कॉलेज का मास्टर हूँ और एक मायने में छुट्टियाँ चल रही हैं- एक मायने में इसलिए कि दरअसल चल तो रहे हैं इम्तिहान, पर पढ़ाई नहीं हो रही इसलिए पढ़ाना नहीं है। इसलिए जहाँ विद्यार्थी एक यातना से गुजर रहे हैं वहीं अध्यापक कभी कभी जाकर इम्तिहान में ड्यूटी बजाकर आ जाते हैं यानि इनविजीलेशन। आज भी था...चौकीदारी करने गए कोई नकल ना करे...आगे पीछे से न देखे। अक्सर लोगों को बहुत चाट काम लगता है..तीन घंटे चुपचाप। कुछ भी बोलो तो फुसफुसाकर...एक रहस्यमयी यातनामयी चुप्पी। पर ऐसा साथी लोग कहते हैं..मेरी राय फर्क है। मेरी प्रोफाइल पर नजर डालें वर्षों से वहॉं लिखा है कि अकेले चलना मुझे पसंद है और यही तो करना होता है इस चौकीदारी में। तीन घंटे मंद-मंद चलता रहता हूँ और दिमाग मंद-तेज चलता रहता है।
आज भी वही कर रहा था। जिस कॉलेज में हूँ वहाँ काफी विद्यार्थी मुसलमान हैं जिनमें कुछ छात्राएं बुर्के में भी आती हैं, अब इस पर अलग से नजर नहीं जाती, सामान्य ही लगता है, गणित, विज्ञान, साहित्य पढ़ती बुर्के वाली छात्राएं। रसोई और सौंदर्य पर अपनी राय हम व्यक्त कर चुके हैं ऐसे में जाहिर है कि वस्तुनिष्ठ रूप से हमारी राय बुर्के के पक्ष में नहीं है पर सुनीलजी की उस राय से भी सहमत हैं कि हम उनकी आजादी की परिभाषा तय नहीं कर सकते।
खैर...जिस कमरे में चौकीदारी करनी थी वह मुख्य प्रवेश के निकट था तभी एक परिचित का हाथ थामे एक छात्रा जिसने बुर्का पहना था लेकिन नकाब नहीं था वह गुजरी। उसके एकाध कदम आगे निकल जाने के बाद ध्यान दिया कि वह दरअसल नेत्रहीन थी। मैं हतप्रभ था...नहीं ऐसा नहीं कि नेत्रहीन विद्यार्थियों या बुर्के वाली छात्राओं को पढ़ाना मेरे लिए कोई नई बात है वरन इसलिए कि एक ही छात्रा को इन दो रूपों में देखना मुझे असहज बना रहा था। जो खुद देखने में असमर्थ है...देखना क्या है इससे अपरिचित है वह खुद को न दिखने देने के लिए इतना सजग क्यों। देखना बुरा भी हो सकता है..देखने से वंचित ये कैसे सोचता होगा। ओर भी बहुत कुछ इस दोहरे वंचन पर सोचा.... पर वह छात्रा क्या सोचती होगी यह नहीं पता। ....और भी, ये कि नेत्रहीन के लिए खुद को संभलना ही क्या कम था कि बुरका भी लाद लिया। धर्म वगैरह की क्रूरता भी मन में आयी।
फिर याद आया अपना नजदीकी मित्र नरेश। नेत्रहीन है, पढ़ता-पढ़ाता-लिखता है...कम्यूनिस्ट टाईप है पर आस्तिक है हमारे उलट। नजदीकी है इसलिए बिना आशंका के कह पाते हैं कि यार एक बात बताओ ये वैष्णो देवी जाकर क्या भाड़ भूंजते हो..क्या ‘दर्शन’ करते हो, जिधर मर्जी मुँह करके हाथ जोड़ लो....नेत्रहीन का तो हो गया दर्शन। पर उनका धर्म नाम की सत्ता संरचना में विकलांगता के हाशियाकरण की अपनी समझ है...हम भी जोर नहीं देते।
आज लगा कि ये भी बुरका ही तो है।
आज भी वही कर रहा था। जिस कॉलेज में हूँ वहाँ काफी विद्यार्थी मुसलमान हैं जिनमें कुछ छात्राएं बुर्के में भी आती हैं, अब इस पर अलग से नजर नहीं जाती, सामान्य ही लगता है, गणित, विज्ञान, साहित्य पढ़ती बुर्के वाली छात्राएं। रसोई और सौंदर्य पर अपनी राय हम व्यक्त कर चुके हैं ऐसे में जाहिर है कि वस्तुनिष्ठ रूप से हमारी राय बुर्के के पक्ष में नहीं है पर सुनीलजी की उस राय से भी सहमत हैं कि हम उनकी आजादी की परिभाषा तय नहीं कर सकते।
खैर...जिस कमरे में चौकीदारी करनी थी वह मुख्य प्रवेश के निकट था तभी एक परिचित का हाथ थामे एक छात्रा जिसने बुर्का पहना था लेकिन नकाब नहीं था वह गुजरी। उसके एकाध कदम आगे निकल जाने के बाद ध्यान दिया कि वह दरअसल नेत्रहीन थी। मैं हतप्रभ था...नहीं ऐसा नहीं कि नेत्रहीन विद्यार्थियों या बुर्के वाली छात्राओं को पढ़ाना मेरे लिए कोई नई बात है वरन इसलिए कि एक ही छात्रा को इन दो रूपों में देखना मुझे असहज बना रहा था। जो खुद देखने में असमर्थ है...देखना क्या है इससे अपरिचित है वह खुद को न दिखने देने के लिए इतना सजग क्यों। देखना बुरा भी हो सकता है..देखने से वंचित ये कैसे सोचता होगा। ओर भी बहुत कुछ इस दोहरे वंचन पर सोचा.... पर वह छात्रा क्या सोचती होगी यह नहीं पता। ....और भी, ये कि नेत्रहीन के लिए खुद को संभलना ही क्या कम था कि बुरका भी लाद लिया। धर्म वगैरह की क्रूरता भी मन में आयी।
फिर याद आया अपना नजदीकी मित्र नरेश। नेत्रहीन है, पढ़ता-पढ़ाता-लिखता है...कम्यूनिस्ट टाईप है पर आस्तिक है हमारे उलट। नजदीकी है इसलिए बिना आशंका के कह पाते हैं कि यार एक बात बताओ ये वैष्णो देवी जाकर क्या भाड़ भूंजते हो..क्या ‘दर्शन’ करते हो, जिधर मर्जी मुँह करके हाथ जोड़ लो....नेत्रहीन का तो हो गया दर्शन। पर उनका धर्म नाम की सत्ता संरचना में विकलांगता के हाशियाकरण की अपनी समझ है...हम भी जोर नहीं देते।
आज लगा कि ये भी बुरका ही तो है।
4 comments:
जहाँ पहले ही अँधरा है वहाँ काला पर्दा! शायद इसलिए कि अंदर की रोशनी से आँखें न चौंधिया जाए।
पर्दादारी पर एक से एक कहानियां हैं उर्दू साहित्य में। उर्दू साहित्य में जितना विद्रोह है, हिंदी में नहीं। बंद समाज के लोग भी अपने अपने तरीके से कई बार मुखर विद्रोह करते रहे हैं। ये विद्रोह का ही दृश्य है कि एक बुर्केवाली लड़की नकाब हटा कर किसी साथी का हाथ पकड़ कर कॉलेज गैलरी में धड़ल्ले से चहलकदमी करे। नरेश को मैं जानता हूं। देशकाल के नेहरु विहार वाले घर-दफ्तर में थोड़ा समय साथ-साथ गुज़ारा है। उसका सवाल और उसकी आस्तिकता सबसे सही है।
पढकर तिलोत्तमा मजूमदार का उपन्यास याद आया ।
सुन्दर वर्णन। अंन्धता ही तो है
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