Thursday, October 30, 2014

प्रेम रहे अपनी जगह पर, परिवार किंतु लोचा ही है

इस माह हमने अपने विवाह को बीस साल पूरे हाने के अवसर पर ढेर शुभकामनाएं बटोरीं।  फेसबुक पोस्‍ट यूँ थी - 

बीस बरस हुए आज साथ रहते हुए।। हम कोई आदर्श युगल नहीं हैं, गनीमत है नहीं हैं। ये सीधा सादा कॉलेज रोमांस था जो बहुत थोड़े से ड्रामे के बाद शादी में तब्‍दील हुआ, आज के पैमानों पर कहें तो बोरिंग भी कह सकते हैं। असल कहानी उसके बाद शुरू होती है। मुझ जैसे औघड़ टाईप के साथ रहना निबाह ले जाना खुद मेरे लिए ही मुश्‍िकल होता पर नीलिमा इसे बखूबी कर रही है बीस सालों से। शादी का मसला जब मेरी मॉं के पास पहुँचा तो मुझे कहा गया अभी बच्‍चे हो (कुल जमा साढ़े इक्‍कीस था तब मैं) हम मना थोड़े ही कर रहे हैं जब थोड़ा सेटल हो जाओ कर लेना नीलिमा से ही शादी... हमने कहा कि शादी साथ साथ संघर्ष के लिए करना चाहते हैं, भेाग के लिए नहीं।
शायद ज्‍यादा आदर्शवादी कथन था पर सच है कि पिछले बीस सालों में सबसे आनंद के क्षण, स्‍मृतियों में उकरे हुए क्षण यही संघर्ष के क्षण हैं। एमए/एमफिल/पीएचडी/बेरोजगारी/नौकरी/ब्‍लॉगिंग सब साथ साथ। मेरा सामंती होना कोई ऐसा सीक्रेट नहीं है कि संधान करना पड़े न ही इसे स्‍वीकार कर लेना इसका समाधान है... पर थ्री-इडियट के डायलॉग ''अपने सबसे कमजोर स्‍टूडेंट का साथ मैं कभी नहीं छोड़ता'' की तर्ज पर नीलिमा ने न मेरीे सामंतीयता को नियति मानकर स्‍वीकार किया, न उसके लक्षणों को इंगित करना ही छोड़ा। हमारा प्रेम शायद एक-दूसरे के परिष्‍कार के लिए संघर्ष भर ही है। ढेर शिकायत हैं हमें एक दूसरे से, मुझे लगता है नीलिमा अपनी भाषा, क्षमता, अपेक्षा के साथ कम न्‍याय करती है... वो खिलखिलाकर कहती है हूँ तो तुमसे सुंदर न।।तुम्‍हें लगता है कि मुझे अपने व्‍यवहार में और डेमोक्रेटिक होने की जरूरत है मसलन बाथरूम में वायपर मारने, सामान सही जगह रखने का सलीका सीखने की जरूरत है। अगर मैं बीस साल पहले की तुलना में जरा सा भी बेहतर इंसान हूँ तो इसका पूरा श्रेय नीलिमा को है किंतु अगर वैसा ही ठस हूँ या उससे भी कमतर हो गया हूँ तो ये मेरी अपनी 'योग्‍यता और इनर्शिया' है। हमने साथ साथ संघर्ष में संस्‍थाओं पर सवाल उठाना सीखा है और ये भी कि असल जिंदगी में इन सवालों के उतरने में थोड़ा हेर फेर आगे पीछे होगा ही। धर्म ईश्‍वर नास्तिकता के सवालों तुम कम तल्‍ख हो मैं पैट्रआर्की के सवाल पर हल्‍का व धीमा रह जाता हूँ। यकीन बस इतना कि रास्‍ता हमारा ठीक है सच्‍चा भी शायद। केक, उपहार गहने वाला नाता हमारा है नहीं, हो भी कैसे दोनों की तनख्‍वाह एक ही ज्‍वाइंट एकाउंट में जाती है तुम्‍हारे ही पैसे से तुम्‍हें उपहार देकर काहे बजट खराब करना फिर पसंद भी तुम्‍हारी मुझसे बेहतर है। इसलिए प्‍यार जताना थोड़ा कठिन हो जाता है, पर सुनो मेरे साथ बीस साल रह जाने वाली को बड़ा वाला गैलेन्‍ट्री अवार्ड बनता है, सालगिरह मुबारक साथी।।
 प्रेम की सफाई देनी पड़े ये त्रासद है। पर साफ करना जरूरी है कि विवाह संस्‍था व परिवार संस्‍था के प्रति हमारी अनास्‍था बदस्‍तूर जारी है :)

Friday, October 03, 2014

दोस्‍तों से बाहर ही मिला जाए

बस्‍ती के बच्‍चे मानो साझा ही थे, कम से कम लगता तो ऐसा ही था। इसका मतलब मात्र इतना था कि बच्‍चों को डॉंटने या कभी कभी एकाध धौल जमा देने का हक केवल अपने बच्‍चों तक सीमित नहीं था। ऐसे में बच्‍चों को सम्‍मान से न मिलने, बोलने या उन्‍हें सम्‍मान न देने की जो खांटी भारतीय परंपरा है उसका पूरा सम्‍मान हमारी बस्‍ती में भी था। दो गांवों के बीच बसी ये बस्‍ती दिल्‍ली कर प‍हली खेप की कच्‍ची बस्‍ती थी। अब बच्‍चों के लिए आपस में एक दूसरे के माता-पिता से अपमानित होने की घटनाएं आम थीं पर फिर भी सहज नहीं थीं। यूँ किस बात पर सम्‍मानित और किस पर अपमानित महसूस करना है इसे लेकर हम बहुत स्‍पष्‍ट नहीं थे। ज्‍यादा खेलने, कम पढ़ने आदि को लेकर हुआ अपमान एक वैध कारण से हुआ अपमान था तथा सहज पच जाता था। मेरे लिए सबसे असहज स्थितियॉं वे होती थीं जब मेरे परिवार के लोग अक्‍सर मॉं मेरे दोस्‍तों को डॉंटतीं या ऐसा कुछ कहतीं जो उन्‍हें असहज बनाता। बाद में अक्‍सर मैं मॉं से लड़ता पी उनके लिए ये साधारण बात होती। वे चल्‍ल तू चुप रै... कह के मटिया देती। घटना के बाद मुझे इस दोस्‍त से मिलना असहज लगता तथा बहुत दिनों तक मैं उससे बचता फिरता। अक्‍सर बाद में पता लगता कि उसने इस अपमान को महसूस नहीं किया था या कम से कम वो ऐसा मुझसे कहता। वैसे ऐसी स्थितियों से बचने का सबसे आसान तरीका जो सामूहिक रूप से निकाला गया था वो था... घर की बजाए घर के बाहर गली में मिलना। मसलन आधी छुट्टी में खाने के लिए दोस्‍त के घर के लिएनिकले गली के नुक्‍कड़ पर उसे छोड़ा कि रुको मैं खाना खाकर आता हूँ... वो बेचारा भले ही भूखा हो, इत्‍मीनान से गली के बाहर इंतजार करेगा...बाद में मैं नेकर से हाथ पोंछता आकर मिलूंगा आगे चल देंगे। खैर दोस्‍त के घरवालों से खुद अपमानित होने से बचने तथा उससे भी ज्‍यादा दोस्‍तों को घर के लोगों के हाथों अपमानित होने की आशंका या भय ऐसा मिथकीकृत होकर मन में बैठ गया है कि मैं आजतक दोस्‍तों की अपने ही घर में उपस्थिति को लेकर सहज नहींहो पाया। अरसे तक घर अड्डा बना रहा दोस्‍त सहज भाव से आजे रहे, रुक भी जाते पर मैं लगातार चौकन्‍ना असहज ही बना रहा। इतना कि एक समय तो मेरे दोस्‍तों का घर में ही जुमला ही था, अरे अपना ही घर समझो। मेरा अपना पाठ है कि मेरे इसी भय के चलते नीलिमा भी कभी अपनी ससुराल में जम नहीं पाई.. मुझसे उसे घर में अकेला नहीं छोड़ा जाता था, लगातार आशंका रहती कि कहीं कोई कुछ कह न दे।
खैर ये तो चंद हफ्ते की बात रही फिर सड़क पर आ गए। उसके बाद भी ये भय बना रहा तथा आजतक है। शायद निराधार नहीं है कई प्‍यारे दोस्‍त बेचारे किनारे हो गए क्‍योंकि वे ऐसा अपमान सह नहीं पाए। या हो सकता ये भी केवल मेरे मन ने मान भर लिया हो। पर आज भी मेरे मन के भयों में सबसे भयानक प्रिय लोगों का अपने लोगों द्वारा अपमान का भय है इससे दोनों खो जाते हैं। सोचता हूँ दोस्‍तों से फिर बाहर ही मिला जाए।