Tuesday, April 24, 2007

सागर अविनाश से नाराज हैं.....मसिजीवी क्‍या करे

नीलिमा को अपने शोध के विचार बॉंटने थे इसलिए उन्‍होंने घोषणा की, कि चिट्ठाजगत में शॉंति की आहट सुनाई दे रही है पर हमें मालूम है कि उन्‍हें मालूम है कि सब शॉंत नहीं है। वे दिखावा कर रही हैं कि सब शॉंत है और हम दिखावा कर रहे हैं कि हमें भी विश्‍वास है कि सब शाँत है। थोड़े थोड़े संकेत पाने के लिए नीचे के चित्र को देखिए-




ये बोल्‍ड अक्षरों में नारद प्रतिदावा क्‍यों ?



यूँ तो सामान्‍य सा विधिक रिवाज है पर यहॉं कुछ ज्‍यादा मुखर है। वैसे सृजन बेहतर जानें कि इस विधिक दावे की वैधता पर उनका यकीन कितना है पर अपने लिए तो ये संकेत भर है कि सब उतना ठीक नहीं।
ऐसे में अपने दिमाग में खलबली मच जाती है- अपन किसी के अग्निशमन दस्‍ते में नहीं हैं....कुछ को तो लगता होगा कि आग बुझाऊ.... छोड़ो जनाब आग लगाऊ हैं आप। हमें कोई सफाई नहीं देनी पर इतना जरूर लगता है कि इस सारे अविनाश-हिंदूबाजी-हिंदू विरोधी मसले पर अपनी एक निश्चित राय रही और उसके ही मद्देनजर हम वे कहते रहे जो हमने कहा और वह मौन भी जो हमने जहॉं भी धारण किया वह भी हमारा स्‍टैंड ही था। हम समीरजी की तरह अजातशत्रु नहीं हैं न ही हो सकते हैं। यह सब क्‍यों कहना पड़ रहा है- इसलिए कि हमें संकेत दिया गया कि अविनाश के माफीनामे वाली पोस्‍ट और उनपर बैन लगवा पाने में ‘असफलता’ में उन लोगों के नैतिक समर्थन का भी हाथ है जिन्‍होंने बैन विरोधी रवैया अपनाया। अब ये तो स्‍वीकार करना ही होगा कि हाँ हम बैन विरोधी रहे हैं, हैं।
तो बताया गया कि कुछ लोग इस असफलता से बेहद दु:खी हैं और.... जो तटस्‍थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। तो हम अपराधी भले ही हों तटस्‍थ कतई नहीं है। ये भी कहा गया कि नारद छोड़ने का मन कई लोग बना चुके हैं- ये निसंदेह अफसोसजनक है पर देर सवेर ऐसा होना तो है ही। इतने अधिक सोचने समझने लिखने वाले लोग एक साथ रहेंगे तो टकराव होंगे ही और इनकी अभिव्‍यक्ति इसी रूप में होनी तार्किक जान पड़ती है। इस सब के वावजूद.....हमें लगता है न केवल बहिष्‍कार, बैन वरन संन्‍यास, तुम्‍हारी ओर झांकूंगा भी नहीं, टिप्‍पणी नहीं करूंगा, नारद से ही चला जाऊंगा.. ये सब चिट्ठाकारी की परिघटनाएं नहीं होनी चाहिए। और अगर नाराजगी है भी तो ऐसे नाराज होऔ कि कल को फिर दोस्‍ती हो तो शर्मिंदगी न हो।
अब सवाल यह कि इस सारे मसले में मसिजीवी कहाँ हैं। ये जो चिट्ठाजगत के कितने पाकिस्‍तान खड़ा हुए उसमें उनका टोबा टेक सिंह कहाँ है। तो जबाव है कि अदीब को टीस भर मिलतीं हैं....बिन सागर चंद नाहर के चिट्ठाकारी का इतिहास वो नहीं रह जाता है जो उसे होना चाहिए... पर अविनाश को जबरिया धकेल बाहर करने की कोशिश तक से भी चिट्ठाकारी, चिट्ठाकारी नहीं रह जाती। अविनाश बहस चाहते हैं किंतु जिस अंदाज में वे ऐसा कर रहे थे वह आपत्तिजनक था जवाब भी बहुत संयत नहीं थे पर मित्रो चिट्ठाकारी का हनीमून पीरियड खत्‍म हो चुका है इसलिए टकराहट तो होगी ही, हिट्स के लिए होगी, नारद पर नियंत्रण के लिए होगी, गुटों के लिए होगी, अहम के लिए होगी। इसलिए हम किसी को नहीं मना रहे पर बस इतना कह रहे हैं कि जैसे औरंगजेब की ज्‍यादतियॉं एक शंहशाह की हकूमत की तरकीबें थीं न कि इस्‍लाम बनाम हिंदू। उसी तरह यहॉं की लड़ाइयॉं केवल ज्‍यादा जमीन घेरने की कवायद हैं उन्‍हें हिंदू विरोधी-हिंदू समर्थन की तरह न देखो- बाकी लड़ो भरसक लड़ो- पर वापसी का रास्‍ता खुला रखो। बाकी रहा नारद का प्रतिदावा- क्‍या फर्क पड़ता है, अगर नारद सिर्फ ऐग्रीगेटर है तो मोहल्‍ला पर अविनाश ही कौन खुद लिखते हैं वे भी एक प्रतिदावा कापी पेस्‍ट कर चेप देंगे मोहल्‍ले पर- लेखक खुद जिम्‍मेदार हैं हमें कुछ नहीं पता।

9 comments:

Anonymous said...

अगर यह सिर्फ़ ज़मीन घेरने की कवायद है,जैसा कि आपने लिखा है, तब तो यह और भी फ़ूहड़ कवायद जान पड़ती है.

Vikash said...

मुझे एक बात समझ नहीं आती कि ऐसे टकराव सिर्फ़ हिन्दी में ही क्युँ? (मेरे राजनीति ज्ञान की सीमा के चलते मेरा प्रश्न निरर्थक हो सकता है. यदि ऐसा है तो क्षमा करें)

Udan Tashtari said...

अरे, अजातशत्रु..?? कहाँ लिये जा रहे हो, महाराज.हमें लगा कि हम कोई बड़े राजनेता हो गये हैं और हमारी शान में पढ़ा जा रहा है कि आप मिट्टी में से माथे पर चंदन का तिलक बनने के लिए जन्‍में हैं।..धरा दिवस बीते हुए दो ही दिन हुए हैं..यहीं रहने दो भाई...काहे उंचाई पर ऊठा दे रहे हो..धरती पर खड़ा हूँ, अच्छा लगता है यहीं से सारा नजारा और निशाना भी ठीक सधता है. :)

रही आपके आलेख की बाकी बातें, तो आपने तो खुद ही बशीर बद्र साहब के माध्यम से कह दिया:

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।

अब हमारे कहने को तो कुछ है नहीं. सभी इस बात को समझें यही कामना है. कभी कुछ कहना होगा तो अपने तरीके से जरुर कहा जायेगा. :)

Kaul said...

अगर नारद सिर्फ ऐग्रीगेटर है तो मोहल्‍ला पर अविनाश ही कौन खुद लिखते हैं वे भी एक प्रतिदावा कापी पेस्‍ट कर चेप देंगे मोहल्‍ले पर- लेखक खुद जिम्‍मेदार हैं हमें कुछ नहीं पता।

मुश्किल यह है कि अविनाश ऐसा नहीं कर सकते। अविनाश के इंट्रो और उन के अपने इक्का दुक्का लेख अधिक भड़काऊ रहे हैं, बनिस्बत मोहल्ले के अतिथि लेखकों के। अविनाश नारद की तरह निष्पक्षता की चादर नहीं ओढ़ सकते। वे तस्वीर का दूसरा रुख देखने की हिम्मत नहीं रखते - अमिताभ-दिलीप जैसे मसलों को छोड़कर।

नारद का प्रतिदावा मेरे विचार में सही है। नारद ने हिन्दी चिट्ठाकारी को उंगली पकड़ कर चलाया है। अब जब हिन्दी चिट्ठाकारी जवान हो रही है तो उसे उस की हरकतों से किनारा करना ही होगा। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि नारद इतने नाती पोतों को संभाल नहीं पाएगा और रिटायर हो जाएगा, जब तक कि वह अपना स्वरूप न बदले।

Arun Arora said...

दोस्तो
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों ।
उडन तश्तरीजी ने(समीर भाई) ने सही कहा है पर आधा ,हम तो दुश्मनी करते ही नही यहा तो दोस्तो
के लिये ही जगह है और जगह ही जगह है पर बगल मे छुरी लिये दोस्तो से हम भी बिदक जाते है
मैने यह बार बार कहा है माफ़ी गलती की मिलति है जानते हुये बदत्मीजी करना और माफ़ी मागने के अन्दाज मे फ़िर धृष्ट्ता और हसी उडाने की कोशिश फ़िर ये तय शुदा नूरा कुशती कसम खा कर ईमान से कहो मै गलत हू मान लूगा पर ये तो मानते हो जो तटस्थ रहे...

Jitendra Chaudhary said...

समस्या सिर्फ़ इतनी है कि हम अभी उतने परिपक्व नही हुए है, ना बहस का मुद्दा उछालने वाले और ना ही बहस मे भाग लेने वाले। मुद्दों से सिमटकर बहस व्यक्तिगत आक्षेप मे बदल जाती है, जो नाराजगी, धमकी से होती हुई, दुश्मनी मे तब्दील होती है। लेकिन क्या यही इस बहस का मकसद है? अगर हाँ तो लानत है ऐसी बहस पर, नही करनी हमे ऐसी बहस।

वैसे देर सवेर, चिट्ठाकार भी खेमेबाजी मे उतर आएंगे, और अपने अपने स्टैंड ले लेंगे, जैसा कि दिख ही रहा है, लेकिन क्या यह जरूरी है कि नारद किसी खेमे का हिस्सा हो? आज अगर एक पक्ष की बात मानते है तो कल दूसरा पक्षपात का आक्षेप लगाएगा, जरुर लगाएगा। इसलिए बेहतर होगा कि नारद अपनी विचारधारा खुद तय करे, अपनी सीमाएं स्वयं निर्धारित करे। कोई दूसरा उस पर विचारधारा की चादर ना ओड़े। इसलिए हम चाहते है कि आप ब्लॉग पर जो भी गंध करना हो करिए, लेकिन नारद के कंधे पर रखकर बंदूक मत चलाइए।

मूल मुद्दों से भटककर, हिन्दू मुस्लिम वाली बहस पर ब्लॉगिंग करने से तो अच्छा है कि एक अच्छी किताब पढकर समय बिताया जाए। इस बहस का कोई नतीजा नही निकलना। कभी नही निकलना।
मान लीजिए एक पक्ष दूसरे से क्न्वींस हो भी जाता है तो क्या हो जाएगा? कोई समाज बदल जाएगा? इतिहास गवाह है, खेमों मे बटकर हमने अपनी शक्तियां गवाई है। दुख तो इस बात का है कि इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है।

मसिजीवी said...

कल एक लंबी टिप्‍पणी लिखी थी पर बुरा हो बिजली कंपनी का- सब मटिया गया। दोबारा अब समय मिला है।
चौपटस्‍वामीजी आप अभी किसी यूटोपिया में हैं- ये जमीन घेरने की कवायद है पर हमें फिर भी फूहड़ नहीं जान पड़ती- लोकतंत्र में ऐसा होता ही है, सुखद नहीं है लेकिन है ऐसा ही।
विकास ऐसा अंग्रेजी में भी होता है और अधिक फुहड़ता से होता है पर बस इतना है कि उनकी दुनिया का आकार इस बात की गुंजाइश देता है कि जिसकी बदबू आप को पसंद नहीं उसे नजरअंदाज कर दें फिर भी बहुत बड़ी दुनिया बची रहेगी..यहॉं अभी ऐसी स्थिति नहीं है।
अरे समी..ईईई..र बाबू आप तो इसे सच्‍ची मान बैठे...हम तो बोनाफाईड व्‍यग्‍य मार रह थे :) आपको अजातशत्रु फुरसतिया के कथन के संदर्भ में कहा था जहॉं उन्‍होने कहा..
' ...यह तो कहो समीरजी अजातुशत्रु टाइप के आइटम हैं वर्ना उनका कोई चाहने वाला कह सकता था- समीरजी को जूते की ही भाषा समझ में आती है। ..'
वैसे कभी कभी कहने का जोखिम ले लेना चाहिए।
नहीं अरूण तटस्‍थ नहीं है पर इसका मतलब इस या उस खेमे के पक्ष में रेहन राय भी नहीं है।
हॉं रमन कुल मिलाकर हमारी राय भी यही है कि ये बढ़ते आकार के स्‍वाभाविक अंतर्विरोध हैं
हॉं जितेंद्र हमें भी यह मान्‍यता संतुलित जान पड़ती है, दुभार्ग्‍य से अब ये जो अग्निशमन की भूमिका लेनी होती थी आपको- देर सवेर छोड़नी पड़ेगी। आरोप वारोप लगाने में किसी का क्‍या लगता है..लगाने दीजिए।

Anonymous said...

भइया! मसिजीवी, यूटोपिया में नहीं हूं पर व्यक्तिगत वासना और उसके समर्थनकारी किसी नरक से भी नहीं बोल रहा हूं.यथार्थवादी होने का अर्थ और है और प्रकृतवादी होने का और.प्रकृतवाद और पशुता में एक सीमा के बाद ज्यादा फ़र्क नहीं रह जाता है. मास्टर आदमी हो कर भी ऐसी कवायद फ़ूहड़ नहीं जान पड़ती है. कैसे सिनिकल मास्टर हो यार!

मसिजीवी said...

मित्र, इस पेशे में और अब इस उम्र में सिनीसिज्‍म की गुंजाइश बहुत नही बची फिर भ दिखी हो शायद मेरी ही कमी रही होगी। इस बहुलवादी समय में टकराते हितों के चलते हर व्‍यक्ति व वर्ग अपने लिए ज्‍यादा जगह चाहता है उसकी हरकतें इस उद्देश्‍य से प्रेरित होती हैं अक्‍सर। इसमें हमें फूहड़ता नहीं दिखती....अब नहीं दिखती। रामराज्‍य के यूटोपिया में भाई की जगह उसकी पादूकाओं से घेरी जाती थी लेकिन बाद में तो सुई बराबर भूमि के लिए भाई से युद्ध....

इस मुद्दे पर जितेंद्र की पोस्‍ट  
">और अब तो सृजन की भी
पोस्‍ट
आई है उससे कुछ और स्‍पष्‍ट होता है।