Monday, April 02, 2007

प्रत्‍यक्षा की रसोई और कालिखजीवी की कुरूपता

पिछले कुछ अरसे में कई हार्ड डिस्‍क क्रैश हुईं, विन्‍डोज बदलीं, रीइंस्‍टाल की, कंप्‍यूटर अपग्रेड किया, ओपेरा व एक्‍सप्‍लोरर के बीच दोलन किया, और इन सब बदलावों के बीच बहुत सा डाटा पाया-खोया पर अगर नहीं बदला तो हमारे बुकमार्क या फेवरेट की सूची के दो नाम एक लाल्‍टू और दूसरा प्रत्‍यक्षा। दोनों का ही लेखन ताजगी भरा है हालांकि खुद मेरी ही तरह यह अनियमित किस्‍म का लेखन है! लाल्‍टू घोषित तौर पर बदलाव का लेखन करते हैं प्रत्‍यक्षा ऐसी किसी घोषणा के पचड़े तक मे नही पड़तीं, एकाध बार उनके अतीतमोह आदि पर हमने टिप्‍पणी की भी है पर कुल मिलाकर ईमानदारी वह चीज है उनकी चिट्ठाकारी की विशेषता है। यह भूमिका इसलिए कि मेरे शायद अतिउत्‍साह के कारण हाल की एक चिट्ठाई हिलोर के चपेटे में वे आ गईं।
यह अति उत्‍साह उपजा दो पोस्‍टों से। एक तो मनीषा ने सुंदरता के कीड़े का विमर्श मोहल्‍ले मे प्रस्‍तुत किया दूसरा नोटपैड ने अपने चिट्ठे पर रसोई की शोषणमंडनकारी संरचना पर विचार प्रस्‍तुत किए। बाद में एक प्रतिक्रियात्‍मक पोस्‍ट निर्मलआनंद पर अभय ने प्रस्‍तुत की। थोड़ा बहुत टिप्‍पणी द्वंद्व दोनों जगह पर हुआ मुझे अपने पक्ष के लिए बाकायदा कालिखजीवी घोषित किया और इस टिप्‍पणी को अभय ने निर्मल आनंदमयता के साथ इस जगह रहने दिया। खैर ये सब आश्‍चर्यजनक नहीं और मेरा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं कि सृजनशिल्‍पी ऐसा कर करा रहे होंगे पर विचार और व्‍यक्तिगत की रेखा को लुप्‍त करने जो जिद उन्‍होंने पाली, विचार के स्‍थान पर व्‍यक्तिगत के संवाद का केंद्र बनने का कारण वही है और यह आचार संहिंताओं से नहीं थमता, अब लीजिए यहाँ तो आचार संहिता के वकील ही ऐसा करने पर उतारू हैं।

अस्‍तु, वास्‍तविक जगत में भी जब भी मैने सुंदरता और रसोई को गैर बराबरी की संरचनाओं के रूप में देखे जाने के पक्ष में कहा है, उसे अतिवादी या उपहास योग्‍य ही माना गया है। विश्‍वविद्यालय में ‘कुरूपता के इतिहास’ का गुमटी-विमर्श पेटेंट मेरे नाम माना जाता है। हमें सदैव दिखाई दिया है कि जैसे जैसे शोषण संश्लिष्‍ट होता जाता है उसका स्‍वरूप सूक्ष्‍म होता जाता है और उसका स्‍थायित्‍व बढ़ता जाता है और
परिणति इस बात में होती है कि शोषण्‍कारी व्‍यवस्‍था इतनी संस्‍थाईकृत हो जाती है कि पीडित इसमें गौरवान्वित महसूस करना आरंभ करता है।

सौदर्य पर विचार करें। मेरी पत्‍नी कॉलेज शिक्षिका बनने से पहले दिल्‍ली एक बहुत प्रतिष्ठित स्‍कूल में शिक्षिका थीं जो एयरफोर्स वाईव्‍स ऐसोसिएशन द्वारा संचालित था और उसके कार्यक्रमों में हैरानी होती थी कि इन अधिकारियों की पत्नियाँ‍ लगभग सदैव इतनी ‘सुंदर’ क्‍यों होती हैं फिर अनुभव ने बताया कि IAS, IPS ही नहीं वरन हर किस्‍म के सामर्थ्‍यवान के पहलू में सुंदर बसता है, मनीषा ने इसकी और व्‍याख्‍या और उदाहरण पेश किए हैं कारण समझने के लिए किसी जहीनता की जरूरत नहीं है, शक्तिशाली चुनने की स्थिति में होता है और वह ‘सुंदर’ को चुनता है इस बात को पुनर्बलित करते हुए कि सौंदर्य स्‍त्रीत्‍व का वह गुण है जो जिसका मूल्‍य काफी ऊंचा है। यह समाजीकरण होते होते समाज का स्‍थाई मूल्‍य बन गया है। इसीलिए सामान्‍यत ऐसे कहा जाता सुनाई देता है कि सुंदर दिखने की इच्‍छा तो स्‍वाभाविक है। अब यूँ तो समाज महिलाओं को सत्‍ता पाने ही कितनी देता है पर जो कुछ उसके हिस्‍से में आता है उसका उनमें वितरण जिन आधारों पर होता है उनमें सबसे प्रमुख है सौंदर्य। जो लोग सौंदर्य के कथित बाहरी और आंतरिक होने की डाक्ट्रिन को प्रतिपादित करते हैं वे इस सत्‍ता संरचना का अतिक्रमण नहीं कर रहे होते वरन उलटे इसे और संश्लिष्‍ट बना रहे होते हैं, और सूक्ष्‍म और स्‍थाई।

दूसरी अपेक्षाकृत अधिक मूर्त संरचना वह है जिसका उल्‍लेख नोटपैड ने किया- यानि रसोई। पर पहले बेनाम शिल्‍पी महोदय समझें और फिर से अपने डाटा पर नजर डालें नोटपैड मेरी पत्‍नी नहीं हैं और न ही उनके अंतरजालीय व्‍यवहार पर मैं नजर गड़ाए रहता हूँ, वे जब स्‍कूली बच्‍ची थीं तब से उनसे इस और इस तरह के अन्‍य विषयों पर चर्चा होती रही है और अब इस विषय पर शोध करने के बाद हमसे कहीं अधिक समझ चुकने के बाद हमें सीधे-टेढ़े रास्‍ते से समझा देती हैं।
अस्‍तु, रसोई कार्य विभाजन का एकदम मूर्त ढांचा है, जिस प्रकार बृहत स्‍तर पर सत्‍ता का वितरण सौदर्य के आधार पर होता रहा है उसी प्रकार एक परिवार में यह सत्‍ता समेटकर रसोई तक सीमित हो जाती है इसीलिए जब एक से अधिक महिलाएं एक घर में हों तो उनका समस्‍त संघर्ष रसोई पर अधिकार को लेकर होता है और जिन परिवारिक मूल्‍यों को कई मित्र इतना पवित्र मानते हैं, उनमें भी रसोई का बंटवारा ही घर का बंटवारा माना जाता है। पहले वर्णित संश्‍लेषण और सूक्ष्‍मीकरण की प्रक्रिया से गुजरकर इसके साथ जोड़े जाते हैं संतुष्टि और गरिमा के मूल्‍य। अभय को इसमें कोई महक, सृजनशीलता...आदि दीखती है तो इसमें उन्‍हें दोष नहीं दिया जा सकता क्‍योंकि इस संरचना में विद्यमान शोषण के स्‍थायित्‍व का स्रोत यही आत्‍मसातीकरण ही तो है। फिर भी प्रत्‍यक्षा को जब यह रचनात्‍मकता की कसौटी दिखाई पड़ता है तो त्रासद तो है ही। इतना कहने के बाद भी व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे प्रत्‍यक्षा के इस तर्क की सराहना करनी पड़ेगी कि एक पुरुष किसी स्‍त्री पसंद को शोषण की किस्‍म बताए यह (मेल शोवेनिज्‍म़) अनुचित है ठीक शायद वैसे ही जैसे सुनील दीपक की एक पोस्‍ट में बुरके को अन्‍यों द्वारा शोषण का प्रतीक बताते हुए उन्‍हें हटाने पर विवश करने को अनुचित मानने का संकेत किया गया था। रसोई हो सकता है आपको शोषण संरचना न लगती हो पर रचनात्‍मकता, गंध, संतुष्टि, गरिमा, स्‍त्रीत्‍व जैसे वायवीय तर्क मत दीजिए । और हाँ- संतोष ने पूरी बनाई, अभय ने सब्‍जी गर्म की या मसिजीवी ने सालन छौंका इनकी वर्णनयोग्‍यता ही यह तय कर देती है ये इस संरचना का अतिक्रमण नहीं, केवल पुष्टिकरण है।

8 comments:

काकेश said...

रसोई का रस तीखा होते हुए भी स्वादिष्ट था ..इस पूरे विषय पर अभी भी बहस की गुंजाईश बनती है..लेकिन हमेशा की तरह यदि कुछ बेनाम शिल्पी गण इस बहस को भी कालिख-जीवी का कच्चा चिट्ठा ना कह दें तो..

बहस जारी रखें..

Pratyaksha said...

मैं हमेशा ब्लॉगीय पचडों से दूर भागती हूँ। और भी गम हैं ज़माने में ...., पर मसि जीवि आखिर आपने खींच ही लिया । :-)
सिर्फ रसोई को ही रचनात्मकता की कसौटी मनना उतना ही गलत है जितना ये कहना कि रसोई ही पुरुष द्वारा स्त्री को शोषित करने का आधार । दोनों के कई और ज्यादा उपयुक्त उदाहरण आपको मिल जायेंगे ।
जो कार्य विभाजन वर्षों से चला आ रहा है उसे हठात बदलना मुश्किल है । अभी संतोष और अभय और मसिजीवि रसोई में खाना पका रहे हैं , शायद आत्ममुग्धता के शिकार भी हो रहे हैं , देखो हम कितने लिबरल हैं , पर जैसे कार्य विभाजन का दायरा बदलता जायेगा , स्त्रियाँ बाहर निकलेंगी , पैसे कमाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करेंगी ,आत्मनिर्भर होंगी , खुद ब खुद मसिजीवि और अभय रसोई में हाथ बँटायेंगे , तब शायद यह कहने लायक बात भी न होगी कि वे घर के काम में हाथ बँटा रहे हैं ।

एक वक्त ,नोटपैड ने जो लिखा ,उसे उससे कहीं ज्यादा शिद्दत से महसूस किया करती थी । अब लगता है कि सिर्फ ये कहते रहने से कि पुरुष हमारा शोषण कर रहे हैं , कुछ नहीं होगा । स्त्रियों को आगे बढकर मानसिक मोर्चा संभालना है और कई बार बिना आक्रामक हुये भी कई बातें मनवाई जाती हैं । जहाँ तक घर के मसलों का सवाल है , आपसी समझदारी अगर है ऐसे कई मसले गौण हो जाते हैं ।

बहरहाल , आपने लेख बहुत परिष्कृत भाषा में लिखा । फिलहाल तो आपलोग (मतलब पुरुष लोग )रसोई में खाना पकाना शुरु करें । हम अभी इतने से ही खुश हुये जाते हैं । आगे का मंज़र सुहाना दिखता है ।

Srijan Shilpi said...

बंधु, अभी आपकी यह पोस्ट और इसमें दिए गए लिंक से अभय के चिट्ठे पर जाकर उस बेनाम टिप्पणी को देखा, जिसे कदाचित मेरे द्वारा की गई या कराई गई टिप्पणी समझा जा रहा है।

मैंने किसी भी परिस्थिति में आज तक किसी चिट्ठे पर बेनाम टिप्पणी नहीं की है। वैसे, हर कोई किसी के भी बारे में किसी भी तरह की धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र है। शायद आपके चिट्ठे पर यह मेरी आखिरी टिप्पणी होगी, चाहे मेरे बारे में आप कुछ भी लिखें।

सुजाता said...

pratyaksha जी ने कहा--"एक वक्त ,नोटपैड ने जो लिखा ,उसे उससे कहीं ज्यादा शिद्दत से महसूस किया करती थी । अब लगता है कि सिर्फ ये कहते रहने से कि पुरुष हमारा शोषण कर रहे हैं , कुछ नहीं होगा । "
1.मेरी पोस्ट पर अभय जी ने लिखा ,उनके यहां आपने भी कमेंट किया।तभी लिखना चाहती थी । रसोई को नष्ट करना -मतलब वाकई हथौडा लेकर बैठना नही । व्यंजना समझिये।

2.बात सिर्फ़ यह नही की पुरुष शोषण करता है। मेरे तो पती ही १० बजे लौटते है। क्या मदद मांगू।मुद्दा है कि यहा तो घर की अन्य स्त्रिया भी शोषणकर्ता है।सब स्त्रियो मे बहू नमक उपाधी मुझे ही प्राप्त है।

3.रसोई नश्ट करने की बात मानसिक मोर्चा ही तो है। इसी लिए तो इतनी हलचल हो गयी है। आप और मुझ सी स्त्रियो की संख्या कितनी है???५% ही। बाकी का क्या । इसलिए जब भी मौका लगे ऐसी मनसिक हलचल पदा करते रहो ।

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लग रहा है इसे पढ़ना। अभयजी की पोस्ट पर बेनाम टिप्पणी दुखद है।

ePandit said...

भैया ये हाई फाई किस्म की दार्शनिक पोस्टें हमें तो समझा आ नहीं रही लेकिन वो पोस्ट देखी। आपका और सृजन शिल्पी जी का क्या मामला है मालूम नहीं। पर गलत बात का विरोध किया ही जाना चाहिए। आप आखिर कैसे कह सकते हैं कि वह बेनाम टिप्पणी सृजनशिल्पी की है। वो तो आपसे और नोटपैड से दिल्ली में मिल भी चुके हैं वो कैसे लिख सकते थे कि नोटपैड आपकी पत्नी है।

वैसे मेरा मानना है कि इस तरह की बेनाम टिप्पणियों को तत्काल हटा देना चाहिए बजाय कि बेकार की गलतफमियाँ फैलें।

मसिजीवी said...

@ काकेश किसी भी संप्रेषण में व्‍याघात या noise रहती है उससे क्‍या विचलित होना। :)
@ प्रत्‍यक्षा यदि कहीं यह लगा कि यह मुझे 'पुरुष के द्वारा' स्‍त्री के शोषण ब्‍लैक व व्‍हाईट मामला लगता है तो शायद यह मेरे संप्रेषण की ही कमजोरी रही होगी, मुझे तो लगता है कि संश्लिष्‍ट हो जाने के बाद पितृसत्‍ता दोहन दोनों का करने लगती है, स्‍त्री को अधिक सहना पड़ता है क्‍योंकि पितृसत्‍ता की प्रकृति स्‍त्रीविरोधी है। अपना तो मानना है कि रसोई का काम इस सत्‍ता संरचना को सूक्ष्‍म बनाना भर है इसलिए रसोई ढहाने का मतलब भी बस इतना है कि इसके साथ रचनात्‍मकता, गंध, संतुष्टि, गरिमा, स्‍त्रीत्‍व, महानता, सार्थकता जैसे मूल्‍यों के नत्‍थीकरण को खत्‍म कर दें फिर रसोई घर का एक और कमरा भर हो जाएगी जैसे कि ड्रेसिंग रूम, बैडरूम या शौचालय होता है- एक इस्‍तेमाल की जगह भर।[वैसे एक ओर रसोई किस्‍म का समस्‍यामूलक कमरा पूजाघर भी है पर उस पर फिर कभी, और यकीन जानिए तब नोट पैड, नीलिमा भी हमारा विरोध कर रही होंगी :)]
@ नोटपैड व अनूप शुक्रिया
@ सृजन व श्रीश- मैंने खुद ही कहा -
'....मेरा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं कि सृजनशिल्‍पी ऐसा कर करा रहे होंगे '

और टिप्‍पणी कर्ता को बेनाम शिल्‍पी इसलिए कहा गया कि उनका प्रथम नाम (जो व्‍यक्तिगत पहचान का द्योतक होता है, और उसके बेनाम रहने के अधिकार के हम अब भी समर्थक हैं, कोई अभय अपने विवेक से क्‍यों उसे चिट्ठे पर रहने देते हैं इस पर फिर भी बात होनी चाहिए) तो बेनाम है किंतु प्रकृति में वे भी व्‍यक्तिगत से विचार के 'संहार' की वैसी ही जिद में जैसी...इसलिए द्वितीय नाम।

मैं सृजन को चिट्ठाकारी की प्रकृति पर अपनी समझ पिलाऊं यह उचित नहीं पर उनकी टिप्‍पणी वंचन की प्रतिज्ञा आत्‍मवंचन ही है क्‍योंकि हमारे जाने तो टिप्‍पणी पृष्‍ठ तो चिट्ठापाठक का ही है, अत: वे स्‍वतंत्र हैं, हमारी ओर से सदैव स्‍वागत रहेगा। रही बात अपने चिट्ठे पर अन्‍य के बारे में राय बनाने और लिखने की स्‍वतंत्रता की बात तो जाहिर है सृजन से बेहतर और कौन जानता है कि आप अपने चिट्ठे पर कुछ भी लिखने के लिए स्‍वतंत्र होते हैं, पर हमें तो यह आजादी कम दायित्‍व अधिक जान पड़ता है।

अफ़लातून said...

मसि लीक हो गयी ।