Friday, April 06, 2007

हिंदी चिट्ठाकारी का अगला युग

इधर हिंदी चिट्ठाजगत में कुछ वैसा हो रहा है जैसा कि छायावाद के समय हिंदी साहित्‍य में हुआ, यानि अस्तित्‍व के सवाल से मुक्‍त होकर भविष्‍य के लिए निर्द्वंद्व रचनाधर्मिता शुरू हुई। द्विवेदीयुग वाली यह चिंता कि पता नहीं हिंदी (खड़ी बोली) रहेगी कि नहीं, रहेगी तो क्‍या स्‍वरूप रहेगा। इस तरह के सवाल अक्‍सर द्विवेदी युगीन कर्णधारों को दुखी करते थे पर छायावाद जो इन चिंताओं से तैयार जमीन पर ही खड़ा था पर इनसे अप्रभावित व अकुंठ था। उसने भाषा और संवेदना दोनों ही स्‍तर पर स्‍वतंत्रता का परिचय दिया। अब समकालीन हिंदी चिट्ठाकारिता पर सोचें- वह अपना एक निश्चित रूप ग्रहण करती चल रही है और नए चिट्ठाकार इस आशंका से ग्रस्‍त नहीं है कि कल हम हों न हों..। वे पहली दूसरी पोस्‍ट से ही विवादों में हाथ डालते हैं, जमे अधजमे लोगों पर अकुंठ टिप्‍पणी करते हैं, व्‍यंग्‍य करते हैं, पंगा लेते हैं, सवाल उठाते हैं, सफाई माँगते हैं। अच्‍छे संबंध से उन्‍‍हें गुरेज नहीं पर वे इसके लिए वे अतिरिक्‍त प्रयास करते नहीं दिखाई देते न ही उन्‍हें धमकी या धमकावलियों से कोई खास चिंता नहीं होती भाषा के स्‍तर पर भी वे अकुंठ हैं- जूते, जूतियाते हैं, चूतियापा करते हैं, गदा चलाते हैं, पीठ खुजाने, खुजवाने स्‍तर की दैहिकता भी आ ही गई है। कर्णधार भी अब अपना ऐतिहासिक महत्‍व स्‍वीकारते हुए इतिहास वर्णन की ओर अग्रसर हुए हैं। मतलब साफ है कि यदि संकेतों की ओर ऑंखें मूंदने के स्‍थान पर उन पर विचार किया जाए तो कुछ सवाल दिखाई दे रहे हैं -

1- क्‍या हिदीं चिट्ठाकारिता में युग परिवर्तन का समय आ गया है ?
2- नए युग की नई चुनौतियाँ क्‍या हैं ? पुराने चिट्ठाकारों ओर स्‍थापित संरचनाओं के लिए बदलाव से कौन सी नई चुनौतियाँ हाजिर हुई हैं?
3- और सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल यह है कि क्‍या हम इस नए बदलाव के लिए तैयार हैं- प्रौद्योगिकीय रूप से, भाषिक रूप से और चिट्ठासमाज की दृष्टि से?

ऊपर के पहले सवाल का जबाव इतना कठिन नहीं, बदलाव के चिह्न इतने स्‍पष्‍ट हैं कि
उनकी अवहेलना करना आसान नहीं। मसलन पिछले सप्‍ताह ही मुक्‍तक समारोह को इसलिए
स्‍थगित करना पड़ा कि सामग्री कि इस अधिकता के लिए हमारा नारद तैयार नहीं था, यूँ
भी रोज पचासेक नई पोस्‍ट के लिहाज से पहले पृष्‍ट पर बना रहना एक संघर्ष हो गया है,
जनसंख्‍या तेजी से बढ़ रही है जाहिर है अहं के टकराव भी बढ़ रहे हैं। बदलाव केवल
संख्‍या का ही नहीं है विषय भी बदले हैं, विवादमूलक विषय से परहेज समाप्‍त हुआ है।

अगर पुराने चिट्ठों के पुरालेख खंगाले जाएं तो हमें विवादों को लेकर अलग दृष्टि दिखाई देती है, अब विवाद श्रृंखलाबद्ध होते जा रहे हैं तथा एक ऐसेट की तरह देखे जाते हैं। विवादों को छोड़ भी दें तो भी राजनैतिक या अन्‍य विषयों पर तीखी
चिट्ठाकारी खूब दिख रही है। अभी भी महत्‍व तो व्‍यंग्‍य विधा का खूब बना हुआ है पर इसके विषयों में भी वैविध्‍य आ रहा है। शिल्‍प के स्‍तर पर बदलावों की आहट तो और भी स्‍पष्‍ट है- आडियो, वीडियो का पठ्य से योग बढ़ रहा है जो चिट्ठाकारिता की प्रकृति पर अपनी छाप छोड़ने के लिए आतुर है।

मुक्‍तक समारोह का स्‍थगन वह पहली चुनौती है जो नए युग की चिट्ठाकारिता के सामने आई है। यूँ भी कविता अब चिट्ठाकारिता की अहम विधा नहीं रह गई है। हमारे संसाधनों की सीमितता नारद के सामने हैव्‍स और हैव नॉट्स के सृजित हो जाने की चुनौती पेश कर रही है। पहले रेटिंग की जरूरत नहीं थी पर अब उसके बिना काम नहीं चल पा रहा, शायद अभी लेवल आदि के आधार पर कई सारे (उप)मुखपृष्‍ठ बनाकर इस समस्‍या को कुछ दिन तक सुलझाया जा सकता है यानि कविताओं का नारद, आपबीती का नारद, व्‍यंग्‍य का नारद और समाचार का नारद आदि पर अंतत: नारद को इस विशाल आकार के आगे संपादकीय भूमिका में आना पड़ेगा और यकीन जानिए वही घटना प्रीफेस टू लिरीकल बैलेड्स या पल्‍लव की भूमिका बनेगी या कहें युगांतरकारी होगी।
संपादकीय विवेक के आने का मतलब होगा कुछ पोस्‍टों को अन्‍यों की तुलना में चुनना वैसे मुझे लगता है कि इस स्थिति के लिए अनुमानत: 1000 चिट्ठों की जरूरत होगी लेकिन 1 से 500 में जितना समय लगा है 500 से 1000 में शायद उसका 10% ही लगेगा यानि से आसन्‍न स्थिति है दूरस्‍‍थ नहीं। चुनौतियॉं केवल स्‍थापित संरचनाओं यानि नारद, परिचर्चा आदि के ही सामने नहीं पुराने चिट्ठाकारों के भी सामने हैं- अब हर नए चिट्ठाकार के पास पहुँच उसे शाबासी के लिए पहुँचना संभव नहीं रह पाएगा उलटे संपादकीय विवेक की कैंची (जो कम से कम शुरूआती दिनों में इन पुराने चिट्ठाकारों के हाथ में ही रहने वाली है) से घाव करने पड़ेंगे। दूसरा प्रभाव विवाद शमन भूमिका पर पड़ने वाला है। नए चिट्ठाकार जिन्‍हें विवाद सफलता की सीढ़ी दिखते हैं उन्‍हें सलाहें नागवार गुजरेंगीं और एकाध बार अंगुलियाँ जलाने के बाद वरिष्‍ठ अंगुलिया विवादों के ताप से दूर रहने लगेंगी यूँ भी संपादकीय गमों से कम ही अवकाश होगा इनके पास।

अब सवाल रहा तैयारी का, संभव है अपरिवक्‍व सोच हो मेरी पर मुझे लगता है कि हम उतना तैयार नहीं हैं। तैयारी की अकेली कवायद जो मुझे दिखी वह है नए लोगों को जोड़ने की कोशिश- श्रीश सवर्ज्ञ देख रहें हैं कुछ नए चर्चाकार भी जुड़े हैं पर माफ कीजिए जब ‘ज्ञान’ की आँधी आएगी तो ये प्रयास मोह के तंबू के समान सिद्ध होंगे।
पहली आशंका तो यह है कि चिट्ठाकारी में मात्रात्‍मक विस्‍फोट होगा शनै: शनै: होने वाला बदलाव नहीं होगा। उदाहरण के लिए हिंदी प्रचार के एक छोटे से समूह से मैं जुड़ा हूँ और हमारी पहलकदमी से अगले सत्र में यानि अगस्‍त में दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के रचनात्‍मक लेखन, हिंदी कंप्‍यूटिंग और हिंदी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उनके कॉलेज में ही
कार्यशालाएं लगाकर हिदी ब्‍लॉग बनवाने की योजना है यानि एक-दो सप्‍ताह में 150-200 नए हिंदी ब्‍लॉग।

दूसरी ओर जरा एक अप्रैल वाले मजाक में छिपे खतरे पर विचार करें, उस पोस्‍ट की टिप्‍पणियों में ओर खुद पोस्‍ट में ही निहित है कि हम खतरे को महसूस करते हैं जब कोई साधन संपन्‍न यहाँ कब्‍जे की नीयत से आएगा तो हम अपना लाव लश्‍कर संभालेंगे तब तो लड़ लिए। मुझे लगता है कि हम अपनी नारद की अव्‍यवसायिकता के प्रण में थोड़ी लोच लानी चाहिए और नारद खुद ना सही पर एक मातहत
कंपनी लांच कर संसाधनों को जुटाना शुरू कर सकता है, अंतत: चिट्ठाकारी बाजार में घट रही परिघटना है। ‘सरस्‍वती’ की भूमिका से उसे निकल आना चाहिए और कुछ कुछ ‘हँस’ की भूमिका में आना चाहिए। ये विचार बेहद कच्‍चे और अस्‍वीकार्य हो सकते हैं पर कम से कम इतना तो रेखंकित करते ही हैं कि इन्‍हें खारिज कर इनके स्‍थान पर इनसे बेहतर विचार रखने की जरूरत है।

7 comments:

Anonymous said...

बिल्कुल सही बात उठायी आपने ..ये सारे प्रश्न आज नहीं तो कल हमारे सामने होंगे..हमें तो चाहिये कि नये पुराने के वर्गीकरण को छोड़ कर सामुहिक भाव से जुड़ें और अपने आप को भविष्य की आंधियों के लिये तैयार करें ..क्या हम इंडियन क्रिकेट टीम की सीनियर-जुनियर विवाद से कुछ सीख पाएंगे .

लेकिन 2 बातों से मैं सहमत नहीं हूं.

1. कि नये चिट्ठाकार विवादों का उपयोग अपना ध्यान आकर्षित कराने के लिये करते हैं.

2. हमें नारद को व्यवसायिक बनाना चाहिये .

Sanjeet Tripathi said...

साधु साधु। आपकी छठीं इन्द्री की तारीफ़ करना चाहूंगा।
बहुत सही बातें उठाई है आपने लेकिन कुछेक बात पर आम सहमति की संभावना मुश्किल लगती है।

संजय बेंगाणी said...

कमाल की दूरदर्शिता पाई है. शाबासी देता हूँ.

अब जिन चुनौतियों को आपने देख लिया है, उनसे निपटने के लिए कदम उठाईये. कुछ कर दिखाईये.
जरूरत पड़ने पर नारद बनाया गया था. तब किसी ने मात्र लेख ही लिख कर की ये जरूरी है वे जरूरी है,नहीं निपटा दिया था. ठोस कार्य कर दिखाया था. आपका भी स्वागत है. आने वाली चुनौती से निपटने के लिए क्या करना है बताएं. हम आपके साथ है. आइये कुछ नया बनाएं, आखिर हम सब का नारद है.

विवेक रस्तोगी said...

हाँ नारद को व्यावसायिक बनाया जाना चाहिये व हिन्दी ब्लाग का एड किया जाना चाहिये जिससे लोगों को पता चले और वे इस से जुड सकें|

eSwami said...

काम मत कर
काम का फ़िकर कर
फ़िकर का जिकर कर!

उन्मुक्त said...

मसजीवी जी
मैं लिनेक्स पर काम करता हूं और फायर फॉक्स में वेब पेज देखता हूं। इसमें आपका यह पेज ठीक प्रकार से नहीं दिखायी पड़ रहा है जिसके कारण मैं इसे नहीं पढ़ पाया। इसकी टिप्पणी ठीक से पढ़ जा रहीं हैं। यह अक्सर इसलिये होता है जब आप justify कर के लिखते हैं। left align करके लिखेंगे तो हम भी इसका आनन्द उठा सकेंगे।

मसिजीवी said...

हॉं मित्रो, इनमें से कई बातों पर पूर्ण सहमति की गुंजाइश कम है, पर इनसे बेहतर विचारों पर तो सहमति हो सकती है- जो सामने आएंगे ही।
संजय और ईस्‍वामी ने जो प्रच्‍छन्‍न आपत्ति दर्ज की है उस पर मेरी राय यह है कि बहुत मैं मैं करने से बचना ही हमें तो श्रेयस्‍कर जान पड़ता है वरना रवीश ने अपनी एक पोस्‍ट में बताया ही था कि मैंने किया मैने किया- ये हिंदी का सामान्‍य बकरीवाद है। इससे जितना बचें उतना अच्‍छा। मैं शायद किसी काम का नहीं, और फिर चिट्ठाकारी ने एक उम्र तय की है अब टेकीज के साथ साथ भाषा वाले भी योगदान देंगें और यह जाहिर है उनसे नए टूल्‍स विकसित करके नहीं होगा- भाषा से ही होगा जिसे फिकर का जिकर कहा गया।
हॉं उन्‍मुक्‍त Indic IME और मोजेला/फायरफाक्‍स की आपस में नहीं बनती, रवि जी से भी पहले इस पर चर्चा हुई। आगे से बिना जस्‍टीफाई किए पोस्‍ट करूंगा