश्यकता पर पुनर्विचार करना चाहिए- यानि नारद खुद उन चिट्ठों का भी एग्रीगेशन शुरू करे जिन्होंने कोई आवेदन नहीं दिया है। ऐसा क्यों- इसलिए कि अगर वैचारिक असहमति, व्यावसायिक कारण, जानकारी के अभाव, आलस्य, जिद, राजनीति या कोई अन्य कारण से किसी चिट्ठाकार को यह लगता है कि उसे नारद की जरूरत नहीं है तो इससे स्वमेव यह सिद्ध नहीं होता कि नारद या हिंदी चिट्ठाकारी को भी उस चिट्ठे की जरूरत नही है। हो सकता है कि इस बेरूखी के बाद भी फीड लिए जाने से चिट्ठाकार को नागवार गुजरे पर इस पक्ष को साफ समझ लिया जाए कि सार्वजनिक चिट्ठे की फीड किसी की बपौती नहीं हैं- खुद चिट्ठाकार की भी नहीं। चिट्ठे पर क्या लिखा जाए यह तो चिट्ठाकार ही तय करेगा लेकिन यदि चिट्ठा सार्वजनिक है (यानि यदि वह पासवर्ड सुरक्षा के साथ केवल परिजनों व मित्रों के लिए नहीं लिखा गया है) तो उसे कौन पढ़े इसे तय करने का अधिकार चिट्ठाकार को नहीं है। चिट्ठापाठक होने के नाते हर सार्वजनिक फीड पर सर्वजन का अधिकार है। इससे एग्रीगेटर इनक्लूसिव बनेगा। यदि सुनो नारद पर कुछ मेल आ गई हैं तो उन पर तैश में आकर स्वीकृति देने से पहले जिम्मेदार लोग कृपया फॉर बेटर टुमारो उन्हें झट तथास्तु न कर दें तकनीकी मजबूरी हो तो अलग बात है पर संभव हो तो कोडिंग/प्रोग्रमिंग वाले उस तकनीकी मजबूरी को भी सुलट लें :)
6 comments:
चिट्ठापाठक होने के नाते हर सार्वजनिक फीड पर सर्वजन का अधिकार है। के तहत जो फ़ीड सार्वजनिक है उसको हम शामिल करें या न करें यह हमारी मर्जी पर है! सही है!
बहुत खूब मसिजीवी जी अगर आप की गुहार नारद के सचालक सुनलेवे ओर मानलेवे तो चिट्ठाजगत का बहुत फायदा होगा । क्योकि अगर कोई चिट्ठाकार नारद छोड कर जाता है तो ये सब की सामुहिक जिम्मेदारी है की उसे रोका जाये ।
और नारद को इनक्लुजिव बनाने की बात ओर तरीका बिल्कुल सही है । लेकिन प्रशन इस बात का है कि यह कोन तय करेगा की किस चिट्ठे की फीड ली जाए ओर किस को छोडा जाये । क्योकि यहा फिर क्नट्रोल की बात आ गई है ।
"...अपनी तो स्पष्ट राय है कि नारद को पंजीकरण की आवश्यकता पर पुनर्विचार करना चाहिए- यानि नारद खुद उन चिट्ठों का भी एग्रीगेशन शुरू करे जिन्होंने कोई आवेदन नहीं दिया है।..."
आपको पता नहीं है कि नारद पहले स्वयं ढूंढ कर चिट्ठों को एकत्र करता था. हमारे आपके जैसे स्वयं सेवी ही नारद को खबर करते थे और वह चिट्ठा जुड़ जाता था नारद से. एक चिट्ठा अभिषेक श्रीवास्तव का - मेरे कहने पर जुड़ा था. उसके किसी एक पोस्ट की भाषा गंदी व गाली मय हुई तो अपने अफलातून जी ने ही शिकायत की थी और उनकी ही शिकायत पर वह नारद से बैन हूई तब अभिषेक ने प्रतिरोध में कहा कि मैंने तो नारद से नहीं जोड़ा था अपने चिट्ठे को.
उस वक्त के तमाम विवाद के बाद से नारद पर चिट्ठों का पंजीकरण प्रारंभ हुआ था.
जी रविजी, आप ठीक कह रहे हैं- मुझे खुद याद नहीं कि इस या पिछले चिट्ठे के लिए मैंने कोई आवेदन दिया हो।
किंतु बीच में ऐसा हुआ...और फिर एक बार जब बोलो नारद के लिए सब फीड को ले लेने का अनुरोध मैने किया तो जितंद्रजी ने अपनी मजबूरी बताई कि लोग बाद में बेमतलब हल्ल मचाते हैं कि हमने तो नहीं कहा था क्यों लिया- इसीलिए ये तर्क दे रहा हूँ कि फीड की सार्वजनिकता को स्वीकार किया जाए- ऐसा करने से चूंकि 'हमें लो' की जरूरत खत्म होगी तो शायद 'हमें क्यों नहीं लिया' की आपत्ति भी स्वमेव मिट जाए। वैसे ये सिर्फ राय है-
सुन लिय भई! सुन ही तो रहे हैं! :)
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